उत्तर प्रदेश में रोडवेज़ कर्मचारी भी अब निजीकरण के ख़िलाफ़ आन्दोलन की राह पर
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार जहाँ एक ओर प्रदेश को हिन्दुत्व की साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी प्रयोगशाला बनाने पर उतारू है वहीं दूसरी ओर वह सार्वजनिक उपक्रमों का धड़ल्ले से निजीकरण करने की योजना को तेज़ रफ़्तार से लागू करने की बेशर्म कोशिशें भी कर रही है। प्रदेश में बिजली के निजीकरण की उसकी योजना भले ही कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता की वजह से खटाई में पड़ गयी है, लेकिन अन्य विभागों में निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है। मिसाल के लिए योगी सरकार ने पिछले साल सितम्बर के महीने में परिवहन विभाग के निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करते हुए दो राष्ट्रीयकृत मार्गों पर निजी बसें चलाने की मंज़ूरी दे दी। लेकिन अच्छी बात यह है कि बिजली कर्मचारियों की ही तरह रोडवेज कर्मचारियों ने भी सरकार की मंशा को भाँपते हुए एकजुट होकर निजीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी है।
ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले साल सितम्बर में प्रदेश के दो प्रमुख राष्ट्रीयकृत मार्गों – लखनऊ-गोरखपुर (वाया अयोध्या-विक्रमजोत-बस्ती) और लखनऊ-आगरा-नोएडा एक्सप्रेसवे (वाया रिंग रोड कुबेरपुर (आगरा)-परी चौक) – पर निजी बसें चलाने की अनुमति दे दी थी। रोडवेज के कर्मचारियों को यह समझते देर न लगी कि यह उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम को ध्वस्त करके निजी परिवहन कम्पनियों को मुनाफ़ा पीटने की बेरोकटोक छूट देने की दिशा में उठाया गया क़दम है। प्रदेश में कुल 2,428 मार्गों में 424 राष्ट्रीयकृत मार्ग हैं जिनमें अब तक केवल सरकारी बसों के चलने की अनुमति है। इनमें से दो राष्ट्रीयकृत मार्गों में निजी बसों को अनुमति मिलने के बाद भविष्य में अन्य राष्ट्रीयकृत मार्गों पर भी निजी बसों को अनुमति मिलना आसान हो जाएगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि योगी सरकार ने यह फ़ैसला निजी परिवहन कम्पनियों के मालिकों को ख़ुश करने के लिए किया है जिनसे मुख्यमंत्री की पार्टी को फ़ण्डिंग मिलती है। इस फ़ैसले के समर्थन में यह तर्क दिया जा रहा है कि राष्ट्रीयकृत मार्गों पर वैसे ही ग़ैर-क़ानूनी रूप से निजी वाहन चलते हैं। लेकिन कोई भी तार्किक आदमी समझ सकता है कि ऐसे में सरकार की ज़िम्मेदारी यह होनी चाहिए थी कि वह ग़ैर-क़ानूनी रूप से चलने वाली बसों पर नियंत्रण करती और सरकारी बसों की संख्या बढ़ाती ताकि लोगों को भी सहूलियत हो और परिवहन निगम के कर्मचारियों का भविष्य भी अनिश्चित न हो।
उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की कुल लगभग 12 हज़ार बसें प्रदेश में चलती हैं और निगम में क़रीब 52 हज़ार कर्मचारी काम करते हैं जिनमें ड्राइवर, कण्डक्टर, वर्कशॉप स्टाफ़ शामिल हैं। ये कर्मचारी निगम के निजीकरण से ख़ौफ़ज़दा हैं क्योंकि उनकी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा ख़तरे में आ जाएगी। ग़ौरतलब है कि निगम में केवल साढ़े 18 हज़ार कर्मचारी ही स्थायी हैं। क़रीब 34 हज़ार कर्मचारी संविदा पर काम करते हैं। संविदा कर्मियों में से अधिकांश की तनख़्वाह 10 हज़ार रुपये से भी कम है और उन्हें समय पर वेतन भी नहीं मिलता। कई संविदा कर्मियों को कोरोना काल में भी समय पर वेतन नहीं मिला था जिसको लेकर उन्होंने पिछले साल हड़ताल भी की थी। पहले इन संविदा कर्मियों को यह उम्मीद थी कि परिवहन निगम के रहते किसी दिन उन्हें भी स्थायी कर्मचारी का दर्जा मिलेगा। परन्तु निगम में निजीकरण की शुरुआत से इस उम्मीद पर पानी फिरता दिख रहा है।
रोडवेज के कर्मचारियों ने निजीकरण को रोकने के लिए और अपनी अन्य माँगों को लेकर संघर्ष करने के लिए एक संयुक्त संघर्ष मोर्चा बनाया है जिसके बैनर तले उन्होंने आन्दोलन की राह पकड़ ली है। इस मोर्चे की प्रमुख माँगें हैं: राष्ट्रीयकृत मार्गों पर निजी बसों की परमिट पर रोक लगे, 206 मार्गों को राष्ट्रीयकृत मार्ग घोषित किया जाये, 2001 तक के संविदा कर्मियों की नियमित भर्ती हो, नियमित कर्मियों के बक़ाये महँगाई भत्ते का भुगतान हो, मृतक आश्रितों की भर्ती व बक़ाये का भुगतान किया जाये, संविदा चालक-परिचालकों को हर साल नियमित किया जाये, आउटसोर्स कर्मियों को वरीयता दी जाये और निगम में ठेकेदारी प्रथा पर रोक लगे। बड़ी बात यह है कि इन माँगों के तहत स्थायी व संविदा दोनों तरह के कर्मी एकजुट हो गये हैं जिससे उनकी ताक़त बढ़ गयी है। पिछले साल रोडवेज कर्मियों ने कई बार एक-दिवसीय हड़ताल व प्रदर्शन किये, परन्तु अभी तक सरकार की तरफ़ से चूँ तक नहीं निकली है। ऐसे में कर्मचारी अब बड़ा आन्दोलन करने की योजना बना रहे हैं।
बिजली के कर्मचारियों के बाद अब रोडवेज के कर्मचारियों का आन्दोलन की राह पकड़ना एक अच्छा संकेत है। यह दिखाता है कि फ़ासीवाद सतह पर भले ही कितना आक्रामक दिखे, लेकिन चूँकि वह लोगों की ज़िन्दगी तबाह और बरबाद करके आगे बढ़ता है, इसलिए लोग भी स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रतिरोध के रास्ते निकालते रहते हैं। परन्तु यह भी सच है कि एक सटीक रणनीति और समझौताविहीन नेतृत्व के अभाव में उनका प्रतिरोध आगे नहीं बढ़ पाता है। ऐसे में बेहद ज़रूरी हो जाता है कि मज़दूर वर्ग के ऐतिहास मिशन यानी पूँजीवाद को उखाड़-फेंकने की लड़ाई के साथ ही साथ उसके अहम अंग के रूप में ऐसे तात्कालिक मुद्दों पर भी संघर्ष किया जाये।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021
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