अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (तीसरी क़िश्त)
एल. काताशेवा
अनुवाद : विजयप्रकाश सिंह
रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बर्दस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आख़िरी साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल‘ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। – सम्पादक
(पिछले अंक से जारी)
पुलिस से बचने के लिए खार्कोव में रहते हुए नताशा लुगान्स्क पार्टी संगठन के साथ पत्र-व्यवहार करती थीं, बेशक नाम बदलकर और अपने पत्र मित्रों के पते पर मँगाकर। वोरोशिलोव (वोलोद्या), जो तत्काल बाद लुगान्स्क लौट आये थे, ने नताशा को एक पत्र लिखा, जिसे ओखराना ने पकड़ लिया और उसका चित्र उतार लिया (एक प्रति पुलिस विभाग के रिकार्ड में रख ली गयी)। पत्र में उन्होंने लिखा :
”मेरी राय में आपका यहाँ आना अत्यन्त ख़तरनाक होगा, क्योंकि एकिम इवानोविच के घर पर छापा पड़ा है। उसने कहा है कि जो किताबें उसके घर से मिली हैं वे आपने उसे दी थीं। पुलिस आपके बारे में भूली नहीं है, जैसाकि मैं साबित कर सकता हूँ। हमारे घर पर हर समय निगरानी रखी जा रही है, हम सन्देह के दायरे में हैं, इसलिए आप तुरन्त पकड़ ली जायेंगी”
लुगान्स्क न लौट पाने के कारण नताशा बुरी तरह निराश थीं। उन्हें मज़दूर वर्ग का दूसरा केन्द्र तलाशना पड़ा जहाँ जाकर वह अपना काम जारी रख सकें। वह कुछ समय के लिए मास्को गयीं और उसके बाद बाकू चली गयीं। वह तेल उद्योग का विशाल केन्द्र था। बाकू में डोन्बास और एकातेरिनोस्लाव के धातु उद्योग की तरह पूँजीवाद विकास के उच्चतर स्तर पर पहुँच चुका था। लेकिन यहाँ, तेल उद्योग के इस केन्द्र में, जो ज़ारशाही साम्राज्यवाद की महत्तवपूर्ण नस था और मालिकों को ज़बरदस्त मुनाफा देता था, उस सम्पदा का उत्पादन करने वाला सर्वहारा अत्यन्त दयनीय हालात में जी रहा था और यह भी तब जबकि बाकू के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियाँ कोई नयी चीज़ नहीं थीं और बाकू के सर्वहारा ने मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी इतिहास में बहुत-से वीरतापूर्ण अध्याय जोड़े थे।
बाकू की एक विशेषता यह थी कि वहां सत्रह राष्ट्रीयताओं के मज़दूर थे, जो सभी अलग-अलग भाषाएँ बालते थे। बोल्शेविकों और मेंशेविकों के अलावा वहाँ कई अन्य राष्ट्रीय पार्टियाँ भी थीं। मेहनतकश वर्ग के हितों के साथ मेंशेविकों के ग़द्दारी करने के कारण बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच टकराव असाधारण रूप से तीखा हो गया था।
पार्टी कार्य और जीवन के हालात अत्यन्त जटिल और कठिन हो गये थे। तेल के क्षेत्र एक-दूसरे से और बाकू से बहुत दूर-दूर तक बिखरे हुए थे। मज़दूरों के अध्ययन मण्डल चलाने के लिए शाम के वक्त पैदल चलने में ख़तरा रहता था। तेल के डेरिकों पर आग लगाने वालों की निगरानी के लिए पहरेदार लगे रहते थे। पूरा इलाका अंधेरा और सुनसान था। किसी राहगीर को गोली या चाकू मार दिया जाना असामान्य घटना नहीं थी।
नताशा को कई बार बहुत ही कष्टदायी अनुभव हुए। रेल कर्मियों के ज़िले में चेर्नी गोरोडोक में मज़दूरों के एक अध्ययन मण्डल में जाते समय कुछ औरतों ने गालियाँ देते हुए उनका पीछा किया : ”तुम….तुम हमारे पतियों को हमसे छीन लेना चाहती हो! हम तुम्हें दिखा देंगी….!”
उन समय नताशा, और आम तौर पर पूरी पार्टी को, औरतों द्वारा डाली जाने वाली बाधा का सामना करना पड़ रहा था। कुछ कॉमरेडों ने यह राय ज़ाहिर की है कि अनपढ़ औरतों की यह और इसी तरह की अन्य मूर्खतापूर्ण घटनाएँ थीं जिन्होंने नताशा को औरतों के बीच काम करने को उकसाया, जिस क्षेत्र में वे एक महान राजनीतिक हस्ती बन गयीं। उनका नाम संगठनकर्ताओं की पहली कतार में आता है – लाखों कामकाजी औरतों और किसान औरतों के नेताओं में जिन औरतों ने सत्ता के संघर्ष और समाजवाद के निर्माण में मज़दूर वर्ग की कतारों को मज़बूती प्रदान की।
‘प्रावदा‘ में काम
काली प्रतिक्रिया के साल शुरू हो गये। 1909 में, पहली मार्च को नताशा फिर गिरफ्तार कर ली गयीं और लगभग साल भर के लिए जेल में डाल दी गयीं। लकिन ज़ारवादी अधिकारियों ने उनके ख़िलाफ इतना लचर मामला बनाया था कि ज़ारशाही की अदालत ने ही उन्हें रिहा कर दिया। उन कठिन दिनों में नताशा सन्देह या झिझक से एकदम परे थीं। सेण्ट पीटर्सबर्ग के जीवन ने रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन के द्रुत पुनर्जन्म में नताशा की अडिग आस्था की पुष्टि कर दी।
दिसम्बर 1912 में नताशा ने बोल्शेविकों के लड़ाकू दल में ज़िम्मेदारी का एक पद ग्रहण किया। वी. एम. मालोतोव की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने प्रावदा के सम्पादक मण्डल में सचिव का पदभार सम्हाला। प्रावदा में काम करने वाले कॉमरेड इस पद पर उनकी गतिविधियों के बारे में इस प्रकार बताते हैं :
”कॉमरेड समोइलोवा हमारे सम्पादकीय दल से 1913 में जुड़ीं। वह सम्पादक मण्डल की सचिव थीं और अथक ऊर्जा से भरी कार्यकर्ता थीं। उन्होंने बहुत-से लेख स्वयं ही लिखे जिनमें से कई बिना नाम के थे और अन्य छद्म नाम से लिखे गये थे। हालाँकि उनकी शैली एकरस थी लेकिन उनके लेख इस तरह लिखे गये होते थे कि आम पाठक कतारों को आसानी से समझ में आ जाते थे और सर्वहारा के जीवन और संघर्ष में उठने वाले सवालों का जवाब देते थे।
लेकिन लेखन कार्य और सम्पादक मण्डल के काम में हाथ बँटाना प्रावदामें कॉमरेड समोइलोवा के काम का सबसे महत्तवपूर्ण हिस्सा नहीं था। उनके सचिव के काम से कहीं ज्यादा महत्तवपूर्ण था उनका लिपिकीय कार्य। उस समय मज़दूरों का अख़बार एकमात्र साधन था जिसमें फैक्टरियों में काम करने वाले मज़दूरों की आवाज़ और उनकी भावनाएँ अभिव्यक्ति पाती थीं। सैकड़ों मज़दूर अख़बार में पत्र भेजते थे और स्वयं उसके सम्पादकीय कार्यालय में आते थे।
साधारण-सा सम्पादकीय कार्यालय मधुमक्खी के छत्तो की तरह था। वहाँ मज़दूरों का रेला-सा पहुँचता था : हड़ताली फैक्टरियों के प्रतिनिधि, ट्रेडयूनियनों, बेनेफिट सोसाइटियों और मज़दूर क्लबों के प्रतिनिधि अपने काम और जीवन के हालात के बारे में बताने के लिए वहाँ आते थे। फैक्टरियों में होने वाली मज़दूर सभाएँ ”हमारे प्यारे प्रावदा” के लिए छोटी-छोटी रकमें इकट्ठा करती थीं।
मज़दूर-कवि अपनी कविताओं की समीक्षा के लिए और यह जानने के लिए कि वे छपेंगी या नहीं, बेसब्री से इन्तज़ार करते थे। मज़दूर दादागीरी करने वाले किसी फोरमैन, निदेशक या प्रबन्धाक की शिकायत करने के लिए वहाँ इस तरह आते थे जैसे कि वह कोई शिकायत ब्यूरो हो या मालिकों के ख़िलाफ मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा करने के बारे में सलाह लेने के लिए आते थे। वे अपनी पारिवारिक तकलीफों और अपने पैतृक गाँवों के विवाद लेकर आते थे।
वे जानते थे कि वे अपने ही अख़बार में जा रहे हैं, जहाँ उनका स्वागत होगा, उनकी बात सुनी जायेगी और किसी न किसी तरह उनकी समस्या का समाधान किया जायेगा। यही कारण था कि हर दिन दफ्तर में लोगों की भीड़ उमड़ आती थी। अक्सर ही ऐसा होता था कि एक-एक दिन में तीन से चार सौ आगन्तुक वहाँ पहुँचते थे।
वे दोपहर में खाने की छुट्टी के दौरान, अपना काम ख़त्म करने के बाद, शाम को या काम के घण्टों में ही फैक्टरी से निकलकर आते थे – फटेहाल, खरादिये, लुहार, मैकेनिक, बढ़ई, राजगीर, सज्जाकार, तेल में सने कपड़े पहने मज़दूर, पेण्ट, तेल, तम्बाकू और मेहनत-मशक्कत के कारण पसीने की गन्धा से सराबोर। ये सभी मज़दूरों के अख़बार के सम्पादकीय कार्यालय में आते थे और सबको जोश दिलाने वाले शब्द सुनने को मिलते थे। अख़बार में छपने वाले लेख मज़दूरों की दृढ़ लेकिन दो टूक भाषा में अनगढ़ तरीके से किसी न किसी कारख़ाने में काम की स्थितियों के बारे में बताते थे और इससे पूरी फैक्टरी में ख़तरे की घण्टी बज उठती और सम्पादकीय कार्यालय में और भी नये आगन्तुक और मददगार पहुँचने लगते।
अक्सर कोई धोबी या रसोइया, कोई लुहार या अकुशल मज़दूर सिर्फ अपनी तकलीफें ”अख़बार को बताने” के लिए आते थे। और तब अख़बार के कार्यकर्ता या स्वयं सचिव उस मज़दूर के पास बैठ जातीं और उनके अपने शब्दों में उनकी आपबीती दर्ज करतीं।
जब औरतें आतीं तो नताशा को ख़ास तौर पर ख़ुशी होती। पत्र या अपने जीवन की कहानी बयान करने वाली हर महिला मज़दूर में नताशा विशेष दिलचस्पी लेतीं।
पूँजीवादी दुनिया में मज़दूरों के कष्टों और उनके ग़ुस्से की असंख्य कहानियाँ थीं और अख़बार उसके एक छोटे हिस्से को ही छाप पाता था।
इसके अलावा आने वालों में हड़ताल-तोड़क भी होते थे जिन्होंने संघर्ष में अपने भाइयों के साथ गद्दारी की थी और पूँजी के पाले में चले गये थे और प्रावदा में उनकी निन्दा की जाती थी।
उन समय जो मज़दूर संगठित थे वे ऐसे गद्दारों का कठोरता से बहिष्कार करते थे और उन्होंने यह नियम बना रखा था कि अपनी गद्दारी के लिए पश्चाताप करने वाले हड़ताल-तोड़कों को मज़दूरों के अख़बार प्रावदा के पन्नों पर सार्वजनिक रूप से माफी माँगनी होगी।
कनसुनवे, चुगलख़ोर, जी-हुजूरिये, मालिकों के तलवे चाटने वाले, वे सभी जिन्हें प्रावदा में कभी बख्शा नहीं जाता था, सम्पादकीय कार्यालय में खण्डन छपवाने, माफीनामा छपवाने या ”बीती बातों को भुलाकर” मज़दूर बिरादरी में शामिल करने का अनुरोध लेकर आते थे। कई बार इस तरह का पत्र प्रकाशित करने से अख़बार के इनकार करने का मतलब होता था कि वे किसी भी फैक्टरी में काम करने लायक नहीं रह जाते थे और वास्तव में कोढ़ियों की तरह समाज से बहिष्कृत हो जाते थे।
अख़बार के पन्ने छोटे थे और मज़दूरों के जीवन, उनके काम की परिस्थितियों और उनके संघर्ष की सामग्रियाँ-पाण्डुलिपियाँ अनगिनत थीं और इसलिए पछतावे के पत्रों को अख़बार में मामूली-सी जगह ही दी जा सकती थी। लेकिन इस तरह के पत्रों का ढेर बढ़ता गया। और कई बार अपने पत्र के छपने का इन्तज़ार करते-करते थक जाने वाला हड़ताल तोड़क, आँखों में आँसू लिये सचिव के पास आता और भविष्य में ईमानदारी से पेश आने और कॉमरेडों के साथ कन्धो से कन्धा मिलाकर चलने का वादा करते हुए अपने पत्र को जल्द से जल्द छापने की गुज़ारिश करता। नताशा सम्पादकों की कोठरी में जातीं और उनसे आग्रह करतीं कि इस ‘हड़ताल भेदी’ का पत्र खूँटी में टँगे पत्रों की ढेर से निकालकर अपनी बारी आने से पहले ही छाप दें। अपने कमरे में वापस जाते हुए दरवाज़े पर खड़ी होकर वह कहतीं, ‘मैंने इस आदमी से वायदा किया है कि कल ज़रूर छप जायेगा’। अख़बार के उनके सहकर्मी उन पर तंज करते हुए उन्हें ‘हड़ताल तोड़कों की अम्मा’ और सचिव के उनके कार्यालय को ‘पश्चाताप गृह’ कहते थे।
लोगों की यह बाढ़ नताशा के छोटे-से कमरे से होकर गुज़रती। वह हर आनेवाले की बात अत्यन्त सावधानी, सहानुभूति और गर्मजोशी से सुनतीं। वे हर मज़दूर के साथ बहुत स्नेह और दोस्ताना ढंग से बात करतीं, और प्रावदा और मज़दूरों की पार्टी के प्रति उसकी सहानुभूति जगाने की कोशिश करतीं।
कभी-कभी अपनी फैक्टरी के बारे में किसी मज़दूर का लेख सम्पादकीय कार्यालय में पड़ा रह जाता। जगह की कमी और सामग्री के अम्बार की वजह से इस तरह की देरी हो ही जाती थी। लेकिन जब लेखक इस आशंका से कि शायद लापरवाही के कारण उसका लेख नहीं छप रहा है, पूछताछ करने के लिए आता तो नताशा उसके साथ बहुत ही हमदर्दी से पेश आतीं और सम्पादकों के पास जाकर उनसे प्रकाशन में तेज़ी लाने का आग्रह करतीं।
उनके कामों में एक हिस्सा ऐसा था जो बहुत कठिन और अरुचिकर था। उन दिनों ज़ारशाही का विरोध करने वाले हर लेख के प्रकाशन के बाद प्रावदा पर जुर्माना लगाया जाता था, सम्पादकों को गिरफ्तार किया जाता था और आख़िर में अख़बार को दबाया जाता था।
जुर्माना भरने के लिए पर्याप्त कोष नहीं होता था। और जुर्माना न भरने का मतलब था सम्पादक को तीन महीने की जेल। अगर वास्तव में सम्पादक का काम करने वाला पार्टी कॉमरेड हर बार जेल जाने लगता तो पार्टी में पर्याप्त सम्पादक ही नहीं बचते। ऊपर से हमारे सबसे अच्छे सम्पादक विदेशों में रहने को मजबूर थे।
अख़बार को बन्द होने से बचाने के लिए असली सम्पादक को बचाने के लिए मज़दूर उनके स्थानापन्न के तौर पर अपनी सेवाएँ हाज़िर करते। अख़बार में उनका नाम दिया जाता था जबकि सम्पादन का काम दूसरे लोग करते थे। मेहनतकश वर्ग के पक्ष में छपा कोई साहसिक लेख उन्हें जेल भिजवा देता था।
नताशा अक्सर इन काल्पनिक सम्पादकों से बातचीत करतीं। उनमें से सभी पूरी तरह वर्ग सचेत नहीं थे या वे अपने जेल जाने का कारण ठीक-ठीक नहीं समझते थे। उनमें से कुछ तो महज़ इसलिए आते थे कि वे बेरोज़गार थे और उनका दूसरा कोई ठिकाना नहीं था और हम उन्हें पच्चीस-तीस रूबल मासिक देते थे और जब वे जेल में रहते उस दौरान इससे भी कुछ अधिक।
बेशक इनमें से कुछ लोग विचलित हो जाते थे। नताशा अक्सर उनसे बात करतीं और उन्हें एक मज़दूर अख़बार की अहमियत समझातीं। बेशक, किसी को यह बताना कि : ”हम लेख लिखेंगे और आप उसके लिए जेल जाकर हम पर मेहरबानी करेंगे।” सुखद नहीं होता था। मज़दूर अख़बार के लक्ष्य के प्रति उन्हें बड़ी हमदर्दी के साथ प्रेरणा देने की ज़रूरत होती थी। उन पर नैतिक प्रभाव डालना ज़रूरी था ताकि वे जेल जाने का अप्रिय काम करने के लिए तैयार हो सकें। उनमें से कुछ को लम्बी कैद की सजा भी झेलनी पड़ती थी। नताशा ने यह दुष्कर काम कई महीने तक किया।
उन दिनों मेहनतकश जनता पर प्रावदा का ज़बरदस्त प्रभाव था। उसने बोल्शेविक पाठकों की पूरी एक पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जिन्होंने 1917 की क्रान्ति की शुरुआत में एक ठोस समूह का रूप धारण कर लिया था, वे एक भावना से ओतप्रोत थे और एक फौलादी अनुशासन से आपस में जुड़े हुए थे। बहुत-से कामरेड प्रावदा के काम में हिस्सा लिया करते थे। लेकिन नताशा का ओहदा ही इन सभी कामों की जान था। मेहनतकशों और क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के बीच काम करते हुए वे आन्दोलन से पहली बार जुड़ने वाले मज़दूर समूहों का बड़ी सावधानीपूर्वक जायज़ा लेतीं और अख़बार में उनका पद उन्हें इन मज़दूरों के साथ सीधा सम्पर्क करने और उनकी चेतना को बोल्शेविक धारा की तरफ मोड़ने के अनेक अवसर देता था।
बिगुल, मार्च 2009
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