ख़र्चीला और विलासी बुर्जुआ लोकतन्त्र : जनता की पीठ पर भारी-भरकम बोझ सा सवार
आनन्द सिंह
हर बार के लोकसभा चुनावों की ही तरह इस बार भी लोकसभा चुनावों के दौरान राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में भारतीय लोकतन्त्र की शान में कसीदे पढ़े गये। किसी ने इन चुनावों को लोकतन्त्र के महाकुम्भ की संज्ञा दी तो किसी ने महापर्व की। लेकिन किसी ने ये बुनियादी सवाल पूछने की जहमत नहीं उठायी कि महीनों तक चली इस क़वायद से इस देश की आम जनता को क्या मिला और किस क़ीमत पर। चुनावी क़वायद ख़त्म होने के बाद जारी होने वाले ख़र्च के आँकड़े पर निगाह दौड़ाने भर से इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि इस तथाकथित लोकतन्त्र को वास्तव में धनतन्त्र की संज्ञा दी जानी चाहिए।
वैसे तो आज़ाद भारत में होने वाले सभी चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया गया, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनावों में पार्टियों ने, ख़ासकर सत्तासीन भाजपा ने, चुनाव प्रचार के दौरान पैसे का अश्लील प्रदर्शन करके पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये। ‘सेण्टर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ गत लोकसभा चुनावों में अनुमानत: 60 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च किये गये। इसमें लगभग 15 हज़ार करोड़ रुपये सीधे मतदाताओं को दिये गये और लगभग 25 हज़ार करोड़ रुपये पब्लिसिटी और मार्केटिंग में ख़र्च किये गये। ग़ौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनावों की तुलना में यह राशि दोगुनी और 2009 के लोकसभा चुनावों के मुक़ाबले यह राशि तीन गुनी है। इस प्रकार 17वीं लोकसभा के चुनाव ने दुनिया के सबसे ख़र्चीले चुनाव का कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। ज़ाहिर है कि इन चुनावों में जिन पार्टियों या उम्मीदवारों के पास इतने बड़े पैमाने पर मतदाताओं को रिश्वत देने, विशालकाय रैलियाँ आयोजित करने और पूरे देश में पब्लिसिटी अभियानों की आँधी बहाने के लिए ज़रूरी फ़ण्ड नहीं हैं, वे कभी भी जीतने के बारे में सोच भी नहीं सकतीं। ऐसे में चुनावों की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के दावों पर बहुत बड़ा सवालिया निशान खड़ा होता है।
यही नहीं इस बार के चुनावों में कॉरपोरेट फ़ण्डिंग का अनुपात पहले के किसी भी चुनाव के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा रहा है। इसका साफ़ मतलब है कि कॉरपोरेट घरानों ने समूची चुनाव की प्रक्रिया को अपनी जेब में रख लिया है। स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों के लम्बे-चौड़े दावों के पीछे छुपी नंगी सच्चाई यह है कि इस प्रक्रिया में आमतौर पर वही पार्टी जीतती है जिस पर पूँजीपति वर्ग के सबसे बड़े हिस्से की सरपरस्ती रहती है। गुज़रे चुनावों में कुल ख़र्च का लगभग 45 प्रतिशत, यानी लगभग 27 हज़ार करोड़ रुपये तो अकेले सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी ने ख़र्च किया। चुनावों के नतीजों से साफ़ है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की बहुचर्चित जीत का सबसे बड़ा कारण बड़े पूँजीपति वर्ग का लगभग एकमत होकर पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में खड़ा होना है। ज़ाहिरा तौर पर पूँजीपति वर्ग ने भाजपा को चन्दा धर्मार्थ नहीं दिया है, बल्कि इस निवेश का रिटर्न वे सरकार से मनचाही नीतियाँ लागू करवाकर निकालेंगे। नयी सरकार बनते ही जिस तरह से पूँजीपतियों के लग्गू-भग्गू हर्षातिरेक में आकर आर्थिक सुधारों की रफ़्तार तेज़ करने की माँग कर रहे हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग ने भाजपा और नरेन्द्र मोदी पर दाँव क्यों लगाया था।
आइए देखते हैं कि देश की मेहनतकश जनता के ख़ून-पसीने की कमाई की बदौलत सम्पन्न हुए इन चुनावों में जो प्रतिनिधि चुनकर आये हैं उनकी पृष्ठभूमि क्या है। ‘एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ गुज़रे लोकसभा चुनावों में चुने गये सांसदों में से 88 प्रतिशत करोड़पति हैं। ग़ौरतलब है कि 2009 की लोकसभा में 58 प्रतिशत सांसद करोड़पति थे। यही नहीं, नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 233, यानी 43 प्रतिशत आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। इनमें से तमाम सांसदों पर तो हत्या, बलात्कार, दंगे-फ़साद जैसे संगीन आरोप लगे हैं। इन आँकड़ों को देखने के बाद कोई भी तार्किक व्यक्ति इस बेहद ख़र्चीली और दोषपूर्ण चुनावी प्रक्रिया के औचित्य पर प्रश्नचिह्न उठाये बिना नहीं रह सकता।
पिछले साल एक आरटीआई आवेदन से यह खुलासा हुआ था कि मोदी सरकार के पहले चार वर्षों के दौरान सांसदों के कुल ख़र्च और सुविधाओं में करीब 1997 करोड़ रुपये का ख़र्च हुआ था। संसद की एक दिन की कार्रवाई पर लाखों रुपये ख़र्च हो जाते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि सांसदों की विलासी जीवनशैली में लगने वाला पूरा ख़र्च आम जनता की मेहनत की कमाई से वहन किया जाता है।
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