बिगुल पुस्तिका – 2
मकड़ा और मक्खी

विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

Makda makhi

विल्हेल्म लिब्कनेख्त (1826-1900) जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक दल के संस्थापकों में से एक थे। वह जर्मनी के मज़दूर वर्ग के ऐसे नेता थे जिनका सारा जीवन मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्ष और समाजवाद के लिए समर्पित था। ‘मकड़ा और मक्खी’ जर्मन मज़दूरों के लिए लोकप्रिय शैली में लिखे गये उनके एक पैम्फलेट का अंग्रेज़ी से हिन्दी में भावानुवाद है।


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आप सभी उस तोंदियल, रोयेंदार, चिपचिपे शरीर वाले कीड़े से परिचित हैं जो यथा-सम्भव दिन के उजाले से दूर अपने उस घातक जाले को बुना करता है जिसमें कि कोई भूख से व्याकुल अदूरदर्शी, असावधान मक्खी फँस जाती है और समाप्त हो जाती है। यह भद्दा जानवर जिसकी आँखें गोल और चमकीली हैं तथा जिसके लम्बे-पतले पैर सामने की ओर मुड़े होते हैं, जिससे शिकार पकड़ने और उसे घोंटकर मारने में उसे काफ़ी आसानी होती है। यह दुष्ट, भद्दा जानवर ही मकड़ा है।

वह मौन, निश्चल अपनी माँद में पड़ा रहकर, अपने शिकार के जाल में फँसने की प्रतीक्षा करता है या फिर निर्बल मक्खी को फँसाने और बेरहमी के साथ जकड़ने के लिए घातक जाले के धागों को बुनता रहता है। यह घृणित जीव अपने जाले में किसी तरह की कमी न रहने देने के लिए अपना अधिकाधिक समय व्यय करता है। अपनी कला और परिश्रम का उपयोग वह जाले को बुनने में करता है ताकि शिकार किसी भी हालत में उसके बन्धन से मुक्त न होने पाये। पहले यह एक तार फेंकता है, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर अधिक से अधिक। यह आड़े-तिरछे तारों को खींचता है, हर एक तार को दूसरे तार से फँसाता है ताकि मृत्यु की यन्त्रणा से पड़े हुए शिकार की छटपटाहट से जाला टूट न जाये, क्षतिग्रस्त न हो।

आखिर जाला तैयार हो जाता है, जाल बिछ जाता है, बच निकलने की कोई राह नहीं है। मकड़ा अपनी माँद में चला जाता है और किसी सीधी-सादी मक्खी का इन्तज़ार करता है जो भूख से व्याकुल होकर भोजन की तलाश में जाले के पास पहुँचती है।

अधिक इन्तज़ार नहीं करना पड़ता, मक्खी जल्दी ही आ जाती है। अपनी खोज में इधर-उधर भटकते हुए बेचारी अचानक सामने फैले हुए तारों से टकराती है, उनमें बुरी तरह उलझ जाती है, वह जकड़न से छूटना चाहती है, पर हार जाती है।

जैसे ही मकड़ा अपने शिकार को फँसा हुआ देखता है, वैसे ही वह अपनी माँद से निकल आता है और रक्त पिपासु आकृति में अपने मुड़े हुए पंजों के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। जल्दी करने की आवश्यकता नहीं। वह भयानक जीव अच्छी तरह जानता है कि एक बार फँस जाने के बाद अभागा कीड़ा बचकर नहीं जा सकता। वह समीप आता है, अपनी उभरी हुई भाव शून्य आँखों से अपने शिकार को घूरता है और उसका लेखा-जोखा लेता है। उसका शिकार भयभीत हो जाता है, अपने ऊपर मँडराते संकट को देखकर मक्खी काँपने लगती है। जकड़े हुए धागों से अपने को मुक्त करने के लिए वह प्रयास करती है। छुटकारा पाने की चाह में उसकी सारी शक्ति बेकार कोशिशों में ख़त्म हो जाती है।

अपने प्रयासों में विफल, निराश मक्खी को जाला और अधिक कसकर दबोचता है। मकड़ा और क़रीब आता है। मकड़े के जाले से छुटकारा पाने की हर कोशिश में मक्खी और अधिक मजबूत, महीन धागों में उलझ जाती है, नये तारों में फँस जाती है। अन्त में विरोध करने की सारी शक्ति खोकर थकान से चूर, हाँफती हुई वह अपने शत्रु विजेता, डरावने मकड़े के चंगुल में फँसी उससे दया की आशा करती है।

तब यह भयानक जीव अपने रोंयेदार पैरों को फैलाता है और मक्खी को अपने जानलेवा चंगुल में कस लेता है। इसके बाद वह अपने कमजोर शिकार के भय से काँपते हुए शरीर को काटता है, चूसता है और निचोड़ता है। एक बार, दो बार, तीन बार। वह तब तक घाव करता है जब तक उसकी ख़ूनी प्यास बुझ नहीं जाती। तब वह मक्खी को रख छोड़ता है जो बिल्कुल मर नहीं गयी है। वह लौटकर आता है और फिर ख़ून चूसता है। इस प्रकार वह तब तक आता-जाता रहता है जब तक कि वह मक्खी का सारा रक्त तथा पौष्टिक रस चूस नहीं लेता और उस अभागी मक्खी को पूरी तरह से खोखला नहीं कर देता। कभी-कभी बेचारी मक्खी की मौत आने में काफ़ी लम्बा समय लग जाता है।

लेकिन जब तक मक्खी के शरीर, उसकी मुर्दा-सी देह में कुछ भी रक्त रहता है जिसे चूसा जा सके, तब तक उसे यह पिशाच अपनी आँख से ओझल नहीं होने देता। यह अपने शिकार का प्राण लेता है, अपनी शक्ति बढ़ाता है, इसका रक्त पीता है और इसे फेंक देता है। जब इसमें कुछ भी शेष नहीं रह जाता, तब बेचारी मक्खी, मरी हुई, चूसी हुई, सूखी, तिनके से भी हल्की, जाले से बाहर फेंक दी जाती है। हवा का पहला झोंका आता है और उसे बहुत दूर उड़ा ले जाता है और इस तरह सब कुछ समाप्त हो जाता है।

मकड़ा माँद में सन्तुष्ट होकर लौट आता है। वह अपने से और जग से बहुत ख़ुश है। उसे प्रसन्नता इस बात की है कि दुनिया में अब भी शरीफ़ लोगों का गुज़ारा हो सकता है।

शहरों और गाँवों के मज़दूरो और मेहनतकशो! तुम्हीं मक्खी हो जिसे चूसा और कुचला जाता है। तुम्हें ही निगला जाता है और तुम्हारे ख़ून पर ही अन्य लोग जीवित हैं। ऐ गुलाम लोगो! उत्पीड़ित जन-गणों और औद्योगिक मज़दूरो! बुद्धिजीवियो! काँपती हुई युवा कुमारियो और अपने अधिकारों के लिए लड़ने में हिचकिचाने वाली कमजोर पद-दलित पीड़ित नारियो! सैनिको, और जंगख़ोरों के भाग्यहीन शिकारो! तुम सब लोग जो ग़रीब और दुखी हो, तुम सबको तब उठाकर फेंक दिया जाता है जब तुममें चूसने के लिए कुछ नहीं रह जाता। तुम जो सब कुछ पैदा करते हो, तुम जो देश के दिल-दिमाग़ और जीवन-शक्ति हो, और तुम सब जिन्हें अपने मालिक का आज्ञाकारी बनकर किसी कोने में चुपचाप एक दुखद मौत मरने के सिवा और कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। जबकि तुम्हारा ख़ून-पसीना और मेहनत, चिन्तन और जीवन का इस्तेमाल ही इन्हें धनवान और शक्तिशाली बनाता है, ये हैं तुम्हारे मालिक-उत्पीड़क और बेरहम, घिनौने मकड़े।

मकड़ा है मालिक, पूँजीपति, शोषक, सट्टेबाज़, धनवान, भ्रष्टाचारी, धर्मगुरु, महन्त – हर तरह के परजीवी, हरामख़ोर, निरंकुश जिनके दबाव में हम तड़पते हैं, कष्ट झेलते हैं, जन-विरोधी क़ानून बनाने वाले जो हमें परेशान करते हैं, दुष्ट अत्याचारी जो हमें गुलाम बनाते हैं। वे सभी मकड़े हैं जो दूसरों के ऊपर जीवित रहते हैं, जो हमें पैरों से रौंदते हैं, जो हमारी तकलीफ़ों की खिल्ली उड़ाते हैं और हमारे बेकार होते प्रयासों को देखकर मुस्कुराते हैं।

मक्खी ग़रीब मज़दूर और मेहनतकश है जिसे मालिक द्वारा बनाये गये बेरहम क़ानूनों के आगे झुकना पड़ता है, क्योंकि बेचारा मजदूर साधनहीन होता है और उसे अपने परिवार के लिए रोटी की व्यवस्था भी करनी पड़ती है। बड़े उद्योगों का मालिक मकड़ा है, जो हर मज़दूर से प्रतिदिन हज़ारों रुपये का मुनाफ़ा कमाता है और मज़दूर को 12 से 14 घण्टे प्रतिदिन काम के एवज में 40 या 50 रुपये पेट पालने के लिए देता है।

मक्खी ख़ान में काम करने वाला मज़दूर है, जो अपना जीवन ख़ान के दम घोंटने वाले वातावरण में काम करके मिटा देता है। जो धरती के गर्भ से खनिज निकालता तो है पर उसे अपने उपयोग में नहीं ला सकता। मकड़ा श्रीमान शेयर-होल्डर हैं जो अपने शेयर की क़ीमत दुगनी-तिगुनी होते देखते हैं पर जो मज़दूरों से उनकी मेहनत का फल छीनते हैं और जब भी मेहनत करने वाले ज़रा भी मज़दूरी बढ़ाने की माँग करते हैं तो वे विद्रोहियों को गोली से उड़ा देने के लिए सेना बुला लेते हैं।

वह बालक मक्खी है जिसे छोटी आयु में ही कारख़ाने, वर्कशॉप तथा घरों में जीवित रहने के लिए कठोर परिश्रम और गुलामी करनी पड़ती है। ग़रीब माँ-बाप मकड़े नहीं हैं जो परिस्थितियों-वश अपने बच्चों की बलि देने हेतु लाचार होते हैं। मकड़ा है आज के समाज की बुरी दशा जो उन्हें अपनी स्वाभाविक भावनाओं को भूल जाने और अपने परिवार को ख़ुद ही नष्ट कर देने के लिए मजबूर कर देती है।

मक्खी जनता की वह सुशील कन्या है, जो ईमानदारी से अपनी जीविका कमाना चाहती है, लेकिन उसे तब तक काम नहीं मिलता जब तक वह अपने मालिक या फ़ैक्ट्री मैनेजर की कुत्सित इच्छाओं के आगे अपने को समर्पित नहीं कर देती जो उसका उपभोग करता है और तब कलंक से बचने के लिए जो कभी-कभी बच्चे के बोझ के साथ होता है उसे हृदयहीनता तथा निर्ममता के साथ नौकरी से निकाल बाहर करता है।

मकड़ा बड़े घर का घमण्डी छैला है, निठल्ला और आवारा – जो अनेक भोली-भाली नव-युवतियों को फुसलाता है और अपनी तड़क-भड़क से फँसाता है, बेइज़्ज़त करता है और कीचड़ में घसीटता है। जो अधिक से अधिक औरतों की इज़्ज़त बर्बाद करना ही अपना सम्मान समझता है।

कठिन परिश्रम कर खेत जोतने वालो! तुम मक्खी हो। तुम धनी भूस्वामियों के लिए ज़मीन जोतते हो, अनाज बोते हो, पर काट नहीं सकते, फल उगाते हो पर स्वाद नहीं चख सकते। मकड़े देश के वे महानुभाव हैं जो ग़रीब किसानों, मेहनतकशों, दैनिक मज़दूरों को बिना एक क्षण आराम लिए काम करने को विवश करते हैं, ताकि वे अपना जीवन विलासिता और शान-शौक़त के साथ बिता सकें। जबकि वे लगान की दर प्रत्येक वर्ष बढ़ाते जाते हैं और ईमानदारी के साथ किये गये परिश्रम की क़ीमत बलपूर्वक घटाते जाते हैं।

हम सब ग़रीब और सीधे-सादे लोग मक्खी हैं, जो युगों से बलिदान की वेदी की सीढ़ियों पर काँपते रहे हैं, हम पुरोहितों के अभिशाप से भयभीत रहे हैं, हम – जो आपस में झगड़ते आये हैं, एक-दूसरे को दबाते आये हैं, हम – जो जालिमों को अन्याय द्वारा प्राप्त फल का आनन्द लेने देते रहे हैं, क्योंकि हम लोगों की बुद्धि धार्मिक उपदेशों के प्रभाव से विवेकहीन हो चुकी है। मकड़े हैं काले लबादे पहने धूर्त और लोलुप आँखों वाले पादरी, जो विश्वास करने वाले लोगों के भोले दिमाग़ों में गर्त की ओर ले जाने वाली शिक्षाएँ भरते हैं, उनमें आज्ञाकारी तथा सेवक बने रहने की भावना का पोषण करते हैं, जो आत्मा को विषैला बनाते हैं और सारे देश को बर्बाद कर देते हैं। जैसाकि पोलैण्ड में हुआ।

थोड़े में वे सारे लोग मक्खी बताये गये हैं जो दलित हैं, शोषित हैं, सताये हुए हैं जबकि मकड़ा नीच सट्टेबाज़, निरंकुश तानाशाह या जिसे हम किसी भी नाम से पुकारें, हर घृणा करने योग्य वस्तु की तरफ़ इशारा है।

कभी यह मकड़ा बड़े-बड़े भवनों, सामन्ती राजमहलों और जागीरों में अपना जाला बुनता था। अब यह बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों तथा वर्तमान समय के धनी इलाक़ों को अपने लिए चुनना पसन्द करता है। मुख्यतः आप इन्हें बड़े शहरों में पाते हैं, परन्तु वह छोटे शहरों और गाँवों में भी निवास करता है। वह प्रत्येक स्थान पर रहता है जहाँ शोषण पनपता है, जहाँ मेहनतकश, निर्धन सर्वहारा, छोटा कामगार, दैनिक मज़दूर, छोटा किसान, उधार के बोझ से दबे इन थैलीशाहों के असीम लोभ और निष्ठुरता के शिकार रहते हैं।

जहाँ कहीं भी हो – शहर या गाँव में प्रत्येक स्थान पर हम इन बेचारे कीड़ों को अपने शत्रुओं के जाल में फँसा पाते हैं, निकलने की बेकार कोशिशों में लगे हुए। हम देखते हैं कि किस प्रकार वे खोखले होते हैं, मन्द पड़ते हैं और मर जाते हैं।

सदियों से निर्बल भयभीत मक्खी और रक्तलोलुप बेरहम मकड़े के झगड़ों में कितनी दुखद घटनाएँ घट चुकी हैं।

यह दुख, पीड़ा तथा क्लेश का रक्त-रंजित इतिहास है। इसे फिर क्यों दोहराया जाये? जो बीत गया, वह मर चुका है, हम आज और आने वाले कल की बात करें।

हमें मक्खी और मकड़े के इस संघर्ष को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए, इनकी अन्दरूनी बातों को समझना चाहिए, शत्रुओं ने जो जाले हमें दबोचने के लिए बनाये हैं, हमें उनकी चाल समझना चाहिए, उनकी साज़िशों से सतर्क रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि हम सब एक हों। अलग-अलग हम काफ़ी कमजोर हैं, उस जाले को तोड़ने के लिए जिसने हमें फँसा रखा है। हम अपनी बेड़ियों को तोड़ डालें, अपने शत्रुओं को गुप्त स्थानों से खींच लायें और प्रत्येक स्थान पर तर्कबुद्धि का प्रखर-प्रकाश फैलायें, ज्ञान का विस्तार करें ताकि भविष्य में यह निकृष्ट जीव अंधकार में अपनी चालें न चल सके।

मक्खियो! यदि तुम चाहो, तुममें इरादा हो तो तुम अजेय हो सकती हो। यह सच है कि मकड़े आज भी शक्तिशाली हैं, परन्तु उनकी संख्या बहुत कम है। मक्खियो! यद्यपि तुम दुर्बल और तुच्छ हो, फिर भी तुम संख्या में एक पूरी फ़ौज के बराबर हो। तुम्हीं जीवन हो, तुम्ही संसार हो – केवल यदि तुम चाहो, यदि तुम एकताबद्ध हो जाओ तो तुम सिर्फ़ एक झोंके से, अपने पंखों की फड़फड़ाहट से सारे भयानक तारों को तोड़ सकती हो, उन जालों को तहस-नहस कर सकती हो जिनमें तुम क़ैद हो, जहाँ तुम हताश होकर लड़ती हो और भूख से मर जाती हो। यदि तुममें इरादा हो तो तुम दरिद्रता और दासता को गुज़रे दिनों की बातें बना सकती हो।

इसलिए चाहना सीखो! इरादा करना सीखो!

 


 

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