मनरेगा मज़दूरों ने चुना संघर्ष का रास्ता
गुरूदास सिधानी
पिछले दिनों हरियाणा के फ़तेहाबाद जि़ले के सिधानी गाँव में मनरेगा मज़दूरों ने अपने हक़-अधिकारों के संघर्ष की शुरुआत की। संघर्ष का मुद्दा गाँव के तालाब की सफ़ाई के कार्य में कम मज़दूरी व नियम की अनदेखी का था। असल में एक तरफ़़ तो सरकार नियम बनाती है कि हाथों से मैला उठवाना ग़ैर-क़ानूनी है, परन्तु दूसरी तरफ़ उसी क़ानून की धज्जियाँ उड़ाकर सरकारी अधिकारी ही मनरेगा मज़दूरों से गाँव के गन्दे पानी के तालाब में से जलखम्भी निकालने का कार्य करवा रहे हैं। काम के दौरान न तो मज़दूरों को सुरक्षा-उपकरण दिये गये और न ही कोई अन्य सुविधा। मज़दूरों ने 10-15 फ़ीट गहरे तालाब में अपनी जान जोखिम में डालकर जलखुम्भी निकालने का कार्य किया। कार्य के दौरान अनेकों मज़दूरों के पैरों में काँच चुभा तो अनेकों मज़दूर गन्दे पानी की वजह से एलर्जी का शिकार हुए। ये सब देखते हुए भी प्रशासन की आँखें बन्द रहीं। असल में देश में मज़दूरों के सारे श्रम क़ानून सिर्फ़ मोटी-मोटी काग़ज़ों की किताबों में दर्ज हैं।
तालाब में सफ़ाई का कार्य मज़दूरों ने 6 मई से 18 मई तक किया। मेटों (मज़दूरों द्वारा चयनित व्यक्ति) द्वारा इस काम को 1000 दिहाड़ियों में करने को कहा, फिर अगले ही दिन मेटों द्वारा अपनी जुबान से मुकरते हुए इसी काम को 1200 दिहाड़ियों में काम करने को कहा गया, परन्तु बात यहाँ भी रुकी। और 8 मई को उसी काम को 1400 दिहाड़ियों में तय किया गया। साथ ही तालाब सफ़ाई के कार्य पर लगे कई मज़दूरों को अतिरिक्त कार्य पर लगा दिया। तालाब से जलखुम्भी निकालने के साथ ही उसको ट्रैक्टर-ट्रालियों में भरने का अतिरिक्त काम भी मज़दूरों से लिया गया। इस दौरान मज़दूरों से दो दिनों का अतिरिक्त काम लिया गया, लेकिन इसको तय दिहाड़ियों में शामिल नहीं किया गया। 18 मई को मेटों द्वारा मज़दूरों को पास के मैदान में इकट्ठा किया गया तथा ऐलान किया गया कि मज़दूरी की दर 281 प्रतिदिन के हिसाब से मज़दूरी मिलेगी। लेकिन जलकुम्भी निकालने का कार्य 1475 दिहाड़ी में होना था, वो पूरे 2300 दिहाड़ी में पूरा हुआ। ऐसे में मज़दूरों ने 2300 दिहाड़ी के भुगतान की माँग उठायी, लेकिन मनरेगा अधिकारियों द्वारा सिर्फ़ 1475 ही दिहाड़ी का भुगतान किया जा रहा है। मज़दूरों ने 24 मई को एडीसी फ़तेहाबाद में अपनी मज़दूरी के भुगतान के लिए ज्ञापन सौंपा लेकिन एक हफ़्ते बाद तक भी कोई कार्रवाई ना होतो देख, मज़दूरों ने संघर्ष का रास्ता अपनाया।
बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों की मदद से मज़दूरों ने गाँव में जनसभा बुला, बीडीपीओ कार्यालय पर धरने का फ़ैसला लिया। साथ ही संघर्ष को आगे चलाने के लिए एक पाँच सदस्यीय कमेटी का चुनाव किया है। 4-5 जून को बीडीपीओ कार्यालय पर मज़दूरों ने अनिश्चितकालीन धरना दिया। इस दो दिवसीय धरने के दौरान मनरेगा अधिकारी छुट्टी और ट्रेनिंग का बहाना बनाकर ऑफ़िस से ग़ायब रहे। लेकिन मज़दूरों के धरने के लगातार दवाब में बीडीपीओ ने गाँवों का दौरा करने पर सहमति जतायी। 6 जून को मनरेगा मज़दूरों ने गाँव की रविदास चौपाल पर जनसभा का आयोजन किया। लगभग 1 बजे बीडीपीओ अपने अन्य अधिकारियों के साथ गाँव पहुँचे। बीडीपीओ के समक्ष नौजवान भारत सभा के रिंकू ने मज़दूरों के अतिरिक्त 825 दिहाडि़यों के भुगतान की माँग रखी। बीडीपीओ ने आश्वासन दिया कि पैमाइश को दोबारा सख्त प्रावधान करके मज़दूरी का भुगतान बढ़े रेट से किया जायेगा। ये मनरेगा के मज़दूरों की आंशिक जीत थी। अधिकारियों के जाने के बाद मज़दूरों ने जनसभा में फ़ैसला लिया कि यदि मामले पर जल्दी कार्यवाही नहीं की गयी तो वह संघर्ष को और तेज़ करने का रास्ता चुनेंगे। साथ ही मनरेगा मज़दूरों ने यह भी फ़ैसला किया कि वो अपने हक़-अधिकारों की सुरक्षा के लिए मनरेगा मज़दूर यूनियन का निर्माण करेंगे।
बिगुल मज़दूर दस्ता के अजय सिधानी ने कहा कि इस पूरे मामले से पता चलता है कि किस तरह मज़दूरों का शोषण किया जा रहा है। पहले तो उनसे हाड़तोड़ काम लिया जाता है तथा जब बात पूरी मज़दूरी देने की आती है, तो प्रशासन द्वारा पैर पीछे हटा लिये जाते हैं। कई मज़दूरों को एक साल 6 महीने हुए काम का वेतन भी नहीं मिला है। नीचे से लेकर ऊपर तक मनरेगा ऑफ़िस में भ्रष्टाचार है। यूँ तो मनरेगा क़ानून के तहत 100 दिन काम की योजना है, लेकिन असल में ना तो मज़दूरों को सौ दिन काम मिलता है और ना ही पूरी मेहनत का हिसाब मिलता है। क़ानून की किताबों में नये-नये क़ानून तो बनते हैं, किन्तु व्यवहार में कोई भी लागू नहीं होता। मेहनतकश वर्ग हर जगह शोषण का शिकार है। साथ ही डिजिटल इण्डिया के नाम पर मज़दूरों की दिहाड़ी मोबाइलों में डाली जाती है। अब सवाल यह है कि मज़दूर अपना काम करें या फिर सिम कार्ड से अपने पैसे निकलवाने इधर-उधर भटकेगा। दूसरे मोदी सरकार के आने के बाद से मनरेगा में नये-नये बदलाव कर दिये गये हैं, जिनके बारे में मज़दूरों या यूनियन से बिना सलाह वेतन का भुगतान कार्यदिवस की जगह कार्य की पैमाइश के अनुसार किया जा रहा है। इस बदलाव से कई जगह ऐसा हुआ, जहाँ मज़दूरों ने 8 घण्टे काम किया, लेकिन पैमाइश के अनुसार उनको भुगतान 150 रुपये ही मिले, जबकि हरियाणा में मनरेगा मज़दूरी कार्यदिवस के अनुसार 281 रुपये है।
असल सरकारी दावों की बात करें तो मनरेगा क़ानून 2005 कहता है कि इसका मक़सद है ग्रामीण क्षेत्रों में छिपी बेरोज़गारी को कम करना। यानी क़ानून के तहत 1 वर्ष में एक परिवार के वयस्क सदस्यों को 100 दिन के रोज़गार की गारण्टी दी जायेगी। रोज़गार के पंजीकरण के 15 दिन के भीतर काम देने और काम ना देने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता देने की बात कही गयी है। मनरेगा के तहत न्यूनतम मज़दूरी भी अलग-अलग राज्यों के हिसाब से तय की गयी। हरियाणा में अभी फि़लहाल 281 रुपये तय की गयी है। साथ ही मनरेगा के बजट की रक़म भारी-भरकम होती है, जैसे 2017-18 में मनरेगा के लिए 48 हज़ार करोड़ दिये गये। लेकिन इसकी ज़्यादातर रक़म और योजना में ख़र्च कर दी जाती है, वैसे भी पूरे देश में मनरेगा के तहत साल में सिर्फ़ 46 दिन औसत काम मिलता है। काग़ज़ों पर ज़रूर ये योजना ग्रामीण मज़दूरों के लिए कल्याणकारी लगती है, लेकिन असल मक़सद है गाँव से आबादी का पालयन रोकना। क्योंकि खेती में लगातार मशीनीकरण के कारण गाँव की ग़रीब आबादी में तेज़ी से बेरोज़गारी फैल है, ऐसे में कोई भी सरकार शहरी बेरोज़गारों की संख्या में इससे ज़्यादा बढ़ोत्तरी सहन नहीं कर सकती। इसलिए ऐसी योजना से गाँव से आने वाले सम्भावित प्रवासी को अर्ध-भुखमरी (यानी सौ दिन के रोज़गार के साथ) की हालत में अभी कुछ और समय तक गाँव में ही रोके रखा जाये। ऐसे में गाँव-देहात की मज़दूर आबादी के बीच पूरे साल के पक्के रोज़गार के लिए संघर्ष की शुरुआत की जा सकती है।
मज़दूर बिगुल, जून 2018
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