भूकम्प से मची तबाही से पूँजीवाद पल्ला नहीं झाड़ सकता

अखिल कुमार

पिछले महीने की 25 तारीख़़ को आये प्रलयंकारी भूकम्प ने पूरे नेपाल को अपनी चपेट में ले लिया है। अब तक क़रीब 8,000 लोग अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठे हैं, लगभग 18,000 लोग ज़ख्मी और दसियों लाख लोग बेघर हो गये हैं। मरने वालों की संख्या थमने का नाम नहीं ले रही है। अभी भी कई लाशें मलबे के नीचे दबी हुई हैं। भूकम्प की तीव्रता कितनी अधिक थी इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नेपाल के देहात के 80 फ़ीसदी घर तो मलबे के ढेर में तब्दील हो चुके हैं। कई गाँवों का भूस्खलन की वजह से नामोनिशान मिट चुका है।

Nepal_People-clear_3280896bनेपाल में तबाही का जो भयानक मंज़र सामने आया है उसमें बचाव कार्य सम्बन्धी तैयारियों के प्रति सरकार की उदासीनता की बहुत बड़ी भूमिका है। दुनियाभर के देशों में से नेपाल 11वाँ ऐसा देश है जहाँ भूकम्प का ख़तरा सबसे अधिक है। लेकिन भूकम्प से बचाव सम्बन्धी तैयारी को लेकर यह दुनियाभर के देशों में से सबसे निचले पायदान पर है। भूकम्प आने से हफ्ता भर पहले अलग-अलग देशों के 50 वैज्ञानिक नेपाल की राजधानी काठमाण्डू आये थे। भूकम्प के आने का उन्हें पहले से अन्देशा था। सरकार को चेतावनी देना और भूकम्प से बचाव को लेकर की जाने वाली तैयारियों पर चर्चा करना ही उनके आने का मक़सद था। और यह कोई पहली चेतावनी भी नहीं थी। हिमालय पर्वत की तलहटी पर स्थित होने की वजह से नेपाल उन देशों में से एक है जहाँ भूकम्प का ख़तरा सबसे अधिक है। पिछले 205 सालों में नेपाल में आया यह 5वाँ बड़ा भूकम्प है, ख़ुद पृथ्वी बार-बार नेपाल को चेतावनी दे चुकी है। लेकिन इन चेतावनियों से नेपाल के शासकों के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी और तबाही से बचाव को लेकर कोई तैयारी नहीं की गयी।

ग़ौरतलब है कि नेपाल, दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक है। 240 साल के लम्बे अर्से तक इसने राजतन्त्र के निरंकुश शासन को झेला है। इस दौरान नेपाल के शासकों ने वहाँ की जनता के शोषण-उत्पीड़न के ज़रिये अपनी महल-मीनारें चमकाने और विलासिता-भरी ज़िन्दगी जीने के अलावा कुछ नहीं किया। ग़रीबी, भुखमरी और ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से परेशान जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में 10 साल तक बहादुराना जनयुद्ध लड़ा और 2008 में इस निरंकुश राजतन्त्र को पूरी तरह उखाड़ फेंका। जब तक माओवादियों का जनता से जुड़ाव रहा तब तक जनता में बदलाव की एक उम्मीद थी। लेकिन माओवादियों ने जनता की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए क्रान्ति का रास्ता छोड़ अपना ध्यान पूरी तरह सत्ता के गलियारों पर केन्द्रित कर लिया। इसके बाद से जनता में माओवादियों का आधार लगातार कम होता गया। लाल सेना का नेपाली फ़ौज़ में विलय किये जाने के बाद माओवादियों का जनता से रहा-सहा सम्पर्क भी टूट गया। हालत यह है कि आज ज़्यादातर माओवादी नेता जनता से दूर नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में रहते हैं और उनकी विलासिता भरी ज़िन्दगी के चर्चे वहाँ की मीडिया में अकसर होते रहते हैं। और तो और माओवादियों के एक धड़े ने तो पूँजीवादी पार्टी नेपाली कांग्रेस के साथ गलबहियाँ डाल लीं। नेपाली जनता की समस्याओं को भुलाकर वहाँ के राजनीतिक धड़े पिछले 7 साल से सत्ता में भागीदारी को लेकर खींचतान में लगे हैं। माओवादी अगर क्रान्ति का रास्ता छोड़ सत्ता के गलियारों में शामिल न हुए होते तो जनाधार के चलते इस त्रासदी के समय राहत कार्यों में वे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते थे। जो कि माओवादियों के जनाधार को और व्यापक बनाते हुए क्रान्ति को आगे बढ़ाने में भी मदद करता।

कुल-मिलाकर, 240 साल का निरंकुश राजतन्त्र और पिछले 7 वर्षों से छायी हुई राजनीतिक अस्थिरता ने नेपाल में सार्वजनिक सुविधाओं के विकास को बाधित किया है। यही कारण है कि आज जब भूकम्प के दौरान हुई तबाही में ज़ख्मी हुए लोगों को चिकित्सीय मदद की बेहद ज़रूरत है तब नेपाल में 1,00,000 लोगों के पीछे महज़ 21 डॉक्टर हैं। यही वजह है कि राहत कार्यों के लिए नेपाल को दूसरे देशों की तरफ़ ताकना पड़ रहा है।

तबाही को बढ़ाने में पूँजीवादी व्यवस्था की भूमिका

वैज्ञानिकों के बड़े हिस्से में यह आम सहमति है कि भूकम्प एक प्राकृतिक परिघटना है। वे भूकम्प के आने या इसकी तीव्रता बढ़ाने में “इंसानी गतिविधियों” (पूँजीवादी विकास) की भूमिका को नकारते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों का एक हिस्सा ऐसा भी है जो भूकम्प पर “इंसानी गतिविधियों” के प्रभाव को मानता है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसे सभी इलाक़ों में, जहाँ पर भूकम्प का ख़तरा सबसे अधिक है, पृथ्वी पर दबाव डालने वाली या उसकी आन्तरिक संरचना से छेड़छाड़ करने वाली गतिविधियों की भूकम्प लाने या उसकी तीव्रता बढ़ाने में प्रभावी भूमिका हो सकती है। उदाहरण के तौर पर 2008 में चीन के सिचुआन प्रान्त में आये भूकम्प, जिसमें 85,000 लोग मारे गये थे, में जिपिंगपू बाँध को दोषी माना जा रहा है। लेकिन इस बात पर वैज्ञानिकों में किसी तरह का विवाद नहीं है कि भूकम्प द्वारा मचायी गयी तबाही को बढ़ाने में “इंसानी गतिविधियों” की बहुत बड़ी भूमिका है।

April 25, 2015 - Kathmandu, Nepal - Buildings are damaged after earthquake in Kathmandu, Nepal, April 25, 2015. More than 720 people, including 256 in the capital of Kathmandu, have been killed in a 7.8 magnitude earthquake. A powerful earthquake struck Nepal Saturday, killing at least 1,180 people across a swath of four countries as the violently shaking earth collapsed houses, leveled centuries-old temples and triggered avalanches on Mt. Everest. It was the worst tremor to hit the poor South Asian nation in over 80 years. At least 1,130 people were confirmed dead across Nepal, according to the police. Another 34 were killed in India, 12 in Tibet and two in Bangladesh. Two Chinese citizens died in the Nepal-China border. The death toll is almost certain to rise, said deputy Inspector General of Police Komal Singh Bam. (Credit Image: © Stringer/Xinhua/ZUMA Wire)

पूँजीवादी व्यवस्था, जिसका एकमात्र मक़सद मुनाफ़ा कमाना होता है, असमान विकास को बढ़ावा देती है। एक तरफ़ जहाँ मेहनतकशों द्वारा पैदा की गयी धन-सम्पदा मुट्ठी-भर निठल्ले-काहिल लोगों के हाथों में इकट्ठी होती जाती है, वहीं दूसरी तरफ़ बहुसंख्यक जनता ग़रीबी में धकेली जाती रहती है। समस्त सुविधाएँ जैसे अच्छे घर, स्कूल, अस्पताल आदि सिर्फ़ अमीरों के लिए होती हैं। पूँजीवादी विकास का ही नतीजा है कि कुछ ही शहरों में नौकरी मिलने की सम्भावना के चलते नौकरी की तलाश में ज़्यादा से ज़्यादा आबादी अपने इलाक़ों से पलायन करके इन शहरों में इकट्ठी होती जाती है। नौकरी की तलाश में अपने घरों से पलायन करके आये लोगों के आवास की स्थितियाँ बेहद ख़राब होती हैं। जिन कोठरी-नुमा घरों में मेहनतकश आबादी को रहना पड़ता है, उन्हें बनाते समय किसी तरह के भूकम्प-निरोधक दिशानिर्देशों पर अमल नहीं किया जाता। यही वजह है कि भूकम्प या ऐसी ही किसी और आपदा के समय जान-माल का सबसे अधिक नुक़सान मेहनतकश आबादी का ही होता है। दूसरा, सभी बुनियादी सुविधाओं के कुछ ही शहरों तक सीमित रहने के चलते, ऐसी आपदाओं के समय देहात और दूर-दराज़ के लोगों के पास कोई आसरा नहीं होता, जिससे वे मदद की उम्मीद कर सकें। इसी असमान और अनियोजित विकास के कारण प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली तबाही कई गुणा बढ़ जाती है।

प्राकृतिक आपदाओं की सम्भावना और उनसे होने वाली तबाही को बढ़ाने में जो दूसरा पहलू काम करता है, वह है पूँजीवाद द्वारा प्रकृति का अन्धाधुँध तरीक़े से किया जा रहा दोहन। पूँजीवाद जिस क़दर प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहा है, इसके गम्भीर नतीजे आज हमारे सामने हैं। हर साल आने वाली बाढ़ों, भूस्खलनों आदि की संख्या पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ी है। मुनाफ़े की हवस के चलते पूँजीपति प्राकृतिक सम्पदाओं को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। बड़े पैमाने पर जल-जंगल-ज़मीन को उजाड़ा जा रहा है। नदियों के बहाव के साथ छेड़-छाड़ की जा रही है। उदाहरण के तौर पर चीन के 100 ऐसे बड़े बाँध हैं जो उसने ऐसे इलाक़ों में बनाये हैं जहाँ भूकम्प का ख़तरा सबसे अधिक है। नेपाल का ही उदाहरण लें तो जल विद्युत परियोजना के तहत त्रिशुली नदी पर चीन द्वारा जो बड़ा बाँध बनाया गया है, उसे भूकम्प से काफ़ी नुक़सान पहुँचा है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह महज़ संयोग था कि बाँध अभी शुरू नहीं हुआ था। लेकिन अगर उसमें पानी होता तो फुकुशिमा की तर्ज़ पर यहाँ भूकम्प के साथ-साथ सुनामी भी आती और हज़ारों नहीं बल्कि लाखों लोग मरते। जिस गति से भारत और चीन के पूँजीपतियों द्वारा अपने हितों के लिए नेपाल में जल विद्युत परियोजनाओं के तहत बड़े-बड़े बाँध बनाये जा रहे हैं, उसका नतीजा नेपाली जनता को बड़ी तबाही के रूप में झेलना पड़ेगा।

यह सही है कि प्राकृतिक आपदाओं से पूरी तरह निजात नहीं पाया जा सकता। यह मनुष्य और प्रकृति के बीच के संघर्ष का हिस्सा है। लेकिन मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था का ध्वंस करके और मेहनतकश का राज्य क़ायम करके समान और नियोजित विकास के ज़रिये प्राकृतिक आपदाओं की सम्भावना और इनसे होने वाली तबाही को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है। सही मायने में कहें तो आज पूँजीवाद के ख़ात्मे का प्रोजेक्ट मेहनत की लूट के ख़ात्मे के अलावा इस बात को भी निर्धारित करेगा कि पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बना रहे।

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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