पूँजीवादी चुनाव की फूहड़ नौटंकी फिर शुरू
क्‍या करें मज़दूर और मेहनतकश ?

मेहनतकश साथियो,

सोलहवीं लोकसभा का चुनाव फिर सिर पर आ गया है। पिछले 62 साल से जारी यह चुनावी नौटंकी ज़्यादा से ज़्यादा गन्दी, घिनौनी, फूहड़ और जनविरोधी होती जा रही है। वर्तमान चुनाव अब तक का सबसे खर्चीला चुनाव है – इसमें कम से कम 30 हज़ार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। पिछले चुनाव के समय देश के कई बड़े अर्थशास्त्रियों ने जोड़कर बताया था कि बड़ी पार्टियों का एम.पी. का एक-एक प्रत्याशी अपने क्षेत्र में 25 करोड़ रुपये तक खर्च करता है। अब यह आँकड़ा और भी बढ़ गया होगा। अकेले नरेन्द्र मोदी के हवाई दौरों और महारैलियों में 2000 करोड़ रुपये का खर्च बताया जा रहा है। आख़िर कौन हैं ये जनता के दुश्मन? इस बात को आप भी जानते ही हैं। ये सब पूँजीपतियों के टट्टू हैं; और इनमें से बहुतेरे ख़ुद गुण्डे, लम्पट, हत्यारे, बलात्कारी, तस्कर और अपराधियों के सरगना हैं। पिछली लोकसभा में 300 से ज़्यादा करोड़पति जीतकर आये थे, बाकियों में भी दो-चार को छोड़ सभी असल में करोड़पति ही थे, बस कागज़ पर नहीं थे। जिस देश की आधी से ज़्यादा आबादी भयंकर ग़रीबी में जीती है, ऐसे हैं वहाँ के “जन प्रतिनिधि”!

संसद क्या है, इसे भी आप ख़ुद जानते हैं। क्या होता है वहाँ? मारपीट, जूतमपैजार, होहल्ला, पूँजीपतियों से पैसे लेकर सवाल पूछना और उन्हीं का हित साधने वाले क़ानून पास करना। क्या अब भी यह कोई बताने की बात है कि संसद एक सुअरबाड़ा है? और सरकार क्या है? पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी – चाहे इस पार्टी की हो या उस पार्टी की। देश के सारे पूँजीपति अलग-अलग पार्टियों को करोड़ो-करोड़ का चन्दा देने के लिए चुनावी ट्रस्ट बना चुके हैं। इसके अलावा बहुत बड़े पैमाने पर काला धन दिया जा रहा है। ‘आप’ जैसी पार्टियाँ जो सबसे ज़्यादा आदर्शवाद की बात करती हैं उनकी भी कलई खुल चुकी है; इनके पीछे विदेशी लुटेरों की साम्राज्यवादी पूँजी सक्रिय है। पूँजीपतियों की दोनों बड़ी संस्थाओं – फिक्की और सीआईआई में जाकर इनके नेताओं ने साफ कर दिया है कि वे खुलेआम नवउदारवादी नीतियों के समर्थक हैं, यानी वही नीतियाँ जो पिछले 23 वर्ष से देश के ग़रीबों पर कहर बरपा कर रही हैं, जिनके तहत मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ने की पूँजीपतियों को छूट दी गयी है, मेहनतकशों को उजाड़ा-बर्बाद किया जा रहा है। वैसे तो दिल्ली में महीने भर की अपनी सरकार में ही इन्होंने अपना असली मज़दूर-विरोधी चेहरा दिखा दिया था।

मज़दूरों के महान क्रान्तिकारी नेता लेनिन ने कहा था कि पूँजीवादी चुनाव का मतलब बस हर पाँच साल पर अपने लुटेरों को चुनने की आज़ादी है। अमेरिका के एक प्रसिद्ध लेखक थे मार्क ट्वेन जो ग़रीबों से हमदर्दी और पूँजीपतियों से नफ़रत करते थे; उनका कहना था कि अगर चुनाव से वाकई कोई बदलाव होने वाला होता तो पूँजीपति वर्ग बहुत पहले इस पर रोक लगा चुका होता। हमारे देश के महान इंक़लाबी शहीद भगतसिंह ने फाँसी का फन्दा चूमने से कुछ दिन पहले कहा था कि हमारी लड़ाई गोरी चमड़ी से नहीं, बल्कि जनता को लूटने वाले पूँजीपतियों से है, चाहे वे गोरे हों या काले। जब तक यह लूट चलती रहेगी, तब तक हमारी लड़ाई जारी रहेगी। हमारे लिए स्वराज्य का एक ही मतलब है – उत्पादन करने वाले, जीने का हर सामान पैदा करने वाले वर्गों के हाथों में सत्ता की बागडोर होना।

ऊपर कही गयी ज़्यादातर बातें आप ख़ुद जानते हैं। लेकिन आप मायूस हैं। क्योंकि इन हालात से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है, कोई उपाय दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन मेरे साथी, रास्ता निकालने से निकलता है, राहें बनाने से बनती हैं। आज भी रास्ता निकलेगा। हम एक साल या पाँच साल में कामयाब होने वाला कोई विकल्प नहीं पेश कर रहे हैं, आपको कोई चटपट नतीजा देने वाला नुस्खा नहीं दे रहे हैं। ऐसे सारे नुस्खे सिर्फ आँखों में धूल झोंकने का काम करते हैं।

इस चुनाव में आप किस पार्टी पर जाकर ठप्पा लगायें या न लगायें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 1952 से अब तक पूँजी की लूट के गन्दे, ख़ूनी खेल के आगे रंगीन रेशमी परदा खड़ा करके जनतंत्र का जो नाटक खेला जा रहा है वह भी अब बेहद गन्दा और अश्लील हो चुका है। अब सवाल इस नाटक के पूरे रंगमंच को ही उखाड़ फेंकने का है। मज़दूर वर्ग के पास वह क्रान्तिकारी शक्ति है जो इस काम को अंजाम दे सकती है। बेशक यह राह कुछ लम्बी होगी, लेकिन पूँजीवादी नकली जनतंत्र की जगह मज़दूरों और मेहनतकशों को अपना क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। उन्हें पूँजीवादी जनतंत्र का विकल्प खड़ा करने के एक लम्बे इंक़लाबी सफ़र पर चलना होगा। यह सफ़र लम्बा तो ज़रूर होगा लेकिन एक हज़ार मील लम्बे सफ़र की शुरुआत भी एक क़दम से ही तो होती है।

आप ख़ुद जानते हैं कि आज वोट डालने या न डालने से कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला – हम आपको क्या बतायें। आपको महान क्रान्तिकारी विचारक, मज़दूर राज का सपना देखने वाले भगतसिंह की याद दिलाते हुए उन्हीं की कही बात से हम अपनी बात ख़त्म करते हैं: फ्जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो वे किसी भी तरह की तब्दीली से हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की ज़रूरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को ग़लत रास्ते पर ले जाने में सफ़ल हो जाती हैं। इससे इन्सान की प्रति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ा की जाये, ताकि इन्सानियत की रूह में हरक़त पैदा हो।”

अगर आपको भी लगता है कि अपने दुश्मनों की इस चुनावी नौटंकी में ग़ुलामों की तरह हर पाँच साल पर ठप्पा मारते रहने के बजाय हमें अपनी इंक़लाबी राह ख़ुद बनानी चाहिए तो हमसे सम्पर्क करिये। आइये, मिल बैठें, नयी क्रान्तिकारी राह के खाके पर साथ मिलकर सोचें और अमल करें।

फिर चुनाव?

क्या अब भी कोई उम्मीद

बाकी बची है?

रोज़.रोज़ तुम अपनी ही

क़ब्र खोदते रहोगे

तो इस ज़ालिम हुकूमत की

क़ब्र कौन खोदेगा?

तय करो,

कौन सी राह?

इलेक्शन या इंक़लाब?

मेहनतकश साथियो! नौजवान दोस्तो!

सोचो!

46 सालों तक

चुनावी मदारियों से

उम्मीदें पालने के बजाय

यदि हमने इंक़लाब की राह चुनी होती

तो भगत सिंह के सपनों का भारत

आज एक हक़ीक़त होता।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ

बिगुल मज़दूर दस्‍ता

स्‍त्री मज़दूर संगठन

नौजवान भारत सभा

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन