कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ और हमारा समय
दुनिया के मज़दूरों के पूँजीवाद-विरोधी विश्व-ऐतिहासिक महासमर का रणघोष, विश्व सर्वहारा क्रान्ति की मार्गदर्शक पुस्तक

आलोक रंजन

यह भी एक ऐतिहासिक संयोग ही है कि जिस अमर रचना ने पिछली शताब्दी के मध्य में पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध युद्ध की शुरुआत के समय एक प्रचण्ड रणघोष की भूमिका निभाई थी, उसकी डेढ़ सौंवी जयन्ती हम एक ऐसे महत्वपूर्ण समय में मना रहे हैं, जब इतिहास फि़र एक नाजुक मोड़-बिन्दु पर खड़ा है।

1976 में माओ त्से-तुङ की मृत्यु के बाद चीन में पूंजीवादी पुनर्स्थापना के साथ ही समाजवाद का अन्तिम दुर्ग भी ढह गया। पूर्वी यूरोप की संशोधनवादी सत्ताओं के पतन और सोवियत संघ के टूटने का एक सकारात्मक पहलू यह रहा कि समाजवाद का चोला ओढ़े जो राजकीय पूंजीवाद दुनिया के मेहनतक़शों को भरमा-बरगला रहा था, वह रास्ते से हट गया। वह धोखे की टट्टी हट गई, जिसकी ओट का इस्तेमाल पूंजीवादी शिकार के लिए होता था, साथ ही समाजवाद को बदनाम भी किया जाता था और जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलनों को भटकाया-भरमाया भी जाता था। अब पूरी दुनिया में एक बार फि़र पूंजी और श्रम एकदम आमने-सामने खड़े हैं।

आज समाजवाद की फ़ौरी पराजय पर विश्व पूंजीवाद जब विजय की हुंकार भरने का दिखावा कर रहा है तो उसके मुंह से मात्र मृत्युभय की घुटी-घुटी चीखें ही निकल पा रही हैं। इतिहास की सबसे लम्बी मन्दी और दुश्चक्रीय निराशा इसका ढांचागत संकट बन चुकी है। खुद पूंजीवाद के सिद्धान्तकारों को भी इसके रोग अन्तकारी प्रतीत हो रहे हैं। पश्चिम के धनी देशों में भी बेरोजगारी बढ़ रही है और जनान्दोलन हो रहे हैं। रूस और पूर्वी यूरोप के जिन देशों को “पश्चिमी स्वर्ग” का स्वप्न दिखाया गया, वह नारकीय जीवन की कटु सच्चाई के रूप में सामने आया है। इन देशों का मजदूर वर्ग बेरोजगारी-महंगाई से बेहाल गत पांच वर्षों से लगातार आन्दोलन कर रहा है। यहां अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के बीज पड़ चुके हैं।

उधर तीसरी दुनिया के जिन पिछड़े देशों के पूंजीपतियों की बांह मरोड़कर और लालच देकर इनके बाजार को साम्राज्यवादियों ने अपनी पूंजी का अम्बार झोंकने के लिए पूरी तरह खोला है, वहां भी अन्तरविरोध तीखे हो उठे हैं। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के विरुद्ध मजदूर और किसान आन्दोलन से बगावत की राह पर आगे बढ़ रहे हैं और नये दौर की नई क्रान्तियों की न सिर्फ़ जमीन तैयार हो रही है, बल्कि रूपरेखा भी।

पूरी दुनिया के स्तर पर पूंजीपति वर्ग और मेहनतक़श वर्ग भूमण्डलीकरण और आर्थिक नवउपनिवेशवाद के नये साम्राज्यवादी चरण में, एक बार फि़र आमने-सामने खड़े हैं। युद्ध-रेखा पहले हमेशा से अधिक स्पष्ट है। साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ियां दबाव से कड़क-तिड़क रही हैं। दक्षिण और पूरब के देशों में विस्फ़ोट की सम्भावनाएं सुनिश्चित हो रही हैं। इतिहास संकेत दे रहा है कि पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के विश्व ऐतिहासिक महासमर का दूसरा चक्र शुरू हो चुका है।

ऐसे समय में कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र के प्रकाशन की डेढ़ सौंवी वर्षगांठ दुनिया भर के मेहनतकशों के लिए नई प्रेरणा और उत्साह का संकेत लेकर आयी है।

“यूरोप को एक हौवा आतंकित कर रहा है-कम्युनिज्म का हौवा। इस हौवा को भगाने के लिए पोप और जा,, मेटर्निख और गीजो, फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन खुफि़या पुलिस-बूढ़े यूरोप की सभी शक्तियों ने पवित्र गठबन्धन बना लिया है।

(‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ की शुरुआती पंक्तियां)

आज समाजवाद की मृत्यु के तमाम दावों के बावजूद बूढ़े साम्राज्यवादियों और उनके पिछलग्गू एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के शासक पूंजीपतियों को भी वही हौवा लगातार आतंकित किये हुए है जिस भूत की चर्चा ‘घोषणापत्र’ की उपरोक्त शुरुआती लाइनों में की गई है। और उनका यह आतंक वास्तविक है।

पूंजीवाद के विरुद्ध विश्व सर्वहारा के ऐतिहासिक वर्ग-महासमर के इस दूसरे चक्र में भी ‘घोषणापत्र’ का उतना ही महत्व है और यह महत्व तबतक बना रहेगा जबतक सर्वहारा वर्ग पूंजी की सभी किलेबन्दियों को ध्वस्त करके विश्व स्तर पर फ़ैसलाकुन जीत नहीं हासिल कर लेता। विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास में ‘घोषणापत्र’ का ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि इसमें निरूपित वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक कम्युनिज्म के सिद्धान्त और कार्यक्रम सर्वहारा क्रान्ति के पूरे दौर में प्रासंगिक बने रहेंगे।

‘घोषणापत्र’ के 1882 के दूसरे रूसी संस्करण की भूमिका में फ्रेडरिक एंगेल्स ने लिखा था: “‘घोषणापत्रने आधुनिक पूंजीवादी स्वामित्व के आसन्न विघटन की उद्घोषणा को अपना लक्ष्य बनाया था। और यही इसकी आज भी मौजूद प्रासंगिकता का मूल कारण है। 1872 के जर्मन संस्करण की भूमिका में लिखी गयी एंगेल्स की यह पंक्तियां आज के लिए भी लागू होती हैं:

“पिछले पचीस वर्षों में परिस्थिति चाहे कितनी भी बदल गई हो, इस ‘घोषणापत्रमें निरूपित आम सिद्धान्त समग्र रूप में आज भी उतने ही सही हैं, जितने कि पहले थे।

घोषणापत्र’: जन्म का इतिहास

सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा के मुख्य सर्जक मार्क्स और उनके अनन्य सहयोगी एंगेल्स के दृष्टिकोण महान ऐतिहासिक घटनाओं के माहौल में विकसित हुए। 19वीं सदी के प्रारम्भ में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति ला चुकी भाप मशीनें यूरोप के अन्य देशों में भी पूंजीवाद को विकसित कर रही थीं और सामन्तवाद अब अन्तिम सांसें गिन रहा था। बड़े पैमाने पर पूंजीवादी उद्योग के विकास से किसान और दस्तकार उजड़ रहे थे और उत्पादन के साधनों से वंचित उजरती मजदूर बन रहे थे।

यूरोपीय देशों में पूंजीवाद के पैर जमने के साथ ही वर्ग-संघर्ष तेज हो रहा था, पूंजीवादी जनवादी और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन फ़ैल रहे थे तथा पूंजीवाद का फि़लहाल स्वतःस्फ़ूर्त, अचेतन विरोध करने वाला सर्वहारा वर्ग इतिहास के रंगमंच पर उतर रहा था। 1831 और 1834 में फ्रांस के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र लियों में मजदूरों के विद्रोह भड़क उठे। इसी दशक के उत्तरार्द्ध में इंगलैण्ड में मजदूर वर्ग का पहला जनव्यापी राजनीतिक क्रान्तिकारी आन्दोलन- चार्टिस्ट आन्दोलन -चला। जर्मनी और यूरोप के पिछड़े हिस्सों में टूटते सामन्तवाद के खिलाफ़ उभरता पूंजीपति वर्ग और मध्यवर्ग क्रान्तिकारी संघर्ष कर रहे थे जिनमें शिरकत करने के साथ ही मजदूर वर्ग पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध भी आवाज उठाने लगा था। यही क्रान्तिकारी काल, जनसमूहों के प्रचण्ड ऐतिहासिक कार्यकलाप का यही दौर मार्क्सवाद के विकास की जमीन बना।

सबसे पहले 1844 में मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के आर्थिक सम्बन्धों और सामाजिक-वैचारिक ढांचे की चीर-फ़ाड़ शुरू करते हुए अपना यह विचार प्रस्तुत किया कि ऐतिहासिक रूप से सर्वहारा वर्ग ही समाजवादी समाज का निर्माण कर सकता है। उधर एंगेल्स भी स्वतंत्र रूप से इन्हीं नतीजों पर पहुंच रहे थे जब दोनों की 1844 में मुलाकात हुई और मानव इतिहास की एक महानतम मैत्री और अपूर्व वैचारिक-रचनात्मक साझेदारी की शुरुआत हुई।

उस समय मजदूर आन्दोलन में तमाम ऐसे हवाई और काल्पनिक समाजवाद की धारणाएं प्रचलित थीं जो ऐतिहासिक प्रगति के भौतिक आधार को नहीं समझती थीं, पूंजीवादी समाज में प्रत्येक वर्ग की भूमिका को पहचानने में असमर्थ थीं और वर्ग-संघर्ष की ऐतिहासिक वास्तविकता को समझने के बजाय “समता”, “न्याय” आदि की काल्पनिक सोच रखती थीं। सितम्बर, 1844 में एंगेल्स पेरिस आये और दोनों मित्रों ने साथ मिलकर द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्व-दृष्टिकोण को आगे विकसित करते हुए पूंजीवादी समाज के आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों को समझने के काम को आगे बढ़ाया तथा वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को विकसित करते हुए समाजवाद रंग-बिरंगे बकवासी, दिखावटी और काल्पनिक स्वरूपों पर जबर्दस्त चोट करते हुए उनकी बखिया उधेड़ डाली। यह करते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने पेरिस के क्रान्तिकारी ग्रुपों की राजनीतिक-आन्दोलनात्मक कार्रवाइयों में सक्रिय भागीदारी की। 1844 से 1848 के बीच की रचनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि इस दौरान मार्क्स ने एंगेल्स के साथ मिलकर मध्यमवर्गीय समाजवाद के भांति-भांति के सिद्धान्तों से डटकर संघर्ष करते हुए क्रान्तिकारी सर्वहारावर्गीय समाजवाद, अथवा कम्युनिज्म (मार्क्सवाद) के सिद्धान्तों और कार्यनीति की रूपरेखा तैयार की (लेनिन: ‘कार्ल मार्क्स’)।

“प्रशा की सरकार के निरन्तर अनुरोध के कारण 1845 में मार्क्स को एक खतरनाक क्रान्तिकारी करार देकर पेरिस से निकाल दिया गया। वे ब्रुसेल्स चले गये। 1847 की बसन्त तु में मार्क्स और एंगेल्स ‘कम्युनिस्ट लीग नामक एक गुप्त प्रचार सोसाइटी के सदस्य बन गये। लीग की दूसरी कांग्रेस (लन्दनः नवम्बर, 1847) में उन्होंने प्रमुखता से भाग लिया और उसी के अनुरोध पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध कम्युनिस्ट घोषणापत्र तैयार किया। फ़रवरी, 1848 में वह प्रकाशित हुआ। इस रचना में अद्भुत प्रतिभाशाली स्पष्टता और ओजस्विता से एक नये विश्वदर्शन की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। उसमें सुसंगत भौतिकवाद की, जिसके दायरे में सामाजिक जीवन का क्षेत्र भी आ जाता है, व्याख्या की गई है। विकास के सर्वव्यापी तथा प्रगाढ़ सिद्धान्त, यानी द्वंद्ववाद का परिचय दिया गया है, वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त तथा नये, कम्युनिस्ट समाज के स्रष्टा-सर्वहारा वर्ग की विश्व-ऐतिहासिक क्रान्तिकारी भूमिका का निरूपण किया गया है।”(लेनिन: ‘कार्ल मार्क्स’)

‘घोषणापत्र’ का इतिहास एक तरह से उन्नीसवीं सदी के सर्वहारा संघर्षों का ही इतिहास बन गया। इसका उल्लेख स्वयं एंगेल्स के ही शब्दों में बेहतर होगाः “ ‘घोषणापत्र का अपना एक अलग इतिहास रहा है। प्रकाशन के साथ ही उसका वैज्ञानिक समाजवाद के हरावलों द्वारा, जिनकी संख्या अभी बिल्कुल ही अधिक न थी, उत्साहपूर्ण स्वागत हुआ (जैसा कि पहली भूमिका में उल्लिखित अनुवादों द्वारा स्पष्ट है), किन्तु थोड़े ही समय बाद, जून 1848 में पेरिस के मजदूरों की पराजय (इस विद्रोह को एंगेल्स ने 1888 के अंग्रेजी संस्करण की भूमिका में “सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के मध्य पहली बड़ी लड़ाई” कहा था) से शुरू होने वाली प्रतिक्रिया के साथ उसे पृष्ठभूमि में ढकेल दिया गया, और अन्त में जब नवम्बर 1852 में कोलोन में कम्युनिस्टों को सजा दी गई तो वह “कानूनी तौर पर” बहिष्कृत कर दिया गया। फ़रवरी क्रान्ति के साथ जिस मजदूर आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था, उसके सार्वजनिक रंगमंच से ओझल हो जाने के बाद ‘घोषणापत्र’ भी पृष्ठभूमि में चला गया” (1890 के जर्मन संस्करण की भूमिका)।

आगे एंगेल्स ने बताया है कि यूरोपीय मजदूर वर्ग ने शासक वर्ग पर एक और प्रहार करने के लिए जब पर्याप्त शक्ति जुटा ली तो 1864 में अन्तरराष्ट्रीय मजदूर संघ (प्रथम इण्टरनेशनल) का गठन हुआ। इण्टरनेशनल ने अपना कार्यक्रम घोषणापत्र में निरूपित सिद्धान्तों को नहीं बनाया था, पर इस दौरान के संघर्षों और हारों-जीतों ने यूरोपीय मजदूर वर्ग को अपनी मुक्ति की वास्तविक शर्तों को समझने में काफ़ी मदद की। 1874 में जब इण्टरनेशनल भंग हुआ तो मजदूर वर्ग 1864 से सर्वथा भिन्न स्थिति में था और 1887 आते-आते यूरोपीय मजदूर आन्दोलन का बड़ा और मुख्य हिस्सा ‘घोषणापत्र’ में निरूपित सिद्धान्तों को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बना चुका था। 1889 में दूसरे इण्टरनेशनल का गठन हुआ। इस समय तक घोषणापत्र का प्रकाशन न सिर्फ़ यूरोप की सभी भाषाओं में और अमेरिका में हो चुका था बल्कि यह लातिन अमेरिकी देशों के मजदूर आन्दोलन तक भी पहुंच चुका था। जैसा कि एंगेल्स ने 1890 में लिखा था: “ ‘घोषणापत्रका इतिहास 1848 के बाद से आधुनिक मजदूर आन्दोलन के इतिहास को एक हद तक प्रतिबिम्बित करता है। आज तो निस्सन्देह ‘घोषणापत्रसमस्त समाजवादी साहित्य की सबसे अधिक प्रचलित, सबसे अधिक अन्तरराष्ट्रीय कृति है और वह साइबेरिया से लेकर कैलिफ़ोर्निया तक सभी देशों के करोड़ों मजदूरों का समान कार्यक्रम है।

वर्तमान सदी के दूसरे दशक तक ‘घोषणापत्र’ चीन, भारत सहित एशिया के अधिकांश देशों तक भी पहुंच चुका था। पांचवें दशक तक भारत की अधिकांश प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका था और यह भारतीय मजदूर वर्ग की भी बुनियादी पाठ्य पुस्तक और मार्गदर्शक किताब बन चुका था।

‘घोषणापत्र में निरूपित बुनियादी सिद्धान्त और प्रमुख शिक्षाएं

मार्क्स और  एंगेल्स की यह अमर रचना उदात्त प्रेरणा और प्रबल क्रान्तिकारी जोश से ओतप्रोत है, जो मेहनतकशों के दिमाग के साथ ही दिल से भी अपील करती हुई संघर्ष का संकल्प जगाती है, क्रान्तिकारी पराक्रम का आह्वान करती है। यह अनुपम कृति वैज्ञानिक कम्युनिज्म का पहला कार्यक्रम मूलक दस्तावेज है जिसमें विचारों की असाधारण गहनता, तर्क की अकाट्य शक्ति तथा सुघड़-सजीव शैली एवं साहित्यिक सौष्ठव का बेजोड़ संगम है। इसमें मार्क्स और एंगेल्स के उस समय तक के समस्त सैद्धान्तिक कार्यों का निचोड़ है जो समाजवाद को कल्पना से विज्ञान की जमीन पर ला उतारता है और सर्वहारा वर्ग का समग्र क्रान्तिकारी विश्व दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें मार्क्स और एंगेल्स ने पहली बार अपनी शिक्षा, उसके तीनों संघटकों-दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और वैज्ञानिक समाजवाद के मूलभूत सिद्धान्तों का संक्षिप्त, सुव्यवस्थित और समग्रतापूर्ण विवरण दिया।

मार्क्स के निधन के बाद एंगेल्स ने ‘घोषणापत्र’ की रचना में उनकी भूमिका का उल्लेख करते हुए इस कृति के निचोड़ की भी चर्चा इन शब्दों में कर डाली है: “चूंकि ‘घोषणापत्रहमारी संयुक्त रचना है, इसलिए मैं यह कहने के लिए अपने को वचनबद्ध समझता हूं कि इसमें आधारभूत प्रस्थापना, जो इसका नाभिक है, मार्क्स की ही है। वह प्रस्थापना यह है कि प्रत्येक ऐतिहासिक युग का आर्थिक उत्पादन तथा विनिमय का प्रचलित ढंग तथा उससे अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाली सामाजिक संरचना उस आधार का निर्माण करती है जिस पर उस युग के राजनीतिक तथा बौद्धिक इतिहास का निर्माण होता है और जिसके बल पर ही उस पर प्रकाश डाला जा सकता है; कि इसके परिणामस्वरूप मानव जाति का पूरा इतिहास (आदिम कबायली समाज के, जिसमें भूमि पर सबका स्वामित्व होता था, विघटन से लेकर) वर्ग संघर्षों, शोषकों और शोषितों, शासकों तथा शासितों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा है, कि इन वर्ग-संघर्षों का इतिहास अपने विकास क्रम की एक ऐसी मंजिल में पहुंच चुका है जहां शोषित तथा उत्पीड़ित वर्ग-सर्वहारा वर्ग-पूरे समाज को शोषण, उत्पीड़न, वर्ग विभेदों तथा वर्ग संघर्षों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त किये बिना उत्पीड़न तथा शोषण करने वाले वर्ग-पूंजीपति वर्ग के जुवे से अपने को मुक्त नहीं कर सकता। (1888 के अंग्रेजी संस्करण की भूमिका)

अब ‘घोषणापत्र’ की मूल अन्तर्वस्तु की कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे।

“अभी तक आविर्भूत (कबायली आदिम समाज के विघटन के बाद से) समस्त समाज का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है।” यहां से प्रारम्भ करते हुए ‘घोषणापत्र’ के रचयिताओं ने यह सिद्धान्त निरूपित किया है कि सभी वर्ग समाजों में अनिवार्यतः वर्ग-संघर्ष लगातार जारी रहता है और वही विकास की चालक शक्ति होता है। पुस्तक का पहला अध्याय बुर्जुआ और सर्वहारा इसी प्रश्न पर केन्द्रित है। मार्क्सवाद के प्रवर्तक यह दिखाते हैं कि शोषक समाजों के विकास और विनाश के जिस नियम का उन्होंने पता लगाया है वह पूंजीवादी समाज पर भी लागू होता है।

समाज विकास की गतिकी के आम नियमों को लागू करते हुए और अपने देश-काल की घटनाओं के सूक्ष्म अध्ययन एवं सामान्यीकरण के आधार पर मार्क्स-एंगेल्स ने पूंजीवादी समाज की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डाला है तथा इसके उन अन्दरूनी अन्तरविरोधों को उजागर किया है जो इसे अनिवार्यतः विनाश की ओर अग्रसर करते हैं। उन्होंने बताया है कि विकास की एक खास मंजिल में पहुंचकर स्वामित्व के सामन्तवादी सम्बन्ध विकसित हो गई उत्पादक शक्तियों के अनुरूप नहीं रहे। उत्पादक को आगे बढ़ाने के बजाय वे उसे अवरुद्ध करते थे। वे बहुत सारी बेड़ियां बन गये। उन्हें तोड़ फ़ेंकना आवश्यक हो गया और उन्हें तोड़ फ़ेंका गया। इस तरह पूंजीवादी समाज अस्तित्व में आया जिसमें शासक-शासित के रूप में दो ध्रुवों पर पूंजीपति और सर्वहारा खड़े होते हैं। पूंजीपति उत्पादन के सभी साधनों का मालिक होता है और उजरती मजदूर उनसे पूरी तरह वंचित होता है और जीने के लिए अपनी श्रम-शक्ति बेचता है।

पूंजीपति वर्ग ने सामन्तवाद के विरुद्ध संघर्ष में क्रान्तिकारी भूमिका निभाई थी और उस समय इतिहास-चक्र को आगे गति दी थी। मशीनों और फ़ैक्टरियों के आविर्भाव के साथ उत्पादक शक्तियों का भव्य विकास हुआ और साथ ही बौद्धिक-वैचारिक प्रगति भी। पर विकास की एक निश्चित मंजिल पर पहुंचकर बुर्जुआ उत्पादन-सम्बन्ध उत्पादक-शक्तियों को और आगे विकसित करने में अक्षम और बाधक बन गये। कारखानों में हजारों-हजार मजदूरों को जमा करते हुए पूंजीवाद उत्पादन की प्रक्रिया को सामाजिक स्वरूप प्रदान करता है। किन्तु उत्पादन का सामाजिक स्वरूप यह मांग करता है कि उत्पादन-साधनों पर स्वामित्व भी सामाजिक हो, जबकि वह निजी ही बना रहता है। उत्पादन-साधनों पर निजी स्वामित्व उत्पादक शक्तियों के विकास की राह का रोड़ा बन जाता है।

उत्पादक शक्तियों और पूंजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के बीच अधिकाधिक उग्र होता अन्तरविरोध उन संकटों को जन्म देता है जो समय-समय पर पूंजीवादी समाज को झकझोरते रहते हैं। पूंजीपति वर्ग इनसे निजात पा ही नहीं सकता क्योंकि ये पूंजीवाद से अभिन्न रूप से जुड़ी उत्पादन की अराजकता का परिणाम होते हैं।

अन्ततोगत्वा सिर्फ़ सर्वहारा क्रान्ति ही उत्पादक शक्तियों की तबाही रोक सकती है, सभ्यता को विनाश से बचा सकती है और मानव जाति को उज्ज्वल भविष्य की ओर आगे बढ़ा सकती है। यही सर्वहारा वर्ग का विश्व-ऐतिहासिक मिशन है जिसे ‘घोषणापत्र’ में आगे तफ़सील से समझाया गया है।

पूंजीवादी समाज का सबसे अधिक उत्पीड़ित वर्ग होने के साथ ही सर्वहारा सर्वाधिक क्रान्तिकारी वर्ग भी होता है। बुर्जुआ वर्ग के साथ उसका संघर्ष विभिन्न चरणों से गुजरता हुआ अलग-थलग, स्वतःस्फ़ूर्त संघर्ष की मंजिल से आगे ज्यादा से ज्यादा सचेतन व व्यापक वर्ग-संघर्ष बनता जाता है। प्रत्येक वर्ग-संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है। यह समूचे पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध लक्षित होता है तथा उसके राज्य के विरुद्ध भी, जो “पूरे पूंजीपति वर्ग के सम्मिलित हितों का प्रबन्ध करने वाली कमेटी के अलावा और कुछ नहीं है।”

एक मंजिल पर पहुंचकर मजदूर वर्ग का संघर्ष क्रान्ति का रूप ले लेगा जिसमें सर्वहारा वर्ग पूंजीपति वर्ग को सत्ताच्युत करके अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करेगा। सर्वहारा इतिहास का एकमात्र ऐसा वर्ग है जो अपने को मुक्त करते हुए समस्त मानवजाति को भी हर तरह के शोषण से मुक्त करेगा। ‘घोषणापत्र’ का पहला अध्याय बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध इस कठोर ऐतिहासिक निर्णय के साथ समाप्त होता है:

“इस तरह आधुनिक उद्योग का विकास पूंजीपति वर्ग के पैरों के नीचे से उस जमीन को ही खिसका देता है जिसके आधार पर वह उत्पादन करता है और पैदावार को हड़प लेता है। अतः पूंजीपति वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।”

‘घोषणापत्र’ के दूसरे अध्याय ‘सर्वहारा और कम्युनिस्ट में सर्वहारा पार्टी की स्थापना की आवश्यकता, इसकी भूमिका, ध्येय और कार्यभार समझाये गये हैं। यहां मार्क्स-एंगेल्स ने सर्वहारा पार्टी विषयक अपनी शिक्षा की नींव रखी है जिसे वे लगातार आगे विकसित करते रहे और जिसे और अधिक उन्नत मंजिल पर ले जाकर लेनिन ने वर्तमान सदी के प्रारम्भ में बोल्शेविक पार्टी की स्थापना की।

घोषणापत्र के शब्दों में, कम्युनिस्ट हर देश की मजदूर पार्टियों के सबसे उन्नत और कृतसंकल्प हिस्से होते हैं, ऐसे हिस्से जो औरों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं; दूसरी ओर, सैद्धान्तिक दृष्टि से, वे सर्वहारा वर्ग के विशाल जन-समुदाय की अपेक्षा इस अर्थ में श्रेष्ठ हैं कि वे सर्वहारा आन्दोलन के आगे बढ़ने के रास्ते की, उसके हालात और साधारणतः उसके अन्तिम नतीजे की सुस्पष्ट समझ रखते हैं।

पूंजीवादी भाड़े के टट्टू मार्क्स के समय से लेकर आजतक शहर-देहात के मध्यम वर्गीय लोगों और किसानों को कम्युनिज्म के खिलाफ़ भड़काते रहते हैं कि स्वामित्व खत्म करने के नाम पर कम्युनिस्ट उन सबकी सम्पत्ति का अपहरण कर लेंगे। मार्क्स-एंगेल्स ने तीखे व्यंग्य के साथ इस फ़रेब का पर्दाफाश करते हुए कहा है कि छोटे मालिकाने को कम्युनिज्म नहीं बल्कि पूंजीवाद और बड़े उद्योगों का विकास ही क्रमशः तबाह कर डालता है। कम्युनिस्ट आधुनिक पूंजीवादी निजी स्वामित्व को नष्ट करना चाहते हैं, आम तौर पर स्वामित्व को नहीं। वे समाजवादी स्वामित्व के रूपों को कायम करना चाहते हैं। उजरती श्रम श्रमजीवी के लिए कोई सम्पत्ति नहीं बल्कि पूंजी पैदा करता है। पूंजी एक सामूहिक उपज, एक सामाजिक शक्ति होती है जो पूंजीपति के कब्जे में होती है। “इसलिए पूंजी जब आम स्वामित्व बना दी जाती है, जब उसे समाज के तमाम सदस्यों के स्वामित्व का रूप दे दिया जाता है, तब वैयक्तिक स्वामित्व सामाजिक स्वामित्व में नहीं बदल जाता। तब स्वामित्व का केवल सामाजिक रूप बदल जाता है। उसका वर्ग-रूप मिट जाता है।

कम्युनिस्टों पर पूंजीवाद के प्रचारक यह लांछन लगाते हैं कि वे व्यक्ति की स्वतंत्रता समेत हर तरह की स्वतंत्रता मिटाना चाहते हैं। इसका खण्डन करते हुए मार्क्स-एंगेल्स बताते हैं कि पूंजीवाद के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ़ खरीद-फ़रोख्त की स्वतंत्रता होता है; “बुर्जुआ समाज में पूंजी स्वतंत्र है और उसका व्यक्तित्व होता है, किन्तु जीवित व्यक्ति परतंत्र है और उसका कोई व्यक्तित्व नहीं होता।

“फि़र भी पूंजीपति वर्ग कहता है कि इस परिस्थिति को खत्म कर देने का मतलब व्यक्तित्व और स्वतंत्रता को खत्म कर देना है। और यह ठीक ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हम बुर्जुआ व्यक्तित्व, बुर्जुआ स्वतंत्रता और बुर्जुआ स्वाधीनता को जड़-मूल से खत्म कर देना चाहते हैं।”

पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न का नाश करके ही व्यक्ति की सच्ची स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सकती है।

आगे मार्क्स-एंगेल्स पाखण्डपूर्ण, घिनौनी पूंजीवादी नैतिकता का तीखे व्यंग्य के साथ पर्दाफाश करते हुए बताते हैं कि वह महज “सोने की खनक” में ही सिमटी होती है। वे बताते हैं कि कम्युनिज्म की नैतिकता ही समतामूलक समाज की सच्ची मानवतावादी, वैज्ञानिक, स्वार्थमुक्त नैतिकता हो सकती है।

बुर्जुआ राष्ट्रप्रेम और “मातृभूमि-प्रेम” का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए ‘घोषणापत्र’ बताता है कि पूंजीपतियों और उनके विचारकों का राष्ट्रवाद बाजार में जन्मा होता है, “मातृभूमि की रक्षा” के झूठे नारे की आड़ में वे दूसरे देशों पर कब्जा करने और दूसरे जनगण को दास बनाने की ओर लक्षित लुटेरे युद्ध चलाते हैं। “श्रमजीवियों का कोई स्वदेश नहीं है। जो उनके पास है ही नहीं उसे उनसे कौन छीन सकता है? चूंकि सर्वहारा वर्ग को सबसे पहले राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करना है, राष्ट्र में प्रधान वर्ग का स्थान ग्रहण करना है, खुद अपने को राष्ट्र के रूप में संगठित करना है, अतः इस हद तक वह स्वयं राष्ट्रीय चरित्र रखता है, गोकि इस शब्द के पूंजीवादी अर्थ में नहीं।

साथ ही, राष्ट्रीय प्रश्न पर नकारात्मक रुख से दूर रहते हुए ‘घोषणापत्र’ में कहा गया हैः “पूंजीपति वर्ग के खिलाफ़ सर्वहारा वर्ग का संघर्ष, यद्यपि अन्तर्वस्तु की दृष्टि से नहीं, तथापि रूप की की दृष्टि से शुरू में राष्ट्रीय संघर्ष होता है। हर देश के सर्वहारा वर्ग को, जाहिर है, पहले अपने ही पूंजीपतियों से निबटना होगा।

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में मार्क्सवादी सिद्धान्त के एक सबसे बुनियादी तत्व सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का भी स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। मार्क्स-एंगेल्स के अनुसार, सर्वहारा की विजय के साथ ही हर तरह की जातीय फ़ूट का, एक राष्ट्र द्वारा दूसरे को दास बनाये जाने के सिलसिले का और मानवता पर युद्धों द्वारा लादी जाने वाली विपदाओं-यातनाओं का भी अन्त हो जायेगा।

राजनीतिक सत्ता-प्राप्ति के बाद सर्वहारा वर्ग के आम कार्यभारों को ‘घोषणापत्र’ इन शब्दों में निरुपित करता हैः “सर्वहारा वर्ग अपना राजनीतिक प्रभुत्व पूंजीपति वर्ग से धीरे-धीरे कर सारी पूंजी छीनने के लिए, उत्पादन के सारे औजारों को राज्य, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग, के हाथों में केन्द्रीकृत करने के लिए तथा समग्र उत्पादक शक्तियों में यथाशीघ्र वृद्धि के लिए इस्तेमाल करेगा।

यह इंगित करते हुए कि ‘घोषणापत्र’ की इस प्रस्थापना में राज्य के प्रश्न पर मार्क्सवाद का सर्वाधिक बुनियादी और सर्वाधिक अनूठा सिद्धान्त निरूपित किया गया है, लेनिन ने उसे इन शब्दों में स्पष्ट किया है: “‘राज्य, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग’-यही सर्वहारा अधिनायकत्व है।”

यद्यपि “सर्वहारा अधिनायकत्व” शब्दों का ‘घोषणापत्र’ में उपयोग नहीं हुआ था, तथापि यह धारणा यहां पहली बार ठोस रूप में प्रकट हुई। इसे मार्क्स-एंगेल्स ने अपनी आगे की रचनाओं में क्रमशः ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, शोषकों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए और कम्युनिज्म की दिशा में यात्रा को जारी रखने के लिए राज्य के एक संक्रमणकालीन रूप के तौर पर एक लम्बी अवधि तक सर्वहारा को अपना अधिनायकत्व लागू करना होगा। यह बुर्जुआ तत्वों पर अंकुश लगायेगा और सम्पूर्ण मेहनतकश जनता के जनवाद पर आधारित अबतक की सारी सत्ताओं से अधिक जनवादी होगा।

भावी कम्युनिस्ट समाज की आम रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए ‘घोषणापत्र’ बताता है कि इस समाज में उत्पादक शक्तियों के विकास के मार्ग में कोई बाधाएं नहीं होंगी, और, परिणामतः उसकी कोई सीमा भी नहीं होगी। हर तरह के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति व्यक्ति और समाज की सामंजस्यपूर्ण एकता के लिए, व्यक्ति की सच्ची स्वतंत्रता और मानव के चहुंमुखी विकास के लिए भौतिक आधार बनेगी।

“वर्ग और वर्ग-विरोधों से बिंधे पुराने पूंजीवादी समाज के स्थान पर एक ऐसे संघ की स्थापना होगी जिसमें व्यष्टि की स्वतंत्र प्रगति समष्टि की स्वतंत्र प्रगति की शर्त होगी।

‘घोषणापत्र’ के तीसरे अध्याय में समाजवाद के नाम पर तत्कालीन यूरोप में प्रचारित भांति-भांति की गैर सर्वहारा शिक्षाओं की आलोचना प्रस्तुत की गई है। यद्यपि ये विचार आज मर चुके हैं, पर सैद्धान्तिक दृष्टि से इनकी आलोचना आज भी सही और उपयोगी है क्योंकि आज भी भारत और अन्य तमाम देशों के बुर्जुआ वर्ग के कुछ सुधारवादी धड़े ऐसे भांति-भांति के “समाजवाद” का झण्डा लहराते रहते हैं और आम जनता को गुमराह करते रहते हैं।

‘घोषणापत्र’ में आलोचनात्मक-काल्पनिक समाजवाद और कम्युनिज्म का गहन द्वंद्वात्मक मूल्यांकन किया गया है। अपने समय में पूंजीवादी समाज की तीव्र आलोचना करते हुए सेंट साइमन, फ़ूरिए, ओवेन आदि ने जो भूमिका अदा की, उसका मार्क्स-एंगेल्स ऊंचा मूल्यांकन करते हैं। किन्तु काल्पनिक समाजवाद चूंकि वर्गों से ऊपर उठने की कोशिश करता है तथा राजनीतिक संघर्ष और हर तरह की क्रान्तिकारी कार्रवाई के प्रति नकारात्मक रुख अपनाता है, अतः ज्यों-ज्यों मजदूर आन्दोलन आगे बढ़ता है और वर्ग-संघर्ष तीखा होता जाता है, त्यों-त्यों काल्पनिक समाजवाद अपनी सकारात्मक भूमिका खोकर प्रतिगामी बनता जाता है।

‘वर्तमान काल की विभिन्न विरोधी पार्टियों के सम्बन्ध में कम्युनिस्टों की स्थिति’ शीर्षक ‘घोषणापत्र’ का चौथा अध्याय तफ़सील के नजरिए से हालांकि उतना प्रासंगिक नहीं है, लेकिन इसमें उल्लिखित कम्युनिष्टों की कार्यनीति के सैद्धान्तिक मूलाधार आज भी प्रासंगिक हैं। विशेष तौर पर ये पंक्तियां आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक का काम करती हैं: कम्युनिस्ट मजदूरों के तात्कालिक लक्ष्यों के लिए लड़ते हैं, उनके सामयिक हितों की रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं, किन्तु वर्तमान के आन्दोलन में वे इस आन्दोलन के भविष्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ध्यान रखते हैं।

अन्त में ‘घोषणापत्र’ इन शब्दों में सर्वहारा क्रान्ति का खुला, ओजस्वी, और गर्वपूर्ण आह्वान करता है:

“कम्युनिस्ट क्रान्ति के भय से शासक वर्ग कांपते हैं तो कांपें! सर्वहाराओं के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए उनके सामने सारी दुनिया है।

दुनिया के मजदूरो, एक हो!

‘घोषणापत्र का उद्घोष अमर है!

स्वर्ग पर फि़र से धावा बोला जायेगा!!

उपरोक्त महान उद्घोष को आज डेढ़ सौ वर्ष गुजर चुके हैं। सर्वहारा क्रान्ति ने इस दौरान डग भरते हुए पूरी दुनिया और एक पूरे युग को नाप डाला है तथा चार महान क्रान्तियों-पेरिस कम्यून (1871), सोवियत क्रान्ति (1917), चीनी नई जनवादी क्रान्ति (1949) और चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966-76) के रूप में इतिहास में चार मील के पत्थर स्थापित किये हैं जो सर्वहारा शौर्य और कम्युनिज्म के कीर्तिस्तम्भ के रूप में विश्व-पूंजीवाद की छाती पर खड़े हैं।

इस सदी के प्रारम्भ में वित्तीय पूंजी के प्रभुत्व के साथ पूंजीवाद के विश्वव्यापी प्रसार और विकास की चरम अवस्था का नया दौर शुरू हुआ, जिसे लेनिन ने व्याख्यायित किया और साम्राज्यवाद नाम दिया। उन्होंने विश्व सर्वहारा क्रान्ति की नई आम दिशा पेश की और बताया कि क्रान्तियों के तूफ़ान के केन्द्र अब पिछड़े देशों में खिसक आये हैं। अक्टूबर क्रान्ति के बाद समाजवाद ने 1917 से 1953 तक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में निरूपित सिद्धान्तों को सिद्ध किया और आगे विस्तार दिया। चीन में माओ त्से-तुङ ने नई जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी निर्माण को आगे गति दी और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान ये सिद्धान्त विकसित किये कि पूंजीवादी पुनर्स्थापना के खतरों को समाप्त करके समाजवाद कम्युनिज्म की मंजिल तक किस प्रकार आगे बढ़ेगा!

पूरे विश्व में इस दौरान जारी वर्ग संघर्ष ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में निरूपित सिद्धान्तों को सत्यापित करते रहे। राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों की जीत ने उपनिवेशवाद-नवउपनिवेशवाद के दौरों को समाप्त कर दिया। वियतनाम, कोरिया, क्यूबा आदि कई देशों में ये मुक्ति युद्ध सर्वहारा पार्टियों की अगुवाई में लड़े गये और अन्यत्र भी सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टियों की भूमिका अहम रही। सोवियत सेना के हाथों दूसरे विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद की पराजय और पूर्वी यूरोप में सर्वहारा सत्ताओं की स्थापना ने सर्वहारा वर्ग की शक्ति से पूरी दुनिया को परिचित करा दिया।

विश्व-पूंजीवाद ने अपनी समग्र भौतिक-बौद्धिक शक्ति लगाकर फि़लहाल समाजवादी क्रान्तियों को विफ़ल कर दिया है। इसमें समाजवादी समाज और सर्वहारा पार्टियों के भितरघातियों ने अहम भूमिका निभाई है। पर यह हार अन्तिम नहीं है। जैसा कि इतिहास में पूर्ववर्ती क्रान्तियों के साथ हुआ है, सर्वहारा क्रान्ति के भी नये संस्करण अवश्यम्भावी हैं।

आर्थिक नवउपनिवेशवाद के दौर में विश्व पूंजीवाद के चतुर्दिक, सर्वव्यापी, ढांचागत, अन्तकारी, असमाधेय संकट यही बता रहे हैं कि पूंजीवाद अजर-अमर नहीं है। इतिहास का अन्तिम शोषक वर्ग आज वर्ग-समाज के सीमान्तों पर खड़ा मेहनतकश अवाम पर हर तरह का कहर बरपा कर रहा है, पर साथ ही वह दुनिया के कोने-कोने से उठ रहे जनसंघर्षों और क्रान्तिकारी सर्वहारा के हिरावल दस्तों के फि़र से संगठित होने की कोशिशों से भयाक्रान्त भी है।

सर्वहारा वर्ग के लिए आज भी यह आह्वान सर्वथा प्रासंगिक है कि ‘कम्युनिस्ट क्रान्ति के भय से शासक वर्ग कांपते हैं तो कांपें! सर्वहाराओं के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए उनके सामने सारी दुनिया है।’

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ आज भी दुनिया के मजदूरों की पूंजीवाद-विरोधी विश्व ऐतिहासिक महाक्रान्ति का घोषणापत्र है।

‘घोषणापत्र’ के प्रकाशन की डेढ़ सौंवीं जयन्ती हमें अपने शौर्यपूर्ण अतीत की विस्मृति के विरुद्ध संघर्ष के लिए, अपने वर्तमान, भविष्य और कल्पनालोक की मुक्ति के लिए ललकार रही है तथा ‘स्वर्ग’ पर फि़र से धावा बोलने के लिए आह्वान कर रही है।

हमें अपने संकल्पों को फ़ौलादी बनाना है और नई मजूदर क्रान्ति के रणघोष से पूरे भूमण्डल को एक बार फि़र कंपा देना है। 

‘बिगुल’, फ़रवरी 1998 और मार्च-अप्रैल 1998 में दो किस्तों में प्रकाशित


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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