चुनावी मौसम में याद आया कि मज़दूर भी इंसान हैं 

अजय

दिल्ली में चुनावी दंगल शुरू होने वाला है जिसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों पहले से अपने सारे दाँव-पेंच लगा रहे हैं कि कैसे जनता को भरमाकर पाँच साल लूटने का ठेका हासिल किया जाये। एक तरफ़ शीला दीक्षित सरकार अन्नश्री, लाडली योजना से लेकर अवैध कालोनी को पास करने का गुणगान कर रही है, तो दूसरी तरफ भाजपा बिजली के दाम में 30 प्रतिशत छूट से लेकर तमाम लम्बे-चौड़े वादे कर रही है। साफ़ है कि पूँजीवादी चुनाव में जीते कोई हार जनता की तय है।इस बार चुनावी दंगल में भाजपा मजदूर आबादी को भी अपने झाँसे में लेने के लिए तीन-तिकड़में कर रही है। अभी 10 जुलाई को दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष विजय गोयल ने राजधानी के असंगठित मजदूरों के लिए असंगठित मजदूर मोर्चा का गठन किया है जिसमें रेहड़ी-रिक्शा चालक, ठेका मजदूर, सेल्ममैन, सिलाई मज़दूर से लेकर भवन निर्माण पेशे के मज़दूर शामिल है जो भयंकर शोषण और नारकीय परिस्थितियों में काम करते है लेकिन सवाल उठता है कि इन चुनावी मदारियों को हमेशा चुनाव से चन्द दिनों पहले ही मेहनतकश आबादी की बदहाली क्यों नज़र आती है। दूसरे, भाजपा जिन मज़दूरों का शोषण रोकने की बात कर रही है उनका शोषण करने वाले कौन हैं?

दिल्ली में असंगठित क्षेत्र में मज़दूरों की संख्या क़रीब 45 लाख है जिनमें से एक-तिहाई मज़दूर व्यापारिक प्रतिष्ठानों, होटलों और रेस्तराँ आदि में लगे हैं। क़रीब 27 प्रतिशत कारख़ाना उत्पादन में लगे हैं। बाकी मज़दूर आबादी निर्माण क्षेत्र यानी इमारतें, सड़कें, फ्लाईओवर आदि बनाने में लगी हुई है। अपवादों को छोड़कर ये सभी मज़दूर अस्थायी आधार पर नौकरी करते हैं, यानी उनके रोज़गार की कोई सुरक्षा नहीं हैं और वे पूरी तरह ठेकेदार या जॉबरों के अधीन होते हैं। वैसे ख़ुद दिल्ली सरकार की मानव विकास रपट 2006 में यह स्वीकार किया गया है कि ये मज़दूर जिन कारख़ानों में काम करते हैं उनमें कार्य करने की स्थितियाँ इन्सानों के काम करने लायक़ नहीं हैं। मालिक और ठेकेदार सारे श्रम क़ानूनों को अपनी जेब में रखकर घूमते हैं। न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे काम जैसे 260 क़ानून काग़ज़ों पर ही शोभा देते हैं। असंगठित मज़दूरों की यह हालत दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश के असंगठित मज़दूरों की है।

भाजपा ने असंगठित मज़दूर मोर्चा तो बना लिया लेकिन सवाल उठता है कि इन मज़दूरों का भयंकर शोषण रोकने के लिए क्या भाजपा असल में कोई क़दम उठायेगी, क्योंकि अगर वज़ीरपुर, समयपुर बादली औघोगिक क्षेत्र से लेकर खारी बावली, चाँदनी चौक या गाँधी नगर जैसी मार्किट में 12-14 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों का भंयकर शोषण वही मालिक या व्यापारी कर रहे हैं जो भाजपा या कांग्रेस के व्यापार प्रकोष्ठ और उघोग प्रकोष्ठ में भी शामिल हैं और इन्हीं के चन्दों से चुनावबाज पार्टियाँ अपना प्रचार-प्रसार करती है तो साफ़ है कि ये पार्टियों अपने सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के खिलाफ़ मज़दूर हितों के लिए कोई संघर्ष नहीं चलाने वाली। वैसे भी चुनावी राजनीति में सभी पार्टियाँ मज़दूरों का नामलेवा तो बनना चाहती है लेकिन जमीनी स्तर पर उतर कर न तो मजदूरों के हक़-अधिकारों के  लिए आवाज़ उठाती हैं, न ही मज़दूरों के चल रहे संघर्ष में कभी भागीदारी करती हैं। इसलिए पूरे मज़दूर वर्ग को यह समझने की ज़रूरत है कि इन चुनावी घोषणाओं से उनके हक़-अधिकार नहीं मिलने वाले बल्कि मज़दूरों को ख़ुद एकजुट होकर अपने हक़ों के संघर्ष के लिए आगे आना होगा।

 

मज़दूर बिगुलजुलाई  2013

 


 

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