नक़ली और ख़राब दवाओं के ज़रिये मुनाफ़ा बटोरने के लिए दवा कम्पनियों को मोदी सरकार की छूट और चरमराती सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था

नीशू

जहाँ कहीं भी चिकित्सा विज्ञान के प्रति प्रेम होता है, वहाँ मानवता के प्रति भी प्रेम होता है। यह बात अपने दौर में चिकित्सा विज्ञान के जनक माने जाने वाले हिप्पोक्रेटस ने कहा था। यह कथन रेखांकित करता है कि स्वास्थ्य का सवाल मनुष्य के जीवन में कितना महत्वपूर्ण सवाल है। लेकिन आज की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की लचर हालत से से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है। देश के PHC, CHC ( प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र) से लेकर, भाजपा सरकार द्वारा खोले गए तथाकथित एम्स की सूची में आने वाले अस्पताल भी डॉक्टरों और स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं, क्‍योंकि भर्तियाँ ही नहीं की जा रही हैं। बेहतर गुणवत्ता की दवाइयाँ, जाँच के उपकरणों का बेहद अभाव है। आँकड़ें बताते हैं कि भारत में 9.6 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टर नहीं हैं, 33 प्रतिशत में लैब तकनीशियन नहीं हैं, 24 प्रतिशत में फार्मासिस्ट नहीं हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 70 प्रतिशत से ज़्यादा विशेषज्ञों के पद खाली हैं। 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सरकारी अस्पतालों में सिर्फ़ 80 लाख बेड ही मौजूद हैं, जबकि लगभग 2.5 करोड़ बेड की आवश्यकता है, मतलब लगभग इनमें 70 प्रतिशत की कमी है।

मजबूरी के कारण लोगों को प्राइवेट अस्पतालों की ओर रुख करना पड़ता है। अच्छे प्राइवेट अस्पताल काफ़ी महँगे और आम मेहनतकश आबादी कि पहुँच से दूर हैं। मज़दूर अगर किसी तरह किसी प्रकार के प्राइवेट अस्पतालों तक पहुँच भी जाता है तो भ्रष्ट डॉक्टरों और दवा कम्पनियों की ठगी का शिकार होता है। आज नक़ली दवाओं का बहुत बड़ा व्यापार खड़ा है। दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य नकली व ख़राब गुणवत्ता वाली दवाओं की बिक्री का गढ़ बने हुए हैं। ड्रग कण्ट्रोलर जनरल ऑफ़ इण्डिया ने जाँच में पाया कि देश में बिक रही 50 प्रतिशत दवाइयाँ ख़राब स्तर की बन रही हैं। इस स्थिति की भयावहता का अन्दाज़ा हालिया दिनों में आयी कुछ ख़बरों से लगाया जा सकता है कि चन्द मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए किस तरह इन्सानी ज़िन्दगी को मौत के मुँह में धकेला जा रहा है।

28 जून को ‘दि हिन्दू’ में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक, टीबीआईजे (द ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज़्म) ने खुलासा किया कि दुनिया भर में इस्तेमाल की जाने वाली महत्वपूर्ण कीमोथेरेपी दवाएँ गुणवत्ता परीक्षण में विफल पायी गयी हैं, कैंसर की दवाओं में से लगभग पाँचवी दवा गुणवत्ता परीक्षण में विफल रहीं, जिसके कारण 100 से अधिक देशों में कैंसर रोगियों को निष्‍प्रभावी उपचार और सम्भावित घातक दुष्प्रभावों का ख़तरा बना हुआ है। इन दवाइयों के 17 में से 16 निर्माता भारत स्थित हैं। ये दवाइयाँ जीवनरक्षक दवाओं की श्रेणी में आती हैं, जो स्तन, डिम्बग्रन्थि (ओवरी) और ल्यूकेमिया सहित कई आम कैंसरों के उपचार की रीढ़ हैं। कुछ दवाओं में उनके मुख्य घटक इतने कम थे कि फार्मासिस्टों ने कहा कि उन्हें मरीज़ों को देना कुछ न करने के बराबर होगा। कुछ अन्य दवाओं में, जिनमें बहुत अधिक सक्रिय घटक होते हैं, मरीज़ों को गम्भीर अंग क्षति या यहाँ तक कि मृत्यु का ख़तरा पैदा कर सकते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ भयावह और दिल दहला देने वाली हैं। जहाँ पहली स्थिति में पर्याप्त दवा न मिलने पर मरीज़ों का इलाज नहीं हो पाता और उनकी मौत हो जाती है, वहीं दूसरी स्थिति में दवा का ओवरडोज़ उन्हें मौत के घाट उतार सकता है।

भारतीय केन्द्रीय औषधि मानक नियन्त्रण संगठन (CDSCO) ने पिछले चार महीनों, जनवरी से अप्रैल 2025 तक में कुल 575 दवाओं को मानक गुणवत्ता से कम और नक़ली (स्प्यूरियस) के रूप में पहचान की है। CDSCO ने बताया कि अप्रैल में केन्द्र की 60 और राज्य की 136 दवाओं को मानक गुणवत्ता से कम, नक़ली, मिलावटी या ग़लत ब्राण्ड का पाया गया। इनमें आई ड्रॉप से लेकर पैरासिटामोल टैबलेट तक विभिन्न प्रकार की दवाएँ शामिल हैं। साल 2024 सितम्बर में भी सीडीएससीओ द्वारा जारी, मासिक ड्रग अलर्ट में एण्टासिड पैन डी, कैल्शियम सप्लीमेण्ट शेल्कल, मधुमेह-रोधी दवा ग्लिमेपिराइड, उच्च रक्तचाप की दवा टेल्मिसर्टन और कई अन्य सबसे ज़्यादा बिकने वाली दवाओं को गुणवत्ता परीक्षण में विफल पाया गया था।

क्या है केन्द्रीय औषधि मानक नियन्त्रण संगठन (CDSCO) का काम

CDSCO भारत सरकार की एक प्रमुख संस्था है जो दवाओं, टीकों, सर्जिकल उपकरणों और चिकित्सा उपकरणों की गुणवत्ता, सुरक्षा और प्रभावकारिता की निगरानी करती है। यह संगठन दवा कम्पनियों को लाइसेंस प्रदान करता है, नई दवाओं के परीक्षण और आयात को नियन्त्रित करता है, और दवाओं के निर्माण की गुणवत्ता सुनिश्चित करता है। CDSCO की ज़िम्मेदारी है कि वह सभी दवाओं की नियमित जाँच करे और यदि कोई दवा मानकों के अनुरूप न हो तो उसके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करे। लेकिन यहाँ CDSCO की भूमिका पर सवाल तो उठता है कि क्या यह संस्था ढंग से काम कर रही है? और अगर कर रही है तो नक़ली दवाओं का व्यापार क्यों फल-फूल रहा है?

साल 2022 में अफ्रीका के गाम्बिया में 69 मासूमों को, उनके घर वालों ने दवाइयाँ की ख़राब गुणवत्ता के कारण खो दिया। सर्दी-ज़ुकाम की शिकायत के उपरान्त इन बच्चों के अभिभावकों ने वहाँ के बाज़ारों में उपलब्ध भारत में निर्मित कफ़ सिरप दिये थे। नक़ली और ख़राब गुणवत्ता की दवाइयों का धन्धा भारत में कई सालों से निरन्तर चल रहा है। मध्य प्रदेश, केरल, गुजरात, हिमाचल, दिल्ली, महाराष्ट्र में नक़ली दवाइयाँ बनाने वाली कम्पनियाँ बिना रोक-टोक उत्पादन कर रही है। पिछले दिनों जब गुणवत्ता परीक्षण में विफल पायी जाने वाली दवाओं के बैच वापस लेने की बारी आयी तब सीडीएससीओ ने केवल इन दवाओं के कम्पनियों को निर्देशित किया और उन्हें यह बताया कि दवा महानियन्त्रक (DCGI) लगातार दवाओं की गुणवत्ता पर नज़र रखे हुए हैं और ग़लत दवाएँ बनाने वाली कम्पनियों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई कर रहे हैं। मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था किस तरह मुट्ठी भर धनपशुओं की सेवा बड़ी आबादी के जान पर खेल करती है यह CDSCO की भूमिका से साफ़ हो जाता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में सरकारों की प्रतिबद्धता

ड्रग्स एण्ड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 भारत में घटिया दवाओं से सम्बन्धित अपराधों के लिए सज़ा तय करता है जिसके तहत

– नक़ली और मिलावटी दवाओं पर कम से कम 10 साल की क़ैद है, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।

– मामूली सबस्टैण्‍डर्ड दवाओं पर 1 साल की क़ैद की सज़ा, जो 2 साल तक बढ़ सकती है।

लेकिन मज़दूर विरोधी फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा इस क़ानून में संशोधन करकेजन विश्वास विधेयक‘ 2023 लाकर सज़ा को हल्का कर दिया गया। इसजन विश्वासविधेयक में जन की लाशों पर मुट्ठी भर धनपशुओं का जीवन सुरक्षित किया गया है।

जन विश्वास विधेयक के तहत किए गए संशोधन में धारा 27 (डी) के तहत मानक गुणवत्ता (एनएसक्यू) की न होने वाली दवाओं के लिए सज़ा को “संयोजित” करने की अनुमति दी गई है, जिसके तहत निर्माता अपराध के लिए कारावास का सामना करने के बजाय ज़ुर्माना भरकर मुक्त हो सकता है। सरकारें किस तरह पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी व सुरक्षा पंक्ति का काम करती हैं स्पष्ट है। फ़ासीवादी मोदी सरकार ने, पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हो सके इसके लिए हर तरह के उपाय किये हैं चाहे वह श्रम कानून में संशोधन के जरिए फ़ैक्ट्री-कारख़ाने में ख़ून चूसने की छूट हो या जन विश्वास जैसे विधेयक लाकर उन्‍हें जघन्‍यतम अपराधों से अपराध मुक्त करना हो। ये सब मज़दूरों-मेहनतकशों की जीविका, सुरक्षा और स्वास्थ्य की क़ीमत पर किया जा रहा है।

हम मज़दूर-मेहनतकशों को यह समझना होगा कि निजी मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में हमारे लिए कुछ भी बेहतर नहीं है। चुनावबाज पार्टियों के लिए हम केवल एक वोट बैंक हैं, और पूँजीपतियों के लिए पैसे छापने की मशीन। लेकिन यह तब तक है जब तक मज़दूर वर्ग संगठित नहीं है, जब भी हमने संगठित होकर अपने हक़ों के लिए संघर्ष किया है तब-तब बहुत-कुछ हासिल भी किया है, चाहे वह कार्यस्थल पर सुरक्षा का सवाल हो, मज़दूरी का हो, उचित मुआवज़े का या स्वास्थ्य का।

समाजवादी क्रान्तियों द्वारा बनाये गये समाजवादी समाज के इतिहास से हम सीख सकते हैं

मेहनतकशों द्वारा स्थापित सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज़ करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके। इस प्रणाली का मक़सद था नागरिकों को उनके रहने और काम करने की जगह पर बुनि‍यादी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करवाना। इसके तहत सबसे पहले सहायता स्टेशनों, फिर पॉलीक्लिनिक, फिर जिलों और शहरों में बड़े अस्पतालों का निर्माण किया गया। तमाम सरकारी विभागों, फै़क्ट्रियों, कारख़ानों, खदानों, खेतों आदि में काम करने वाले मज़दूरों, किसानों, कर्मचारियों, नागरिकों को उनकी काम करने और रहने की जगह पर ही स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करवायी गयीं व लोगों को स्वास्थ्य अधिकारों  के प्रति जागरुक किया गया। सोवियत संघ के संविधान में 1936 में लिख दिया गया कि जनता को मुफ़्त स्वास्थ्य सुविधाएँ देना सरकार का कर्तव्य है और केवल लिखा ही नहीं बल्कि इस बात को पूरे देश में लागू किया गया। स्वास्थ्य व्यवस्था से मुनाफ़ा कमाने का पहलू ख़त्म कर दिया गया।सोवियत संघ में बीमारियों के इलाज़ पर नहीं, बल्कि बीमारियों की रोकथाम पर भी उचित ध्यान दिया गया। नतीजतन, वहाँ औसत जीवन-प्रत्‍याशा, औसत जनस्‍वास्‍थ्‍य व जीवन की गुणवत्‍ता में भारी सुधार हुआ।

जिन पूँजीवादी-साम्राज्‍यवादी देशों ने दुनिया भर में लूट के बूते कुछ ख़र्चकर अपने घर में शान्ति रखने के लिए जनता के लिए कुछ कल्‍याणवाद किया और गुणवत्‍ता वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का निर्माण किया, वहाँ की मृत्युदर में गिरावट आयी और लोंगो की ज़िन्दगी सुरक्षित हुई। लेकिन विशेष तौर पर जिन देशों में मेहनतकशों ने अपना राज स्थापित किया मसलन सोवियत यूनियन और चीन, वहाँ स्वास्थ्य ही नहीं बल्कि शिक्षा, आवास, काम की बेहतर परिस्थितियाँ हर मुद्दे पर प्रगति हासिल की और दुनिया के सामने मिसाल पेश की।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025

 

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