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कृषि अध्यादेशों का विरोध मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग किस ज़मीन से करेगा?
संसदीय वामपन्थियों, मार्क्सवादी नरोदवादियों और बुण्डवादी क़ौमवादियों के वर्ग सहयोगवाद और अवसरवाद के बारे में एक बार फिर से
- अभिनव
हमारे देश में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन आज एक संकट का शिकार है। देश में फ़ासीवादी उभार और दुनिया भर में किसी समाजवादी शिविर की ग़ैर-मौजूदगी के कारण आज के दौर में उन क्रान्तिकारियों के पास उत्साह के स्रोतों का अभाव है, जो विज्ञान की समझ और उस पर भरोसे से अपने आशावाद को ग्रहण करते, बल्कि ठोस मिसालों, घटनाओं या नेताओं की मौजूदगी से अपने आशावाद को पालते-पोसते हैं। आज की दुनिया में उनके पास ऐसी कोई ठोस मिसाल नहीं है। नतीजतन, वे अपने आशावाद के लिए हर प्रकार के अवांछनीय स्रोतों पर जाते हैं। कुछ मिसालों से समझिए।
छोटी व मंझोली पूँजी व इजारेदारीकरण तथा मज़दूर वर्ग का नज़रिया
जब खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की पूरी छूट दी गयी थी, तो भी कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शोर मचाने लगे थे और टटपुंजिया व्यापारी वर्ग के प्रदर्शनों में अपनी खंजड़ी लेकर पहुँच गये थे। इनमें से ज़्यादातर का मानना था कि भारत अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश है और यह व्यापारिक छोटा पूँजीपति वर्ग नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल होने के नाते उनका मित्र है। लेकिन कुछ समाजवादी क्रान्ति मानने वाले भी इस कोरस में बैण्ड-बाजा लेकर पहुँच गये थे! उनके पास इस प्रकार के मजमों में जाने का कोई वैज्ञानिक तर्क तो था नहीं, नतीजतन, उनका तर्क था कि वे तो फेरी लगाने वालों और खोमचा लगाने वालों और इन व्यापारियों की दुकानों में काम करने वाले मज़दूर वर्ग को बचाने गये हैं!
यह तर्क बड़ा बोदा था क्योंकि वास्तव में खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश व कारपोरेटों के घुसने से सीधे खोमचे वालों, फेरी वालों, रेहड़ी वालों को कोई नुक़सान नहीं होना था (क्योंकि वे पहले से ही देशी बड़ी व मंझोली व्यापारिक व साथ ही औद्योगिक व वित्तीय पूँजी के हाथों तबाह हो चुके थे या हो रहे थे और अभी भी हो रहे हैं)। उनके लिए महज़ यह फ़र्क़ आना था कि उनका शोषण करने वाला वर्ग बदल जाने वाला था।
जहाँ तक व्यापारियों की दुकानों में काम करने वाले मज़दूरों का प्रश्न था, उनके लिए भी बस इतना ही फ़र्क़ आना था कि अब उन्हें मंझोले व बड़े देशी व्यापारियों के साथ देशी और विदेशी बड़ा कारपोरेट इजारेदार व्यापारिक पूँजीपति वर्ग व वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग लूटने वाला था। कारपोरेट पूँजी के आने के कारण खुदरा व्यापार समाप्त नहीं होने वाला था, बस व्यापार के क्षेत्र की आंतरिक वर्ग संरचना में परिवर्तन आने वाला था। पिछले एक दशक ने इस बात को सिद्ध किया है कि व्यापार के क्षेत्र में बड़ी पूँजी के घुसने से स्वयं मज़दूरों व मेहनतकशों को कोई ऐसी हानि नहीं हुई है, जो कि उन्हें पहले से न हो रही हो। सर्वहाराकरण व पूँजीवादी शोषण की प्रक्रिया के शीर्ष पर पहले देशी बड़े व मंझोले व्यापारी मौजूद थे, और अब उनकी जगह अमेज़न, कैरेफोर, रिलायंस, वॉलमार्ट, इत्यादि आते जा रहे हैं। साथ ही सारे बड़े व मंझोले व्यापारी भी तबाह नहीं हुए, बल्कि उनका एक हिस्सा इस कारपोरेट पूँजी के मातहत चला गया। कहीं पर उनके यहाँ कर्मचारी बन कर, तो कहीं इन बड़ी कम्पनियों की फ्रैंचाइज़ी लेकर। निश्चित तौर पर, व्यापार के क्षेत्र में इजारेदारीकरण हुआ, पूँजी का सांन्द्रण व संकेन्द्रण (concentration and centralization of capital) बढ़ा।
लेकिन मज़दूर वर्ग अपने आप में इजारेदारीकरण का रूमानी विरोध इस ज़मीन से नहीं करता है कि “हमें केवल छोटी-मंझोली देशी पूँजी से लुटना है! देशी-विदेशी बड़ी पूँजी से नहीं! छोटे-मंझोले पूँजीपतियों द्वारा लूट-ज़िन्दाबाद!” दूसरी बात यह है कि मज़दूर अपने अनुभव से जानता है कि छोटा और मंझोला पूँजीपति उन्हें ज़्यादा अमानवीयता और बेरहमी से लूटता है। इसलिए भी छोटे और मंझोले पूँजीपतियों को बचाने का नारा उठाने में मज़दूर वर्ग की कोई दिलचस्पी नहीं होती है। इजारेदारीकरण का विरोध वह पूँजीवादी शोषण के विरोध की आम ज़मीन से करता है, न कि उसे छोटी पूँजी को बचाने की ज़मीन से करता है।
वह इजारेदार पूँजीपति वर्ग का विरोध भी मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकशों के वर्ग हितों के प्रस्थान बिन्दु से करता है, न कि छोटे व मंझोले पूँजीपतियों के मंच पर जाकर उनके साथ इजारेदारीकरण का विरोध करता है, जोकि आम तौर पर पूँजीवादी शोषण की मुख़ालफ़त नहीं कर रहे हैं, बल्कि महज़ शोषण के अपने एकाधिकार या विशेषाधिकार के लिए सरकारी संरक्षण चाहते हैं। उनकी ऐसी माँग को उठाने वाले मंच पर जाकर मज़दूर वर्ग इजारेदार पूँजीपति वर्ग द्वारा श्रम की उत्पादकता व सघनता बढ़ाकर, अनौपचारिकीकरण बढ़ाकर, काम के घण्टे बढ़ाकर, इत्यादि उसका शोषण करने की युक्तियों का विरोध कर ही नहीं सकता है क्योंकि इन मंचों पर ठीक यही तरकीबें लगाकर मज़दूरों-मेहनतकशों को निचोड़ने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखने की माँग छोटा और मंझोला पूँजीपति उठा रहा होता है। यह बड़ी सीधी सी बात है जिसे ज़मीनी हक़ीकत से परिचित हर व्यक्ति जानता है।
मौजूदा किसान आन्दोलन और सर्वहारा वर्गीय नज़रिये पर एक बार फिर…
ठीक यही बातें आज जारी धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन पर लागू होती है जो कि मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि सम्बन्धी अध्यादेशों के ख़िलाफ़ हो रहा है, जिन्हें संसद अब पारित कर चुकी है और जिन्हें राष्ट्रपति ने भी अनुमोदित कर दिया है। एक बार फिर से देखते हैं कि इस आन्दोलन का चरित्र क्या है।
यह आन्दोलन पूरी तरह से लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बचाने पर केन्द्रित है, हालांकि ये दबे स्वर में ठेका खेती और आवश्यक वस्तुओं के विनियमन को समाप्त किये जाने पर भी कभी-कभार कुछ बोल दे रहा है। यहाँ तक कि आम प्रेक्षक व संजीदा पत्रकार, जो कि वामपन्थी भी नहीं हैं, लगातार इस बात की ओर इंगित करते रहे हैं कि इस आन्दोलन के केन्द्र में पूरी तरह से लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बचाने और लाभकारी मूल्य को बढ़ाने का मुद्दा है। इसलिए सबसे पहले इसी मुद्दे पर बात करेंगे।
लाभकारी मूल्य की माँग और मेहनतकश वर्ग
देश में खेती में लगी कुल आबादी मुश्किल से 26 करोड़ है। इसमें से आधे से कुछ ज़्यादा खेतिहर मज़दूर हैं। क़रीब साढ़े बारह करोड़ से तेरह करोड़ किसान हैं, जिनके पास कुछ-न-कुछ ज़मीन हैं। इनमें से 4.1 प्रतिशत के पास 4 हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन है और 92 प्रतिशत के पास 2 हेक्टेयर से कम। यानी 4 हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन रखने वाले किसान मात्र 60 लाख के क़रीब हैं! दूसरी ओर, 11 से 12 करोड़ किसान आबादी, यानी 92 प्रतिशत, के पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, कुल किसान आबादी में से केवल 5.8 प्रतिशत को ही लाभकारी मूल्य का कोई भी लाभ मिलता है और इन 5.8 प्रतिशत में भी अधिकांश मंझोले किसान व उच्च मध्यम किसान अपने कुल कृषि उत्पाद का मात्र 14 से 35 फ़ीसदी ही लाभकारी मूल्य पर बेच पाते हैं। यानी लाभकारी मूल्य का ढंग से फ़ायदा मुश्किल से 3 से 4 प्रतिशत धनी किसानों व कुलकों को मिलता है।
ये धनी किसान व कुलक ही अक्सर आढ़तियों व सूदखोरों की भूमिका में भी होते हैं। नतीजतन, ये कमीशन के रूप में भी कमाई करते हैं। ऊपर से, सूदखोर की भूमिका में ये ग़रीब व निम्न मध्यम किसान को अपने ऋण तले दबा कर रखते हैं, क्योंकि खेती करने के लिए चालू पूँजी इन ग़रीब किसानों के पास नहीं होती। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ही, क़रीब 80 फ़ीसदी किसानों का ख़र्च उनकी आमदनी से ज़्यादा होता है। क्यों? क्योंकि वे अनाज के मुख्य रूप से ख़रीदार हैं, न कि विक्रेता और जो अनाज वे बेचते भी हैं, वे ऋण तले दबे होने के कारण और बाज़ार तक पहुँच की कमी के कारण लाभकारी मूल्य की दर पर सरकारी मण्डियों में नहीं बेच पाते हैं। इसलिए ये सूदखोर जो कि अधिकांश मामलों में स्वयं धनी किसान व कुलक ही होते हैं, लाभकारी मूल्य से बेहद कम दरों पर इन ग़रीब किसानों से उनका माल ख़रीदते हैं और उन्हें सरकारी मण्डी में लाभकारी मूल्य पर बेचते हैं और अक्सर स्वयं आढ़ती होने के कारण उस पर कमीशन भी कमाते हैं। ये धनी किसान एक प्रकार से इन ग़रीब किसानों से ठेका खेती ही कराते हैं और साथ ही ये ही अक्सर खेतिहर मज़दूरों को भी पट्टे पर ज़मीन देकर उनसे ठेका खेती कराते हैं। इस बाद वाली सूरत में वे उनसे पूँजीवादी लगान भी वसूलते हैं। यानी कि ये धनी किसान व कुलक वर्ग किन-किन रूपों में ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों को लूटता है? इन रूपों में: पूँजीवादी भूस्वामी (लगान), पूँजीवादी फार्मर (मुनाफ़ा), सूदखोर (ब्याज़), आढ़ती (व्यापारिक मुनाफ़ा, कमीशन)।
अभी कुछ ही समय पहले लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की सस्ती श्रमशक्ति की आपूर्ति में कमी आने के कारण इन्हीं धनी किसानों और कुलकों ने पंजाब और हरियाणा के तमाम गाँवों में मज़दूरों की मज़दूरी पर एक सीलिंग लगा दी थी और ऐलान कर दिया था कि यदि किसी किसान ने इस मज़दूरी से ज़्यादा मज़दूरी दी तो उनका बहिष्कार किया जायेगा और अगर गाँव का कोई खेतिहर मज़दूर बेहतर मज़दूरी की तलाश में गाँव से कहीं बाहर जाकर काम करता है, तो उसका भी सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा। ग़ौरतलब है, पंजाब और हरियाणा में ग़ैर-प्रवासी ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों की भारी बहुसंख्या दलित है और जाट व जट्ट धनी किसानों व कुलकों के हाथों आर्थिक शोषण के साथ-साथ सामाजिक उत्पीड़न के बर्बर रूपों को भी झेलती है। लेकिन अब जब इन धनी किसानों व कुलकों पर कारपोरेट पूँजी का क़हर बरपा हो रहा है, तो उन्हें अचानक ‘मज़दूर-किसान’ एकता की याद आ रही है।
लाभकारी मूल्य पर केन्द्रित इस आन्दोलन में मज़दूर व ग़रीब किसान क्यों जायें? क्या उन्हें लाभकारी मूल्य का लाभ मिलता है? आँकड़े क्या बताते हैं? आँकड़े बताते हैं कि 80 प्रतिशत किसान आबादी की पारिवारिक आमदनी का 50 प्रतिशत से कम, 70 प्रतिशत किसान आबादी का 16 से 40 प्रतिशत और क़रीब 35 प्रतिशत किसान आबादी का 16 प्रतिशत या उससे कम खेती से आता है। 2016 में आईएमएफ के शोध ने जिसे सज्जाद चिनॉय, पंकज कुमार व प्राची मिश्रा द्वारा किया गया था, ने स्पष्ट तौर पर दिखलाया है और उससे पहले और बाद के भी कई शोध यह दिखला चुके हैं कि जब भी लाभकारी मूल्य बढ़ता है तो इससे देश के शहरी व ग्रामीण सर्वहारा वर्ग, आम मेहनतकश आबादी, ग़रीब व निम्न मध्यम किसान आबादी को नुक़सान होता है। इस पर बहस करना भी बेकार है, क्योंकि वामपन्थी व ग़ैर-वामपन्थी शोध इस बात को बिना शक़ साबित कर चुके हैं, हालांकि उनमें से कई इस सच्चाई पर चुप्पी साधे रहते हैं, जिससे धनी किसानों-कुलकों की राजनीतिक लॉबी की हनक और शासक वर्ग के एक धड़े के तौर पर उनके प्रभाव का ही पता चलता है।
संक्षेप में, लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बचाने या बढ़ाने में देश के 90 फ़ीसदी मेहनतकश अवाम का कोई हित नहीं है और ठीक इसीलिए इन तीन कृषि अध्यादेशों का विरोध धनी किसानों व कुलकों के मंचों और उन्हीं के राजनीतिक नेतृत्व की अगुवाई में चल रहे आन्दोलन से नहीं हो सकता है बल्कि इसके लिए मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग को अपने वर्ग हितों के अनुसार स्वतंत्र राजनीतिक मंच और आन्दोलन खड़े करने पड़ेंगे। उनके मुद्दे क्या हैं, इस पर थोड़ा आगे आयेंगे।
ठेका खेती का प्रश्न और ग़रीब किसान व मज़दूर वर्ग
अब दूसरे सवाल पर आते हैं कि क्या ठेका खेती से व्यापक ग़रीब किसान आबादी व खेतिहर मज़दूर आबादी को कोई नुक़सान है? क्या हमारे देश में पहले ही ठेका खेती नहीं हो रही है? तो फिर कारेपोरेट ठेका खेती से अलग से विशेष नुक़सान क्या होने वाला है?
ये भी ऐसे सवाल है जिस पर अधिकांश लोग चुप्पी साधे रहते हैं। सभी जानते हैं कि ठेका खेती हमारे देश में पहले से ही हो रही है। अभी ये ठेका खेती धनी किसान, कुलक, सूदखोर व आढ़ती कराते हैं और उसमें ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूर बटाईदारों को उतनी ही बेरहमी से लूटते हैं, जितनी बेरहमी से आम तौर पर छोटी, मंझोली पूँजी मज़दूर वर्ग और मेहनतकशों को लूटती है। इसके बारे में आप कहीं भी जाकर जाँच-पड़ताल कर लें, आपको यही सच्चाई पता चलेगी। कारपोरेट ठेका खेती आने से भी अन्तर सिर्फ़ इतना ही होगा कि धनी किसानों-कुलकों की जगह अब बड़ी कम्पनियां ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों को लूटेंगी।
इसी से जुड़ा एक दूसरा तर्क यह है कि ये कम्पनियाँ पहले ऊँची क़ीमतें देंगी और फिर जब बाज़ार में इनका एकाधिकार स्थापित हो जायेगा तो एकाधिकारी दाम निर्धारित करने लगेंगी, यानी बेहद कम दाम देने लगेंगी और अनाजों की क़ीमत को बहुत ज़्यादा बढ़ा देंगी जिससे उपभोक्ताओं को भी नुक़सान होगा। पहली बात तो यह है कि ग़रीब किसानों व बटाईदारों को पहले ही धनी किसानों व कुलकों के हाथों बेहद कम दाम ही मिलते हैं। दूसरी बात यह कि आम तौर पर भी देखें तो कारपोरेट ठेका खेती आने के तजुरबे हमारे देश और पूरी दुनिया में भी वैविध्यपूर्ण हैं।
पश्चिम बंगाल में तमाम धनी से लेकर मंझोले किसानों ने पेप्सी के साथ क़रार कर आलू की ठेका खेती की है। यहाँ पर इसका इन किसानों को भारी फ़ायदा हुआ है। बाज़ार की रु. 3.40 से 3.80 की क़ीमत की बजाय, उन्हें प्रति किलोग्राम रु. 8.40 मिल रहे हैं। वहीं इसकी उल्टी मिसालें भी हैं जैसे कि आन्ध्र प्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू ने जिस इज़रायली कम्पनी को ठेका खेती का परमिट दिया, उसने शुरू में तो अच्छे दाम दिये लेकिन बाद में वह बेहद कम दाम देने लगी।
इसी प्रकार स्वयं पंजाब से ठेका खेती के तीन बड़े उदाहरण हैं: हिन्दुस्तान लीवर लि., पेप्सी को. और निज्जर एग्रो फूड्स द्वारा टमाटर, मिर्च आदि की ठेका खेती। इन तीनों के नतीजे भी वैविध्यपूर्ण रहे हैं। पंजाब में अकाली दल सरकार ने 2013 में बाकायदा एक ‘पंजाब ठेका खेती क़ानून 2013’ पारित किया था, जिसमें किसानों को कुछ संरक्षण दिया गया था, हालांकि उसके प्रावधान मौजूदा ठेका खेती अध्यादेश से बहुत अलग नहीं थे। पंजाब वाले क़ानून में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं था, जो कि लाभकारी मूल्य से नीचे होने वाली ख़रीद को रोकता हो। इस क़ानून के तहत भी सरकार ने नियम व निर्देश जारी नहीं किये थे क्योंकि धनी किसानों व कुलकों ने तब भी लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के प्रति चिन्ता के कारण ही इसकी मुख़ालफ़त की थी।
ठेका खेती भारत में क़ानूनी फ्रेमवर्क में और बिना क़ानूनी फ्रेमवर्क के बहुविध रूप में जारी है। जहाँ तक क़ानूनी तौर पर जारी ठेका खेती की बात की जाय, तो भारत में उसके बहुत से उदाहरण हैं और ज़्यादातर इसके मोटे तौर पर सफल प्रयोग रहे हैं और इसके कई नकारात्मक अनुभव भी रहे हैं। ब्रॉयलर मुर्गों की ठेका फार्मिंग में किसानों को बाज़ार दाम से कम दाम कम्पनी से मिला, लेकिन इस मामले में कम्पनी द्वारा सुनिश्चित दाम मिलने से इन पोल्ट्री फार्मरों को पक्की आमदनी की गारण्टी मिली और साथ ही कई प्रकार की लागतें जो कि व्यक्तिगत फार्मरों को उठानी पड़ रही थी, उससे वे बच गये और इनमें से अधिकांश इस ठेका खेती को अपने लिए फ़ायदे का सौदा मानते हैं। इनके और आम तौर पर ठेका खेती के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं व अनुभवों के बारे में आप निम्न लिंक में पढ़ सकते हैं।
https://thewire.in/agriculture/india-contract-farming-ordinance-corporate-lifeline
https://meas.illinois.edu/wp-content/uploads/2015/04/MEAS-EVAL-2015-Broiler-India-short-Sasidhar-Suvedi-July-2015.pdf
यदि पंजाब और हरियाणा में ठेका फार्मिंग का विरोध किया जा रहा है, तो उसके इर्द-गिर्द मूल चिन्ता लाभकारी मूल्य की और इस रूप में राज्यसत्ता से मिलने वाले संरक्षण की ही है और यह विरोध हर प्रकार की ठेका खेती का नहीं है, केवल कारपोरेट ठेका खेती का है। धनी किसान व कुलक जो ठेका खेती कराते हैं, उससे इस किसान आन्दोलन को कोई समस्या नहीं है! वैश्विक अनुभव बताता है कि ठेका खेती में कारपोरेट पूँजी के प्रवेश के साथ उत्पादों के मूल्य बाज़ार के उतार-चढ़ाव पर ज़्यादा निर्भर करेंगे। यह अस्थिरता कई बार बहुत अच्छे दाम दे सकती है (यहाँ तक कि लाभकारी मूल्य से भी ज़्यादा) तो कभी मन्दी के दौर में लाभकारी मूल्य से कम दाम भी दे सकती है। धनी किसान और कुलक लाभकारी मूल्य के रूप में प्राप्त सरकारी संरक्षण को बचाना चाहते हैं और उस अस्थिरता से मुक्ति चाहते हैं।
यानी अपने तईं ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों से स्वयं ठेका खेती करवाने, कम दाम देने, लगान वसूलने पर ये धनी किसान व कुलक किसी प्रकार का सरकारी विनियमन या हस्तक्षेप नहीं चाहते हैं लेकिन अपने लिए हर प्रकार सरकारी संरक्षण चाहते हैं कि बाज़ार में बड़ी पूँजी के समक्ष टिक सकें! जब धनी किसान व कुलक यह तर्क भी देते हैं कि इस प्रकार के क़रार में मोलभाव करने में बड़ी कम्पनियों के सामने उनकी स्थिति कमज़ोर होगी तो इसके पीछे भी मूल चिन्ता बड़ी कारपोरेट पूँजी के समक्ष सरकारी संरक्षण ही है, हालांकि ग़रीब और छोटे किसानों को सरकार किसी प्रकार का संरक्षण जैसे कि रोज़गार गारण्टी, श्रम क़ानून आदि दे तो उसका सबसे पहले विरोध करने वाले ये धनी किसान और कुलक ही होंगे। याद रहे कि धनी किसानों व कुलकों ने मनरेगा लागू किये जाने का कई स्थानों पर विरोध किया था, क्योंकि यह औसत खेतिहर मज़दूरी को बढ़ा रहा था और खेतिहर मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता को बढ़ा रहा था। लेकिन कारपोरेट पूँजी से प्रतिस्पर्द्धा में कमज़ोर पड़ने पर धनी किसान और कुलक अपने लिए सरकारी संरक्षण चाहते हैं! यानी, अपने से नीचे वालों के लिए ये धनी किसान व कुलक उदार बुर्जुआ अर्थशास्त्र में यक़ीन करते हैं, लेकिन अपने से ऊपर के पूँजीपतियों के सामने आने पर ये अचानक कल्याणकारी कीन्सीय व संरक्षणवादी अर्थशास्त्र में यक़ीन करने लगते हैं! यह आम तौर पर हर प्रकार की छोटे व मंझोले पूँजीपति वर्ग का चरित्र होता है।
अभी तक दुनिया भर में ठेका खेती की वजह से मज़दूरों द्वारा ख़रीदे जाने वाले ‘वेज गुड्स’ की क़ीमतें निरंतर बढ़ने का कोई उदाहरण सामने नहीं है। उसमें बाज़ार के उतार-चढ़ाव की वजह से फ्लक्चुएशंस ज़रूर आते हैं, मगर स्वयं पूँजीपति वर्ग कभी भी खाद्यान्न की क़ीमतें ज़्यादा बढ़ने नहीं देना चाहता है और यांत्रिकीकरण, आधुनिकीकरण व श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर उसकी प्रति इकाई क़ीमतें घटाने का प्रयास करता है (जिसका अर्थ क़तई यह नहीं है कि इससे कृषि क्षेत्र के पूँजीपति का मुनाफ़ा भी अनिवार्यत: कम होता है, क्योंकि कुल उत्पादित मूल्य में मुनाफ़े का हिस्सा आम तौर पर श्रम उत्पादकता बढ़ने के कारण बढ़ता है और बेहतर तकनोलॉजी रखने वाले पूँजीपति की बाज़ार हिस्सेदारी भी ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी क़ीमतें देने के कारण बढ़ता है)।
आप इतना मानकर चल सकते हैं कि ठेका खेती से क़ीमतों में चाहे जो भी अस्थिरता आएगी, पूँजीपति वर्ग आम तौर पर देर तक उन्हें क़तई ऊपर नहीं जाने देना चाहता है। यही वजह है कि जनवरी 2014 में ही जबकि कांग्रेस की सरकार थी तो रिज़र्व बैंक के तत्कालीन कार्यकारी निदेशक दीपक मोहन्ती ने कहा था कि मौजूदा संकट से निपटने के लिए खाद्यान्न की क़ीमतों को नीचे रखना बहुत ज़रूरी है क्योंकि यह औसत मज़दूरी को नीचे रखने के लिए अनिवार्य है और इसे सुनिश्चित करने के लिए ठेका खेती की व्यवस्था की जानी चाहिए! आप देख सकते हैं कि औद्योगिक-वित्तीय बुर्जुआज़ी किस प्रकार अपना हित समझती है। यदि ठेका खेती से आम तौर पर खाद्यान्नों की क़ीमतें ऊपर जाने का दबाव होता तो पूँजीपति वर्ग कभी भी इसे लागू नहीं करता। उल्टे लाभकारी मूल्य के बढ़ने से खाद्यान्नों की क़ीमतें नीचे नहीं आ पातीं और उन पर बढ़ने का दबाव बना रहता है।
संक्षेप में, ठेका खेती की व्यवस्था का आम मेहनतकश ग़रीब आबादी पर यही फ़र्क़ पड़ेगा कि उसके लुटेरे की जगह पर पहले जो धनी किसान व कुलक था, अब कारपोरेट पूँजी आ जायेगी और उसके आने से मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान पर अलग-अलग जगह पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा है। लेकिन अभी उसकी जो स्थिति है, वह भी बद से बदतर ही होती जा रही है जिसके लिए मुख्य रूप से गाँव का पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसान, कुलक, सूदखोर और आढ़ती ही ज़िम्मेदार हैं। इसलिए सरकारी संरक्षणवाद को हटाकर मुक्त व्यापार की व्यवस्था का यहाँ आना अपने आप में व्यापक मेहनतकश आबादी के लिए यही अन्तर लाती है, इससे ज़्यादा नहीं।
इसके अलावा, ऐतिहासिक तौर पर छोटी पूँजी का बचाने वाले संरक्षणवाद का ख़त्म होना और मुक्त व्यापार का आना एक प्रगतिशील क़दम है, जैसा कि मार्क्स ने बार-बार बताया था। इंग्लैण्ड में कॉर्न क़ानूनों का ख़त्म होना खेती के उत्पाद के बाज़ार से संरक्षणवाद का समापन और मुक्त व्यापार का आना ही था, जो कि ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील ही था।
संरक्षणवाद की यह पूरी सोच किसका संरक्षण करती है, यह देखा जाना चाहिए। मज़दूरों के हितों का तो यह क़तई संरक्षण नहीं करती है! हम हर उस प्रकार का संरक्षण माँगेंगे जिससे कि मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश ग़रीब आबादी का फ़ायदा होता है मसलन, भोजन का अधिकार, काम का अधिकार, सरकारी आवास का अधिकार आदि। लेकिन हम धनी किसानों व कुलकों के लिए ऊंचे लाभकारी मूल्य को क्यों माँगेंगे? इससे तो मज़दूर वर्ग का नुक़सान ही है।
इसलिए कोई साझा न्यूनतम सहमति वाला मोर्चा न तो लाभकारी मूल्य को बचाने के सवाल पर मौजूदा किसान आन्दोलन से बन सकता है और न ही ठेका खेती के छोटी पूँजी को बचाने के सरोकार से किये जा रहे विरोध पर मौजूदा किसान आन्दोलन से बन सकता है, क्योंकि ठेका खेती पूरे देश में पहले से ही हो रही है और यहाँ पर उसका विरोध करने के पीछे भी किसान आन्दोलन का मुख्य सरोकार लाभकारी मूल्य ही बचाना है। अन्यथा, धनी किसानों व कुलकों को यह माँग करनी चाहिए हर प्रकार की ठेका खेती, औपचारिक या अनौपचारिक, पर सरकार पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दे, सभी ग़रीब किसानों को सरकार संस्थागत ऋण दे ताकि उसे चालू पूँजी मिल सके और साथ ही उन्हें अपने उत्पाद को मण्डी तक पहुँचाने का सरकारी इन्तज़ाम दे और हर रूप में सूदखोरी को दण्डनीय अपराध बना दे! क्या धनी किसान व कुलक यह माँग करेंगे या कर रहे हैं? नहीं! क्योंकि ठेका खेती की व्यवस्था द्वारा जब तक वे ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों को लूटें तब तक तो ठीक है, मगर उनका ये एकाधिकार यदि कारपोरेट पूँजी के घुसने से टूटता है, तो उन्हें समस्या है! यही सच्चाई है, चाहे आपके नरोदवादी और क़ौमवादी कानों से यह सच्चाई खून ही क्यों न निकाल दे!
आवश्यक वस्तुओं की स्टॉकिंग के विनियमन की समाप्ति और मज़दूर वर्ग व ग़रीब किसान वर्ग
आखिरी प्रावधान वह है जिसके अनुसार आवश्यक वस्तुओं के क़ानून में बदलाव किया जा रहा है। यह वह परिवर्तन है जो कि व्यापारियों, धनी किसानों, आढ़तियों, सूदखोरों को बिल्कुल नुक़सान नहीं पहुँचाता है, बल्कि फ़ायदा ही पहुँचाता है और साथ ही व्यापक ग़रीब मेहनतकश आबादी को नुक़सान पहुँचाता है। यही वजह है इस प्रावधान पर भी धनी किसानों व कुलकों का नेतृत्व ज़्यादा चूं-चपड़ नहीं कर रहा है। इस प्रावधान का विरोध ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों को अपने मंचों से करना होगा और इसके लिए उन्हें अपना राजनीतिक रूप से स्वतंत्र एक अलग आन्दोलन खड़ा करना होगा। यही आन्दोलन सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बहाल करने की माँग और आन्दोलन से भी जुड़ता है। ये ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर आबादी खेती में लगी कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। ये आबादी अपनी स्वतंत्र माँगों पर संगठित होकर एक शक्तिशाली आन्दोलन खड़ा कर सकती है। जब तक यह आबादी अपने आपको धनी किसानों और कुलकों के मंचों व राजनीतिक नेतृत्व से मुक्त नहीं करती तब तक वह अपने ही वर्ग हितों के विरुद्ध धनी किसानों व कुलकों के वर्ग की पुछल्ला बनी रहेगी। जो ताक़तें इस स्थिति को बदलने की बजाय, इसे बढ़ावा देने का काम कर रही हैं, वे सीधे-सीधे वर्ग सहयोगवाद और पिछलग्गूवाद की वकालत कर रही हैं। ऐसी ही एक ताक़त है पंजाब के ट्रॉट-बुण्डवादी, यानी ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप का नेतृत्व। आइये देखते हैं कि इनकी दलीलें क्या हैं और वे कैसे बदल रही हैं।
ट्रॉट-बुण्डवादियों के नये कुतर्क
जनता के संघर्ष और मज़दूर वर्ग की बात करते हुए इन्होंने एक नयी टिप्पणी पेश की है। यह ऐसे-ऐसे गहनों से भरी है, जिसे देखकर आँखें चुंधिया जाती हैं! आइए, इनमें से कुछ गहनों को देखते हैं।
इनका कहना है कि पहले से ऋण में दबे ग़रीब और मंझोले किसान इन तीन कृषि अध्यादेशों की ज़द में आ रहे हैं और इसलिए उन्हें जारी किसान आन्दोलन के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलना चाहिए! इन्होंने कोई तथ्य देने की आवश्यकता नहीं समझी कि ये ग़रीब व मंझोले किसान किसके क़र्ज़ तले दबे हैं और मौजूदा किसान आन्दोलन क्या उस क़र्ज़ से उन्हें मुक्त करने की कोई माँग कर रहा है? सच्चाई यह है कि भारत में 80 फ़ीसदी किसानों के पास संस्थागत ऋण तक कोई पहुँच ही नहीं है और इसलिए वे सरकारी बैंकों व वित्तीय संस्थाओं के ऋण तले नहीं दबे हैं, बल्कि उन्हीं धनी किसानों व कुलकों के अन्यायपूर्ण ब्याज़ दर वाले ऋणों तले दबे हैं, जिनके किसान आन्दोलन के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का ये ट्रॉट-बुण्डवादी मज़दूर वर्ग का आह्वान कर रहे हैं। यह किस प्रकार का तर्क है? तर्क तो यह है ही नहीं, यह शुद्ध कुतर्क है! इस कुतर्क के ज़रिये ये ट्रॉट-बुण्डवादी मज़दूर वर्ग को अपने ही शोषक खेतिहर पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसानों व कुलकों के साथ वर्ग सहयोग करने की सलाह दे रहे हैं, वह भी उन्हीं कर्जों का हवाला देकर जो कि इन्हीं धनी किसानों व कुलकों ने ग़रीब मज़दूरों व निम्न व निम्न मध्यम किसानों पर लाद रखे हैं! खैर, ट्रॉट-बुण्डवादियों से कोई ठोस तथ्य-आधारित तर्क करने की उम्मीद तो अब ज़्यादातर लोग छोड़ ही चुके हैं। लेकिन बस मनोरंजन की ख़ातिर इनके कुछ और चमत्कारों पर ग़ौर करते हैं!
ये ट्रॉट-बुण्डवादी अपनी नई टिप्पणी में मानो अपने आपको याद दिलाते हैं कि अभी वे नवजनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम पर नहीं गये हैं। वह कहते हैं कि केन्द्रीय इजारेदार बुर्जुआज़ी की सरकार के द्वारा (जिसका इन मूर्खों के अनुसार कोई क़ौमी मूल ही नहीं है, यानी वह बहुक़ौमी भी नहीं है! दूसरे शब्दों में, वह मंगल ग्रह से आई है!) केन्द्रीकरण और निजीकरण के ज़रिये इजारेदारीकरण का जो प्रयास किया जा रहा है, उसका असली निशाना मज़दूर वर्ग है। बिल्कुल सही है। इजारेदारीकरण का अर्थ होता है पूँजी का सांद्रण और संकेन्द्रण (concentration and centralization of capital) जिससे कि एक हद तक बेशी मूल्य की दर बढ़ती है, बड़ी पूँजी बाज़ार से अपने छोटे प्रतिस्पर्द्धियों को साफ करती है और मज़दूरों के शोषण को निरपेक्ष व सापेक्ष रूप से बढ़ाने की स्थितियां पैदा करती है।
लेकिन मज़दूर वर्ग इसका विरोध किस प्रकार करता है? जैसे कि वह शोषण की दर को बढ़ाने के हर प्रयास का विरोध करता है, जैसे कि वह कार्यस्थितियों को बद से बदतर बनाने के पूँजीपति वर्ग के हर प्रयास का विरोध करता है, चाहे वह ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति वर्ग द्वारा किया जाय, या इजारेदार पूँजीपति वर्ग द्वारा किया जाय। हम इजारेदारीकरण का विरोध छोटी पूँजी की ज़मीन से खड़े होकर नहीं करते हैं कि ”छोटी पूँजी को बचाओ, इजारेदारीकरण को रोको!” या ”छोटी पूँजी को संरक्षण दो, इजारेदारों से बचाओ!” लेकिन हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी इस बुनियादी प्रश्न को भूल गये या जानबूझकर उन्होंने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। ऐतिहासिक तौर पर इजारेदारीकरण तो प्रगतिशील होता है, उत्पादन का अभूतपूर्व समाजीकरण करता है, और समाजवाद की ज़मीन तैयार करता है।
सभी लेनिनवादी लेनिन की इस बुनियादी थीसिस को जानते हैं कि ”साम्राज्यवाद समाजवादी क्रान्ति की पूर्ववेला है”। इसका अर्थ कई लोगों ने यह निकाल लिया था कि साम्राज्यवाद आने का मतलब है कि समाजवादी क्रान्ति बस अब होने ही वाली है! लेकिन इसका अर्थ ठीक यह है कि इजारेदार पूँजीवाद, यानी कि साम्राज्यवाद इजारेदारी, पूँजी के सांद्रण और संकेन्द्रण, उत्पादन के समाजीकरण और मज़दूर वर्ग के आकार को इस कदर बढ़ाता है कि अब पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर वह किसी नये चरण में नहीं जा सकती है; यह पूँजीवाद की चरम अवस्था होती है और इस रूप में पूँजीवाद की कोई नई मंज़िल नहीं आने वाली होती है, और इस रूप में, ऐतिहासिक तार्किक अर्थों में साम्राज्यवाद समाजवादी क्रान्ति की पूर्ववेला होती है। यही कारण है कि यह इजारेदारीकरण ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील है, हालांकि यह छोटी और मंझोली पूँजी को उजाड़ता है।
ऐसे में, जब इजारेदारीकरण मंझोली और छोटी पूँजी को उजाड़ता है, और साथ ही छोटे माल उत्पादकों को भी उजाड़ता है, तो कम्युनिस्ट उस पर क्या रवैया अपनाते हैं? मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन बताते हैं कि कम्युनिस्ट छोटी पूँजी को बचाने के यूटोपिया नहीं पेश करते, वे पूँजीपतियों के एक हिस्से के उजड़ने (”एक पूँजीपति कई पूँजीपतियों को खाता है।” – मार्क्स) पर न तो मातम मनाते हैं और न ही ”संयुक्त मोर्चा” बनाने उनके मंच पर जाते हैं।
ऐसी स्थिति में कम्युनिस्टों के ये कार्यभार होते हैं: पहला, वे उजड़ने वाले छोटे माल उत्पादकों, ग़रीब किसानों, निम्न मध्यम किसानों, इत्यादि को इस सच से वाकिफ़ कराते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर उनकी यही नियति होगी और उनकी माँगें धनी किसानों, छोटे व मंझोले पूँजीपति वर्ग के साथ साझा नहीं हैं; दूसरा, उन्हें यह समझाना कि उन्हें अपनी स्वतंत्र माँगों, इस मामले में, तीन माँगों पर अलग से गोलबन्द और संगठित होना चाहिए: पहला, रोज़गार गारण्टी की माँग, दूसरा समस्त खेतिहर क्षेत्र को श्रम क़ानूनों के मातहत लाने की माँग, और तीसरा, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरो के सभी क़र्ज़ों (जिसमें कि माइक्रो-क्रेडिट स्कीमों के कर्जों से लेकर सूदखोरों द्वारा दिये गये क़र्ज़ शामिल हैं) की पूर्ण माफ़ी। लाभकारी मूल्य को बचाने के लिए उठाई जाने वाली सभी माँगों के लिए खड़े आन्दोलन के मंचों पर जाकर सुर मिलाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। उजड़ती छोटी पूँजी और माल उत्पादकों को बचे रहने का रूमानी यूटोपिया देना न सिर्फ़ प्रतिक्रियावादी है, बल्कि सीधे-सीधे मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ जाता है।
यह भी ग़ौरतलब है कि इन ट्रॉट-बुण्डवादियों ने अपनी इस नयी पोस्ट में संघवाद की बीन नहीं बजाई है। उनकी इस बीन से जो बेसुरा राग निकला था, उसकी आन्दोलन में पहले ही काफी छीछालेदर हो चुकी है क्योंकि हर संजीदा कम्युनिस्ट जानता है कि हम किसी भी बहुक़ौमी देश में संघवाद नहीं बल्कि जनवादी केन्द्रीयता के पक्ष में होते हैं (यानी, शुद्धत: स्थानीय मसलों में एक केन्द्रीय आर्थिक योजना को लागू करने और प्रशासकीय ढांचे को बनाने में क्षेत्रीय स्वायत्तता)। हम किसी भी तौर शैक्षणिक स्वायत्ता, भाषा के स्कूलों, व राष्ट्रीय-सांस्कृतिक स्वायत्तता के पूर्ण रूप से ख़िलाफ़ होते हैं। साथ ही, हम प्रान्तों के संघीय अधिकारों के निषेध का अपने आप में विरोध नहीं करते हैं और न ही समर्थन करते हैं, बल्कि यह देखते हैं कि हर मसले में सर्वहारा वर्ग के हितों के लिए क्या अनुकूल है। इतनी सामान्य-सी बात भी न पता होने के कारण पहले ट्रॉट-बुण्डवादियों ने कृषि अध्यादेशों के मसले को पूरी तरह से संघवाद के उल्लंघन का मसला बनाकर संघवाद की पिपहरी बजाते हुए काफ़ी ‘पागले डांस‘ किया! लेकिन अब जबकि इस पर काफी छीछालेदर हो गयी, तो नयी पोस्ट में इन्होंने संघीय अधिकारों का सोहर बिल्कुल नहीं गाया है! यह इनकी पुरानी आदत है। किसी प्रश्न पर मट्टी पलीद हो जाने के बाद ये चुपके से उस पर बोलना बन्द कर देते हैं! यह सिर्फ़ यही दिखाता है कि इनमें क्रान्तिकारी साहस का नितान्त अभाव है।
ट्रॉट-बुण्डवादियों ने अपना यह तर्क दुहराया है कि यदि ए.पी.एम.सी. मण्डियां ख़त्म हो गयीं तो इसमें काम करने वाले मज़दूर बेरोज़गार होकर ग़रीबों की जमात में शामिल हो जायेंगे! यह भी बकवास तर्क है। पहली बात तो यह है कि ए.पी.एम.सी. मण्डियों के समाप्त होने के कारण कृषि उत्पाद का विपणन व व्यापार ही नहीं ख़त्म हो जायेगा! वह तब भी रहेगा और तब भी उसमें परिचलन के क्षेत्र में उपयोग में आने वाली श्रमशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। जिन राज्यों में इस व्यापार और विपणन पर ए.पी.एम.सी. मण्डियों का एकाधिकार नहीं है और जहाँ लाभकारी मूल्य की व्यवस्था नहीं है, क्या वहाँ अन्य ट्रेड एरियाज़ में अनाज का व्यापार नहीं होता, क्या वहाँ इस विपणन में श्रमशक्ति नहीं लगती? आप देख सकते हैं कि यहाँ पर सवाल यह है कि इस विपणन व व्यापार में लगने वाली श्रमशक्ति का दोहन कौन करेगा? अभी यह दोहन आढ़तिये, धनी किसान, बिचौलिये, सूदखोर करते हैं, बाद में यह शोषण बड़ी कारपोरेट पूँजी करेगी। इसमें अपने आप में मज़दूर वर्ग दो शोषकों में से एक को चुनने के लिए धनी किसानों के मंच पर जाकर पिछलग्गू क्यों बने? खास तौर पर तब जबकि इस मज़दूर वर्ग को इन ए.पी.एम.सी. मण्डियों में बेहद बुरी स्थितियों में काम करना पड़ता है, इन्हें न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती है और पूरे साल काम भी नहीं मिलता है। इनकी हालत देखने के लिए बस एक बार किसी ए.पी.एम.सी. अनाज मण्डी में जाने की आवश्यकता है।
सारे तथ्यों के सामने हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी मध्यकालीन स्कॉटिश सेना के सिपाहियों के समान मुड़कर अपने घाघरे उठा देते हैं! इनका कहना है कि मौजूदा आन्दोलन में ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों की शानदार एकता बन गयी है! हमारा पूछना है: किससे?! धनी किसानों और कुलकों से? तो इसमें इतना खुश होने की क्या बात है! यह तो एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए कि ग़रीब और निम्न मध्यम किसान तथा खेतिहर मज़दूर अपने ही हक़ के ख़िलाफ़ धनी किसानों व कुलकों के साथ ”एकता” बना रहे हैं।
कोई रणकौशलात्मक (tactical) मोर्चा भी सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग तब नहीं बना सकता है जबकि वह अपने वर्ग हितों और राजनीतिक स्वतंत्रता को छोड़कर शत्रु वर्ग के वर्ग हितों के लिए लड़ने लगे! जब आप किसी शत्रु वर्ग से किसी और बड़े शत्रु के विरुद्ध मोर्चा बनाते भी हैं, तो आप उस मोर्चे के चार्टर और एजेण्डा में कोई ऐसी माँग नहीं शामिल करते जो आपके ही हितों के ख़िलाफ़ जाये और आपके वर्ग हितों को उसमें स्थान ही न मिले। इस प्रकार अपने वर्ग हितों और राजनीतिक स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर आप शत्रु के साथ मोर्चा नहीं बना रहे होते हैं, बल्कि उसके दलाल बन रहे होते हैं! लेकिन हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी मोर्चा बनाने और खुद शत्रु वर्ग के दलाल बन जाने का अन्तर नहीं समझते हैं और यह दावा करते हुए नाच उठे हैं कि ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों ने इस आन्दोलन में धनी किसानों के साथ एकता बना ली है!
फ़ासीवाद का विरोध करने में भी धनी किसानों और कुलकों से कोई मोर्चा नहीं बनता। लाभकारी मूल्य के अपने आर्थिक हितों के पूर्ण होते ही ये भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी और अकाली दल जैसी धार्मिक कट्टरपन्थी पार्टी को जाकर वोट देगा क्योंकि आम तौर पर उसके वर्ग हितों का प्रतिनिधित्व ये पार्टियां करती हैं। यह अनायास नहीं है कि मोदी सरकार आने के बाद पिछले वर्ष तक लाभकारी मूल्य में बढ़ोत्तरियां ही की गयी हैं। अन्य राज्यों में भी ये धनी किसान व कुलक आबादी उन्हीं क्षेत्रीय पार्टियों के साथ खड़ी होगी जिनका इतिहास हमेशा ही गाँव और शहर के मेहनतकशों के आन्दोलनों के बर्बर दमन का रहा है और मौका देख कर इस या उस बड़ी बुर्जुआज़ी की पार्टी की गोद में बैठ जाने का रहा है। अगर नरोदवादियों और क़ौमवादियों को लगता है कि लाभकारी मूल्य की रागणी में घड़ा पीटने से इनको धनी किसानों व कुलकों के वर्ग का राजनीतिक समर्थन हासिल हो जायेगा, तो भी यह मूर्खता ही है। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होने के समय भी नरोदवादियों ने व्यापारियों के आन्दोलन की बारात में नाचकर यही उम्मीद की थी कि उनका ”राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग” यानी व्यापारी वर्ग व छोटा उद्यमी वर्ग उन्हें समर्थन देने लगेगा। एक दशक का समय बीत चुका है। आप स्वयं देख लीजिये, यह पूरा वर्ग किस पार्टी का सामाजिक आधार बना हुआ है।
हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी धनी किसानों व कुलकों के मंच पर शहनाई वादन के लिए हर प्रकार के तर्क दे रहे हैं जैसे अभी तो फ़ासीवाद से लड़ना है, अभी तो इस परजीवी वित्तीय इजारेदारी से लड़ना है, अभी प्राकृतिक संसाधन के विनाश के ख़िलाफ़ लड़ना है, वग़ैरह। मगर यह सब धनी किसानों व कुलकों के मंच पर जाकर, सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग के हितों व राजनीतिक स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर कैसे होगा, ये हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी नहीं बता पा रहे हैं। वे नहीं बता पा रहे हैं कि मोदी सरकार के कृषि अध्यादेश का विरोध खेतिहर मज़दूर आबादी और ग़रीब व निम्न मध्यम किसान अपने स्वतंत्र मंच से क्यों नहीं कर सकते और उन्हें क्यों नहीं करना चाहिए?
नतीतजन, हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी इन धनी किसानों व कुलकों के मंच पर उनकी पूंछ में बंधकर घिसट रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण क्या है? जिस लाभकारी मूल्य के ख़िलाफ़ पिछले डेढ़ दशक ये खूब बोलते रहे हैं, उस पर ये बिल्कुल चुप्पी साधे हुए हैं, कुछ नहीं बोल रहे हैं! इस तरीके से हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी ग़रीब किसानों व मज़दूरों की धनी किसानों व कुलकों से ”एकता” बना रहे हैं! यह वर्ग सहयोगवाद और कुछ नहीं बल्कि सर्वहारा वर्ग को धोखा देना है। इसलिए ट्रॉट-बुण्डवादियों के इस वर्ग सहयोगवाद को निर्ममता से नंगा किया जाना चाहिए और राजनीतिक कतारों और उन्नत सर्वहारा तत्वों को इसके ख़तरनाक चरित्र से अवगत कराया जाना चाहिए।
इस आन्दोलन का चरित्र निगमनात्मक तरीके से (deductively) भी समझा जा सकता है। इसमें तमाम बुर्जुआ पार्टियां कूद चुकी हैं जैसे कि अकाली दल से लेकर राजद और ममता बनर्जी से लेकर कांग्रेस तक। यह बेवजह नहीं है कि खेतिहर पूँजीपति वर्ग की शिकायतों के किसी प्रकार के समझौते द्वारा निपटारे के लिए तमाम बुर्जुआ दल भी इस किसान आन्दोलन के समर्थन में आ गये हैं। संसदीय वामपन्थी भी इस आन्दोलन के समर्थन में शुरू से ही मौजूद हैं और इनकी ऑल इण्डिया किसान सभा इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है। इनका भी सारा का सारा ज़ोर लाभकारी मूल्य के प्रश्न पर ही है। इसके अलावा, पंजाब और हरियाणा में तमाम सड़कछाप बाज़ारू गायक-कलाकार भी इसमें कूद पड़े हैं। यह Hkh अनायास नहीं है। यह इन शक्तियों का वर्ग चरित्र है, जो इन्हें इस किसान आन्दोलन की ओर आकर्षित कर रहा है। ज़रा सोचिये, इसी बीच श्रम क़ानूनों में भी अध्यादेशों के रास्ते मोदी सरकार ने ख़तरनाक परिवर्तन किये हैं, लेकिन इस पर इस तरह का कोई हो-हल्ला नहीं मचा! न तो किसी पार्टी के मन्त्री ने कैबीनेट से इस्तीफा दिया और न ही कोई पार्टी शासक गठबन्धन से अलग हुई, न कोई गवनिया-बजनिया आगे आया और न ही किसी संसदीय वामपन्थी दल ने इस पर इतना हल्ला मचाया! लेकिन कुल किसान आबादी के ऊपर के 5 से 6 प्रतिशत धनी किसानों और कुलकों के हितों की बात आते ही तमाम पूँजीवादी दल, संशोधनवादी, नरोदवादी, टटपुंजिया क़ौमवादी इसमें कूद पड़े। ठीक ही कहा गया है: ‘वर्ग वर्ग को पहचानता है।‘
ऐसे में, हमें भी अपने वर्ग हितों को पहचानना चाहिए और राजनीतिक तौर पर अपने वर्ग हितों पर गोलबन्द और संगठित होना चाहिए। जो वर्ग ऐसा नहीं करता, वह उन वर्गों का पुछल्ला बनने के लिए अभिशप्त होता है, जो राजनीतिक तौर पर संगठित होते हैं। और जब तथाकथित ”मार्क्सवादी” लेकिन असल में क़ौमवादी इस प्रकार मज़दूर वर्ग को बुर्जुआज़ी का पुछल्ला बनाने में व्यस्त हो जायें, तो विशेष तौर पर उनको अनावृत्त करना अनिवार्य हो जाता है।
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