7 नवम्बर – एक नयी ऐतिहासिक तारीख़

अल्बर्ट रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी लोगों में से एक थे जो अक्टूबर क्रान्ति के तूफ़ानी दिनों के साक्षी थे। अन्य चार अमेरिकी थे – जॉन रीड, बेस्सी बिट्टी, लुइस ब्रयान्त और एलेक्स गाम्बोर्ग। ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ – जॉन रीड की इस विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक से हिन्दी पाठक भलीभाँति परिचित हैं जिसमें उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती दिनों का आश्चर्यजनक रूप से शक्तिशाली वर्णन प्रस्तुत किया है। बेस्सी बिट्टी ने भी ‘रूस का लाल हृदय’ नामक पुस्तक तथा अक्टूबर क्रान्ति विषयक कई लेख लिखे। दुर्भाग्यवश उनके हिन्दी अनुवाद अभी तक सामने नहीं आये हैं।
अल्बर्ट रीस विलियम्स 1917 के शुरू में रूस पहुँचे थे। उस समय से लेकर अक्टूबर क्रान्ति तक, यानी क्रान्ति की तैयारी से लेकर उसके सम्पन्न होने तक के तूफ़ानी दिनों के वे न सिर्फ़ गवाह रहे, बल्कि भागीदार भी रहे। इस दौरान उन्होंने न केवल व्यापक रूसी मज़दूर-किसान जनता के क्रान्तिकारी शौर्य और सृजनशीलता को निकट से देखा, बल्कि उन बोल्शेविक योद्धाओं के भी घनिष्ठ सान्निध्य में रहे जो अक्टूबर क्रान्ति की आत्मा थे । उन्हें दो माह तक मास्को के नेशनल होटल में लेनिन के साथ रहने, उनके साथ यात्रा करने और एक ही मंच से अपने विचार रखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। क्रान्ति के बाद जुलाई, 1918 तक, दुनिया की पहली सर्वहारा सत्ता के जीवन-मरण के उस संघर्ष को उन्होंने देखा, जब साम्राज्यवादी देश और देशी प्रतिक्रियावादी ताक़तें क्रान्ति को कुचल डालने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रही थीं।
अपने अनुभवों को उन्होंने दो प्रसिद्ध पुस्तकों ‘रूसी क्रान्ति के दौरान‘ और ‘लेनिन: व्यक्ति और उनके कार्य’ में दर्ज किया है। उनकी पहली पुस्तक से प्रस्तुत यह अंश 1917 के 7 नवम्बर (पुराने कैलेण्डर के अनुसार 25 अक्टूबर) की उस तूफ़ानी रात की एक झलक पेश करता है जब दुनिया का इतिहास हमेशा के लिए बदल जाने वाला था। – सम्पादक

जिस समय पेत्रोग्राद में गश्ती दस्तों के बीच झड़पें हो रही थीं और गरमागरम बहसें चल रही थीं, सारे रूस से यहाँ (स्मोल्नी में) लोग आ रहे थे। वे स्मोल्नी में आयोजित सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस के प्रतिनिधि थे।
स्मोल्नी, जहाँ पहले अभिजात वर्ग की लड़कियों के लिए एक आलीशान स्कूल था, अब सोवियतों का केन्द्र बन गया था। नेवा के तट पर स्थित यह विशाल राजसी भवन दिन के समय उदास-उदास और फीका-फीका लगता था। मगर रात को सैकड़ों लैम्पों से प्रकाशमान खिड़कियों की शोभा से यह एक बड़े मन्दिर – क्रान्ति के मन्दिर – के समान दिखायी पड़ता था। द्वार-मण्डपों के सामने दो स्थानों पर अलाव जलते रहते थे, जिनकी लौ वेदी की ज्योति की भाँति थी। आग के गिर्द लम्बे कोट पहने सैनिक चौकसी करते रहते थे। यहाँ अगणित ग़रीबों और अभावग्रस्त व्यक्तियों की आशाएँ और आकांक्षाएँ केन्द्रीभूत थीं। यहीं वे दीर्घकालीन उत्पीड़न और अत्याचारों से मुक्ति पाने की आशाएँ लगाये हुए थे। यहीं उनके जीवन-मरण की समस्याओं को हल करने का प्रयास हो रहा था।
उस रात मैंने फटे-पुराने कपड़े पहने एक दुबले-पतले मज़दूर को अँधेरे मार्ग पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए देखा। उसने अचानक अपना सिर ऊँचा उठाकर स्मोल्नी के विशाल अग्रभाग की ओर देखा, जो गिरती हुई बर्फ़ के बीच जगमगा रहा था। सिर से टोपी उतारकर वह अपने हाथों को फैलाये हुए वहाँ कुछ क्षण खड़ा रहा। उसके बाद ज़ोरों से “कम्यून! जनता! क्रान्ति!” चिल्लाता हुआ वह आगे बढ़ा और दरवाज़ों से भीतर जा रही भीड़ में शामिल हो गया।
ये प्रतिनिधि युद्ध के मोर्चे, निष्कासन, जेलों और साइबेरिया से स्मोल्नी पहुँचे थे। वर्षों तक उन्हें पुराने साथियों के बारे में कोई सूचना नहीं मिली थी। अब अचानक एक-दूसरे को पहचानकर वे ख़ुशी से चिल्ला उठते, एक-दूसरे से गले मिलते, कुछ कहते-सुनते और क्षणिक आलिंगन के पश्चात वे शीघ्रता से सम्मेलनों, दल की बैठकों और अन्तहीन सभाओं में व्यस्त हो जाते।
स्मोल्नी अब सार्वजनिक सभा के बड़े मंच जैसा हो गया था, जहाँ विशाल शिल्पशाला के कोलाहल की भाँति सशस्त्र क्रान्ति के लिए आह्वान करने वालों की हुंकार, श्रोताओं की सीटियाँ अथवा फ़र्श पर पैर पटकने की आवाज़ें, चुप कराने के लिए घण्टी बजने की आवाज़, सन्तरियों के हथियारों की खनखनाहट, सीमेण्ट के फ़र्श पर मशीनगनों की रगड़ और क्रान्तिकारी गीतों का समवेत गान सुनायी पड़ता था और जो लेनिन और ज़िनोवियेव के गुप्त स्थान से वहाँ प्रकट होने पर तुमुल हर्षध्वनि एवं तालियाँयों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था।
हर चीज़ वहाँ तीव्र गति से हो रही थी, वातावरण में तनाव था, जो प्रतिक्षण बढ़ता जा रहा था। प्रमुख कार्यकर्ता तो मानो अन्तहीन शक्ति से ओतप्रोत थे, उनकी कार्यक्षमता चमत्कारपूर्ण थी, क्योंकि वे बिना सोये, बिना थके काम में लगे हुए थे और क्रान्ति की महत्त्वपूर्ण समस्याओं का साहस के साथ सामना कर रहे थे।
25 अक्टूबर (7 नवम्बर) की इस रात को दस बजकर चालीस मिनट पर ऐतिहासिक बैठक शुरू हुई, जिसके परिणाम रूस और सारे संसार के भविष्य के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावकारी होने वाले थे। अपने-अपने गुटों की बैठकों से प्रतिनिधि विशाल सभा-कक्ष में आये। बोल्शेविक-विरोधी दान सभापति था। उसने चुप रहने के लिए घण्टी बजाते हुए घोषणा की, “सोवियतों की दूसरी कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की कार्यवाही अब शुरू होती है।”
सर्वप्रथम कांग्रेस की कार्यसंचालन समिति (अध्यक्ष-मण्डल) का चुनाव हुआ। बोल्शेविकों के 14 सदस्य चुने गये। अन्य सभी दलों को 11 स्थान मिले। पुरानी कार्यसंचालन समिति मंच से हट गयी और बोल्शेविक नेताओं ने, जो अभी हाल तक रूस के बहिष्कृत एवं गैरक़ानूनी व्यक्ति थे, उनका स्थान ग्रहण किया। दक्षिणपन्थी दलों ने, जिनमें मुख्यतः बुद्धिजीवी थे, प्रमाण-पत्रों और कार्यक्रम पर आपत्ति के साथ अपना हमला शुरू किया। वे वाद-विवाद में माहिर थे। वे कोरी बातों में ही अपना कमाल दिखाते थे। वे सिद्धान्त और कार्यपद्धति के बारे में सूक्ष्म प्रश्न उठाते थे।
तभी अचानक उस रात के अन्धकार को भेदने वाली प्रचण्ड गड़गड़ाहट से प्रतिनिधि सन्नाटे में आ गये, अपने स्थानों से उछल पड़े। यह तोप की दनदनाहट थी, क्रूज़र ‘अव्रोरा’ ने शीत प्रासाद पर गोला दागा था। दूरी के कारण गड़गड़ाहट धीमी एवं दबी-दबी सुनायी पड़ती थी, मगर वह सतत तथा क्रमबद्ध थी। यह गड़गड़ाहट पुरानी व्यवस्था के अन्त की सूचक थी, नयी व्यवस्था के आगमन का अभिवादन-गीत थी। यह जन-समुदाय की आवाज़ थी, जो ‘अव्रोरा’ की गड़गड़ाहट के रूप में प्रतिनिधियों के सम्मुख यह माँग प्रस्तुत कर रही थी, “सारी सत्ता सोवियतों को!” इस प्रकार वस्तुतः कांग्रेस के सम्मुख यह प्रश्न पेश कर दिया गयाा : क्या प्रतिनिधि सोवियतों को रूस की सरकार घोषित करेंगे और इस नयी सरकार को वैधानिक आधार प्रदान करेंगे?

बुद्धिजीवी पीठ दिखा गये

बुद्धिजीवियों ने जन-समुदाय का साथ छोड़कर इतिहास का एक विस्मयकारी विरोधाभास और इसका एक अत्यन्त दुखद परिच्छेद प्रस्तुत किया। प्रतिनिधियों में इस प्रकार के बीसियों बुद्धिजीवी थे। उन्होंने “अज्ञानता के अँधेरे में भटकने वाले लोगों” को अपनी निष्ठा का लक्ष्य बना रखा था। “जनता के निकट जाना” उनके लिए कभी धार्मिक कृत्य जैसा था। उन्होंने जनता के लिए ग़रीबी, कारावास और निष्कासन की यन्त्रणाएँ सहन की थीं। उन्होंने निश्चेष्ट जन-समुदाय में क्रान्तिकारी विचारों से जागरण की भावना पैदा की थी और उन्हें क्रान्ति के लिए प्रोत्साहित किया था। उन्होंने अटूट रूप से जनता के चरित्र एवं औदार्य की सराहना की थी। यूँ कहना चाहिए कि बुद्धिजीवियों ने जनता को देवता बना दिया था। अब जन-समुदाय देवताओं जैसे आक्रोश एवं वज्र-ध्वनि के साथ विद्रोह के लिए सन्नद्ध हो रहा था और अब वह अपने विवेक के अनुसार दृढ़ता से काम करने को कटिबद्ध हो गया था।
परन्तु बुद्धिजीवी उस देवता को स्वीकारने को तैयार नहीं थे, जो उनकी बातों पर कान नहीं देता या और जो उनके वश से बाहर हो चुका था। बुद्धिजीवी अब नास्तिक हो गये थे, अपने भूतपूर्व देवता – जन-समुदाय – में उनकी बिल्कुल आस्था नहीं रही थी। वे क्रान्ति करने के उनके अधिकार को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।
जिस जन-समुदाय को बुद्धिजीवियों ने क्रान्ति के लिए जगाया था, उसे अब अपने ही लिए ख़तरनाक मानकर वे त्रस्त थे, भय से काँप रहे थे और आवेश से लाल-पीले हो रहे थे। वे इसे अनधिकृत चेष्टा, पैशाचिक कृत्य और भयानक संकट कहते थे, उनके अनुसार यह रूस को अराजकता के गर्त में झोंकना था और यह “सरकार के ख़िलाफ़ अपराधमूलक विद्रोह था”। वे जनता के विरुद्ध हो गये थे, उसके विरुद्ध बकते-झकते और गालियाँ देते थे, उसकी आरज़ू-मिन्नत करते थे तथा आग-बबूला होकर अनाप-शनाप बकते थे। उन्होंने प्रतिनिधियों की हैसियत से इस क्रान्ति को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। उन्होंने इस कांग्रेस को यह अनुमति प्रदान करने से इंकार कर दिया कि वह सोवियतों को रूस की नयी सरकार घोषित करे।
कितनी बेमानी, कितनी बेतुकी बात थी यह! इस क्रान्ति को न मानना तो ज्वार-तरंग अथवा ज्वालामुखी के विस्फोट को न मानने के समान था। यह क्रान्ति सर्वथा अनिवार्य, अपरिहार्य थी। इसे सर्वत्र, बैरकों, खाइयों, कारख़ानों और सड़कों पर देखा जा सकता था। यहाँ, इस कांग्रेस में भी सैकड़ों मज़दूर, सैनिक और किसान प्रतिनिधियों के माध्यम से क्रान्ति का स्वर औपचारिक रूप से गूँज रहा था। इस हॉल की इंच-इंच जगह को घेरे हुए, स्तम्भों और खिड़कियों के दासों पर चढ़े हुए, एक-दूसरे के साथ सटे हुए और भावनाओं की गर्मी से वातावरण को गरमाते हुए लोगों के माध्यम से क्रान्ति का अनौपचारिक रूप दिखायी दे रहा था।
लोग यहाँ इसलिए जमा थे कि उनके क्रान्तिकारी संकल्प की पूर्ति हो, कि कांग्रेस सोवियतों को रूस की सरकार घोषित करे। इस प्रश्न पर वे अटल थे। इस प्रश्न पर परदा डालने के हर प्रयास, इस संकल्प को विफल करने अथवा इसे टालने की हर चेष्टा का आक्रोशपूर्ण विरोध किया जाता था।
दक्षिणपन्थी पार्टियाँ इस प्रश्न पर लम्बे-लम्बे प्रस्ताव प्रस्तुत करना चाहती थीं। भीड़ व्याकुल थी। लोगों का कहना था – “अब अधिक प्रस्तावों की ज़रूरत नहीं है! अब अधिक भाषणों की आवश्यकता नहीं है! हम काम चाहते हैं! हम सोवियतों की सरकार चाहते हैं!”
बुद्धिजीवी अपनी परम्परा के अनुसार सभी दलों की संयुक्त सरकार के प्रस्ताव के आधार पर इस प्रश्न को समझौते से हल करना चाहते थे। उन्हें यह मुँहतोड़ उत्तर मिला, “केवल एक ही सहमिलन सम्भव है – मज़दूरों, सैनिकों और किसानों की संयुक्त सरकार।”
मार्तोव ने “आसन्न गृह-युद्ध को टालने के ख़याल से समस्या के शान्तिपूर्ण समाधान” की अपील की। इस सुझाव के उत्तर में यह नारा गूँज उठा, “विजय! विजय! – एकमात्र सम्भावित हल है – क्रान्ति की विजय!”
अफ़सर कूचिन ने इस विचार को प्रस्तुत कर उन्हें आतंकित करने की कोशिश की कि सोवियतें अलग-थलग पड़ गयी हैं और पूरी सेना इनके ख़िलाफ़ है। सैनिक ग़ुस्से से चिल्ला उठे, “तुम झूठे हो! तुम फ़ौजी हाई कमान की ओर से बोल रहे हो, खाइयों में पड़े सैनिकों की ओर से नहीं! हम सैनिकों की माँग है: “सारी सत्ता सोवियतों को!”
उनका संकल्प इस्पात के समान दृढ़ था। अनुनय-विनय से न तो यह झुक सकता था, न धमकियों से टूट ही सकता था।
अन्त में अब्रामोविच ने अंगारा बनते हुए चिल्लाकर कहा, “हम यहाँ मौजूद रहकर इन अपराधों के लिए ज़िम्मेदार नहीं होना चाहते। हम सभी प्रतिनिधियों से इस कांग्रेस से अलग हो जाने का अनुरोध करते हैं।” बड़ी ही नाटकीय भाव-भंगिमा के साथ वह मंच से नीचे आया और दरवाज़े की ओर लपका। क़रीब अस्सी प्रतिनिधि अपने स्थानों से उठकर उसके पीछे-पीछे चल दिये।
त्रात्स्की ने ऊँचे स्वर में कहा, “उन्हें जाने दो, जाने दो! वे बिल्कुल कूड़े-करकट के समान हैं और इतिहास के कचरे के ढेर में चले जायेंगे।”
ताने-बोलियों, उपहास और व्यंग्य-बाणों – “भगोड़े! ग़द्दार!” – के बीच बुद्धिजीवी सभाकक्ष से बाहर चले गये और क्रान्ति से अलग हो गये। यह एक बहुत ही दुःखद घटना थी। बुद्धिजीवियों ने जिस क्रान्ति को जन्म देने में सहायता की, अब उन्होंने उसी से मुँह मोड़ लिया था, संघर्ष के कठिनतम क्षण में जनता से नाता तोड़ लिया था! यह सबसे बड़ी मूर्खता भी थी। वे सोवियतों को विलग नहीं कर सके, उन्होंने ख़ुद अपने को अलग कर लिया था। सोवियतों को जन-समुदाय का अपार ठोस समर्थन प्राप्त होता जा रहा था।

सोवियतों को सरकार घोषित किया गया

हर पल क्रान्ति की विजय की ताज़ा सूचनाएँ मिल रही थीं – मन्त्रिायों की गिरफ़्तारी, राजकीय बैंक, तारघर, टेलीफ़ोन-केन्द्र और फ़ौजी हाई कमान के सदर-मुक़ाम पर क़ब्ज़े की ख़बरें मिल रही थीं। एक के बाद एक सत्ता के केन्द्र लोगों के क़ब्ज़े में आते जा रहे थे। पुरानी सरकार की नाममात्र की सत्ता विद्रोहियों के हथौड़ों की चोट से खण्ड-खण्ड होकर गिर रही थी।
एक कमिसार ने, जो घोड़े की तेज़ सवारी के कारण हाँफ रहा था और जिसके कपड़ों पर कीचड़ के छींटे पड़े हुए थे, मंच पर चढ़कर यह सूचना दी, “त्सार्स्कोये सेलो की गढ़-सेना सोवियतों के पक्ष में है। वह पेत्रोग्राद के सहद्वारों की रक्षा के लिए मुस्तैद खड़ी है!” दूसरे कमिसार से यह सूचना मिली, “साइकिल सवार सैनिकों की बटालियन सोवियतों के साथ है। एक भी सैनिक अपने भाइयों का ख़ून बहाने को इच्छुक नहीं है।” इसके बाद क्रिलेन्को हाथ में तार लिये, लड़खड़ाते हुए मंच पर चढ़ा और बोला, “बारहवीं सेना की ओर से सोवियत का अभिवादन! सैनिक समिति उत्तरी मोर्चे की कमान अपने हाथ में ले रही है।”
अन्ततः इस कोलाहलपूर्ण रात की समाप्ति पर वाद-विवाद और संकल्पों के टकराव के बाद यह स्पष्ट एवं सुगम घोषणापत्र स्वीकृत हुआ:
“अस्थायी सरकार अपदस्थ कर दी गयी। मज़दूरों, सैनिकों और किसानों के भारी बहुमत की आकांक्षा के अनुकूल सोवियतों की यह कांग्रेस सत्ता ग्रहण कर रही है। सोवियत सरकार तत्काल सभी राष्ट्रों के सम्मुख जनतांत्रिक शान्ति और सभी मोर्चों पर तत्काल विराम-सन्धि का प्रस्ताव रखेगी। यह बिना किसी मुआवजे़ के ज़मीनों का हस्तान्तरण सुनिश्चित करेगी…” आदि।
ख़ुशी का पारावार न रहा! एक-दूसरे को बाँहों में लिये लोगों की आँखों से ख़ुशी के आँसू छलक रहे थे। सन्देशवाहक तेज़ी से सूचनाएँ पहुँचाने के लिए रवाना हो गये थे। तार-टेलीफ़ोन लगातार काम कर रहे थे। लड़ाई के मोर्चों की ओर मोटरगाड़ियाँ तेज़ी से भागी जा रही थीं। नदियों और मैदानों को पार करते हुए विमान द्रुत गति से उड़ते चले जा रहे थे। रेडियो से समुद्रों के पार सूचनाएँ पहुँच रही थीं। सभी साधनों से इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संवाद को प्रेषित किया जा रहा था।
क्रान्तिकारी जन-समुदाय के संकल्प की विजय हुई थी। सोवियतों ने सरकार का रूप ले लिया था।
सुबह 6 बजे ऐतिहासिक अधिवेशन समाप्त हुआ। प्रतिनिधिगण थकावट से चूर थे, रातभर जगने के कारण उनकी आँखें धँसी हुई थीं। फिर भी वे बहुत ख़ुश थे और पत्थर की सीढ़ियों और दरवाज़ों को लाँघते हुए स्मोल्नी के बाहर निकल रहे थे। बाहर अभी अँधेरा और बड़ी सर्दी थी, मगर पूर्व में लाल पौ फट रही थी।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020


 

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