बोलते आँकड़े – चीख़ती सच्चाइयाँ : मेहनतकश आबादी की घटती आमदनी
एक तरफ़ तमाम चीज़ों के दाम बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी तरफ़, आम मेहनतकश आबादी की आय में या तो गिरावट आयी है या फिर वह लगभग स्थिर है। इस कारण से आम आबादी की ख़रीदने की क्षमता पहले से कम हुई है। एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अगर आप रु. 25,000 मासिक कमाते हैं तो आप भारत की ऊपरी 10 प्रतिशत आबादी में आते हैं!
आपको बता दें कि भारत में 57 प्रतिशत मज़दूर रु. 10,000 मासिक से कम कमाते हैं और सभी मज़दूरों की बात करें तो उनकी औसत आय रु. 16,000 मासिक है। निश्चित तौर पर, इसमें सबसे कम कमाने वाले मज़दूर वे हैं जो कि अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और कुल मज़दूर आबादी का क़रीब 93 प्रतिशत हिस्सा हैं। यानी, एक ओर महँगाई सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है, दूसरी ओर आम मेहनतकश आबादी की औसत आमदनी विशेष तौर पर कोविड महामारी के बाद से या तो ठहरी हुई है या फिर घटी है।
वित्तीय वर्ष 2021-22 के पहले नौ माह के दौरान ग्रामीण खेतिहर वास्तविक मज़दूरी में मात्र 1.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि ग्रामीण ग़ैर-खेतिहर वास्तविक मज़दूरी में 1.2 प्रतिशत की गिरावट आयी। भारत की राज्य सरकारों के कर्मचारियों की औसत वास्तविक आय में 2019 से 2021 के अन्त तक 6.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी दौर में मनरेगा मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में मात्र 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसके अलावा, स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध 2800 कम्पनियों के कर्मचारियों की आय में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, हालाँकि इसका बड़ा हिस्सा मध्यवर्गीय व उच्च मध्यवर्गीय कर्मचारियों के खाते में गया और आम मज़दूरों की मज़दूरी में बहुत ही कम बढ़ोत्तरी हुई है।
इसी बीच, महँगाई में 40 से 60 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी आयी, यानी इन सभी जमातों की असली आमदनी में कमी आयी और वह पहले से ग़रीब हुए। सबसे बुरी हालत अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की रही। कोविड महामारी के दौरान ही उनकी औसत मज़दूरी में बढ़ी बेरोज़गारी के कारण 22 प्रतिशत की गिरावट आयी थी।
ज़मीनी स्तर की सच्चाई तो इससे भी भयानक है। श्रम-मंत्रालय के ही आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में 45 फ़ीसदी मज़दूरों की मज़दूरी 10 हज़ार रुपये से भी कम है, जबकि महिला मज़दूरों (कुल मज़दूर आबादी का 32 फ़ीसदी) को 5 हज़ार रुपये से भी कम मज़दूरी मिलती है। ग्रामीण मज़दूरों की स्थिति और भी बुरी है। भारत में कृषि क्षेत्र में औसत मज़दूरी की दर 344 रुपये प्रतिदिन है। लेकिन सच्चाई यह है कि खेतों, भट्ठों, भवन निर्माण आदि में काम करने वाले मज़दूर प्रतिदिन 200-250 रुपये प्रतिदिन के रेट से काम करने पर मजबूर हैं। 1984 में जहाँ कुल उत्पादन लागत का 45 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी के रूप में दिया जाता था वह 2010 तक घटकर 25 प्रतिशत रह गया। अब तो वह और भी घट चुका है।
संगठित क्षेत्र में पैदा होने वाले हर 10 रुपये में मज़दूर वर्ग को केवल 23 पैसा मिलता है। ऊपर से मोदी सरकार द्वारा रहे-सहे श्रम क़ानूनों को भी ख़त्म किया जा रहा है और न्यूनतम मज़दूरी को क़ानूनी तरीके से कम किया जा रहा है। सरकार के श्रम मन्त्री प्रतिदिन के लिए तल-स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर चुके हैं। यानी, मासिक आमदनी होगी महज़ 4,628 रुपये! अच्छा होता कि नेताओं, नौकरशाहों, मैनेजरों को यह न्यूनतम मज़दूरी स्वीकार करने पर मजबूर किया जाता, जो वैसे भी कुछ नहीं करते और परजीवियों की तरह जनता का खून चून रहे हैं। यह राशि आर्थिक सर्वेक्षण 2017 में सुझायी गयी तथा सातवें वेतन आयोग द्वारा तय की गयी न्यूनतम मासिक आमदनी 18,000 रुपये का एक-चौथाई मात्र है। हालाँकि आज रु. 18,000 भी इज़्ज़त की ज़िन्दगी जीने के लिए पर्याप्त मज़दूरी नहीं होगी।
यही नहीं पन्द्रहवें राष्ट्रीय श्रम सम्मलेन (1957) की सिफ़ारिशों (जिसके अनुसार न्यूनतम मज़दूरी, खाना-कपड़ा-मकान आदि बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर तय होनी चाहिए) और सुप्रीम कोर्ट के 1992 के एक निर्णय की अनदेखी करते हुए कैलोरी की ज़रूरी खपत को 2700 की बजाय 2400 कर दिया गया है और तमाम बुनियादी चीज़ों की लागत भी 2012 की क़ीमतों के आधार पर तय की गयी हैं! यह मज़दूरों की मज़दूरी को कम-से-कम करने के लिए मोदी सरकार द्वारा किया जा रहा सीधा फर्जीवाड़ा और भ्रष्टाचार है। मोदी सरकार की इन्हीं नीतियों के चलते मेहनतकश तबके की आय में कमी आयी है और महँगाई की मार उन पर पहले से ज़्यादा पड़ रही है।
आय में गिरावट और वस्तुओं के बढ़ते दाम का नतीजा है कि मेहनतकश तबके की थालियों से लगातार दालें व सब्ज़ियाँ गायब होते जा रहे हैं। राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो द्वारा 2012 में किये गए आखिरी सर्वे में बताया गया था कि 1979 की तुलना में 2012 में औसतन हर ग्रामीण को 550 कैलोरी उर्जा, 13 ग्राम प्रोटीन, 5 मिग्रा आयरन, 250 मिग्रा कैल्शियम और 500 मि ग्रा विटामिन ए प्रतिदिन कम मिल रहा है। अब ऊपर दिए आँकड़ों से साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि कीमतों के बढ़ने से ये आँकड़े पिछले 10 सालों में और भी अधिक भयानक हुए होंगे। एक बड़ी आबादी सिर्फ़ रोज़ जीनेभर के सामान जुटाने लायक़ कमा रही है।
(ये आँकड़े ‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ की ओर से जारी पुस्तिका ‘बढ़ती महँगाई की मार–ज़िम्मेदार मोदी सरकार’ से लिये गये हैं)
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2023
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