मई दिवस पर मेहनतकशों का आह्वान
मज़दूर आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण के लिए आगे बढ़ो! टुकड़ों-रियायतों के लिए नहीं, समूची आज़ादी के लिए लड़ो!
सम्पादकीय
देश के करोड़ों-करोड़ मेहनतकशों के लिए हर साल की तरह इस बार भी मई दिवस आया और चला गया। इसकी वजह यह है कि मक्कार, फ़रेबी, नक़ली मज़दूर नेताओं ने इसे एक अनुष्ठान बना दिया है जिसमें मज़दूरों की भारी आबादी की न तो कोई भागीदारी होती है और न ही उन्हें इसकी क्रान्तिकारी परम्परा की कोई जानकारी है। मई दिवस वास्तव में मज़दूर वर्ग के उन शहीदों की क़ुर्बानियों को याद करने का एक मौक़ा है, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी देकर पूरी दुनिया के मज़दूरों को यह सन्देश दिया था कि उन्हें अलग-अलग पेशों और कारख़ानों में बँटे-बिखरे रहकर महज़ अपनी पगार बढ़ाने के लिए लड़ने के बजाय एक वर्ग के रूप में एकजुट होकर अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा। काम के घण्टे कम करने की माँग उस समय की सर्वोपरि राजनीतिक माँग थी।
इस बार भी मई दिवस पर तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में, सरकारी-गैरसरकारी प्रतिष्ठानों में जगह-जगह ‘सीटू’, ‘एटक’ व ‘ऐक्टू’ जैसी संशोधनवादी यूनियनों ने राजनीतिक कर्मकाण्डों का आयोजन किया। हमेशा की तरह मज़दूरों को छोटे-मोटे टुकड़े दिलाने के अपने कारनामों के बखान तथा कुछ और टुकड़े दिलाने के वायदे किये गये। मई दिवस के शहीदों के सपने कैसे पूरे होंगे? पूँजी के बर्बर शोषण-उत्पीड़न से मज़दूर वर्ग को आज़ादी कैसे मिलेगी? इतिहास ने मज़दूर वर्ग के कन्धों पर कौन-सी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियाँ सौंपी हैं। इन सवालों पर चर्चा की उम्मीद इन संशोधनवादी घाघों से तो की ही नहीं जा सकती। पूँजीवाद-साम्राज्यवाद से मज़दूर वर्ग की मुक्ति का रास्ता क्या है? इस सवाल पर वे गोलमोल बात करते हुए संघर्ष करने के लिए ललकारते हैं जिसका अर्थ होता है चुनावी वामपन्थी पार्टियों को संसद-विधानसभाओं में अधिक से अधिक सीटें दिलाना। इन ग़द्दारों ने मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, ताकि मज़दूर वर्ग उससे सच्ची प्रेरणा न ले सके, वर्तमान की चुनौतियों के आगे घुटने टेक दे और भविष्य के सपने न देख सके।
मई दिवस दुनिया के मेहनतकशों का त्योहार है। एक ऐसा दिन ‘जब तमाम देशों के मेहनतकश, वर्ग-चेतना की दुनिया में प्रवेश करने का जश्न मनाते हैं, इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण और दमन को ख़त्म करने के लिए अपनी लड़ाकू एकजुटता का इज़हार करते हैं, करोड़ों मेहनतकशों को भूख और ग़रीबी की ज़िन्दगी से आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा करते हैं।’ इन शब्दों में मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी शिक्षक और नेता लेनिन ने मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत और उसके महत्व को रेखांकित किया था।
मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत को आगे बढ़ाने का अर्थ यह नहीं कि आज हम फिर से उन्हीं नारों और तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों को फिर से दुहरायें जिन्हें शिकागो के मज़दूर साथियों ने बुलन्द किया था। बेशक आज ‘काम के घण्टे आठ करो’ का नारा नये सिरे से प्रासंगिक हो उठा है। आज ‘आठ घण्टे काम’ का क़ानून तो बना हुआ है कारखानों में मज़दूरों से 12-14 घण्टे काम कराया जा रहा है। अकूत कुर्बानियों से हासिल अन्य तमाम जनवादी अधिकारों को भी छीनते चले जाने का सिलसिला ज़ोरों पर है। मज़दूरों के जनवादी अधिकारों को फिर से हासिल करने के लिए संघर्ष संगठित करना मज़दूर आन्दोलन का फ़ौरी राजनीतिक कार्यभार है। मगर फ़ौरी आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों को संगठित करते हुए कभी भी मज़दूर आन्दोलन के दूरगामी लक्ष्य को आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहिए। मज़दूर आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य है इन्सान द्वारा इन्सान के शोषण का पूरी तरह खात्मा, मानवता की सच्ची आज़ादी। आज की दुनिया में यह लक्ष्य केवल पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी नयी सर्वहारा क्रान्तियों के ज़रिये ही हासिल किया जा सकता है। फ़ौरी संघर्षों में नेतृत्व देते हुए मज़दूरों के क्रान्तिकारी हिरावलों को आम मज़दूरों को निरन्तर दूरगामी लक्ष्यों के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करना चाहिए। आम मज़दूरों को पूरी स्पष्टता के साथ यह समझाना होगा कि जब तक पूँजीवाद कायम रहेगा तब तक मज़दूरी या सुविधाओं में कोई भी बढ़ोत्तरी उन्हें केवल थोड़ी राहत ही पहुँचा सकती है। उन्हें अभाव व ज़िल्लत की ज़िन्दगी से पूरी आज़ादी तभी मिलेगी जब वे संगठित होकर पूँजीवाद का खात्मा करेंगे और ‘उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे के स्वयं मालिक बनेंगे।’ केवल मज़दूर क्रान्ति ही स्वयं मज़दूर वर्ग को और समूची मानवता को सच्ची आज़ादी दे सकती है।
पिछले बीस वर्षों के दौरान उत्पादन के ढाँचों में बदलाव करके पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग की संगठित शक्ति को बिखराने में काफ़ी हद तक कामयाब हुआ है। कारखानों में अधिकांश काम अब ठेका, दिहाड़ी या कैजुअल मज़दूरों से कराना आम चलन बन चुका है। हमारे देश में आज कुल मज़दूर आबादी का लगभग 95 प्रतिशत तथाकथित असंगठित क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। मज़दूर वर्ग के इस भौतिक बिखराव ने उसकी चेतना पर भी काफ़ी नकारात्मक असर डाला है। वह अपनी ताक़त को बँटा हुआ और पूँजीपति वर्ग की संगठित शक्ति के सामने खुद को कमज़ोर, असहाय और निरुपाय महसूस कर रहा है। आज मज़दूर आबादी को संगठित करने की व्यावहारिक चुनौतियाँ बढ़ गयी हैं और संगठन के फराने प्रचलित तरीकों और रूपों से काम नहीं चलने वाला है। लेकिन कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं हो सकती कि बुर्जुआ वर्ग द्वारा उपस्थित की गयी चुनौती के सामने सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हाथ खड़े कर दें। हमें मज़दूर वर्ग को संगठित करने के नये रूपों और तरीक़ों को ईजाद करना होगा। दरअसल कारख़ाना-केन्द्रित ट्रेड यूनियनवाद से पीछा छुड़ाये बिना आज मज़दूर आन्दोलन को नये सिरे से संगठित ही नहीं किया जा सकता। मज़दूरों को संगठित करने की तात्कालिक व्यावहारिक चुनौतियों से निपटना मज़दूरों के क्रान्तिकारी हरावलों का काम है। ज़मीनी संगठनकर्ताओं को पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होकर सर्जनात्मक तरीके से संगठन के नये-नये रूप और तरीक़े खोज निकालने होंगे।
अगर आज की परिस्थिति पर थोड़ा गहराई से विचार किया जाये तो हमें वे छुपी हुई क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ नज़र आयेंगी जो आँखों से ओझल होने पर सामने मौजूद फ़ौरी चुनौतियाँ ज्यादा कठिन लगने लगती हैं। आज के दौर में औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूर वर्ग के काम के जो हालात हैं और पूँजीपतियों का समूचा गिरोह, उनकी सरकारें और पुलिस-क़ानून-अदालतें जिस तरह उसके ऊपर एकजुट होकर हमले कर रही हैं उससे मज़दूर वर्ग स्वयं यह सीखता जा रहा है कि उसकी लड़ाई अलग-अलग पूँजीपतियों से नहीं बल्कि समूची व्यवस्था से है। यह ज़मीनी सच्चाई अर्थवाद के आधार को अपनेआप ही कमज़ोर बना रही है और मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना के उन्नत होने के लिए अनुकूल ज़मीन मुहैया करा रही है। इसकी सही पहचान करना और इस आधार पर मज़दूर आबादी के बीच घनीभूत एवं व्यापक राजनीतिक प्रचार की कार्रवाइयाँ संचालित करना ज़रूरी है। मज़दूरों की व्यापक आबादी को यह भी बताया जाना चाहिए कि असेम्बली लाइन का बिखराव आज भले ही मज़दूरों को संगठित करने में बाधक है लेकिन दूरगामी तौर पर यह फ़ायदेमन्द है। यह मज़दूर वर्ग की ज्यादा व्यापक एकता का आधार तैयार कर रहा है और कारख़ाना-केन्द्रित और पेशागत संकुचित मनोवृत्ति को दूर करने में भी मददगार साबित होगा। इसने मज़दूर वर्ग की विश्वव्यापी एकजुटता का आधार भी मज़बूत किया है। अब ‘दुनिया के मज़दूरो, एक हो!’ का विश्व ऐतिहासिक नारा एक व्यावहारिक नारे की ओर बढ़ता जा रहा है।
मज़दूर वर्ग को संगठित करने की तमाम वस्तुगत नयी चुनौतियों के साथ-साथ क्रान्तिकारी हरावलों के सामने एक मनोगत चुनौती भी आम तौर पर सामने आती है। मज़दूरों के बीच जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठनकर्ता, जो शुरुआती दौरों में अधिकांशत: मध्यवर्गीय सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, अपने वर्गीय विचारधारात्मक विचलनों-भटकावों का शिकार होकर अर्थवाद, उदारतावाद और लोकरंजकतावाद के गड्ढे में जा गिरते हैं। उनके वर्गीय जड़-संस्कारों के चलते मज़दूरों की तात्कालिक आर्थिक लड़ाइयाँ या ट्रेड यूनियन क़वायदें राजनीतिक कार्य का स्थानापन्न बन जाती हैं। ये संगठनकर्ता भूल जाते हैं कि वे मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावल हैं और आम मज़दूरों के तात्कालिक आर्थिक हितों के दबावों के आगे घुटने टेक देते हैं। उनका सर्वहारा मानवतावाद बुर्जुआ मानवतावाद में बदल जाता है और क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यों का स्थान अर्थवादी-सुधारवादी कदमताल ले लेते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ऐसे संगठनकर्ता अपनी इस रूटीनी कवायदों में इस क़दर मगन हो जाते हैं उन्हें यही मज़दूरों के बीच असली क्रान्तिकारी कार्य लगने लगता है और क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्य लफ्फ़ाज़ी लगने लगती है। इस आत्मगत चुनौती को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। देश का क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन आज जिस शुरुआती मुकाम पर खड़ा है वहाँ इन भटकावों के लिए बेहद अनुकूल ज़मीन मौजूद है। मज़दूरों के क्रान्तिकारी हिरावलों का जो समूह इस चुनौती की भी ठीक से पहचान कर पायेगा और सही क्रान्तिकारी सांगठनिक पद्धति से उसका मुकाबला करेगा वही मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्य को आगे बढ़ाते हुए व्यावहारिक रूप से संगठित कर पायेगा।
अपने असहनीय हालात के खिलाफ़ आज देश में जगह-जगह मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त संघर्ष भी उठ रहे हैं। इन संघर्षों में हस्तक्षेप करके उन्हें एक क्रान्तिकारी दिशा देने की कोशिश करने के बजाय अनेक क्रान्तिकारी संगठनों में इस स्वत:स्फूर्तता का जश्न मनाने की प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। इसके विरुद्ध संघर्ष करना भी बेहद ज़रूरी है।
आज पूँजीवाद के बढ़ते संकट के दौर में अपना मुनाफ़ा बनाये रखने के लिए पूँजीपति मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ डाल रहे हैं। लेकिन मज़दूर भी अब चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में सन्नाटा टूट रहा है। मज़दूर वर्ग नये सिरे से जाग रहा है। ऐसे में मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावलों के सामने मज़दूर आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण में जी-जान से जुट जाने की चुनौती है। आइये, हम इस चुनौती को स्वीकार करें। मई दिवस के क्रान्तिकारी शहीदों को याद करते हुए आइये, ऊँची आवाज़ में यह विश्व ऐतिहासिक नारा बुलन्द करें — दुनिया के मज़दूरो, एक हो!
मज़दूर बिगुल, मई 2012
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन