नरेन्द्र मोदी का “स्वच्छ भारत अभियान” : जनता को मूर्ख बनाने की नयी नौटंकी
शिशिर
सरकार बनने के 5 महीनों के भीतर ही “मोदी की हवा” की हवा निकलनी शुरू हो गयी है। मोदी सरकार एक के बाद एक धड़ल्ले से जनविरोधी नीतियों को लागू कर रही है। पहले मज़दूरों के श्रम अधिकारों पर हमला, रेलवे का किराया बढ़ाया जाना, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की तैयारी, तमाम सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की तैयारी और साथ ही पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पीटने की खुली छूट। चुनावों के पहले महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त जनता के एक हिस्से ने हताशा में मोदी को वोट किया क्योंकि मीडिया और तमाम पूँजीवादी भोंपुओं द्वारा लोगों के कानों में लगातार यह मन्त्र फूँका जा रहा था कि मोदी सरकार जादूगर की तरह सभी समस्याओं का चुटकियों में समाधान कर देगी। लेकिन सरकार बनने के बाद के पाँच महीनों में ही जनता को यह लगने लगा है कि अगर शुरू में ही मोदी सरकार देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सामने दुम हिलाते हुए इस कदर लूट और तबाही की नीतियों को लागू कर चुकी है तो आने वाले पाँच वर्षों में क्या होगा? इन्हीं नीतियों के कारण मोदी सरकार हर बीतते दिन के साथ पूँजीपतियों की टट्टू के तौर पर लगातार बेनकाब हो रही है। इस स्थिति से निपटने के लिए मोदी सरकार दिखावटी तमाशे कर रही है। पहले तीर्थयात्रओं के लिए ट्रेनें चलाना, धार्मिक महोत्सवों पर अपने आपको किसी देवी-देवता के भक्त के रूप में पेश करना, नौकरशाही के निचले स्तरों से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की कुछ दिखावटी मुहिमों की शुरुआत करना, आदि और अब महात्मा गाँधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर को शुरू किया गया स्वच्छता अभियान!
इस स्वच्छता अभियान में तमाम नेताओं-नौकरशाहों को भी कहा गया कि एक दिन अपने ऑफिस के गलियारों और उसके आस-पास थोड़ी झाड़ू फेर दें। खुद मोदी ने भी एक दिन सारे मीडिया को बुलाकर सड़क पर थोड़ी झाड़ू हिला दी। हमारे देश का खाता-पीता मध्यवर्ग शायद पूरी दुनिया के सबसे मूर्ख और प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गों में गिना जायेगा जिसके पास एक चुनौटी भर भी राजनीतिक चेतना नहीं है। ज़ाहिर है कि इस तमाशे पर खाते-पीते मध्यवर्ग के तमाम लोग लहालोट हो रहे थे। लेकिन अगर हम इस स्वच्छता अभियान की बारीकियों पर निगाह डालें तो इसकी असलियत साफ़ हो जाती है।
सबसे पहली बात तो यह कि इस स्वच्छता अभियान को मोदी ने गाँधी के जन्मदिन पर शुरू किया और कहा कि गाँधी जी का साफ़-सफ़ाई पर बहुत ज़ोर था! गाँधीवादियों के तमाम कुनबे इस पर काफ़ी नाराज़ हुए और उन्होंने शोर मचाया कि नरेन्द्र मोदी संघ के व्यक्ति हैं जिसकी गाँधी की हत्या में सन्दिग्ध भूमिका थी और अब वह बेचारे गाँधीवादियों के एकमात्र प्रतीक को भी उनसे हथिया रहे हैं! कई संसदीय वामपंथियों और उदार वाम बुद्धिजीवियों ने भी गाँधीवादियों के सुर में सुर मिलाया और कहा कि बेचारे महात्मा गाँधी को नरेन्द्र मोदी हड़पने के चक्कर में है! लेकिन सच तो यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी गाँधी के प्रतीक को हड़प रहे हैं तो जहाँ नरेन्द्र मोदी की अवसरवादिता पर चर्चा होनी चाहिए वहीं इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि गाँधी के प्रतीक में भी कहीं यह सम्भावना तो नहीं है कि साम्प्रदायिक फासीवादी उसे अपने हिसाब से इस्तेमाल करने लायक बना लें? गाँधी एक मानवतावादी थे, यह सच है। लेकिन यह भी सच है कि गाँधी के विचारों में धार्मिक पुनरुत्थानवाद (पीछे की ओर जाने और पुराने के महिमा-मण्डन की प्रवृत्ति) के शक्तिशाली तत्व मौजूद हैं। गाँधी पश्चिमी बुर्जुआ मानवतावाद को ज्यों का त्यों नहीं अपनाते बल्कि उसका हिन्दूकरण भी करते हैं और उसे हिन्दू परम्पराओं के साथ मिश्रित भी करते हैं। जाति के प्रश्न पर गाँधी की सोच और साथ ही दलितों को ‘हरिजन’ नाम देना और उन्हें सेवा की वस्तु के तौर पर पेश करना उनके मानवतावादी, सुधारवादी धार्मिक पुनरुत्थानवाद के कारण ही था। यही कारण है कि तमाम गाँधीवादी, छद्म गाँधीवादी और अर्ध-गाँधीवादी (जैसे कि अण्णा हज़ारे) दलितों के प्रति इसी प्रकार का दृष्टिकोण रखते हैं। इसलिए मोदी अगर गाँधी के प्रतीक को चुन रहे हैं और उसे लगभग सफलतापूर्वक हड़प रहे हैं, तो इसका कुछ श्रेय स्वयं गाँधी की विचारधारा को भी दिया जाना चाहिए।
दूसरी ग़ौर करने वाली बात यह थी कि इस स्वच्छता अभियान को मोदी ने एक वाल्मीकि कॉलोनी से शुरू किया। इस प्रतीकात्मक क़दम के पीछे भी एक गहरी प्रतिक्रियावादी और पुनरुत्थानवादी सोच काम कर रही है। इसका सीधा अर्थ यह है कि साफ़-सफ़ाई का काम वाल्मीकि समुदाय का नैसर्गिक काम है और यह दिव्य विधान है कि यह कार्य दलित ही करेंगे। भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मोदी ने कहा था कि मैला ढोने का काम करने वाले सफाईकर्मियों को यह काम करने में “आध्यात्मिक अनुभव” होता है। मोदी की देखा-देखी तमाम प्रदेशों के भाजपाइयों, पार्षदों, विधायकों और सांसदों ने भी तुरन्त नकल की और अपने-अपने शहर की वाल्मीकि बस्तियों से सफ़ाई अभियान की शुरुआत कर दी। वास्तव में, यह मोदी सरकार और पूरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारतीय समाज के नक्शे से मेल खाता है। संघ की यही तो समझदारी है कि वर्ण व्यवस्था के मुताबिक श्रम का विभाजन होना चाहिए और दलितों को वही कार्य करना चाहिए जो वे पुश्तैनी तौर पर करते रहे हैं। बस सवर्णों द्वारा दलितों पर किये जाने वाले नंगे अत्याचार का वे खुले तौर पर समर्थन नहीं कर सकते हैं; इसलिए वे इस पूरी पदानुक्रम की व्यवस्था को सहज, सामान्य और नैसर्गिक बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
सच्चाई यह है कि अगर देश में कोई स्वच्छता अभियान चलाया जाना चाहिए तो उसकी शुरुआत सफ़ाई कर्मचारियों के जीवन और काम के हालात को बदलने के साथ की जानी चाहिए। सभी जानते हैं कि देश के तमाम हिस्सों में अभी भी दलित जातियों के सफ़ाई कर्मचारी सिर पर मैला ढोने को मजबूर हैं। सभी जानते हैं कि अगर सरकार पूँजी निवेश करे और साफ़-सफ़ाई के कार्य के लिए उन्नत तकनोलॉजी को ले आये तो इसकी कोई ज़रूरत नहीं रहेगी। लेकिन कोई भी सरकार इस काम में निवेश नहीं करती। सभी जानते हैं कि सफ़ाई कर्मचारियों को अभी भी ‘मैन-होल’ में घुसकर गन्दगी साफ़ करनी पड़ती है। इसके कारण हर वर्ष दर्जनों सफ़ाई कर्मचारियों की डूबकर या दम घुटने से मौत हो जाती है। क्या एक सच्चे सफ़ाई अभियान को सफाई कर्मचारियों की ज़िन्दगी के इन भयंकर हालात को बदलने से शुरुआत नहीं करनी चाहिए? यह भी सभी जानते हैं कि आज भी सरकारी विभागों में सफ़ाई के काम की रिक्तियाँ निकलती हैं तो उनमें आम तौर पर दलित जातियों के लोगों को ही नौकरियाँ दी जाती हैं। इस खुले भेदभाव और जातिवाद पर मोदी सरकार कुछ क्यों नहीं करती? आज भी देश में कुल पैदा होने वाले कचरे के बड़े हिस्से के लिए पूँजीपतियों का वर्ग ज़िम्मेदार है और साथ ही ज़िम्मेदार है उच्च मध्यवर्ग जो सामानों और वस्तुओं को बरबाद करने में अपनी शान समझता है। पूँजीपति अपने उद्योगों से निकलने वाले कचरे की सफ़ाई और उसके पुनर्चक्रण व संसाधन के लिए उपयुक्त इन्तज़ाम नहीं करते, जिसके कारण सभी औद्योगिक शहरों और मज़दूर बस्तियों के हालात नर्क के जैसे हैं। वहाँ आये दिन बीमारियाँ फैलती हैं, पानी दूषित हो चुका है, कचरा खुले आकाश के नीचे सड़ता रहता है। इन जगहों की सफ़ाई पर सरकारी विभाग व अधिकारी कोई ध्यान नहीं देते। उल्टे शहर के अमीर इलाकों में अमीरज़ादों द्वारा पैदा किये जाने वाले कचरे को भी ग़रीबों की बस्तियों के आस-पास लाकर ‘डम्प’ कर दिया जाता है। हर शहर के यही हालात हैं। क्या एक सच्चे सफ़ाई अभियान की शुरुआत ग़रीबों को एक साफ़-सुथरी रिहायश मुहैया कराने से नहीं होनी चाहिए? देश के पूँजीपति और खाया-अघाया मध्यवर्ग देश में पैदा होने वाले कचरे के बहुलांश के लिए ज़िम्मेदार है। लेकिन मोदी सरकार गन्दगी की ज़िम्मेदारी आम जनता पर डालने की कोशिश कर रही है, मानो सारी गन्दगी सड़क पर थूकने या सड़क के किनारे पेशाब करने से फैल रही हो। यह सच है कि शोषण, लूट, अशिक्षा, पिछड़ेपन की शिकार आम जनता अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन के कारण परिवेश की सफ़ाई के प्रति सजग नहीं है। लेकिन इसके लिए भी क्या इस देश में आज़ादी के बाद आयी पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था ज़िम्मेदार नहीं है, जिसने इस देश की जनता को आज़ादी के लगभग सात दशकों में भरपेट भोजन, स्तरीय शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा आदि मुहैया नहीं करायी?
मोदी के स्वच्छता अभियान की यही असलियत है। यह एक नौटंकी है जिससे कि जनता को बेवकूफ़ बनाया जा सके, जिसका कि मोदी सरकार के प्रतीकवाद से मोहभंग हो रहा है और जो अब यह समझ रही है कि मोदी सरकार पूँजीपतियों की टुकड़खोर है। वैसे तो हर पूँजीवादी सरकार ही पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का ही काम करती है, लेकिन पूँजीपतियों के सामने दुम हिलाने और उनके तलवे चाटने में मोदी ने अब तक के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। अगर पाँच महीने में ही मोदी सरकार की यह हालत है तो फिर आने वाले पाँच सालों में क्या होगा इसका अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि मोदी सरकार का यह प्रतीकवाद बहुत दिनों तक काम नहीं करने वाला और अन्ततः उसे अपने नंगे रूप में आना ही है और खुले व बर्बर दमन की नीतियों को अपनाना ही है। मोदी अपना दिखावटी स्वच्छता अभियान चलाकर ख़त्म कर लेगा। लेकिन जनता को भी अपने स्वच्छता अभियान की शुरुआत करनी होगी और भारत के नक्शे और फिर दुनिया के नक्शे से पूँजीवाद-रूपी गन्दगी को अपने बलिष्ठ हाथों से साफ़ करने की तैयारी करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2014
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