ओखला औद्योगिक क्षेत्र : एक रिपोर्ट

ओखला औद्योगिक क्षेत्र के रिहायशी इलाक़ों में घूमते हुए हम बंगाली कॉलोनी, जेजे कॉलोनी और नेपाली कॉलोनी गये। इन जगहों पर छोटे-छोटे प्लॉटों को जिस तरह काटकर घर बनाये गये हैं, उसे देखकर लगता है कि भवन निर्माण के असल आश्चर्य ऐफ़िल टावर नहीं, ऐसे घर ही हैं। पतली-पतली गलियों के ऊपर बीम डालकर छोटे-छोटे कमरे बनाये गये हैं। यह घर गलियों के ठीक ऊपर स्थित हैं और इतने नीचे हैं कि कि गलियों में सिर झुकाकर चलना होता है, नहीं तो सिर किसी घर से जा टकरायेगा। भरी चिलचिलाती दुपहरी में सूरज की एक किरण तक नहीं पहुँचती इन गलियों में, और घुप्प अँधेरा छाया रहता है। नीचे से देखकर सर के ऊपर बने यह कमरे स्टेशन पर रखे सेना के काले ट्रंक जितने बड़े ही दिखते हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूर वर्ग को अपने कल-कारख़ानों में निचोड़ती है और फिर ऐसी भयंकर अमानवीय परिस्थितियों में जीने को छोड़ देती है।
हमारी यह रिपोर्ट मुख्यतौर पर ओखला से कम होती फ़ैक्टरियों की वजह और वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लाण्ट पर केन्द्रित है।

मैन्युफ़ैक्चरिंग इकाइयों का ओखला से उड़नछू होना

ओखला औद्योगिक क्षेत्र का पूरा स्वरूप ही लॉकडाउन के बाद से बदला हुआ है। इसकी दो वजहें हैं – एक तो लॉकडाउन ने जिस प्रकार आमतौर पर अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है, उससे कई छोटे उद्योग बंद हो गये हैं। दूसरा, इस क्षेत्र और पूरी दिल्ली के सम्बन्ध में केजरीवाल सरकार ने नवम्बर 2020 में दिल्ली में मैन्युफ़ैक्चरिंग इकाई लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। केजरीवाल प्रदूषण पर नियंत्रण इसकी मुख्य वजह बताते हैं और साथ में उनका कहना है कि दिल्ली में राजस्व का मुख्य स्रोत मैन्युफ़ैक्चरिंग न होकर सर्विस सेक्टर (सेवा क्षेत्र) है, तो हम विकास का केन्द्र सर्विस सेक्टर और आईटी सेक्टर को बनायेंगे।
मज़दूरों से बात करते हुए और इस विषय में जाँच-पड़ताल करने के दौरान यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आयी कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा की तुलना में दिल्ली में मैन्युफ़ैक्चरिंग इकाई के लिए ज़मीनें महँगी हैं, किराया अधिक है और साथ ही न्यूनतम मज़दूरी भी यूपी-हरियाणा की तुलना में अधिक है। इन परिस्थितियों को देखकर मैन्युफ़ैक्चरिंग इकाइयाँ फ़रीदाबाद और नोएडा की ओर अपना रुख़ कर ली हैं। पहले की तुलना में आज ओखला के सुनसान और कम आबाद दिखने की मूल वजह यही है।

ओखला में धाँधली पर आधारित अनियंत्र‍ित वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लाण्ट और उसके हानिकारक प्रभाव

लैण्डफ़िल – पूरी दिल्ली का कचरा जिन तीन जगहों पर एकत्र किया जाता है, उनमें से एक लैण्डफ़िल ओखला औद्योगिक क्षेत्र के तेखण्ड गाँव के क़रीब है। ओखला के अलावा भलस्वा और गाज़ीपुर के लैण्डफ़िल में भी अक्सर आगजनी की घटनाएँ होती रहती हैं। इन आगों से ख़तरनाक ज़हरीली गैसें निकलती हैं, इसके अलावा भी इन कचरों से मीथेन और अन्य ग्रीन हाउस गैसें निकलती रहती हैं। इनमें से अधिकतर गैसें ज्वलनशील होती हैं, इसलिए यहाँ आये दिन छोटी-मोटी आग लगती रहती है, लेकिन 2018 में ओखला तथा अभी मार्च में ही गाज़ीपुर में बड़ी आग लगी जिससे बड़े स्तर पर ज़हरीली गैसें निकलीं और पूरे शहर की आबोहवा को जानलेवा स्तरों तक प्रदूषित किया। यह प्रदूषण तात्कालिक असर भले न छोड़े लेकिन यह पूरे शहर को धीमी ज़हर की ख़ुराक देता है। यह लैण्डफ़िल ग्राउण्ड वाटर (भूजल) को भी ख़तरनाक स्तरों तक प्रभावित करता है।
इन कचरा जमा करने की जगहों में कूड़ा बटोरने वालों की ज़िन्दगी बेहद कठिन और असुरक्षित है। दिल्ली या केन्द्र सरकार इन कूड़ा बटोरनेवालों के अस्तित्व को ही नहीं मानती। इनके अनुसार ट्रकों में भरकर कूड़ा वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लाण्ट में जाता है। लेकिन कहीं भी इस बात की पहचान नहीं की जाती कि यह कूड़ा आख़िर ट्रकों में भरता कौन है? न इनकी कोई न्यूनतम मज़दूरी तय होती है और न ही इन्हें ग्लव्स, गमबूट, ओवरकोट या फावड़ा-बेलचा दिया जाता है। इन कामों में अक्सर ग़रीबों के बच्चे लगे होते हैं जो वैसे भी श्रम क़ानूनों के बाहर हैं। इनकी सेहत के बारे में तो सोचने की हिम्मत नहीं होती लेकिन ठीक उस वक़्त ये बच्चे किन परिस्थितियों में काम करते हैं, इसकी कल्पना कर ही आत्मा काँप उठती है।

जिन्दल के कचरा से ऊर्जा बनाने वाले प्लाण्ट की धाँधली

जिन्दल को एक ब्वॉयलर और एक चिमनी की अनुमति थी वह अभी तीन ब्वॉयलर और दो चिमनी लगा कर आराम से बिना किसी फ़ाइन और प्रतिबन्ध के मस्त मुनाफ़ा पीट रहा है। इसके अलावा उसे प्रतिदिन 600 टन ईंधन से 16 मेगावाट ऊर्जा पैदा करने की अनुमति थी लेकिन असल में वह इस सीमा का भयंकर अतिक्रमण करते हुए 600 की जगह 1600 टन ईंधन प्रति दिन जलाता है जिससे 19 मेगावाट ऊर्जा पैदा होती है। इस अतिरिक्त कमाई का राज्य को कोई टैक्स नहीं मिलता लेकिन बदले में जनता को ज़हर की भारी ख़ुराक, प्रदूषित पानी और हवा के रूप में मिलती है। गीले और सूखे कचरे को अलग नहीं किया जाता है जिसकी वजह से डायक्सीन, फ़्यूरेन जैसी जानलेवा गैसें पैदा होती हैं जिसकी वजह से इस क्षेत्र में कैंसर, अस्थमा और टीबी जैसे घातक रोगों की संख्या में बेहद वृद्धि हुई है। 2009 से इसके ख़िलाफ़ कई विरोध-प्रदर्शन होने के बाद भी सरकार के कानों पर कोई जूँ नहीं रेंगती और जिन्दल अपने एयर प्यूरिफ़ायर लगे आलीशान बँगले में बैठकर जनता की जान जोखिम में डाल कर मुनाफ़ा पीट रहा है।
जिन्दल वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लाण्ट के निकट स्थि‍त ओखला कम्पोस्ट प्लाण्ट है जो प्रति‍दिन 1200 मैट्रिक टन का कूड़ा लेकर 40 मैट्रिक टन कम्पोस्ट बनाती है। लेकिन किसानों में कूड़े से बने इस कम्पोस्ट के प्रति गहरा पूर्वाग्रह है जिसकी वजह से कोई इन्हें ख़रीदता नहीं और ये बनने के बाद टन के टन प्लाण्ट में ही पड़ी रहती है। इस प्लाण्ट से मीथेन, हाइड्रोजन सल्फ़ाइड और कार्बन डाई-ऑक्साइड गैसें निकलती हैं जो हवा को प्रदूषित करने के अलावा दूर-दूर तक भयंकर दुर्गन्ध फैलाती हैं।
वैसे देखा जाये तो यह वेस्ट मैनेजमेण्ट और कम्पोस्ट प्लाण्ट सकारात्मक परियोजनाएँ हैं जो मानव सभ्यता को उपयोगी समाधान देते हुए कूड़े से निजात दिलाती हैं। लेकिन एक मुनाफ़ा आधारित पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसी सकारात्मक परियोजनाएँ भी भ्रष्टाचार और ख़स्ताहाल प्रबन्धन की वजह से मानव जीवन के लिए जोखिम की स्थिति पैदा करती हैं।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021


 

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