आँसुओं के महासागर में समृद्धि के टापू हुए और जगमग

fat-capitalistदिल्ली । बीते साल में मुकेश अम्बानी और रतन टाटा का नाम दुनिया के दस सबसे बड़े खरबपतियों में शामिल होने की खबर पर सुखी–सन्तुष्ट चमकते चेहरों वाली जमातें जब खबरिया चैनलों पर इतरा रही थीं उसी समय यह भी खबर आयी थी कि देश की 77 करोड़ आबादी बीस रुपये रोजाना से भी कम आमदनी में गुजर–बसर करती है । लेकिन खबरिया चैनलों के लिए यह कोई खबर नहीं थी और अखबारों के पन्नों पर भी ये कोनों में दबी रहीं । गुजरे साल में समृद्धि और वंचना के दो विपरीत ध्रुवों को उजागर करती ये खबरें विकास के उस पूँजीवादी रास्ते के विरोधभास का रूपक बनकर हमारे सामने उजागर हुर्इं जिस पर देश का शासक वर्ग आगे बढ़ता जा रहा है । फिलहाल ऐसा कोई कारण मौजूद नहीं कि नये साल में इस रास्ते से मुँह मोड़ लिया जायेगा । हाँ, हो सकता है चुनावी साल में इस रास्ते पर आगे बढ़ने की रफ्तार में थोड़ी कमी आये ।
विकास के इस पूँजीवादी रास्ते की विशेषता ही यह होती है कि धनी और गरीब की खाई लगातार चौड़ी होती जाती है । रोशनी की मीनारें जितनी अधिक जगमगाएँगी उनके नीचे का अँधेरा उतना ही अधिक गहराता जायेगा । देश के दस सबसे बड़े खरबपति हर मिनट में 2 करोड़ रुपये बना रहे हैं । अकेले मुकेश अम्बानी हर मिनट चालीस लाख रुपये कमा रहे हैं । और जिनका खून–पसीना निचोड़कर दौलत का यह अम्बार इकट्ठा हो रहा है उन मेहनतक़शों की कमाई साल भर में चालीस रुपये भी नहीं बढ़ सकी है ? लेकिन “विकास” के इस स्याह पहलू से जानबूझकर आँखें फेरे खाये–पीये–अघाये लोग हमसे कहते हैं कि गर्व से कहिए मुकेश अम्बानी दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में चौथे नम्बर पर पहुँच गये हैं ।
बीते साल देश की इस तरक्की पर शेयर बाजार के मिजाज़ को दर्शाने वाला संवेदी सूचकांक गर्व से इतना फूला कि सारे रिकार्ड ध्वस्त करते हुए तीस हज़ार का आँकड़ा पार कर गया । यानी शेयर और सट्टा बाजार के खिलाड़ियों पर भी छप्पर फाड़ धनवर्षा हुई । अपनी इन तमाम उपलब्धियों–कामयाबियों को सहेजती–समेटती, इतराती–इठलाती समूची कारोबारी दुनिया सिनेमा कारोबार के सितारों के साथ नये साल के स्वागत में पाँच सितारा होटलों में ठुमके लगाते हुए चरम सुख में डूब गयी । जब हाकिम खुश तो उनके टहलुए भी मगन! तमाम भ्रष्ट अफसरशाहों और “जनसेवकों” की जमातों ने भी पिछड़े से पिछड़े जिलों के मुख्यालयों में जाम टकराते हुए ‘आइटम गर्ल्स’ के साथ मस्ती और धमाल किया । कारपोरेट मीडिया और स्थानीय केबुल चैनलों तक ने इन रंगारंग जलसों को कैमरों में कैद कर घरों में टीवी के सामने बैठे मध्यवर्गीय जमातों को परोसा और अपनी–अपनी टी.आर.पी. बढ़ाते हुए उन्हे “हैप्पी न्यू इयर” कहा ।
इन खबरिया चैनलों के कैमरे उन पाँच सितारे होटलों के पिछवाड़ों तक नहीं पहुँचे जहाँ पार्टियों में परोसे गये व्यंजनों की जूठन फेंकी जाती है । जहाँ भूखे–नंगे लोग और कुत्ते एक साथ पेट की आग शान्त कर रहे होते हैं । यह भी देश के विकास के विरोधभासों का एक रूपक है । अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने एक दोहे में इस विरोधभास को कुछ यूँ व्यक्त किया है–
जूठी हड्डी फेंककर और कुत्तों को टेर ।
अपने–अपने महल में सोये पड़े कुबेर॥
आज देश में एक लाख अरबपति धनकुबेर हैं जो इस देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों की हडि्डयाँ और मांस निचोड़ने में लगे हैं । ये अपने महलों में चैन से सो सकें इसके लिए तमाम “जनप्रतिनिधि” संसद और विधान सभाओं में कानून पास कर रहे हैं । छँटनी–तालाबन्दी और तमाम तथाकथित विकास परियोजनाओं के नाम पर करोड़ों लोग अपनी रोज़ी–रोटी, जगह–जमीन से बेदखल किये जा रहे हैं और आवाज़ उठाने पर उन्हें लाठियाँ–गोलियाँ मिल रही हैं । कलिंगनगर, सिंगूर, नन्दीग्राम तो देशी–विदेशी पूँजी की बर्बरता के प्रतीक बन चुके हैं लेकिन तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूर रोज़–रोज़ जिन बर्बरताओं के शिकार हो रहे हैं उनकी खबरें भी लोगों तक नहीं पहुँचने दी पातीं । मुनाफे और बाजार पर आधारित पूँजीवादी खेती की मार से देश भर में पचास हज़ार से ज्यादा छोटे–मँझोले किसान आत्महत्याएँ कर चुके हैं । अकेले महाराष्ट्र में 1995 के बाद से 32,000 किसान आत्महत्याएँ कर चुके हैं । यह उस महाराष्ट्र की तस्वीर है जिसकी राजधानी देश की व्यापारिक राजधानी कही जाती है । इसी मुम्बई में कुल अरबपतियों की एक चैथाई आबादी और सभी दस बड़े खरबपति रहते हैं । इसी मुम्बई में दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती ‘धारावी’ भी है जो पूँजीवादी समृद्धि के शिखरों को मुँह चिढ़ाती रहती है । देश में अमीरी और गरीबी के बँटवारे का एक और रुपक है यह पूँजीवादी विकास के सरपट भागते रथ के पहियों के नीचे दबाये–कुचले जा रहे लोगों के बारे में, देश की संसद और विधानसभाओं में आवाज़ें भी उठती हैं तो प्रमुख चिन्ता यही रहती है कि इनके असन्तोष से कैसे निपटा जाये । उनकी यह चिन्ता देश की आन्तरिक सुरक्षा पर खतरा बन जाती है और मंत्री एवं नौकरशाह इससे निपटने की चिन्ताओं में डूब जाते हैं । यानी, इस देश के भाग्य–विधाताओं की बुनियादी चिन्ता यही रहती है कि धनकुबेरों को जनअसन्तोष की दुश्चिन्ताओं से कैसे उबारा जाये ताकि उन्हें चैन की नींद नसीब हो सके । बीते साल के आखिरी महीने में आन्तरिक सुरक्षा पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राजधानी दिल्ली में एक विशेष बैठक बुलायी गयी और संसद में बहस भी हुई । बैठक में सशस्त्र बलों को और मजबूत बनाने, खुफिया तंत्र और संचार–परिवहन तंत्र को मजबूत बनाने पर फैसले लिए गये लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र में सूचीबद्ध होने के बावजूद महँगाई पर चर्चा के लिए माननीय सांसदों को समय नहीं मिल सका । हमेशा की तरह संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान हंगामे और गुलगपाड़े में जनता की गाढ़ी कमाई के 446 करोड़ रुपये स्वाहा हो गये । लोकसभा और राज्यसभा में मिलाकर कुल 37 घण्टे इसकी भेंट चढ़ गये । मालूम हो कि संसद की एक मिनट की कार्रवाई पर लगभग 16 लाख रुपये खर्च होते हैं । असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के नाम पर विधेयक लाने के लिए यूपीए सरकार बनने के बाद से ही ढपोरशंखी राग अलाप रही है । सरकार का कार्यकाल बीतने को है लेकिन अभी तक इस विधेयक के प्रावधनों को ही अन्तिम रूप नहीं दिया जा सका है । अभी संसद की एक स्थायी समिति इसके तैयार किये गये पहले प्रारूप पर विचार कर रही है ।
जनअसन्तोष की आवाज़ कुचलने के लिए सरकारों द्वारा बनाये जा रहे नये–नये कानूनों के सिलसिले की कड़ी में महाराष्ट्र के ‘मकोका’ की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी संगठित, अपराधों को रोकने के नाम पर ‘यूपीकोका’ कानून लागू कर दिया गया है । यूपीकोका (यूपी कंट्रोल ऑफ आरगनाइज्ड क्राइम ऐक्ट) यानी संगठित अपराध नियंत्रक कानून के तहत सरकार या किसी फैक्टरी मालिक के ख़िलाफ’ संगठित आवाज़ उठाने को भी संगठित अपराध घोषित किया जा सकता है । उधर छत्तीसगढ़ में भी ‘छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून’ 2005 से ही लागू है जिसके तहत सी–पी–आई– (माओवादी) से सम्बन्ध रखने के जुर्म में, जिसे अब तक प्रभावित भी नहीं किया जा सका है, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता डॉ– विनायक सेन को सुप्रीम कोर्ट ने भी जमानत नहीं दी । सुप्रीम कोर्ट साल खत्म होते–होते भारी संख्या में दाखिल होने वाली जनहित याचिकाओं पर भी नाराजगी ज़ाहिर कर चुका है । दरअसल, जनहित याचिकाएँ पिछले कुछ सालों में भ्रष्ट नेताओं और सरकारों के लिए काफी मुश्किलें पैदा करने लगी थीं । अब जनहित याचिकाओं के दायरे को फिर से परिभाषित करने की बात सुप्रीम कोर्ट कर रहा है जिससे सरकारों और विधायिकाओं के काम में न्यायपालिका जरूरत से ज्यादा टाँग न अड़ाये । यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है । पूँजीवादी जनवाद के दायरे में जनअसन्तोष को नियंत्रित करने के लिए समय–समय पर जो रियायतें दी जाती हैं वे स्वयं व्यवस्था के लिए और बड़ी मुसीबत बनने लगती हैं । जनहित याचिकाओं के साथ यही हो रहा है ।
विकास और विनाश के इस दस्तूरी पूँजीवादी द्वन्द्व से गुजरकर नया साल हमारे सामने है । वैसे भी नये साल का आना एक आम मेहनतकश आदमी के लिए कैलेण्डर की तारीख बदलने से ज्यादा मायने नहीं रखता । फिर भी नया साल शुरू होने के मौके पर कुछ नया संकल्प लेने का जो दस्तूर है उसके मुताबिक ‘बिगुल’ टीम पाठकों को भरोसा दिलाती है कि देश के मेहनतकशों की पीड़ा–व्यथा, उनके सपनों–उम्मीदों की आवाज़ और बुलन्द करने और मुक्ति के महास्वप्न को साकार करने की दिशा में अपने प्रयासों को हम और तेज गति से आगे बढ़ायेंगे-पहले से अधिक सर्जनात्मकता और ऊर्जस्विता के साथ!

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2008


 

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