ज़रूर प्रधानमन्त्री जी! बचे-खुचे श्रम-क़ानूनों को भी क्यों न ख़त्म कर दिया जाये क्योंकि अब वे भी मुनाफ़े की हवस में बाधा बन रहे हैं!
शिशिर
प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने 13 फ़रवरी को राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए फरमाया कि देश में मौजूद श्रम क़ानूनों को और अधिक लचीला बनाये जाने की ज़रूरत है। इस ”भले मानुष” का विचार है कि मौजूदा श्रम क़ानून रोज़गारशुदा मज़दूरों के पक्ष में ज़्यादा हैं और इससे उद्योग जगत को नुक़सान होता है। जब मन्दी के दौर में कम्पनियों को अपने मज़दूरों की छँटनी करनी होती है तो मालिकों को इन क़ानूनों के कारण असुविधा होती है। मौजूदा औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुसार अगर किसी कारख़ाने में 100 से ज़्यादा मज़दूर हैं तो उसे बन्द करने से पहले मालिक को सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है, मुआवज़ा देना पड़ता है, कई औपचारिकताएँ निभानी पड़ती हैं। प्रधानमन्त्री महोदय अर्थशास्त्र की अपनी ”गहरी” जानकारी के आधार पर यह सुझाव दे रहे हैं कि इस पूर्वशर्त को समाप्त कर दिया जाना चाहिए ताकि पूँजीपति जब चाहे तब मज़दूरों को काम से बाहर कर दे! साथ ही मनमोहन सिंह का मानना है कि ठेका मज़दूर अधिनियम को भी ज़्यादा ”लचीला” बनाये जाने की आवश्यकता है! हालाँकि ठेका मज़दूर क़ानून पहले से ही काफ़ी लचीला है, यानी कि पूँजीपति उसे अपने लाभ के मुताबिक़ तोड़-मरोड़ सकें, इसका पूरा इन्तज़ाम उस क़ानून के भीतर ही मौजूद है! लेकिन मनमोहन सिंह को इतना लचीलापन नाकाफ़ी लगता है! वह मानते हैं कि ठेका मज़दूरों को इस क़ानून के मुताबिक़ जितनी सहूलियतें मिलती हैं, उसके कारण उद्योगपति उद्योग लगाने से पहले ही हतोत्साहित हो जाते हैं; इसका नुक़सान प्रधानमन्त्री के मुताबिक़ बेरोज़गार मज़दूरों को होता है! इसलिए रोज़गार बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि मुनाफ़ा कमाने के रास्ते में जितने भी नियम-क़ानून बाधा बनते हैं उन्हें इतना लचीला बना दिया जाये, कि उनका कोई मतलब ही न रह जाये। अगर ऐसा कर दिया जाये तो फिर पूँजीपति बेलाग-लपेट निवेश करेगा और खूब रोज़गार पैदा होगा! इस नायाब तरक़ीब के बारे में तो जितना कहा जाये कम है!
साफ़ है कि प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मन्दी के दौर में पूँजी के घटते मुनाफ़े की भरपाई करने के लिए मज़दूरों को और अधिक लूटने का इन्तज़ाम करने की बात कही है। राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में उनका यह बेशर्म भाषण इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की लूट को और अधिक आसान और प्रभावी बनाने के लिए बचे-खुचे श्रम क़ानूनों में भी संशोधन किया जायेगा। हर मज़दूर जानता है कि जो क़ानून उनके लिए किताबों में पहले से ही दर्ज़ हैं वे भी आज देश में लागू नहीं होते। ठेका मज़दूरी क़ानून के मुताबिक़ हर ठेका मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे के काम के दिन का अधिकार, ई.एस.आई., पी.एफ़ आदि की सुविधा, साप्ताहिक छुट्टी, डबल रेट से ओवरटाइम का हक़ मिलना चाहिए। लेकिन देश के क़रीब 50 करोड़ असंगठित क्षेत्र में मज़दूरों को कहीं भी यह हक़ हासिल नहीं है। औद्योगिक विवाद क़ानून के मुताबिक़ 100 मज़दूरों वाले कारख़ाने को पूँजीपति तुरन्त बन्द नहीं कर सकता है। इसके लिए उसे सरकारी इजाज़त और मज़दूरों को मुआवज़ा और पूर्वसूचना देने की आवश्यकता होती है। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में इस सीमा को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया था। लेकिन उसे लागू करने के दौर में ही चुनाव आ गये थे, जिसके कारण भाजपा-नीत राजग सरकार ने इस प्रस्ताव को ठण्डे बस्ते में डाल दिया था। लेकिन अब पूँजीपति वर्ग के टट्टू और ये तीन तिलंगे मनमोहन-मोण्टेक-प्रणब इसे लागू करने का मूड बना चुके हैं। ज़ाहिर है कि जो मज़दूर रोज़गारशुदा हैं उनके सिर पर जो अनिश्चितता और कभी भी सड़क पर आ जाने का ख़तरा मँडराता रहता है, वह और भी ज़्यादा हो जायेगा।
मनमोहन सिंह ने हमेशा से पूँजीपति वर्ग की वफ़ादारी के साथ सेवा की है। 1991 के जब वह नरसिंह राव की सरकार में वित्त मन्त्री थे, तभी उन्होंने अपनी क्षमता का परिचय देते हुए नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत की थी। इन नीतियों का मक़सद था कि देश की कुदरत और मेहनत दोनों को पूँजी के लिए खुला चरागाह बना देना। तभी से श्रम क़ानूनों को लचीला बनाने, अर्थव्यवस्था को खोलने, पब्लिक सेक्टर को पूँजीपतियों के हाथों औने-पौने दामों पर बेचने, आदि का काम शुरू हो गया था। भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार ने इसी प्रक्रिया को और अधिक ज़ोर-शोर से आगे बढ़ाया और उसी समय विनिवेश मन्त्रालय बनाया गया, जिसका मक़सद था देश के मेहनतकशों और आम जनता की बचत के बूते खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर को नंगई के साथ पूँजीपतियों के हवाले करना। इसी समय विशेष आर्थिक क्षेत्रों को बनाने की शुरुआत की गयी जिसमें मौजूदा श्रम क़ानून भी लागू नहीं होते और मज़दूरों को खुले तौर पर ग़ुलामों की तरह खटाने के लिए पूँजीपति आज़ाद होते हैं। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धान की सरकार बनने के बाद मज़दूरों के नाम पर नरेगा आदि जैसी कुछ योजनाएँ लागू की गयीं, जो गाँव की निर्धनतम आबादी को न तो आबाद होने देती हैं, और न ही पूरी तरह से बरबाद। इस योजना का काम है गाँव के ग़रीब मज़दूरों को भुखमरी की हालत में ज़िन्दा रखना और शहर जाने से रोकना ताकि शहर में बेरोज़गार मज़दूरों की भीड़ तेज़ी से न बढ़े और धनपशुओं के महल सुरक्षित रहें! पिछले 6 वर्ष में यह बात साबित हो चुकी है कि नरेगा से ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को कुछ नहीं मिला है, लेकिन नौकरशाहों, अफ़सरों, बी.डी.ओ., तहसीलदारों और सरपंचों की जेबें गर्म हो रही हैं। इससे पूँजीवादी सत्ता को गाँवों में इन दबंगों, धानाढ्यों, और पूँजीवादी राजनीति करने वाले पंचों के रूप में अपने सामाजिक आधार को मज़बूत करने और गाँव के मज़दूरों में पूँजीवादी सत्ता के ”कल्याणकारी” होने का भ्रम पैदा करने में मदद मिली है। लेकिन ऐसा कोई भ्रम हमेशा ज़िन्दा नहीं रहता। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन का दूसरा कार्यकाल 2009 में शुरू हुआ और इस बार सरकार ने खुलकर पूँजीपतियों के हितों को साधने का काम शुरू किया। सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर एकदम नंगी होकर आज हमारे सामने है। चाहे देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा को विशेष आर्थिक क्षेत्र और मेमोरैण्डम ऑफ अण्डरस्टैण्डिंग के जरिये कारपोरेट पूँजीपति घरानों के हवाले करने का मामला हो या एक-एक करके मज़दूरों से उनके रहे-सहे अधिकारों को छीनने का मामला मनमोहन-मोण्टेक-प्रणब की तिकड़ी ने सारे कीर्तिमान धवस्त कर डाले हैं। मन्दी के दौर में पूँजीपति वर्ग के गिरते मुनाफ़े की भरपाई करने के लिए किसी भी पार्टी की सरकार यही करती। भाजपा तो यह काम और तेज़ी और तानाशाहाना रवैये के साथ करती। मज़दूरों के दमन के मामले में भाजपा और कांग्रेस के बीच कौन ज़्यादा घटिया और घिनौना है, इसका फ़ैसला करना मुश्क़िल हो गया है। राज्यों में माकपा और भाकपा जैसे संसदीय वामपन्थियों ने भी साबित कर दिया है कि पूँजी के तलवे चाटने के लिए अगर कहीं मज़दूरों और ग़रीब किसानों का कत्ले-आम करना पड़े तो वे भी पीछे नहीं रहेंगे।
ऐसे में, प्रधानमन्त्री का ताज़ा बयान कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता। वह यही दिखला रहा है कि जब पूरी की पूरी पूँजीवादी व्यवस्था मन्दी के भँवर में फँसती है तो पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का काम करने वाली सरकार रक्षा के लिए आती है और इस मन्दी का पूरा बोझ मज़दूर वर्ग पर डालने के लिए हर ज़रूरी क़दम उठाती है। यही इस समय मनमोहन सिंह कर रहे हैं। इस समय पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली किसी भी पार्टी की सरकार यही करती। ऐसे में, मज़दूरों को यह सोचना होगा कि इस क़िस्म के मज़दूर-विरोधी क़दमों पर वह चुप बैठेंगे या जुझारू संघर्ष छेड़ देने के लिए संगठित होकर सड़कों पर उतरेंगे; यह उन्हें तय करना है कि जब एक-एक करके सारे हक़-हुकूक उनसे छीने जा रहे हैं, जो हमारे गौरवशाली पूर्वजों ने लड़कर पूँजीवादी व्यवस्था से हासिल किये थे, तो वे तमाशबीन बने रहेंगे या इस लुटेरे निज़ाम की ईंट से ईंट बजाने के लिए गोलबन्द होंगे और आवाज़ उठायेंगे। फ़ैसला हमारे हाथ में है, यह किस्मत का लेखा नहीं है!
मज़दूर बिगुल, मार्च 2012
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