नई मज़दूर क्रान्ति की राह भी रौशन करती रहेगी पेरिस कम्यून की मशाल !

“मजदूरों के पेरिस और उसके कम्यून को नये समाज के गौरवपूर्ण अग्रदूत के रूप में हमेशा याद किया जायेगा। इसके शहीदों ने मजदूर वर्ग के महान हृदय में अपना स्थान बना लिया है।” –कार्ल मार्क्स

इतिहास की कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जिनसे दूरी जितनी बढ़ती जाती है, उतना ही उनका महत्व और अधिक स्पष्ट होता जाता है।

पेरिस कम्यून एक ऐसी ही महान घटना है। उस पहले मजदूर राज्य की स्मृतियां आज हमारे लिए और अधिक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायी हो गयी हैं।

18 मार्च 1871 को पेरिस की मेहनतकश जनता एक बहादुराना हथियारबन्द बगावत में उठ खड़ी हुई। मानव जाति के इतिहास में पहली सर्वहारा सत्ता की स्थापना हुई। 26 मार्च को पेरिस कम्यून का चुनाव हुआ और 28 मार्च को इसकी घोषणा हुई।

कम्यून के सदस्य नगर के सभी वार्डों से जनता द्वारा आम मताधिकार के आधार पर चुने गये थे और उन्हें कभी भी वापस बुलाया जा सकता था। इसमें बुनकरों, कारखाना मजदूरों से लेकर दर्जी-नाई-भिश्ती तक थे जो प्रायः अपना पेशागत काम भी करते थे। कम्यून सदस्यों की तनख्वाह मजदूरों के बराबर थी और उन्हें कोई विशेष अधिकार नहीं प्राप्त था।

कम्यून ने स्थायी सेना और पुलिस को भंग करके मजदूरों के हथियारबन्द दस्तों को राष्ट्रीय गार्ड के रूप में संगठित किया। अफ़सरशाही को भी भंग करके प्रबन्धन का काम मजदूरों के चुने हुए लोगों को सौंप दिया गया। शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह निःशुल्क कर दी गयीं। धर्म को सरकारी कामकाज से एकदम अलग कर दिया गया।

इस तरह पेरिस कम्यून ने पहली बार यह दिखा दिया कि समाजवादी समानता और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का मतलब क्या होता है! पेरिस कम्यून ने बताया कि मजदूर वर्ग का लक्ष्य केवल समाजवाद ही हो सकता है और उसे हासिल किया जा सकता है।

हालांकि यह पहला मजदूर राज्य सिर्फ़ 72 दिनों तक ही कायम रहा, पर विश्व इतिहास के भावी रास्ते पर इसने अपनी अमिट छाप छोड़ी। यूरोपीय बुर्जुआ ताकतों के हाथों कम्यून कुचल दिया गया, पर उसकी कीर्तिपताका आज भी लहरा रही है।

कम्यून के अनुभवों का निचोड़ निकालते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा कि “मजदूर वर्ग राज्य की बनी-बनाई मशीनरी पर सिर्फ़ कब्जा करके ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकता।उसे पुरानी मशीनरी को नष्ट करके राज्य का अपना ढांचा बनाना होगा। लेनिन ने बताया है कि पुरानी राज्य मशीन को ध्वस्त करने के रास्ते पर पेरिस कम्यून ने “पहला विश्व-ऐतिहासिक कदम रखा… और सोवियत सरकार ने दूसरा।

आज के समय में पेरिस कम्यून के आदर्श और मॉडल को याद करना विशेष प्रासंगिक है। समाजवादी क्रान्तियों की फ़ौरी पराजय और खासकर, पूंजीवाद की खुली बहाली के बाद, जब से पूरी दुनिया में निजीकरण-उदारीकरण का शोर मचा हुआ है, तब से मजदूर आन्दोलन के नेतृत्व पर काबिज सामाजिक जनवादी और तरह-तरह के बुर्जुआ सुधारवादी भी यह कहने लगे हैं कि इन घोर मजदूर-विरोधी नीतियों को स्वीकारने के अतिरिक्त मजदूर वर्ग के पास और कोई चारा नहीं है। समाजवाद और क्रान्ति का तो जैसे उन्होंने नाम ही भुला दिया है। उनके अनुसार, मजदूर वर्ग का लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा “कल्याणकारी राज्य” के बुर्जुआ मॉडल को पूरी तरह तोड़े जाने से बचाना है, सब्सिडी और रियायतों में कटौती को रोकना है और अपने ही भाइयों की छंटनी और रोजगार में कटौती की शर्तों पर अपनी तनख्वाहें बढ़वाना है।

पर इस सच्चाई का एक दूसरा पहलू भी है। खुले बाजारीकरण की नीतियों ने अब सुधारों-रियायतों की गुंजाइश को समाप्त कर दिया है। सुधार और रियायतों की ट्रेड यूनियन-राजनीति अपनी मौत मर रही है। मेक्सिको से लेकर कोरिया-इण्डोनेशिया तक मजदूर वर्ग के नये जुझारू आन्दोलन उठ खड़े हो रहे हैं। भारत में भी यही होना है। और वह दिन बहुत दूर नहीं है।

ऐसे समय में जरूरी है कि पूंजीवादी व्यवस्था और सुधारवादी-अर्थवादी ट्रेड यूनियन राजनीति से पूरी तरह निराश होते जा रहे मजदूर वर्ग को समाजवाद के विकल्प की याद दिलाई जाये और उसके ऐतिहासिक मिशन के बारे में बताया जाये। मजदूर वर्ग को पेरिस कम्यून के मॉडल की याद दिलानी होगी और बताना होगा कि अब एकमात्र उपाय यही है कि उत्पादन, राजकाज और समाज के ढांचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का नियंत्रण हो।

पूंजीवाद की ऐतिहासिक विफ़लता अन्तिम तौर पर साबित हो चुकी है। अतः सर्वहारा क्रान्तियों का नया चक्र शुरू होना ही है। अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण होने ही हैं।

सर्वहारा वर्ग की नेतृत्वकारी शक्तियों को एकजुट होकर मजदूर वर्ग में क्रान्तिकारी प्रचार और संगठन का काम करना होगा। केवल तभी हम पेरिस के वीर कम्युनार्डों के सच्चे वारिस बन सकेंगे। 

बिगुल, मार्च-अप्रैल 1998


 

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