चुनावी पार्टियों के फ़ण्ड से काले धन को सफ़ेद करने की स्कीम
वृषाली
हाल में ही जब मोदी जी और उनकी सरकार ने ‘काले धन’ पर नोटबन्दी ने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का जि़म्मा उठाया था तो यह सवाल भी उठा कि चुनावबा़ज पार्टियों को मिल रहे काले धन पर कैसे रोकथाम लगायी जाये? बहस उठी कि तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के वित्तीय लेखे-जोखे का कच्चा चिट्ठा जनता के सामने खोल दिया जाये। इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए मौजूदा केन्द्र सरकार ने अपनी ‘देशभक्ति’ का परिचय देते हुए फटाफट एक नया प्रस्ताव पारित कर दिया। अब हर चुनावबाज़ पार्टी 2000 रुपये से अधिक मिली रक़म का स्त्रोत बताने के लिए बाध्य होगी। पहले यह सीमा 20,000 रुपये तक थी। मतलब आज जहाँ दो लाख रुपये के चन्दे के लिए 10 नाम जुटाने पड़ते थे अब उसी दो लाख के लिए 100 नाम ढूँढ़ने की ‘मेहनत’ करनी पड़ेगी। आज भी देशभर में पार्टियों की आय का 70 प्रतिशत हिस्सा ‘अज्ञात स्रोत’ से ‘देशसेवा’ के लिए आता है। इस देशसेवा को ये क़तई भी जनता के सामने नहीं लाना चाहते हैं और इस मामले में एक दूसरे की जान की दुश्मन बुर्जुआ चुनावबाज़ पार्टियाँ भी एकमत हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। हो भी क्यों न इनके स्रोत पर नज़र डालने से इनके इस भाईचारे का कारण समझ आ जाता है।
कांग्रेस इस खेल की पुरानी खिलाड़ी है। इसकी कुल आय का 83 प्रतिशत (जो लगभग 3,323 हज़ार करोड़) का स्त्रोत अज्ञात है। वहीं भाजपा भी इसी कतार में खड़ी है और इसके कुल आय का 65 प्रतिशत हिस्सा अज्ञात स्त्रोत से है। इन पार्टियों को पीछे छोड़ते हुए क्षेत्रीय पार्टी सपा ने नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इनकी आय का 94 प्रतिशत हिस्सा अज्ञात स्त्रोत से आया है, इन्हीं के पीछे खड़ी है अकाली दल जिसे कुल आय का 86 प्रतिशत हिस्सा अज्ञात स्त्रोत से मिला है। क्षेत्रीय दल बसपा एकमात्र पार्टी है जिसकी आय के 100 प्रतिशत हिस्से का स्त्रोत अज्ञात है । इसकी आय 11 वर्षों में बढ़कर 5.19 करोड़ से 111.96 करोड़ रुपये हो गयी है, अर्थात 2057 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वहीं ‘ईमानदार’ और ‘पारदर्शिता’ की कसम खाकर राजनीति में आयी ‘आप’ पार्टी इस हमाम में नंगी नहीं थी तो इसे भी हमाम में ढके चीथड़े हटाने पड़े और ‘आप’ ने भी वेबसाइट से आय-व्यय की जानकारी हटा ली। पंजाब चुनाव में भी पैसे ख़र्च करने के मामले में ‘आप’ कांग्रेस और अकाली दल पीछे नहीं हैं, साथ ही विदेशी फ़ण्ड लेने में ‘आप’ अव्वल है। यानी 2004-05 से 2014-15 के 11 वर्षों के अन्तराल में राष्ट्रीय पार्टियों की अज्ञात स्त्रोत से हुए आय में 313 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है यानी कि 274.13 सौ करोड़ से 11,300 हज़ार करोड़ हुई है। वहीं क्षेत्रीय पार्टियों की आय में अज्ञात स्त्रोत की भागीदार 652 प्रतिशत बढ़ गर्इ है, मायने 37.393 करोड़ रुपये से 281.01 करोड़ रुपये हुर्इ है।
ये आँकड़े सभी चुनावबाज़ पार्टियों के ‘काले धन’ और ‘भ्रष्टाचार’ की लड़ाई की पोल खोल देते हैं। असल में आज चुनावी पार्टियाँ ही काले धन को सफ़ेद बनाने के कारोबार में एक नायाब तरीक़़ा है। इससे एक तीर से दो निशाने सध जाते हैं। एक ओर काला धन सफ़ेद हो जाता है, दूसरी ओर पूँजीपति घराने अपना निवेश बेहद समझदारी से करते हैं ताकि हर पाँच साल में होने वाले चुनाव में चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में आये वो नीतियाँ अपने आका पूँजीपति घरानों के लिए ही बनाये। ऐसे में जब भी चुनावी पार्टियों के ‘काले धन’ ‘पारदर्शिता’ की बात आती है तो ये तमाम चोर-चोर मौसेरे भाई एक हो जाते हैं, यह एकता दरअसल इनकी वर्ग प्रतिबद्धता के कारण है, मतलब यह कि ये सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ मज़दूर-ग़रीब किसान विरोधी नीति बनाने से लेकर पूँजीपतियों को क़ुदरती सम्पदा और मानवीय श्रम लूटाने में एक हैं। बस इनका आपसी झगड़ा इस बात को लेकर होता है कि चुनावी नौंटकी में जीतकर जनता को लूटने का ठेका कौन लेगा। ताकि पूँजीपतियों के प्रति वफ़ादारी साबित की जा सके।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन