भारतीय राज्यसत्ता द्वारा उत्तर-पूर्व में आफ़्स्पा वाले क्षेत्रों को कम करने के मायने

– अविनाश

गुरुवार, 31 मार्च को, जैसे ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ट्विटर पर चमक-दमक और इवेण्ट बनाने की शैली में घोषणा की कि मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर में आफ़्स्पा (AFSPA) के तहत क्षेत्रों को कम करने का फ़ैसला किया है वैसे ही मीडिया द्वारा जनता में इसे सनसनीख़ेज़ ख़बर की तरह पेश करते हुए कहा गया कि “आज आधी रात से, असम के पूरे 23 ज़िलों, और आंशिक रूप से असम के एक ज़िले व नागालैण्ड में छह और मणिपुर में छह ज़िलों से आफ़्स्पा को अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जायेगा” मगर यह भाजपा सरकार का कोई दयालु या हमदर्दी-भरा चेहरा नहीं है, बल्कि इन इलाक़ों से हाल में घटी घटनाओं के बाद लगातार आ रहे जनदबाव की वजह से लिया गया फ़ैसला है जो भाजपा के गले में अटकी हुई हड्डी बन गया था। मगर इस फ़ैसले से भी वहाँ की ज़मीनी स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आने वाला है।
आफ़्स्पा की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई थी जब अंग्रेज़ों ने 1942 में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किये गये भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि में इस अधिनियम को एक अध्यादेश के रूप में लाया गया था। आज़ादी के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने असम और मणिपुर में क़ानून को जारी रखने का फ़ैसला किया और आज़ाद भारत की पूँजीवादी सरकार के असली चरित्र को उजागर किया। इसे बाद में 11 सितम्बर, 1958 को सशस्त्र बल (असम और मणिपुर) विशेष अधिकार अधिनियम, 1958 में बदल दिया गया। आफ़्स्पा नवम्बर 1990 में जम्मू कश्मीर में लगाया गया था और तब से राज्य सरकार द्वारा समीक्षा के बाद इसे हर छह महीने में बढ़ाया गया है। प्रारम्भ में, आफ़्स्पा अविभाजित असम की पहाड़ियों में लगाया गया था, जिन्हें “अशान्त क्षेत्रों” के रूप में पहचाना गया था। नागालैण्ड की पहाड़ियाँ भी उन क्षेत्रों में से थीं। बाद में, पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों को आफ़्स्पा के तहत लाया गया। आज़ादी के बाद से ही शुरुआती दशकों में तो भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व को केवल रणनीतिक दृष्टि से ही देखा था। लेकिन आगे भारतीय राजसत्ता ने पूँजीवादी विकास के साथ ही प्राकृतिक सम्पदा और सस्ती श्रमशक्ति के दोहन के लिए भी इन क़ानूनों को जारी रखा।
इन इलाक़ों में कुख्यात सुरक्षा बल विशेषाधिकार क़ानून (ए.एफ़.एस.पी.ए.) लागू करके भारतीय राजसत्ता अपने नाख़ुन और दाँत आम आबादी के अधिकारों को दबाने के लिए पैने रखती है। इन अर्द्ध-सुरक्षा बलों का इस्तेमाल राष्ट्रीय मुक्ति के लिए चल रहे जनआन्दोलनों और जनविद्रोहों को भी बर्बरता से कुचलने में किया जाता है। भारतीय राज्यसत्ता की हिफ़ाज़त में तैनात सुरक्षा बलों के शीर्ष पर फ़ौज होती है जो न सिर्फ़ बाहरी आक्रमण का मुक़ाबला करने के लिए प्रशिक्षित होती है बल्कि देश के भीतर भी जन-बग़ावतों पर क़ाबू पाने के लिए भी विशेष रूप से प्रशिक्षण प्राप्त होती है। जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व जैसे इलाक़ों में, जहाँ दमित राष्ट्र अपने आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर आन्दोलित हैं, फ़ौज का दमन इतना ज़्यादा है कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वहाँ सैनिक शासन जैसी स्थिति है।

आफ़्स्पा के तहत मानव अधिकारों का दमन व निरस्त करने के प्रयास

आफ़्स्पा क़ानून का इस्तेमाल कर सशस्त्र बलों द्वारा नक़ली मुठभेड़ों और अन्य मानवाधिकार उल्लंघन के कई आरोप हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक पीआईएल ने दावा किया कि 2000 और 2012 के बीच मणिपुर में कम से कम 1,528 ग़ैर-न्यायिक हत्याएँ हुई थीं। इरोम शर्मिला जैसे कार्यकर्ताओं ने आफ़्स्पा का विरोध किया है। उन्होंने क़ानून के ख़िलाफ़ 16 साल की भूख हड़ताल की। थंगजाम मनोरमा (1970-2004) मणिपुर, भारत की एक 32 वर्षीय महिला थी, जिसे भारतीय अर्धसैनिक इकाई, 17वीं असम राइफ़ल्स ने 11 जुलाई 2004 को मार दिया था। उसका गोलियों से लथपथ और बुरी तरह से क्षत-विक्षत शव लावारिस पाया गया था। उन्हें कई बार गोली मारी गयी थी। हत्या के पाँच दिन बाद, लगभग 30 अधेड़ उम्र की महिलाओं ने इम्फाल से होते हुए असम राइफ़ल्स मुख्यालय तक नग्न होकर प्रदर्शन किया था। इन्हीं घटनाओं के बाद पैदा हुए भारी जनदबाव में आफ़्स्पा पर केन्द्रीय स्तर पर 2004 में यूपीए सरकार द्वारा गठित जीवन रेड्डी समिति ने इसे निरस्त करने की सिफ़ारिश की थी। इसके बाद मामले की जाँच के लिए कैबिनेट सब-कमेटी का गठन किया गया। पाँच सदस्यीय इस समिति ने 6 जून 2005 को 147 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें आफ़्स्पा को ‘दमन का प्रतीक’ बताया गया था। मगर बाद में एनडीए सरकार ने रेड्डी समिति की सिफ़ारिशों को ख़ारिज कर दिया था और कैबिनेट उप-समिति को भंग कर दिया था।
पिछले साल से आफ़्स्पा के ख़िलाफ़ फिर आन्दोलन तेज़ हो गया था जब 4 दिसम्बर 2021 को सेना की इकाई के एक दल के 21 पैरा कमाण्डो ने छह नागरिकों को मार डाला। यह सभी निवासी एक कोयला खदान में काम करने के बाद एक पिक-अप वैन में घर लौट रहे थे। 4 दिसम्बर को ही, पहली घटना के थोड़ी देर के बाद इस इकाई द्वारा सात अन्य नागरिकों की मौत हुई। भारतीय सेना के पैरा कमाण्डो द्वारा नागालैण्ड के मोन ज़िले में नागरिकों को गोली मारने के बाद सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ़्स्पा) फिर से विवादों में आ गया था और इस घटना के बाद आफ़्स्पा को हटाने को लेकर दबाव बढ़ता जा रहा था। इसके बाद जनता और राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा क़ानून को निरस्त करने की माँग काफ़ी तेज़ हो गयी थी।
एनएनपीजी (नगा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स) के संयोजक झिमोवी ने भी स्पष्ट रूप से 5 दिसम्बर को इसे हटाने का आह्वान किया कि “निर्दोष लोगों की हत्या का ऐसा कृत्य उच्चतम अर्थों में निन्दनीय है और इसकी सभी को निन्दा करनी चाहिए। सरकार को आफ़्स्पा को भी रद्द करना चाहिए और नागालैण्ड राज्य से अशान्त क्षेत्र अधिनियम को हटाना चाहिए।” 5 दिसन्बर को एक प्रेस बयान में, प्रभावशाली नागरिक समाज समूह, नागा मदर्स एसोसिएशन ने कहा, “हम माँग करते हैं कि राज्य सरकार आफ़्स्पा के तहत मानवाधिकारों के बार-बार उल्लंघन का संज्ञान ले और आफ़्स्पा को हटाने के लिए क़दम उठाये और इसके निरस्त करने की ज़ोरदार सिफ़ारिश करे, क्योंकि हम शान्ति की दहलीज़ पर खड़े हैं।” कई नागरिक समाज संगठनों के अलावा 5 दिसन्बर को इस तरह की माँग करने के अलावा, कई छात्र संगठनों ने भी राज्य से अाफ़्स्पा हटाने की माँग की।
नागालैण्ड में, केन्द्र ने मोन हत्याओं के बाद गठित एक उच्च-स्तरीय समिति की सिफ़ारिश को स्वीकार कर लिया और 1 अप्रैल से चरणबद्ध तरीक़े से आफ़्स्पा को वापस लेने का निर्णय लिया। इसमें 4,138 वर्ग किमी का क्षेत्र शामिल है, जो पूरे इलाक़े का लगभग 25 प्रतिशत है। शामटोर, त्सेमिन्यु और त्युएनसांग ज़िलों को पूरी तरह से छूट दी गयी है जबकि कोहिमा, मोकोकचुंग, वोखा और लोंगलेंग को आंशिक रूप से अाफ़्स्पा से छूट दी गयी है। मणिपुर में, इम्फाल घाटी के जिरीबाम, थौबल, बिष्णुपुर, काकचिंग, इम्फाल पूर्व और इम्फाल पश्चिम ज़िलों के 15 पुलिस स्टेशनों से अशान्त क्षेत्र का दर्जा आंशिक रूप से हटा दिया गया। यह औपचारिक क़दम उठाने के लिए भी भाजपा की केन्द्र सरकार को व्यापक जनदबाव और किसी जनविस्फोट की सम्भावना के कारण डरकर मजबूर होना पड़ा है। लेकिन यह क़दम औपचारिक से ज़्यादा कुछ साबित होगा, इसकी गुंजाइश कम ही दिखती है।

आफ़्स्पा क़ानूनों को हटाये जाने की ज़मीनी हक़ीक़त

32 वर्षों के बाद, विवादास्पद सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, जो सुरक्षा बलों को व्यापक अधिकार देता है, को अरुणाचल प्रदेश के नौ में से तीन ज़िलों से आंशिक रूप से हटा दिया गया था। हालाँकि, इसे म्यांमार की सीमा से लगे क्षेत्रों में लागू रखा गया है। अरुणाचल प्रदेश, जिसका गठन 20 फ़रवरी, 1987 को हुआ था, को 1958 में संसद द्वारा अधिनियमित विवादास्पद आफ़्स्पा विरासत में मिला था और पूरे असम और केन्द्र शासित प्रदेश मणिपुर पर लागू हुआ था। अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम और नागालैण्ड के अस्तित्व में आने के बाद, अधिनियम को इन राज्यों में भी लागू करने के लिए उपयुक्त रूप से अनुकूलित किया गया था।
गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना में कहा कि अरुणाचल प्रदेश के चार पुलिस स्टेशन क्षेत्र, जिन्हें आफ़्स्पा के तहत “अशान्त क्षेत्र” घोषित किया गया था, अब रविवार से विशेष क़ानून के दायरे में नहीं हैं। मगर ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ ने 1 अप्रैल को अपने सम्पादकीय में सरकार की घोषणा की पोल खोलते हुए कहा कि, “…असम में अाफ़्स्पा उतनी सख़्ती से कभी लागू ही नहीं था, जितना मणिपुर और नागालैण्ड में लागू था। इसलिए, अधिकांश असम से अधिनियम को हटाना बहुत आसान काम था। जबकि मणिपुर और नागालैण्ड में अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों को छूट दी जा रही है, इसका मतलब है कि इन दोनों राज्यों में से अधिकांश तौर पर कठोर क़ानून की छाया में बने हुए हैं।”
ऐसे में आइए सबसे पहले असम के उन नौ ज़िलों को देखें जिन्हें इस फ़ैसले से बाहर रखा गया था: तिनसुकिया, कार्बी आंगलोंग, गोलाघाट, डिब्रूगढ़, चराईदेव, शिवसागर, जोरहाट, पश्चिम कार्बी आंगलोंग और दीमा हसाओ। ये ज़िले पूर्वी या ऊपरी असम का निर्माण करते हैं, जिन्हें अक्सर ‘असमिया गढ़’ कहा जाता है। ये क्षेत्र कई जनजातियों का पारम्परिक घर भी हैं। ऊपरी असम को अाफ़्स्पा के तहत रखने के पीछे प्राथमिक कारण भारत सरकार और असमिया सशस्त्र समूह, यूनाइटेड लिबरेशन फ़्रण्ट ऑफ़ असम (उल्फ़ा) के वार्ता समर्थक गुट के बीच अधूरी शान्ति वार्ता है।
नागालैण्ड में, इसके वाणिज्यिक केन्द्र दीमापुर सहित 15 में से नौ ज़िले आफ़्स्पा के तहत बने रहेंगे। इसके अतिरिक्त, शेष ज़िलों के 15 पुलिस थानों के क्षेत्र भी आफ़्स्पा के अन्तर्गत होंगे। अनिवार्य रूप से, 31 मार्च के फ़ैसले के बाद भी, आफ़्स्पा नागालैण्ड के सभी ज़िलों में मौजूद रहेगा। ऐसे में इस प्रकार से ज़मीन पर शायद ही कोई बदलाव होगा।
ऐसे में किसी काल्पनिक एकाश्मी “भारत राष्ट्र” में इन क़ौमों का विलयन का प्रयास ज़ोर-ज़बर्दस्ती के बूते ही किया जा सकता है। इसलिए भारतीय राजसत्ता ने आफ़्स्पा जैसे काले क़ानूनों के द्वारा दमन जारी रखा है। आज भी इस पूरे भू-भाग में कई सशस्त्र संघर्ष चल रहे हैं। जब तक भारतीय राज्यसत्ता द्वारा तमाम दमित क़ौमों का राष्ट्रीय दमन जारी रहेगा, ये राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष भी विसर्जित नहीं होंगे। ये अगर जीतेंगे नहीं तो ये हारेंगे भी नहीं। नेतृत्व की कोई एक धारा जब समर्पण करेगी तो दूसरी धारा उभरकर सामने आयेगी और संघर्ष को जारी रखेगी। ऐतिहासिक तौर पर कहें तो राष्ट्रीय प्रश्न का अन्तिम और मुक़म्मल समाधान तो केवल और केवल एक समाजवादी राज्य के तहत ही सम्भव है, जो सही मायने में विभिन्न राष्ट्रों को अलग होने के अधिकार के समेत आत्मनिर्णय का अधिकार और अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं को सुसंगत जनवाद का अधिकार देता है। लेकिन हर दमित क़ौम के लिए पहला कार्यभार राष्ट्रीय मुक्ति का जनवादी कार्यभार ही होता है और उसके लिए क्रान्ति की मंज़िल भी राष्ट्रीय जनवादी ही होती है। समाजवादी क्रान्ति के लिए लड़ रही शक्तियों और सर्वहारा वर्ग को दमित क़ौमों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए और साथ ही उसकी मज़दूर वर्ग के साथ एकता स्थापित करनी चाहिए। उन्हें उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का पूर्ण रूप में समर्थन करना चाहिए। इन तमाम दमित क़ौमों में क्रान्ति की मंज़िल राष्ट्रीय जनवादी ही है और इन संघर्षों के साथ समाजवादी क्रान्ति के संघर्ष की धारा को जोड़ना आज हमारा एक अहम कार्यभार है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022


 

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