ख़त्म करो पूँजी का राज, लड़ो बनाओ लोक-स्वराज!! 
इंक़लाब जि़न्दाबाद!!
ग़रीबी, महँगाई, भ्रष्टाचार से छुटकारे का रास्ता – चुनाव नहीं, इंक़लाब है!

एक बार फिर चुनावों का मौसम आया है। एक बार फिर हमें सरकार चलाने वालों का चुनाव करने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन हम चुनें किसे? हमारे सामने हैं साँपनाथ, नागनाथ, बिच्छुनाथ, रंगे सियार जैसे तमाम जानवर – जो हमें डसने-नोचने-खाने के लिए बेताब हैं। चुन लीजिए जिसे चुनना है, लेकिन चुनना इन्हीं में से है! यही है पूँजीवादी लोकतंत्र !

कांग्रेसी सरकार बने चाहे भाजपाई, क्षेत्रीय दलों और नक़ली लाल झण्डे वालों के साँझे मोर्चे की सरकार बने चाहे ”ईमानदारी” की क़समें खाने वाली ”आप” पार्टी की सरकार बने – सरकार तो जनता को लूटने-खसोटने वाले पूँजीपति धन्नासेठों की ही बननी है। इन चुनावों का खेल है ही ऐसा। लुटेरे पूँजीपति हमेशा जीतते हैं, जनता हमेशा हारती है। अंग्रेज़ों के जाने के बाद के पिछले 67 सालों में आज तक जितनी भी सरकारें बनती रही हैं बिना किसी अपवाद के अमीरों की यानी पूँजीपतियों की ही सरकारें थीं। और इस बार भी कुछ अलग नहीं होने वाला है। जिस समाज में कारख़ानों, खदानों, ज़मीनों, व्यापार, आदि तमाम आर्थिक संसाधनों और धन-दौलत पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो, उसमें चुनाव के ज़रिए जनता की सरकार बनने की उम्मीद पालना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। पूँजी के बलबूते ही चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। जनता से झूठे वादे करके, पूँजीवादी अख़बारों व टीवी चैनलों के ज़रिए अपने पक्ष में माहौल बनाकर, जनता को धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर बाँटकर, दंगे करवाकर, वोटरों को खऱीदकर, नशे बाँटकर, बूथों पर क़ब्ज़े करके आदि हथकण्डों द्वारा चुनाव जीते जाते हैं। इन चुनावों में भी यही कुछ हो रहा है और पूँजीवादी व्यवस्था में यही हो सकता है।

सभी चुनावी पार्टियों का एक ही मकसद – पूँजीवादी लूटतंत्र के दाँत और तीखे करो,

मज़दूरों-मेहनतकशों को जम कर लूटो और पूँजीपतियों को मालामाल करो!

चुनाव लडऩे वाली सभी पार्टियाँ कहने में ही अलग-अलग हैं। लेकिन ये सभी घोर जनविरोधी पूँजीवादी नीतियों पर एकमत हैं। आज देश के मज़दूर-मेहनतकश गऱीबी-बदहाली की जि़न्दगी इसलिए जी रहे हैं क्योंकि उनकी मेहनत की लूट से पूँजीपति मालामाल हैं। बेरोजग़ारी, रोजग़ार असुरक्षा, महँगाई, भुखमरी लगातार बढ़ती जा रही है। मज़दूरों-मेहनतकशों का गुज़ारा दिन-ब-दिन मुश्किल से मुश्किल होता जा रहा है। काम की जगहों पर मज़दूरों को न न्यूनतम मज़दूरी मिलती है, न फ़ण्ड-बोनस, न इ.एस.आई., न साप्ताहिक व अन्य छुट्टियाँ। कारख़ानों व अन्य काम की जगहों पर न तो हादसों से सुरक्षा के इंतज़ाम हैं, न हादसा होने पर मुआवज़ा ही मिलता है। हर जगह पूँजीपतियों का जंगल राज है। श्रम विभाग-पुलिस-प्रशासन-सरकार-अदालतों समेत पूरे सरकारी तंत्र में गऱीबों के साथ भयंकर अन्याय होता है। 1990 के बाद देश में पूँजीपतियों ने नई नीति लागू करवाई। यह नीति थी उदारीकरण-निजीकरण की नीति। इसका अर्थ है मज़ूदरों के श्रम अधिकार ख़त्म कर दिए जाएँ, मज़दूर गुलामों की तरह कारख़ानों में 12-14 घण्टे खटें। न काम के घण्टों की कोई सीमा रह जाए और न ही कोई न्यूनतम वेतन रह जाए। मालिक जब मर्जी मज़दूर को काम पर रखे और जब मर्जी काम से निकाल दे। ठेकेदारी-पीसरेट सिस्टम का बोलबाला हो। आज जो कारख़ानों और काम की अन्य जगहों पर हालात हैं, उसके बारे में मज़दूर जानते ही हैं। इसके साथ ही उदारीकरण-निजीकरण की इस नीति का मतलब है सरकार द्वारा जनता को भोजन, रिहायश, रोजग़ार, दवा-इलाज, शिक्षा, परिवहन आदि से सम्बन्धित दी जाने वाली सुविधाओं का ख़ात्मा हो। यानी सारे सरकारी उद्योग पूँजीपतियों के हवाले हों और उन्हें जनता को लूटकर बेहिसाब मुनाफ़े कमाने की आज़ादी हो। केन्द्र और राज्यों में बनीं विभिन्न सरकारों ने बहुत हद तक इस काम को निपटा दिया है। लेकिन पूँजीपतियों को अभी भी सब्र नहीं है। वे मज़दूरों-मेहनतकशों के बचे-खुचे हक़-अधिकार-सुविधाएँ भी छीन लेना चाहते हैं। ये खूँखार पूँजीवादी आर्थिक नीतियाँ काले क़ानूनों के इस्तेमाल, ज़ोर-जुल्म, लाठी-गोली, दमन के लागू नहीं की जा सकती थीं। ऐसा ही सभी सरकारों ने किया है। कांग्रेस से भी दस क़दम आगे बढ़कर भाजपा सरकारों ने इन आर्थिक नीतियों को कठोरता से लागू करके खुद को पूँजीपतियों का अच्छा सेवक साबित किया है। नरेन्द्र मोदी द्वारा किए गए गुजरात विकास का जो ढिण्डोरा पीटा जा रहा है वह मज़दूरों-मेहनतकशों की भयंकर लूट-खसोट और पूँजीपतियों के लिए बेहिसाब मुनाफ़ों की गारण्टी, जनता के विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने, जनता के जनवादी हक़-अधिकारों को दबा देने के अत्याचार-तंत्र विकसित करने के सिवा और कुछ नहीं है।

आम आदमी पार्टी पूँजीपतियों का एक नया रंगा सियार है। जिस क़दर जनता की हालत असहनीय हो चुकी है, पूँजीपति वर्ग जनाक्रोश की सम्भावित प्रचण्ड लहरों से बेहद भयभीत है। कांग्रेस, भाजपा, अकाली दल, सपा, बसपा, भाकपा-माकपा जैसी पुरानी पूँजीवादी पार्टियों के अमीरपरस्त व गऱीब विरोधी चरित्र से जनता बखूबी वा$िकफ़ हो चुकी है। पूँजीपति वर्ग जनता के गुस्से को आसान रास्ते से निकालने की साजि़शें रच रहा है। नई बनी ‘आम आदमी पार्टी ऐसी ही एक साजि़श है। आम आदमी पार्टी पूँजीपति वर्ग के भ्रष्टाचार के खि़लाफ़, मज़दूरों के श्रम अधिकारों को लागू करवाने की और पूँजीपतियों के खि़लाफ़ मज़दूरों को एकजुट करने की कोई बात नहीं करती। केजरीवाल की यह पार्टी सरकार द्वारा उद्योग चलाने के ख़िलाफ़ है, और तमाम इंस्पेक्टरों द्वारा पूँजीपतियों पर छापामारी के भी ख़िलाफ़ है। यह पार्टी सिर्फ़ उस भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ बोलती है जिससे पूँजीपति परेशान हैं, लेकिन पूँजीपतियों द्वारा श्रम क़ानूनों के उल्लंघन जैसे महाभ्रष्टाचार के खि़लाफ़ नहीं है जिससे कि जनता परेशान है। दिल्ली में सरकार चलाने के दौरान ‘आप’ ने मज़दूरों की ठेकेदारी प्रथा ख़त्म करने जैसी माँगों को मानने से साफ़ इनकार कर दिया था। जनता से किए वादों से यह पार्टी साफ़ मुकर गई थी। कुछ वादे पूरे करने का महज दिखावा किया गया।

बात साफ़ है कि हम मोदी, राहुल, केजरीवाल या अन्य किसी भी चुनावी मदारी को जिताकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुँचा दें सभी ने ही हमारे अधिकारों को कुचलने और पूँजीपतियों की सेवा का काम ही करना है। मज़दूरों-मेहनतकशों को तो सभी चुनावी पार्टियों और नेताओं के शोषणकारी चरित्र की पहचान करनी होगी। इनसे भलाई की कोई भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। हमें अपने क्रान्तिकारी संगठन खड़े करने होंगे। न सिर्फ अपने क़ानूनी व अन्य अधिकारों को हासिल करने की लड़ाई लडऩी होगी, बल्कि इतनी एकजुट ताक़त जुटानी होगी कि इस पूँजीवादी व्यवस्था को ही ख़त्म किया जा सके। यानी कारख़ानों, खदानों, व्यापार, परिवहन, आदि सब पर से पूँजीपतियों के निजी मालिकाने का ख़ात्मा व इसकी जगह पर मज़दूरों-मेहनतकशों का नियंत्रण। और यह मज़दूरों का राज क़ायम किए बिना सम्भव नहीं। मज़दूरों-मेहनतकशों का राज संसद-विधानसभा के चुनावों से कभी नहीं आ सकता। इसके लिए तो जनक्रान्ति करनी होगी। एकजुट बग़ावत खड़ी करनी होगी। लूट-शोषण-अन्याय से हमारे छुटकारे का हथियार चुनाव नहीं बल्कि क्रान्ति है! पूँजीवादी जनतंत्र मुर्दाबाद! इंक़लाब जि़न्दाबाद!!

बिगुल मज़दूर दस्ता

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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