मोदी सरकार के “ऑपरेशन मैत्री” की असलियत और नेपाल त्रासदी में पूँजीवादी मीडिया की घृणित भूमिका
अखिल
भूकम्प के बाद जिस रफ्तार से मोदी सरकार ने “ऑपरेशन मैत्री” के नाम पर नेपाल की बड़े स्तर पर मदद के लिए हाथ बढ़ाया, उसका भारतीय मीडिया द्वारा ख़ूब बख़ान किया जा रहा है। नेपाल त्रासदी के सन्दर्भ में मीडिया भारत को नेपाल के बड़े भाई की तरह पेश कर रहा है जो अपना दुख-दर्द भूलकर उसके “आँसू पोंछने” में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। लेकिन असलियत यह है कि मोदी सरकार मीडिया को एक छवि-निर्माता के रूप में इस्तेमाल कर रही है। दरअसल, मोदी सरकार द्वारा की जा रही मदद में भारतीय पूँजीपति वर्ग के आर्थिक हित छिपे हुए हैं। नेपाल की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का बड़ा हिस्सा आज भी भारत के ऊपर निर्भर है। नेपाल में गैस और तेल की सप्लाई भारत के ज़रिये ही होती है। तेज़़ प्रवाह वाली 6000 नदियों के स्रोत के तौर पर जल विद्युत परियोजनाओं के लिए नेपाल भारत के लिए बड़े महत्व का देश है। इन्हीं कारणों से नेपाल चीन के लिए भी महत्वपूर्ण देश है। चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना न्यू सिल्क रोड का नेपाल अहम हिस्सा है। इसी अहमियत की वजह से पिछले कुछ समय से अलग-अलग स्तर पर नेपाल की “मदद” को लेकर भारत-चीन में प्रतिस्पर्धा चल रही है। इस बार भी नेपाल की मदद के लिए भारत ने जितनी व्यग्रता दिखायी है उतनी ही चीन ने भी दिखायी है। दरअसल, दोनों देश नेपाल पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन कुछ वर्षों से भारत का प्रभाव नेपाल पर से कम हो गया है। वर्ष 2014 में चीन वहाँ का सबसे बड़ा विदेशी निवेशक बन चुका है। अभी पिछले महीने ही नेपाल सरकार ने चीन की एक निजी कम्पनी की 1.6 बिलियन डॉलर की जल विद्युत परियोजना को हरी झण्डी दी है। नेपाल की अहमियत को देखते हुए चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर भारतीय पूँजीपति वर्ग ख़ासा चिन्तित है। 2014 में मोदी की नेपाल यात्रा भी इसी चिन्ता का नतीजा थी। इस यात्रा को भी भारतीय मीडिया ने जमकर उछाला था। यात्रा के दौरान भारत की महत्वाकांक्षी जल विद्युत, परिवहन एवं संचार परियोजनाओं को लेकर भारत और नेपाल में कई समझौते हुए थे। इसी यात्रा के दौरान लम्बे समय से लटकी हुई 5600 मेगावाट क्षमता वाली पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना को नेपाल सरकार ने हरी झण्डी दी थी। इस बार भी यही वजह है कि मोदी सरकार ने नेपाल की मदद को लेकर इतनी दिलचस्पी दिखायी है। हालाँकि मीडिया मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत द्वारा किये जा रहे राहत कार्यों को मानवतावादी रंगत देने की कोशिश कर रहा है, असलियत में की जा रही मदद के पीछे भारतीय पूँजीपति वर्ग के आर्थिक हित काम कर रहे हैं।
जिस मीडिया का उपयोग मोदी सरकार नेपाल के साथ-साथ पूरी दुनिया के आगे अपनी अच्छी छवि बनाने में कर रही थी, उसी मीडिया की वजह से नेपाल के लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर उसकी ख़ूब छीछालेदर हो रही है। भूकम्प से पीड़ित लोगों के दुख-दर्द से मुँह फेरकर जिस तरीक़े से मोदी सरकार द्वारा की जा रही मदद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है, उसका गुणगान किया जा रहा है, उसे लेकर नेपाल के लोगों में ज़बरदस्त गुस्सा है। उनका आरोप है कि नेपाल त्रासदी के पीड़ितों को मदद पहुँचाने की बजाय भारतीय सेना अपने लोगों को निकालने में लगी रही। लोगों के अनुसार भारतीय सेना के हर हैलीकॉप्टर में पत्रकार बैठे मिलते थे जबकि होना तो यह चाहिए था कि उनकी जगह चिकित्साकर्मियों की टीमें बैठतीं। भारतीय सेना और मीडिया की भूमिका पर सवाल उठने का यह कोई पहला मामला नहीं है। अगर आपको याद हो, पिछले साल कश्मीर त्रासदी में बचाव कार्यों के समय भी भारतीय सेना और मीडिया पर बिल्कुल ऐसे ही सवाल उठे थे। उस समय भी यही आरोप लग रहा था कि भारतीय सेना अपने लोगों को निकालने में लगी हुई है जबकि मीडिया भारतीय सेना की तारीफ़ों के पुल बाँध रहा है। सोचने की बात है कि बचाव कार्यों के समय जो मीडिया भारतीय सेना की जेब में बैठा रहता है, वही मीडिया दमनकारी क़ानून अफ़स्पा के तहत भारतीय सेना द्वारा कश्मीर, असम, मणिपुर आदि राज्यों में जो कहर ढाया जा रहा है, उससे बिल्कुल आँखें मूँद लेता है।
दूसरा, नेपाल त्रासदी के सन्दर्भ में मीडियाकर्मियों ने जिस क़दर संवेदनहीनता का परिचय दिया है, उसने पीड़ित नेपाली जनता के जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। ज़रा मीडियाकर्मियों के सवालों को देखिये। एक महिला जिसका बेटा मलबे के नीचे दबकर मर गया था उससे मीडियाकर्मी पूछता है कि “आपको कैसा लग रहा है?” पूरी नेपाल त्रासदी को मीडिया ने सनसनीखेज़ धारावाहिक की तरह पेश किया है। ज़ाहिर है कि पूँजीवादी मीडिया, जिसका मक़सद ख़बरों को साबुन-तेल की तरह बेचकर मुनाफ़ा कमाना हो, उससे यही उम्मीद की जा सकती है।
मज़दूर बिगुल, मई 2015
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