बिगुल पुस्तिका – 3
ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके
सेर्गेई रोस्तोवस्की
सोवियत संघ की पहल पर बनी वर्ल्ड फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स के सेक्रेटरी सर्गेई रोस्तोवस्की द्वारा 1950 में लिखी यह पुस्तिका ट्रेड यूनियनों में नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष करने और यूनियनों में हर स्तर पर जनवाद बहाल करने की ज़रूरत को सरल और पुरज़ोर ढंग से बताती है।
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ट्रेड यूनियन काम के जनवादी तरीक़े
ट्रेड यूनियन संगठन अपने स्वरूप और जन्म से ही एक जनवादी जन संगठन है। यहाँ जनवादी शब्द का, उस संगठन के स्वरूप के साथ अक्षरशः मेल बैठाया जाना चाहिए। यदि कोई ट्रेड यूनियन जन संगठन नहीं है, और यदि वह संगठन जनवादी नहीं है, तो वह अपने कामों को सफलतापूर्वक अंजाम नहीं दे सकता।
ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के लिए महान पाठशालाएँ (स्कूल) हैं। वे मज़दूरों की वर्ग चेतना को जगाती हैं; उनके हितों की रक्षा के लिए, संगठित संघर्ष के पहले अनुभवों को हासिल कराने में वे मज़दूरों की मदद करती हैं; और मज़दूर वर्ग के अगुआ कार्यकर्ताओं को तैयार करती हैं। अच्छी तरह से संगठित जन ट्रेड यूनियन ऐसी विशाल शक्ति होती है, जिसका ध्यान मालिकों और पूँजीवादी सरकारों को रखना ही पड़ता है।
इसीलिए, यदि मज़दूर वर्ग के दुश्मन ट्रेड यूनियन संगठनों के क़ायम किये जाने को रोकने के लिए सभी हथकंडों का प्रयोग करने की कोशिश करते हैं, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिन देशों में अपने लम्बे और कठिन संघर्षों के बाद मज़दूरों ने ट्रेड यूनियन बनाने के अपने अधिकारों को हासिल कर लिया है वहाँ, मज़दूर वर्ग के दुश्मन ट्रेड यूनियनों को क्षति पहुंचाने और कमज़ोर बना देने तथा उनके स्वरूप और उद्देश्यों को बदल देने के लिए हर तरीक़े का उपयोग करते हैं। मज़दूरों के हितों की रक्षा के लिए बनी ट्रेड यूनियनों को मालिकों और प्रतिगामी सरकारों की सेवा करने वाली संस्था के रूप में बदल देने के लिए मज़दूर वर्ग के यह दुश्मन हर हथकण्डा इस्तेमाल करते हैं। अपने मंसूबों को पूरा करने की गरज से तरह-तरह के राजनीतिज्ञ प्रायः ट्रेड यूनियन संगठनों में घुस आते हैं। खास तौर से लातिनी अमेरिकी देशों में (अपने देश में भी- अनु.) ऐसे राजनीतिज्ञों की बड़ी संख्या हमारे देखने में आती है।
ट्रेड यूनियनों में आने वाली इस खराबी से लड़ने का सबसे पक्का और सबसे कारगर तरीक़ा यह है कि वास्तविक ट्रेड यूनियन जनवाद का समर्थन किया जाये और उसे विकसित किया जाये। यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ कहीं भी ट्रेड यूनियन के काम में जनवाद के सिद्धान्तों का पालन और प्रयोग होता है, वहाँ का ट्रेड यूनियन संगठन ठोस और मज़दूरों के हितों की रक्षा करने की स्थिति में रहता है।
सदस्यों की दिलचस्पी : पहली शर्त
किसी ट्रेड यूनियन के सदस्यों का अपने संगठन के तमाम कार्यों में हिस्सा लेना, उस संगठन के जनवादी होने, उसके स्वस्थ और सशक्त होने का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण है।
जब ट्रेड यूनियन को मानने वाले सैकड़ों और हजारों मज़दूर अपने संगठन में इच्छापूर्वक और गहरी दिलचस्पी दिखाने लगते हैं, जब वे अपने प्रस्तावों और इच्छाओं को ट्रेड यूनियनों के पास लाने लगते हैं, जब वे उसे हर तरह से मज़बूत बनाने और विकसित करने का काम करने लगते हैं; तभी यह समझा जाना चाहिए कि वह संगठन सही मायने में मज़दूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।
यह मत भी हमारे सामने आता है – उदाहरण के लिए हिन्दुस्तान में – कि केवल हड़तालों के दौरान ही ट्रेड यूनियनें उपयोगी होती हैं। इसके फलस्वरूप वास्तविक संघर्ष के दौरान ही ट्रेड यूनियन संगठन बनाये जाते हैं; हड़ताल के दौरान वे यूनियनें अपना काम आगे बढ़ाती हैं, और जब हड़ताल ख़त्म हो जाती है तो उन यूनियनों के काम भी लगभग बन्द हो जाते हैं। यह विचार पूरी तरह गलत और नुक़सानदेह है। यह तरीक़ा ऐसे शक्तिशाली जन संगठनों को खड़ा करना असम्भव बना देता है जो सही माने में मज़दूरों के हितों की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। ट्रेड यूनियन अस्थायी नहीं बल्कि एक स्थायी संगठन है। उसका काम है, मज़दूरों के हितों की हिफाजत करना, उनकी माँगों को पूरा करने के लिए होने वाले रोजमर्रा के संघर्षों में मज़दूरों को संगठित और एकताबद्ध करना, उनके सामने स्पष्ट बातें रखना और उनकी सहायता करना। इसलिए ट्रेड यूनियन के साधारण सदस्यों का अपने संगठन के बारे में लगातार दिलचस्पी लेना – न कि सिर्फ़ झगड़ों के दौरान – एक महत्त्वपूर्ण बात है। ट्रेड यूनियन संगठनों की ऐसी हालत होनी चाहिए कि ट्रेड यूनियन के मेम्बर अपने सामने आने वाले अनेकों ज़रूरी सवालों के हल के लिए उससे मदद माँग सके; और ट्रेड यूनियन संगठनों का यह कर्तव्य है कि वे अपने मेम्बरों को मदद दें।
दिलचस्पी किस तरह पैदा होती है?
ट्रेड यूनियन के कामों में आम मज़दूरों का हिस्सा लेना अपने आप नहीं होता है। इसके लिए ज़रूरी होता है कि ट्रेड यूनियन की ऊँची कमेटियाँ लगातार और योजनापूर्वक काम करें। ट्रेड यूनियन संगठनों के कामों में आम मज़दूरों के हिस्सा लेने को पक्का बनाने के लिए कम से कम इन बातों की ज़रूरत होती है:
- ट्रेड यूनियन के जीवन और काम सम्बन्धी तमाम महत्त्वपूर्ण सवालों के बारे में मेम्बरों की आम सभाओं में विस्तार से विचार किया जाये; ट्रेड यूनियन के साधारण कार्यकर्ताओं के सुझावों और प्रस्तावों पर ध्यान दिया जाये और उस पर गम्भीरता से विचार किया जाये; ट्रेड यूनियन संगठन की कार्यकारिणी कमेटी हमेशा अपने मेम्बरों को यह बताती रहे कि क्या काम हो रहा है और मज़दूरों के प्रस्तावों को किस तरह अमल में लाया जा रहा है।
- मेम्बरों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के जरिए मेम्बरों को नियमित रिपोर्ट दी जानी चाहिए; जो लोग नेतृत्व की जगहों पर हों उन्हें आलोचना और आत्म-आलोचना से डरना नहीं चाहिए, बल्कि इसके विपरीत उसे और आगे बढ़ाना चाहिए।
- ट्रेड यूनियन के रोजमर्रा के कामों में उसके सदस्य योजनापूर्वक हिस्सा लें। जिन समस्याओं को मज़दूरों को हल करना है उनके आधार पर कमीशनों, केन्द्रों या दलों का निर्माण स्वयं अपनी इच्छा के आधार पर शामिल होने वाले लोगों में से किया जाना चाहिए और उनका उद्देश्य आम मज़दूरों की माँगों को पूरा कराना होना चाहिए।
- ट्रेड यूनियन में शामिल तथा नहीं शामिल आम मज़दूरों के बीच के सम्पर्क को काम करने की जगहों पर योजनापूर्वक संगठित किया जाना चाहिए।
पूँजीवादी देशों में वहाँ ही, यानी काम करने की जगहों पर ही ट्रेड यूनियन और आम मज़दूरों के बीच घनिष्ठ सम्पर्क क़ायम होता है। वहाँ ही यानी काम की जगहों पर मिलने जुलने से ही, एक बेंच से दूसरी बेंच पर और एक मशीन से दूसरी मशीन पर चलने वाली बातचीतों – मज़दूरों और ट्रेड यूनियन के साधारण कार्यकर्ताओं (चन्दा जमा करने वाले, शॉप के कार्यकर्ता, ट्रेड यूनियन अख़बार के बेचने वाले, आदि) के बीच होने वाली बातों – से ही मज़दूरों की माँगों का पता चलता है, मज़दूरों की एकता क़ायम होती है और उन संघर्षों को चलाया जाता है जिनका नेतृत्व ट्रेड यूनियन को करना चाहिए। जब आम मज़दूर स्वयं अपने अनुभवों से यह देख लेते हैं कि ट्रेड यूनियन उनकी आवाज़ को सच्चाई से बुलन्द करती है और दृढ़ता से उनका नेतृत्व करती है तो वहाँ से ही ट्रेड यूनियन को नये कार्यकर्ता मिलने लगते हैं, यानी ट्रेड यूनियन दिनोदिन बढ़ते निर्णयात्मक संघर्षों के लिए अधिकाधिक जनता का संगठन बनने लगती है।
- ट्रेड यूनियन के मेम्बरों में से लड़ाकू कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने और शिक्षित करने का काम नियमित रूप से किया जाना चाहिए, अपनी जानकारी बढ़ाने में उनकी मदद की जानी चाहिए, काम के सिलसिले में हासिल अनुभवों को उन्हें बताना चाहिए और ट्रेड यूनियन के कार्यों के विभिन्न पहलुओं के बारे में कार्यकर्ताओं की मीटिंगें होनी चाहिए।
- छोटे या बड़े कामों की अवहेलना किये बिना, ट्रेड यूनियन को मानने वाले मज़दूरों के सांस्कृतिक, राजनीतिक और जीविकोपार्जन के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए लगातार शिक्षित करने का काम हाथ में लेना चाहिए। किसी ‘छोटी से छोटी बात’ का भी यदि मज़दूरों के हितों से सम्बन्ध है, तो उसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए।
इन प्रारम्भिक और दीर्घ-कालीन नियमों को अमल में लाने से ट्रेड यूनियन के मेम्बर अपनी यूनियन के कामों में लगातार हिस्सा लेंगे। मज़दूर स्पष्टतया देख लेंगे कि ट्रेड यूनियन का जीवन आम मज़दूरों की ज़िन्दगी के साथ घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है, यह कि ट्रेड यूनियन संगठन जनता के लिए काम करता रहता है और इस संगठन के ज़्यादातर महत्त्वपूर्ण कामों को आम मज़दूर ही पूरा करते हैं। साथ ही साथ इस तरह काम करने के तमाम सवालों के जनवादी तरीक़े से हल होने की बात भी पक्की हो जाती है।
सभी स्तरों पर चुनाव : दूसरी शर्त
ट्रेड यूनियन की ऊँची कमेटियों और पदाधिकारियों को चुनाव के द्वारा नियुक्त करने का तरीक़ा संगठन के जनवादी स्वरूप का और भी आगे बढ़ा हुआ तथा महत्त्वपूर्ण लक्षण है।
कोई भी संगठन जो अपनी ऊँची कमेटियों के चुनाव करने में जनवाद के नियमों को तोड़ता हो, जनवादी नहीं हो सकता।
सोवियत यूनियन के ट्रेड यूनियन के विधान की सोलहवीं धारा में यह ऐलान किया गया है कि : “ट्रेड यूनियन की तमाम ऊँची कमेटियों और साथ ही साथ ट्रेड यूनियन सम्मेलनों तथा कांग्रेसों के प्रतिनिधियों का चुनाव गुप्त मतदान के द्वारा होगा। ट्रेड यूनियन संगठनों के चुनाव में ट्रेड यूनियन के मेम्बरों को यह अधिकार होगा कि वे किसी भी उम्मीदवाद को नामजद करें, उनमें से किसी को भी वापस बुला लें और किसी की भी आलोचना करें।“
विधान की दूसरी धारा में यह भी ऐलान किया गया है कि ट्रेड यूनियन के तमाम मेम्बरों को चुनावों में हिस्सा लेने का और यूनियन के किसी भी पद के लिए, ट्रेड यूनियन सम्मेलनों और कांग्रेसों के लिए चुने जाने का अधिकार है। ट्रेड यूनियन के कामों को सुधारने के लिए उन्हें ट्रेड यूनियन संगठनों के सामने सवालों और प्रस्तावों को रखने का अधिकार है। उन्हें सभाओं, ट्रेड यूनियन सम्मेलनों और कांग्रेसों में और साथ ही साथ अख़बारों में भी, स्थानीय और ऊँची ट्रेड यूनियन कमेटियों और उनके कार्यकर्ताओं के कामों की आलोचना करने का अधिकार है। उन्हें सभी ऊँचे ट्रेड यूनियन संगठनों के सामने सवालों, सुझावों और शिकायतें भेजने का अधिकार है। ट्रेड यूनियन संगठन जब भी काम या संगठन चलाने के बारे में कोई फ़ैसला लें, तो उन सभी में अपने को व्यक्तिगत रूप से शामिल किये जाने की माँग करने का भी मेम्बरों को अधिकार है।
सोवियत यूनियन में, चीन में, दूसरे जनवादी देशों में और जर्मन जनवादी प्रजातन्त्र में ट्रेड यूनियन के मेम्बरों को ऐसे ही अधिकार हासिल हैं।
अमेरिकी मार्का ट्रेड यूनियनों में भ्रष्टाचार और आतंक
इन स्थितियों की तुलना कुछ उन संगठनों में मौजूद हालात से कीजिये जो दुनिया के सामने अपने जनवादी स्वरूप का ढोल पीटते हैं। यह सबों को मालूम है कि अमेरिकी प़फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर (आई.एफ.एल) भी ऐसे ढोल पीटने वालों में है। लेकिन इसकी एक शाखा – अन्तरराष्ट्रीय लौंगशोरमैन एसोशियेशन (आई.एल.ए.) के स्थानीय संगठन नं. 1181 को उदाहरण के लिए ले लीजिये। इस यूनियन की मीटिंग पिछले 28 साल में एक बार भी नहीं हुई है। इस ट्रेड यूनियन के लिए जनवाद नाम का शब्द एकदम अजनबी है और इस यूनियन के अध्यक्ष रायन ने बेईमानी और आतंक के जरिए अपने पद को ज़िन्दगी भर के लिए सुरक्षित बना लिया है। अपने हाथ में ताक़त बनाये रखने के लिए रायन बदमाश गुण्डों का भी सहारा लेने से नहीं हिचकिचाता। ये गुण्डे न सिर्फ़ मारपीट करते हैं, बल्कि रायन की तानाशाही का विरोध करने वालों को कभी-कभी जान से भी मार डालते हैं। अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर से सम्बन्धित दूसरी कई और यूनियनों के नेता हथियारबन्द गिरोहों की सहायता से अपना पद बनाये रखते हैं।
अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर से सम्बन्धित एक दूसरी यूनियन लकड़ी व फर्नीचर का काम करने वाले मज़दूरों की यूनाइटेड ब्रदरहुड यूनियन बहुत दिनों तक विलियम हचेंसन के हाथों में रही। उसने अपनी ताक़त के ज़ोर से एक प्रकार से ज़िन्दगी भर के लिए उस यूनियन के अध्यक्ष पद को अपने हाथों में ले लिया था। कुछ महीने पहले उसने उस पद से सदा के लिए छुट्टी लेने का फ़ैसला किया और यूनियन के अध्यक्ष पद पर स्वयं अपने बेटे को नियुक्त कर दिया। इस बारे में न कोई चुनाव हुआ और न साधारण मेम्बरों से किसी ने कोई राय ही माँगी। इस तरह लकड़ी का काम करने वालों की यूनाइटेड ब्रदरहुड यूनियन में हचेंसन का राजवंश स्थापित हो गया है।
अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर और सी.आई.ओ. के वार्षिक अधिवेशनों में प्रतिनिधियों की बहुत बड़ी संख्या ऐसी होती है जो ट्रेड यूनियन सदस्यों द्वारा चुने गये प्रतिनिधि नहीं होते, बल्कि अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर और सी.आई.ओ. के नेताओं से तनख़्वाह पाने वाले पदाधिकारी होते हैं।
सच तो यह है कि अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर की सबसे ऊँची कमेटियाँ उन मुट्ठी भर नेताओं का समूह होती हैं जो आई.एफ.एल. से सम्बन्धित ‘शक्तिशाली’ ट्रेड यूनियनों के नेता बने हुए हैं। उनमें से बहुतेरे नेता तो ऐसे हैं जिनका मज़दूर वर्ग से कोई मेल नहीं बैठता। सन् 1934 की बात है कि जार्ज स्कैलाइज नाम का एक व्यक्ति बदनाम अल कपोने गिरोह की सहायता से बिल्डिंग सर्विस एम्प्लॉइज इंटरनेशनल यूनियन के उपाध्यक्ष के पद पर बैठ गया। हालांकि जार्ज स्कैलाइज स्वयं एक बदनाम गुण्डा था, फिर भी अपनी यूनियन के अध्यक्ष की हैसियत से उसका अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर में स्वागत हुआ और उसके एक सदस्य के रूप में उसको भी वही अधिकार दिये गये जो अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर के मुट्ठी भर बड़े नेताओं को हासिल थे। अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर के अध्यक्ष विलियम ग्रीन के साथ जार्ज स्कैलाइज का दोस्ताना सम्बन्ध भी था।
अमेरिकी फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर और सी.आई.ओ. के संगठनों में “जनवाद” के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है।
अर्जेंटाइना में भी ऐसी ही हालत है। वहाँ सरकारी तौर पर मंजूर की गई तमाम ट्रेड यूनियनें तानाशाह पेरोन के लोगों के हाथों में हैं।
ब्राजील में 4 अप्रैल 1952 को सरकारी मज़दूर विभाग की तरफ से एक आज्ञा निकाल कर मज़दूरों को चुनाव के लिए ऐसे उम्मीदवारों को नामजद करने से रोक दिया गया है जिनका सिद्धान्त “राष्ट्रीय हितों से मेल नहीं खाता हो।” कोई भी साधारण बुद्धि का आदमी समझ सकता है कि इस गोलमटोल परिभाषा में उन तमाम विचारों को शामिल किया जा सकता है जिनकी राय पूर्ण तौर पर प्रतिक्रियावादी सरकार से मेल नहीं खाती हो।
ब्रिटेन और स्कैंडिनेवियन देशों में भी अमेरिका की ही तरह ट्रेड यूनियन के मन्त्रियों का जीवन भर के लिए चुने जाने का तरीक़ा चालू है। इस तरह ट्रेड यूनियन के नेता अपने संगठन के सदस्यों से पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो जाते हैं। सच तो यह है कि वे चुने हुए नेता नहीं रह जाते, बल्कि तानाशाह (डिक्टेटर) बन जाते हैं। कुछ जगहों में – उदाहरण के लिए न्यूज़ीलैण्ड में – पोस्ट (डाक) के जरिए वोट लेने का तरीक़ा अमल में लाया जाता है। इसका साफ मतलब है कि वह चुनाव गुप्त मतदान नहीं रह पाता, क्योंकि ट्रेड यूनियन के ‘नेता’ हमेशा यह पता लगा लेते हैं कि किसने उनके खि़लाफ़ वोट देने का साहस किया है। और यदि किसी मज़दूर ने ऐसा साहस किया तो उसे गम्भीर नतीजा भुगतना पड़ सकता है।
न्यूज़ीलैण्ड में मज़दूरों को स्वयं अपनी इच्छा से ट्रेड यूनियन का मेम्बर नहीं बनाया जाता, बल्कि उनके लिए मेम्बर बनना ज़रूरी बना दिया गया है। इसके कारण नौकरशाहों के हाथों में पूरी ताक़त जाने के लिए दरवाजा एकदम खुल गया है।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन संगठनों में जनवाद क़ायम नहीं रह सकता जिनका नेतृत्व ऐसे राजनीतिज्ञ करते हों, जिन्होंने गुण्डा-दलों व पुलिस और प्रतिगामी सरकारों से सम्बन्ध रखने वाले लोगों के जरिए स्वयं अपने को पदों पर नियुक्त करा लिया है। जहाँ ट्रेड यूनियन की मीटिंगें नहीं होती हो, जहाँ मेम्बरों की आवाज़ नहीं सुनी जाती हो, जहाँ अपने संगठन के जीवन में किसी भी तरह का हिस्सा लेने से मज़दूरों को अलग रखा जाता हो, जहाँ सदस्यों को मनमाने ढंग से ट्रेड यूनियन से इसलिए निकाल दिया जाता हो क्योंकि उन्होंने ट्रेड यूनियन के कामों की आलोचना की थी, वहाँ जनवाद क़ायम नहीं रह सकता।
पर मज़दूरों के क़दम आगे बढ़ रहे हैं
फिर भी, यह बात ध्यान देने की है कि ऐसा जनवाद-विरोधी तरीक़ा चलाना दिनोदिन असम्भव होता जा रहा है। ऐसा तरीक़ा चलाना उन दलालों के लिए भी असम्भव होता जा रहा है जिन्हें पूँजीपतियों ने ट्रेड यूनियन के आन्दोलन में इसलिए भेजा है ताकि वे मज़दूर वर्ग के संघर्षों को रोक सकें, उन्हें छिन्न-भिन्न कर सकें और उनके साथ गद्दारी कर सकें।
सभी देशों में मज़दूर वर्ग दिनोदिन ज़्यादा बड़े पैमाने पर वर्कशापों में वास्तविक ट्रेड यूनियन जनवाद स्थापित करने का प्रबन्ध कर रहा है। वह वर्कशाप में मज़दूर वर्ग का ऐसा सच्चा संगठन बनाने का प्रबन्ध कर रहा है जिसका नेतृत्व उसके हाथों में हो और जो उसी के लिए काम करता हो।
यह काम आमतौर पर इस तरह हो सकता है कि मज़दूरों की माँगों की खातिर लड़ने के लिए, और प्रतिगामी ट्रेड यूनियनों के नेताओं की जनवाद विरोधी नीति का योजनापूर्वक विरोध करने के लिए – मज़दूर वर्ग की एकीकृत विशाल नीति के इर्द-गिर्द, मज़दूरों की उचित आकांक्षाओं और संघर्ष की उनकी भावनाओं तथा प्रतिगामी ट्रेड यूनियनों के प्रगतिशील कार्यकर्ताओं की कार्रवाइयों के बीच सम्बन्ध क़ायम किया जाये।
भूखा मारने और युद्ध की नीति के खि़लाफ़ दिनोदिन जन आन्दोलन संगठित हो रहा है और उन भलेमानसों (प्रतिगामी नेताओं – अनु.) के मंसूबों पर पानी फिर रहा है। अपना असर पूरी तरह ख़त्म हो जाने के डर के कारण वे अपना रुख बदलने पर मजबूर हो रहे हैं।
आन्दोलन के मैदान में उतरी जनता, मज़दूरों के बीच खड़ी की गयी अस्वाभाविक दीवारों पर प्रहार कर रही है। मज़दूर जनवादी ढंग से एकता क़ायम कर रहे हैं, जैसा अभी हम चिली में देख रहे हैं। वहाँ सभी विचारों के कार्यकर्ता एक विशाल, संयुक्त और जनवादी ट्रेड यूनियन केन्द्र बना रहे हैं।
जनवाद-विरोध या फासिस्ट-सरीखी ट्रेड यूनियनों के विपरीत पूँजीवादी देशों में ऐसे भी विशाल ट्रेड यूनियन संगठन हैं जो सही मायने में जनवादी है; जिन्हें न सिर्फ़ संगठित मज़दूरों का बल्कि पूरे मज़दूर वर्ग और जनता का समर्थन प्राप्त है और जिनके पास ऐसे नेता हैं जो जनवादी तरीक़े से चुने गये हैं।
उदाहरण के लिए इटली के जनरल कान्फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर और फ्रांस के से.जे.ते. को ले लीजिये। इन संगठनों के बारे में यह बात सही तौर पर लागू होती है।
इन संगठनों में लगातार यह कोशिश होती है कि हर स्तर पर और आम कार्यकर्ताओं के ऊपर विशाल जनवाद की छत्रछाया क़ायम रहे।
इन संगठनों में आलोचना और आत्म-आलोचना को लगातार चालू रखा जाता है और प्रोत्साहन दिया जाता है; इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि बड़ी या छोटी, जिन किन्हीं भी राजनीतिक और आर्थिक माँगों को ट्रेड यूनियनें बुलन्द करती हों, वें माँगे मज़दूरों की वास्तविक माँगें हों।
इन संगठनों में छोटा ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता भी आलोचना की आँच में तप कर सीखता है। वह जानता है कि यह बात बेहद महत्त्वपूर्ण है। ट्रेड यूनियन का अच्छा नेता वही होता है जो यह जाने कि फैक्टरियों में मज़दूरों के संघर्षों को कैसे चलाया जाये, क्योंकि वह यह जानता है कि उनसे किस तरह सीखा जाये। मज़दूरों की छोटी से छोटी ज़रूरतों के प्रति भी वह जागरूक रहता है। ट्रेड यूनियन का अच्छा नेता मज़दूरों की एकता की भावना के प्रति जागरूक रहता है और एकता की दिशा में अपने संघर्ष के दौरान मज़दूरों द्वारा की गयी अनेक पहलक़दमियों का अध्ययन कर वह उनसे शिक्षा ग्रहण करता है।
स्वेच्छा से सदस्यों की भर्ती: तीसरी शर्त
कौन ट्रेड यूनियन किस हद तक जनवादी संगठन है, इसका पता लगाने का एक मापदण्ड यह भी है कि उसके पास फ़ण्ड किस तरह जमा होता है, चन्दा जमा करने का उसका क्या तरीक़ा है, ख़र्चे पर नियन्त्रण किसका है और जिस मद में फ़ण्ड ख़र्च किया जाता है उसका उपयोग क्या है?
ट्रेड यूनियन के लिए पैसा जुटाना एक राजनैतिक प्रश्न है, केवल पैसा जमा कर लेना ही उसका उद्देश्य नहीं होता। किसी ट्रेड यूनियन को जनवादी नहीं कहा जा सकता यदि उसके पास मज़दूरों और आफिस कर्मचारियों के चन्दे से जमा फ़ण्ड नहीं होता, और यदि वह अपने ख़र्चे का हिसाब नियमित रूप से अपने मेम्बरों को नहीं बताती।
अनुभव यह बताता है कि पूँजीवादी और औपनिवेशिक देशों में ट्रेड यूनियन फ़ण्ड के प्रबन्ध के बारे में अनेकों गड़बड़ियाँ हुई हैं। इस मामूली जनवादी नियम को, कि चन्दा मज़दूरों की रजामन्दी से जमा किया जाना चाहिए, तोड़ा जाता है। कभी-कभी फैक्टरी में तनख़्वाह बाँटने के आफिस के जरिए ज़बरदस्ती चन्दा जमा करने का तरीक़ा अख्तियार किया जाता है। इस तरह का उदाहरण ब्राजील में देखने में आता है। वहाँ 8 जुलाई 1940 के एक सरकारी फर्मान नम्बर 2377 के मुताबिक, संगठित और असंगठित सभी मज़दूरों से एक दिन की तनख़्वाह साल में ज़बरदस्ती काट ली जाती है। उनसे सरकारी ट्रेड यूनियनों का पालन-पोषण होता है। इस तरह जो फ़ण्ड जमा होता है वह साल में लगभग 6 करोड़ क्रजेर (ब्राजील का सिक्का – अनु.) के बराबर होता है।
ऐसे फ़ण्ड को दरअसल चन्दा नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह मज़दूरों से जबरन वसूल किया गया टैक्स है। ऐसे फ़ण्ड को ख़र्च करना सरकार द्वारा नियुक्त ट्रेड यूनियन के नेताओं के हाथों में होता है और उस पर कभी किसी तरह का कोई नियन्त्रण नहीं रहता। ब्राजील में जब से यह क़ानून बना है, उसके बाद के 12 वर्षों में फ़ण्ड की गड़बड़ी की बहुतेरी घटनाएँ हुई हैं। अख़बारों से हमें पता चलता है कि पिछले 6 वर्षों में वहाँ 15 करोड़ क्रजेर ट्रेड यूनियन नेताओं की दावतों, यात्राओं, मनोरंजनों और उनकी निजी ज़रूरतों पर ख़र्च कर दिया गया। फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडस्ट्रियल वर्कर्स के अध्यक्ष कैवेलकान्ति को सभी लोग जानते हैं। उन पर यह अभियोग है कि उन्हें मज़दूरों के वास्ते इमारत बनाने के लिए 80 लाख क्रजेर दिये गये, पर वह इमारत कभी नहीं बनायी गयी।
इसी तरह की कई घटनाएँ (क्रान्ति के पहले – अनु.) क्यूबा में भी हुईं। वहाँ, जब मज़दूरों ने उन ट्रेड यूनियनों के लिए चन्दा देने से इन्कार किया जिन्हें सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया था, तो उन ट्रेड यूनियनों के ऊँचे पदाधिकारियों ने चन्दा जमा करने के लिए पुलिस की मदद ली। चन्दा देने से इन्कार करने वाले हजारों मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया गया। जनवरी 1951 में सरकारी लेबर कान्फडरेशन के – जिसके बारे में यह भी बता दिया जाये कि वह लातिनी अमेरिका के आई.सी.एफ.टी.यू. का मुख्य केन्द्र है – नेताओं ने सरकार से यह माँग की कि वह क़ानून बना कर मज़दूरों के लिए चन्दा देना ज़रूरी कर दे। लेकिन मज़दूरों के ज़ोरदार और एक स्वर से विरोध ने (मज़दूरों ने गन्ने को काटने से इन्कार कर दिया) सरकार को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। उसके बाद से सरकारी कान्फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर और गन्ना बागानों के मालिकों के बीच एक समझौता हो गया जिसके मुताबिक ये मालिक अपने मुनाफे में से 35 लाख डॉलर हर साल इस ट्रेड यूनियन के नेताओं को दे देते। यह रकम लगभग उतनी ही है जितनी पहले ट्रेड यूनियन मेम्बरों के चन्दे से जमा होती थी।
स्पष्ट है कि ऐसी ट्रेड यूनियनें और ऐसे ट्रेड यूनियनों के नेता मज़दूरों के हितों की रक्षा नहीं कर सकते। ऐसे संगठनों का एकमात्र काम मालिकों और सरकारों की सेवा करना है।
सोवियत यूनियन में, चीन में और दूसरे जनवादी देशों में एकदम दूसरी तरह की हालत है। उन देशों में ट्रेड यूनियनों का फ़ण्ड माहवार चन्दे के जरिए जमा होता है जो मज़दूरों की तनख़्वाह का एक फीसदी होता है। अलग-अलग हिसाब लगाने पर भी एक मज़दूर का चन्दा उसकी तनख़्वाह का एक प्रतिशत होता है। ट्रेड यूनियन फ़ण्ड का दूसरा ज़रिया उनकी सांस्कृतिक, खेल-कूद की, और दूसरी संस्थाओं द्वारा होने वाली आमदनी होती है। वहाँ चन्दा, देने वालों की रजामन्दी से जमा किया जाता है। और चन्दा वे ही मेम्बर जमा करते हैं जिन्हें स्वयं ट्रेड यूनियन संगठन इस काम के लिए नियुक्त करते हैं। जब ट्रेड यूनियन के नेताओं के चुनाव के लिए मेम्बरों की आम सभाएँ और सम्मेलन होते हैं, तो उसी समय गुप्त मतदान के जरिए एक कण्ट्रोल कमीशन (नियन्त्रक कमेटी) भी चुना जाता है।
सोवियत यूनियन के ट्रेड यूनियनों की ख़र्चे की नीति यह होती है कि ट्रेड यूनियन संगठनों के प्रबन्ध विभाग के आम ख़र्चों को दिनोदिन कम किया जाये, और आमदनी का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा सांस्कृतिक और सामाजिक कामों में, मेम्बरों को मदद आदि देने में ख़र्च किया जाये। जहाँ तक ट्रेड यूनियनों द्वारा फ़ण्डों को जमा करने और ख़र्च करने की बात है, उस बारे में ये तरीक़े सही मायने में जनवादी हैं। इन तरीकों से इन सिद्धान्तों की पूरी तरह रक्षा होती है कि मेम्बरों की ख़ुद की मर्जी से चन्दा जमा किया जाये और ख़र्चों पर मेम्बरों का नियन्त्रण रहे तथा ट्रेड यूनियन संगठन अपने ख़र्चों की नियमित रिपोर्ट मेम्बरों को दें।
पूँजीवादी देशों के जनवादी ट्रेड यूनियन संगठन भी इन्हीं तरीव़फ़ों पर अमल करते हैं।
ट्रेड यूनियन का चन्दा कितना हो, इसे भी स्वयं उस संगठन के मेम्बर तय करते हैं। उन यूनियनों के फ़ण्ड का प्रबन्ध और नियन्त्रण मेम्बरों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के हाथों में होता है। फ़ण्ड का इस्तेमाल संघर्षों की सहायता करने, ट्रेड यूनियन संगठन को चलाने और मेम्बरों के वास्ते किये जाने वाले विभिन्न सामाजिक तथा दूसरे कामों के लिए होता है। ट्रेड यूनियन में काम करने वाले स्थायी कर्मचारियों की तनख़्वाह बहुत ही कम – कुशल मज़दूरों की तनख़्वाह के बराबर होती है।
ट्रेड यूनियन का जनवाद, ऊपर बताये गये केवल तीन सिद्धान्तों के आधार पर ही आधारित नहीं होता। लेकिन किसी ट्रेड यूनियन की सही स्थिति के लिए ये सिद्धान्त बेहद महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी हैं।
यदि ट्रेड यूनियन जनवाद को केवल खोखले शब्दों तक ही सीमित नहीं रह जाना है, तो जिन शर्तों को पूरा किया जाना ज़रूरी है, वे ये हैं – ट्रेड यूनियन के मेम्बर अपने संगठन में नियमित रूप से और लगातार हिस्सा लें, ज़िम्मेदार नेताओं और पदाधिकारियों को चुनने और बदलने की मेम्बरों को पूरी आज़ादी हो, चन्दा जमा करने में किसी तरह की ज़बरदस्ती न की जाये, और ख़र्चों पर मेम्बरों का नियन्त्रण हो।
ट्रेड यूनियन आन्दोलन का इतिहास सिखाता है कि प्रतिक्रियावादी संगठन और ट्रेड यूनियन में घुसे पूँजीपतियों के दलाल चाहे कितनी भी तिकड़में क्यों न करें, लेकिन अन्त में मज़दूर वर्ग उन्हें झाड़-बुहार कर ख़त्म कर देता है और तमाम मज़दूरों को एकत्रित कर सभी जगहों पर ऐसी सच्ची जनवादी ट्रेड यूनियनों का जाल बिछा देता है, जो उन्हीं के द्वारा और उन्हीं के लिए चलायी जाती हैं।
ऊपर बताये गये नियमों का पालन करने से, जिन सक्रिय संघर्षों को चलाया जाना चाहिए उन्हें चलाने से, ट्रेड यूनियन संगठनों को अपनी तमाम कार्रवाइयों में सभी मेम्बरों का समर्थन हासिल होगा। और ऐसा होने पर ट्रेड यूनियनों के स्वस्थ और तेज विकास के लिए निश्चित रूप से रास्ता खुल जायेगा।
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन