बोलते आँकड़े – चीख़ती सच्चाइयाँ : डीज़ल-पेट्रोल के नाम पर जारी लूट
पिछले क़रीब नौ साल के अपने कार्यकाल में मोदी सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी कर लगाकार सरकारी ख़ज़ाने में पच्चीस लाख करोड़ रुपये से भी ज़्यादा की कमाई की है। मोदी सरकार को आयात किया गया कच्चा तेल बेहद सस्ते दामों पर मिला है। डीलर को मिलने वाला हिस्सा पेट्रोल की क़ीमत का 36 प्रतिशत ही होता है, जो कि सरकार ने पेट्रोल पम्प मालिकों, बिचौलियों आदि को लाभ पहुँचाने के लिए ही रखा है। ऊपर से, केन्द्र सरकार इस पर 37 प्रतिशत टैक्स वसूलती है और क़रीब 23 प्रतिशत वैट राज्य सरकारें लगाती हैं। शेष 3-4 प्रतिशत डीलर का कमीशन, ढुलाई ख़र्च आदि होता है। यानी ये सरकारों के टैक्स ही हैं जो डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों को 90 और 100 के पार पहुँचा दे रहे हैं।
2013 तक पेट्रोल पर केन्द्र और राज्यों के टैक्स मिलाकर क़रीब 44 फ़ीसदी तक होते थे, अब ये टैक्स 100-110 फ़ीसदी तक कर दिये गये हैं। आइए, मोदी सरकार द्वारा पेट्रोल व डीज़ल पर की जा रही लूट को समझते हैं।
मार्च ’23 में अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 68 डॉलर प्रति बैरल थी, यानी 159 लीटर की कीमत 68 डॉलर। यानी, प्रति लीटर कच्चे तेल की अन्तरराष्ट्रीय कीमत थी 0.427 डॉलर यानी मात्र 35.32 रुपये। एक लीटर कच्चे तेल के परिशोधन (refining) का ख़र्च है लगभग 3 रुपये। यानी, उपयोग योग्य प्रति लीटर पेट्रोल पर सरकार को ख़र्च करने पड़ते हैं कुल लगभग 38.32 रुपये। लेकिन हमारे लिए पेट्रोल 100 रुपये प्रति लीटर तक पहुँच गया। यानी, पेट्रोल की कुल कीमत में असल लागत केवल 38-39 रुपये के क़रीब है, जबकि आप दे रहे हैं 96 से 110 रुपये। यानी हर लीटर पर असल कीमत से 156% ज़्यादा तो आप सिर्फ़ टैक्स दे रहे हैं!
दुनिया के किसी भी देश में शायद ही पेट्रोल पर इतना भारी टैक्स लगता हो। मसलन, तेल पर इंग्लैण्ड में 61 फ़ीसदी, फ्रांस में 59 और अमेरिका में 21 फ़ीसदी टैक्स लगता है। यह डकैती नहीं तो क्या है कि माल की कीमत पर माल की कीमत से भी ज़्यादा टैक्स लगाकर जनता को बेचा जाये? मोदी ने ठीक ही कहा था: “धन्धा मेरे ख़ून में है, पैसा मेरे ख़ून में है!” (3 सितम्बर 2014, डेकन क्रॉनिकल, नरेन्द्र मोदी का बयान)।
यह साफ़ है कि देश में वित्तीय घाटे की भरपाई करने के लिए सरकार तेल पर भारी टैक्स लगा रही है। इस साल के बजट में पेट्रोलियम उत्पादों पर कुल सब्सिडी को रु. 9171 करोड़ से घटाकर रु. 2257 करोड़ कर दिया गया है। 2020-21 में यह रु. 37,000 करोड़ रुपये थी।
(ये आँकड़े ‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ की ओर से जारी पुस्तिका ‘बढ़ती महँगाई की मार–ज़िम्मेदार मोदी सरकार’ से लिये गये हैं)
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन