जीवन में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है कि संघर्ष करना सीखो
नरेन्द्र कुमार, बिगुल का सदस्य, बजाज सन्स लिमिटेड, सी.103, फ़ेज-5, फोकल प्वाइण्ट, लुधियाना
मित्रवत साथियो,
क्या आप जानते हैं कि शोषण करने वाला शोषण सहने वाले से ज़्यादा गुनहगार होता है। और सभी जानते हैं, शोषण सहने वाला अधिक परिश्रमी होता है और शोषण करने वाला ऐयाशबाज़ होता है और हवेली में आरामदेह जीवन बिताता है।
लेकिन ऐसा क्यों?
ऐसा सवाल एक नहीं है बल्कि बहुत अधिक संख्या में हैं। लेकिन इन सवालों का जवाब एक ही है और वह है ‘अज्ञानता’। जो दिमाग़ और आँख होते हुए भी उन पर पट्टी बँधी हुई है। जो आज के हालात में ‘जानवर और मनुष्य एक समान जीने को मज़बूर है’, ऐसा क्यों? आप ख़ुद समझिये और विचार कीजिये। आपके घर बैल होगा, अगर नहीं भी होगा तो सुने तो ज़रूर होंगे, बेचारा कितना मासूम परिश्रमी होता है। पूरे साल का अनाज पैदा करने में सहायता करता है। क्या उसका अधिकार नहीं है कि सोने के लिए पलंग मिले, उसका मालिक हमाम साबुन से नहाये तो उसे भी नहाने का हक़ हो, उसे भी अच्छे कपड़े मिलें, उसे भी खाने को अच्छा भोजन मिले, आपकी सम्पति में भी आधा हक़ हो।
लेकिन हम लोग क्यों नहीं देते? हम लोग जानते हैं कि बैलों में न तो एकता बनेगी, न ही हमारे खि़लाफ़ बोल सकते हैं, न ही हड़ताल कर सकते हैं और तो और उसे हम मार-पीट भी सकते हैं। खाना देना बन्द कर सकते हैं।
तो क्या आप भी बैल हैं? नहीं? तो ऐसा क्यों कि आपके एक दिन की मज़दूरी यही होती है कि आप शाम को खाओ तो सुबह के लिए नयी कमाई का इन्तज़ार और इन्तज़ाम करना पड़ता है। आप अपने पेट और सिर्फ़ पेट के लिए काम नहीं करते हैं। आपके बीवी-बच्चे होंगे। अगर नहीं हैं तो आने वाले दिनों में तो होंगे ही। एक दिन की मज़दूरी उसे कहते हैं जो बीवी-बच्चों या परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी मुहैया करायें थोड़ा खुले असमान के नीचे साँस ले सकें। परिवार के साथ कुछ पल बिता सकें, लेकिन इस पूँजीवादी युग में ऐसा कहाँ सम्भव है। इसी कारण, दोस्तो, अपनी दुर्दशा दूसरों को सुनाते हुए ऐसा लगता है कि हम लोग उस बैल की भाँति ही जीवन बिता रहे हैं।
लेकिन दोस्तो, उस बैल को लोग इतना चारा तो डालते हैं कि उसे खाकर वह मस्त हो जाये और काम पर लग सके। लेकिन दोस्तो, आपको इस बदलते युग (पूँजीवादी) में कोई पूछने भी नहीं आयेगा। आप सब क्यों जानते हुए भी जानवरों की तरह जीना चाहते हैं? यह भी कोई ज़िन्दगी है? आज अपनी मजबूरी दूर करने के लिए 8 घण्टे काम करो, 12 घण्टे खटो, 16 घण्टे लगाओ या साथी तुम पूरा वक्त लगाओ, चाहे मालिकों के पीछे पूरी ज़िन्दगी लगाओ, तुम मर जाओगे लेकिन तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा और तुम ज़िन्दगी में कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाओगे। कुछ गिने-चुने लोग कम्पनी में यह कहते हुए भी सुने होंगे – “हमारी कम्पनी में आठ घण्टे काम चलता है। तो क्या पैसा बनेगा? ओवर टाइम तो लगता नहीं तो क्या बचेगा?” “हम तो उस कम्पनी में टाइम ज़्यादा लगाते थे तो पैसा अच्छा बचता था और सुख से रहते थे”। लेकिन साथियो, यह सुख वाली बात नहीं है बल्कि उसी से तुम दुखी हो। 8 घण्टे में पैसा पूरा नहीं मिला। अब मनोरंजन के समय को काम में लगाकर ओवर टाइम करते हो और परिवार का ख़र्च चलाते हो। यह सुख की बात है? यह बिल्कुल मूर्खता है। अगर आप ऐसा सोचोगे तो आपके बच्चे भी ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े जायेंगे – जैसेकि कुछ जगहों पर बँधुआ मज़दूर दिखते हैं।
अतः साथियो, समय रहते विकल्प को अपनाना होगा – ग़ुलामी करते हुए, नर्क जैसा जीवन जीते हुए दिन बिताओ या फिर इस पूँजीवादी, जनफ़रोश, भ्रष्ट शासन व्यवस्था को ख़त्म करने का प्रण करो।
अतः साथियो जीवन में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है कि संघर्ष करना सीखो और वास्तविक मज़दूर नेता या आपका ही कोई साथी जो पहले मालिको के शोषण का शिकार हुआ है, आपके सामने आये और संघर्ष के लिए प्रेरित करे तो फ़ौरन आपका उसके प्रति फ़र्ज़ बनता है कि क़दम से क़दम मिलाकर चलने का वादा करें। दूसरी बात यह है कि इस पूँजीवादी युग में ऐसा कोई अख़बार नहीं है जो मज़दूरों की पूरी ख़बर का 25 प्रतिशत भी छापता हो। है तो बस एक ही। वह है बिगुल अख़बार। जो आपकी समस्या का 100 प्रतिशत बताता है।
बिगुल, मई 2009
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन