एक मज़दूर की कहानी जो बेहतर ज़िन्दगी के सपने देखता था!
राजविन्दर
प्रकाश को शहर आये 20 साल से भी ज़्यादा समय हो गया था। कई साल पहले पत्नी की बीमारी का ठीक इलाज न हो पाने के कारण वह चल बसी थी। प्रकाश के तीन बच्चे थे। उत्तर प्रदेश से वह बड़े अरमान के साथ लुधियाना आया था कि कुछ पैसा कमायेगा, लड़की की शादी करेगा, दोनों लड़कों को बढ़िया घर बनाकर देगा। कुछ ज़मीन घर की है और कुछ ख़रीदकर बुढ़ापे में घर जाकर खेती करेगा। शरीर भी उसका हट्टा-कट्टा था और मेहनत भी ख़ूब करता था। लुधियाना आकर होज़री में काम करने लगा।
जिस बेड़े में प्रकाश रहता था, उसमें दस कमरे थे। इनके बीच सिर्फ़ एक शौचालय और एक नलका था। सुबह शौचालय जाने, नहाने, बर्तन धोने और पीने का पानी भरने के लिए लम्बी लाइन लगानी पड़ती थी। अगर सुबह उठने में देर हो गयी तो उस दिन काम पर भी देरी से पहुँचता था या फिर नहाने, बर्तन धोने या रोटी बनाने जैसा कोई ज़रूरी काम छोड़ना पड़ता था। इसलिए प्रकाश रोज़ सवेरे पाँच बजे उठता और भीड़ बढ़ने से पहले सात बजे तक अपने सारे काम निबटा लेता था। कुछ देर कमरे में बैठता, एक रुपये वाली सिगरेट का कश खींचता और फिर साढ़े सात बजे फ़ैक्टरी के लिए चल पड़ता। आठ बजे से पहले फ़ैक्टरी पहुँचने वाला प्रकाश पहला कारीगर था, जो देर रात फ़ैक्टरी चलाने के लिए मालिक से कहता था। पर मालिक कहता, “जब सारे मज़दूर काम ख़त्म कर देते हैं, उसके बाद एक आदमी के लिए लाइट नहीं जलायी जा सकती है।” तो इस तरह आठ बजे काम से छुट्टी हो जाती थी। सब्जी ख़रीदने के लिए कुछ समय बाज़ार में लगता तो प्रकाश नौ बजे तक कमरे में पहुँचता, जहाँ उसका बड़ा बेटा काम से आकर उसका इन्तज़ार करता। कमरे में पहुँचकर दाल, चावल, रोटी और आलू का चोखा बनाने का काम शुरू होता, जो सुबह वाले बर्तन धोने से लेकर खाना बनाने तक ग्यारह बजे तक चलता। फिर पड़ोसी राजेश के कमरे में जाकर टीवी पर कुछ गीत या फ़िल्म देखता। इस तरह दिनभर की थकान और अकेलेपन को दूर करने का उपाय किया जाता। 12 बजे के पहले-पहले नींद आ दबोचती और सवेरे काम पर जाने के लिए 5 बजे जागने की चिन्ता की वजह से फ़िल्म के आनन्द को बीच में छोड़कर प्रकाश सो जाता।
एक दिन मैं प्रकाश के कमरे में गया तो देखा कि एक और मज़दूर के साथ बैठकर प्रकाश दारू पी रहा था और काफ़ी ख़ुश दिख रहा था। मुझे भी उसने कहा कि आओ साथी आज ख़ुशी का दिन है तुम भी पिओ। मैंने कहा, “साथी आपको तो पता है कि मैं शराब नहीं पीता, आप पीजिये और ये बताइये कि यह पार्टी किस ख़ुशी में हो रही है?” प्रकाश ने बताया कि शहर के बाहर उसने एक सरदार डीलर से 70 गज़ ज़मीन एक लाख रुपये में किस्त पर ले ली है। अब तक मकानमालिकों को बहुत किराया दे चुका, अगर सारा इकट्ठा करता तो अब तक मैं 100 गज का मकान बना लेता। अब समझ में आया है, मैंने सौदा कर लिया। अब लड़का भी कमाने लगा है, इस साल शादी भी कर दी है। बस अब लड़की की शादी करनी है। इसीलिए लड़के को भी शहर बुला लिया है। दोनों मिलकर कमायेंगे तो दो साल में यहाँ अपना घर बना लेंगे। जब बूढ़ा हो जाऊँगा, तो यहाँ का मकान बेचकर गाँव में ज़मीन ख़रीदकर खेती करूँगा। हम लोगों ने खाना खाया और आराम करने के लिए छत पर सोने चले गये। जून की धूप की वजह से छत अब तक गरम थी। थोड़ी हवा चल रही थी, जिससे कुछ राहत थी, लेटने पर नींद नहीं आ रही थी, क्योंकि छत पर चारपाई के बिना सोना तवे पर लेटने जैसा लग रहा था। बाक़ी मज़दूरों की तरह इस बेड़े के मज़दूरों के पास भी चारपाई नहीं थी। पर सभी ज़मीन पर चादर बिछाकर लेटे थे, जिसमें से कुछ तो थके-हारे सो चुके थे, कुछ मोबाइल पर गीत और फ़िल्म देखने में मसरूफ़ थे।। उस रात प्रकाश के साथ घर-बार की बातों के अलावा आने वाले समय की चिन्ताओं और उम्मीद भरी बातें हुईं। कुछ और मज़दूर भी हमारे पास बैठे थे, पर शराब के नशे में ज़्यादातर बातें प्रकाश ने ही कीं। ये मेरी प्रकाश के साथ दूसरी या तीसरी मुलाक़ात थी।
इसके बाद प्रकाश यूनियन की मीटिंगों में भी आने लगा। वो हमेशा एक ही बात कहता था कि साथी बातों से कुछ नहीं होगा, सरमायेदारों के ख़िलाफ़ तलवार उठाना ही पड़ेगा। मैं उसे भगतसिंह की जेल से लिखी गयी चिट्ठी का हवाला देकर बताने की कोशिश करता कि जब तक मज़दूर-मेहनतकश की बड़ी आबादी अपनी बदहाली के कारणों को नहीं समझ लेती, लुटेरों को नहीं पहचान लेती और रोज़-रोज़ लड़े जाने वाले हक़ों-अधिकारों और तानाशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष के रास्ते एकता की शक्ति में विश्वास नहीं प्राप्त कर लेती, तब-तब अगर कुछ लोग तलवार उठा भी लेंगे तो मज़दूरों की मुक्ति सम्भव नहीं। इस पर प्रकाश सहमति में सिर हिलाता और फिर कहता, साथी तलवार तो उठाना ही पड़ेगा।
प्रकाश को जिसने ज़मीन दिलायी थी, वो प्रकाश के साथ पहले एक ही फ़ैक्टरी में काम करता था, जहाँ इनकी जान-पहचान हो गयी थी। छुट्टी वाले दिन वह कभी-कभी प्रकाश के कमरे में आता और सुलफ़ा-शराब का दौर चलता। इस समय तक काम का सीज़न शुरू हो चुका था। प्रकाश ने पाँच महीने बाद लड़की की शादी तय कर दी थी, जिसमें लगभग एक लाख रुपये का ख़र्च था। अब प्रकाश और उसका लड़का सुदामा जी-जान से काम करने लग गये। सुबह सात बजे काम पर जाना और रात को 10 बजे काम से आना, आम बात हो चुकी थी। कभी-कभी प्रकाश का लड़का कहता, “साथी, शादी हुए पाँच महीने हो गये, मुश्किल से हम लोग एक महीना इकट्ठा रहे हैं। घर से फ़ोन आया था कि पत्नी गर्भवती है। मैं सोचता हूँ कि पत्नी को अपने पास शहर बुला लूँ। पिताजी से कई बार कहा है, पर वो मानते नहीं। कहते हैं कि ख़र्चा बढ़ जायेगा। सारी उम्र ख़ुद तो बैल की तरह काट लिया अब मुझे भी उसी तरह जोतना चाहते हैं।”
लड़की की शादी सुख-शान्ति से हो गयी, वह अपने ससुराल में ख़ुश थी। इस बात की प्रकाश को बहुत ख़ुशी थी। पर सुदामा पिता से नाराज़ रहता था। एक तरफ़ काम का बोझ और दूसरी तरफ़ पत्नी का फ़ोन आता रहता था। इस समय मेरी प्रकाश के साथ मुलाक़ात कम ही होती थी।
एक दिन प्रकाश का फ़ोन आया कि साथी मैं लुट गया, मेरे साथ धोखा हो गया। उसने बताया कि उसने एक लाख रुपये ज़मीन के लिए दिये थे, पर मालिक रजिस्ट्री नहीं करवा रहा था। जब सौदा करवाने वाले बिचौलिये को बुलाया गया तो वह कमरे में ताला लगाकर फ़रार था। बात थाने पहुँच गयी। ज़मीन मालिक ने बताया कि उसे सिर्फ़ तीस हज़ार रुपये मिले हैं। अगर 6 महीने में सत्तर हज़ार रुपये जमा ना किये तो फिर नयी क़ीमत के हिसाब से पैसे लगेंगे, तभी रजिस्ट्री हो सकेगी, क्योंकि अभी तक ज़मीन की क़ीमत बढ़ रही है। पर इस समय सीज़न मन्दा था। काम ने ज़ोर नहीं पकड़ा था। हर महीने 12 हज़ार रुपये कमाना आसान बात नहीं थी। इस समय उधार भी नहीं मिलता क्योंकि लगभग सारे ही हौज़री मज़दूरों का काम फ़रवरी-मार्च से जून-जुलाई तक मन्दा चलता है। सात रुपये सैकड़ा के हिसाब से कुछ रुपये ब्याज पर लेकर एक किस्त तो दे दी गयी, पर अगले महीने भी काम ने रफ़्तार नहीं पकड़ी। प्रकाश ने फ़ैक्टरी मालिक से काम देने के लिए कई बार कहा पर वह कहता कि साल का ऑर्डर नहीं आया। काम मन्दा होने के कारण इसी तरह की परेशानियों के साथ बाक़ी मज़दूर भी जूझ रहे थे। क्योंकि इस मफ़लर बनाने वाली फ़ैक्टरी में लगभग सारे ही मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं। जब तेज़ी का दौर होता था तो रात में भी काम करने के लिए मालिक मज़दूरों को रोक लेता था। अगर मन्दा होता था तो सारा दिन ताश खेलकर कल काम मिलने की उम्मीद लेकर मज़दूर ख़ाली हाथ कमरे में वापस लौट जाते थे। पैसे की चिन्ता प्रकाश को खाये जा रही थी, क्योंकि पहले के जमा किये हुए पैसे का भी डूबने का ख़तरा था। परेशानी के कारण प्रकाश ज़्यादा पीने लग गया था। चिलम पीने के बाद सारा दिन फ़ैक्टरी जाकर मशीनों के बीच लेटा रहता था। इस समय पैसे का जुगाड़ करने में लगा प्रकाश कम ही मिलता था।
लगभग चार महीने बाद उसके साथ काम करने वाला एक मज़दूर साथी मिला, जो गाँव से आया था। उसने बताया कि प्रकाश पागल हो गया है और उसे घर भेज दिया है। प्रकाश ने उस फ़ैक्टरी में लगभग 20 साल काम किया था, इसलिए हम लोगों ने मालिक से उसके इलाज के बारे में बात की तो मालिक ने ख़र्चा देने से मना कर दिया। हम लोगों ने चन्दा करके इलाज करवाने के बारे में सोचा। मालिक भी कुछ पैसे देने को राज़ी हो गया। प्रकाश के घर उसके बेटे से बात की तो उसने बताया कि पिछले एक हफ़्ते से प्रकाश बिस्तर पर ही टट्टी-पेशाब कर रहा है। उसने कहा कि उसके पास कोई पैसा नहीं है, अगर सारा ख़र्च मालिक या हम लोग उठाते हैं तभी वह आ सकता है। पहले ही घर के सारे गहने आदि बिक चुके हैं, बस थोड़ी ज़मीन बाक़ी है। हमारी तो ज़िन्दगी नर्क बन चुकी है।
प्रकाश की हालत सुनकर मालिक ने इलाज करवाने से बिल्कुल ही इन्कार कर दिया, क्योंकि उसे डर था कि कहीं यहाँ आकर अगर प्रकाश की मौत हो जाती है तो उसको मुआवज़ा भी देने के लिए मज़दूर कह सकते हैं। मालिक और प्रकाश के लड़के का रवैया देखकर बाक़ी साथी मज़दूरों की भी हिम्मत प्रकाश को यहाँ लाने की नहीं हुई।
अब तक शायद प्रकाश आने वाली बेहतर ज़िन्दगी के सपने साथ लेकर इस दुनिया से विदा हो चुका होगा। जिस ज़मीन के टुकड़े की ख़ातिर उसने अपने आप को रोगी बनाया, उसे भी वह हासिल नहीं कर सका और जिस औलाद के लिए घर बनाने और ज़मीन लेने के बारे में सोचता था, वह भी प्रकाश से नाराज़ रहे, क्योंकि ज़मीन ख़रीदने के चक्कर में बच्चे छोटी-छोटी चीज़ों के लिए तरसते थे। वे प्रकाश की चिन्ताओं को नहीं समझते थे।
यह कहानी अकेले प्रकाश की नहीं। ना जाने कितने मज़दूर अपने मन में बेहतर ज़िन्दगी का सपना लेकर शहर आते हैं। कारख़ाने में हाड़तोड़ मेहनत करने के अलावा कई तरह की नेटवर्किंग कम्पनियों, बीमा कम्पनियों, कमेटियों वग़ैरह में पैसा और समय लगाते हैं। छोटा ज़मीन का टुकड़ा या घर बनवाने के लिए सारी उम्र मेहनत करते रहते हैं। पर ज़्यादातर को जो हासिल होता है, वह प्रकाश से थोड़ा ज़्यादा या कम ही होता है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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