शोषित-उत्पीड़ि‍त मानवता को मुक्ति की राह दिखाने वाली महान अक्टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी पर
अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की रचना के लिए – सजेंगे फिर नये लश्कर! मचेगा रण महाभीषण!

यूँ तो दुनिया लगातार अविराम गति से बनती-बदलती रहती है, पर इसकी गति सदा एकसमान नहीं रहती। इतिहास के कुछ ऐसे गतिरोध भरे कालखण्ड होते हैं, जब चन्द दिनों के काम शताब्दियों में पूरे होते हैं और फिर ऐसे दौर आते हैं जब शताब्दियों के काम चन्द दिनों में पूरे कर लिये जाते हैं। महान अक्टूबर क्रान्ति (नये कैलेण्डर के अनुसार 7 नवम्बर) का काल एक ऐसा ही समय था जब सर्वहारा वर्ग की जुझारू क्रान्तिकारी पार्टी के मार्ग-निर्देशन में रूस के मेहनतकश उठ खड़े हुए थे और सदियों पुरानी जड़ता और निरंकुशता की बेड़ियों को तोड़ दिया था। बग़ावत शुरू करने का संकेत देते हुए आधी रात को युद्धपोत अव्रोरा की तोपों ने जो गोले दागे, उनके धमाके मानो पूरी दुनिया में गूँज उठे और पूरी दुनिया में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक प्रचण्ड रणभेरी बन गये।

क्रान्ति के बाद रातोरात भूमि-सम्बन्धी आज्ञापत्र जारी करके ज़मीन पर ज़मींदारों का मालिकाना बिना मुआवज़े के ख़त्म कर दिया गया और ज़मीन इस्तेमाल के लिए किसानों को दे दी गयी, किसानों को लगान से मुक्त कर दिया गया और तमाम खनिज संसाधन, जंगल और जलाशय जनता की सम्पत्ति हो गये। सभी बड़े कारख़ाने राज्य की सम्पत्ति बन गये और तमाम विदेशी क़र्ज़े ज़ब्त कर लिये गये।

फ़रवरी 1917 में ज़ारशाही निरंकुशता के ध्वस्त होने के बाद बुर्जुआ वर्ग का जो गँठजोड़ सत्ता में आया था, उसने कल्पना भी नहीं की होगी कि सर्वहारा इतनी चमत्कारी पहलक़दमी दिखायेगा। उसे लेनिन के हाथों गढ़ी गयी शक्तिशाली और युयुत्सु पार्टी की ताक़त और तैयारी का अनुमान भी नहीं था। स्वयं पार्टी में भी कुछ लोग इस साहसिक क़दम के लिए तैयार नहीं थे और किसी-न-किसी बहाने इसे टालने की दलीलें दे रहे थे। लेकिन बोल्शेविक पार्टी और मज़दूर वर्ग ने लेनिन के इस आह्वान पर अमल किया कि क्रान्ति अभी इसी वक़्त, और अभी नहीं तो फिर कभी नहीं!

प्रतिक्रियावादी ताक़तों और क्रान्तिविरोधी ग़द्दारों की तमाम कोशिशों को कुचलते हुए बोल्शेविकों ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और रूस के विशाल प्रदेशों में क्रान्ति की विजययात्रा सुनिश्चित करने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। लेकिन पूँजी की ताक़तें इतनी जल्दी कहाँ हार मानने वाली थीं। मज़दूरों के राज को तहस-नहस करने के लिए जनरल देनिकिन, कोल्चाक और पेतल्यूरा को फ़ौज-फाटे से लैस करके भेजा गया। इधर-उधर बिखर गये श्वेत गार्डों के दस्ते और क्रान्ति-विरोधियों के विभिन्न गुटों ने जगह-जगह लड़ाई और मार-काट मचा रखी थी। इसी बीच अठारह देशों की सेनाओं ने एक साथ रूस पर हमला बोल दिया। ख़ूनी गृहयुद्ध का सिलसिला तीन साल तक तो प्रचण्ड रूप में चलता रहा, लेकिन उसके बाद भी काफ़ी समय तक जगह-जगह क्रान्तिविरोधी ताक़तें सिर उठाती रहीं। लेकिन बोल्शेविकों के नेतृत्व में अत्यन्त कुशलता से रणनीतिक पैंतरों का इस्तेमाल करते हुए समाजवादी सत्ता ने साम्राज्यवादियों और देशी प्रतिक्रियावादियों के हर षड्यन्त्र को शिकस्त दी।

दुनिया के इतिहास में पहली बार मार्क्सवाद की किताबों में लिखे सिद्धान्त ठोस सच्चाई बनकर ज़मीन पर उतरे। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का ख़ात्मा कर दिया गया। लेकिन विभिन्न रूपों में असमानताएँ अभी भी मौजूद थीं। जैसाकि लेनिन ने इंगित किया था, छोटे पैमाने के निजी उत्पादन से और निम्न पूँजीवादी परिवेश में लगातार पैदा होने वाले नये पूँजीवादी तत्त्वों से, समाज में अब भी मौजूद बुर्जुआ अधिकारों से, अपने खोये हुए स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूरा ज़ोर लगा रहे सत्ताच्युत शोषकों से और साम्राज्यवादी घेरेबन्दी और घुसपैठ के कारण पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा बना हुआ था। इन समस्याओं से जूझते हुए पहली सर्वहारा सत्ता को समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि से गुज़रते हुए कम्युनिज़्म की ओर यात्रा करनी थी। नवोदित समाजवादी सत्ता को फ़ासीवाद के ख़तरे का मुक़ाबला करते हुए समाजवादी संक्रमण के इन गहन-गम्भीर प्रश्नों से जूझना था। निश्चय ही इसमें कुछ ग़लतियाँ हुईं जिनमें मूल और मुख्य ग़लती यह थी कि समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की प्रकृति और उसके संचालन के तौर-तरीक़ों को समझ पाने में कुछ समय तक सोवियत संघ का नेतृत्व विफल रहा। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद को परास्त करने के बाद स्तालिन ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण क़दम उठाये। समाजवादी समाज में किस प्रकार अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन और विनिमय विभिन्न रूपों में जारी रहता है और माल उत्पादन की अर्थव्यवस्था मौजूद रहती है इसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया था और इन समस्याओं पर चिन्तन की शुरुआत कर चुके थे। लेकिन यह प्रक्रिया आगे बढ़ती इसके पहले ही स्तालिन की मृत्यु हो गयी।

चौथे-पाँचवें दशक के वैचारिक अवरोध और साम्राज्यवाद की सम्पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक-सामरिक शक्ति के विरुद्ध संघर्ष में पूरी पार्टी के सन्नद्ध रहने का लाभ उठाकर सोवियत संघ के भीतर जिन नये बुर्जुआ तत्त्वों ने राज्य, पार्टी और सामाजिक संरचना के भीतर अपने आधारों को पर्याप्त मज़बूत बना लिया था, वे स्तालिन की मृत्यु के बाद खुलकर सामने आ गये और सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना करने में कामयाब हो गये। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व समाजवादी मुखौटे वाले नये बुर्जुआ अधिनायकत्व में तब्दील हो गया। उत्पादन के साधनों पर समाजवादी स्वामित्व का वैधिक विभ्रम बना हुआ था, पर सारतः उन पर पार्टी और राज्य के नौकरशाहों का नियन्त्रण था जो मज़दूरों के शोषण से उगाहे गये अतिरिक्त मूल्य का इस्तेमाल अपनी अय्याशी और सोवियत संघ को एक सामाजिक साम्राज्यवादी देश में तब्दील कर देने के लिए करते थे।

यही वह नक़ली समाजवाद, यानी राजकीय पूँजीवादी तन्त्र था जो अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों के चलते नवें दशक में ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका से होते हुए विघटित हो गया। सोवियत संघ के विघटन के साथ ही पश्चिमी पूँजीवाद के तिकड़मों-षड्यन्त्रों और चौतरफ़ा कोशिशों के चलते पूर्वी यूरोप की भूतपूर्व समाजवादी व्यवस्थाएँ भी ढह गयीं और पश्चिमी पूँजी ने बिना देर किये इन सभी देशों को रौंद डाला।

आधुनिक विश्व इतिहास को गढ़ने में जिन दो क्रान्तियों ने सर्वाधिक मूलभूत भूमिका निभायी, वे थीं 1789 की फ़्रांसीसी क्रान्ति और 1917 की अक्टूबर क्रान्ति। पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच के विश्व ऐतिहासिक महासमर के पहले चक्र का पहला अहम मुक़ाम था 1871 का पेरिस कम्यून, जब पहली बार मज़दूरों ने अपना राज क़ायम किया। केवल 72 दिनों तक चले मज़दूरों के शासन ने समाजवाद की एक भावी तस्वीर पेश की। आने वाले मज़दूर राज का एक ट्रेलर पेश करके पेरिस कम्यून विलुप्त हो गया, पर वह इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ गया जो दुनिया के मज़दूरों और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को प्रेरित करती रही। कम्यून के सबक़ों के मार्क्स द्वारा किये समाहार को आगे बढ़ाते हुए लेनिन ने सर्वहारा वर्ग की संगठित और जुझारू क्रान्तिकारी पार्टी गढ़ने की अवधारणा और प्रणाली विकसित की, उसके नेतृत्व में सुविचारित और योजनाबद्ध ढंग से क्रान्ति करने का विज्ञान और सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत समाजवादी संक्रमण को आगे बढ़ाने के तरीक़े विकसित किये। समाजवाद की समस्याओं पर भी लेनिन ने सोचना शुरू कर दिया था। उसी कड़ी को बाद में माओ ने आगे बढ़ाया और पूँजीवादी पुनर्स्थापना रोकने का शास्त्र विकसित कर मार्क्सवादी विज्ञान को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

अक्टूबर क्रान्ति के बाद से इतिहास की गति निरन्तर तेज़ रही और दुनिया के पैमाने पर क्रान्ति की लहर हावी रही। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद नये साम्राज्यवादी चौधरी अमेरिका के नये नेतृत्व में दुनियाभर के साम्राज्यवादियों ने समाजवादी खेमे के विरुद्ध शीतयुद्ध छेड़ रखा था। ऐसे समय में जब सोवियत संघ में संशोधनवादी सत्ता का पतन हुआ तो पूँजीवाद को एक नयी ताक़त हासिल हो गयी। विश्व पैमाने पर वर्ग-शक्ति-सन्तुलन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय महज़ किसी एक देश में समाजवाद की हार नहीं थी। सोवियत संघ पूँजी के विरुद्ध विश्व ऐतिहासिक महासमर में सर्वहारा वर्ग की अग्रिम चौकी था। वहाँ नये बुर्जुआ वर्ग का सत्ता में आना मज़दूर वर्ग और पूरी दुनिया की मुक्तिकामी जनता के लिए एक भारी धक्का था। फिर भी हम ऐसा नहीं कह सकते कि ऐसा होते ही प्रतिक्रान्ति की लहर हावी हो गयी थी। सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद भी चीनी क्रान्ति दुनिया की जनता के लिए ऊर्जा और प्रेरणा का स्रोत बनी रही। पचास और साठ के दशक में राष्ट्रीय मुक्ति-युद्ध उफान पर थे और नवउपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष भी दुनिया के कई देशों में विजय के क़रीब थे। 1960 का दशक एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के अधिकांश देशों से उपनिवेशवाद के ख़ात्मे का साक्षी बना। हालाँकि साम्राज्यवाद शोषण के नये तौर-तरीक़े अपना रहा था। नवऔपनिवेशिक तरीक़े भी विफल होने के बाद आर्थिक ताक़त के बूते पर लूट की नयी तरकीबें उसने ईजाद कर ली थीं, फिर भी उपनिवेशों की समाप्ति दुनिया की जनता की एक बड़ी विजय थी।

1956 के बाद ख्रुश्चेव ने स्तालिन पर कीचड़ उछालते हुए शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व और शान्तिपूर्ण प्रतिस्पर्द्धा की संशोधनवादी गन्दी हवा बहाते हुए दुनियाभर में क्रान्तिकारी संघर्षों को भटकाने और कमज़ोर करने की मुहिम शुरू की जिसने दुनिया के पैमाने पर क्रान्ति की धारा को भारी नुक़सान पहुँचाया और क्रान्तिकारी क़तारों में विभ्रम और निराशा पैदा की। ऐसे में चीन की पार्टी ने जब महान बहस की शुरुआत की तो इसने दुनियाभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों में आशा का संचार किया। समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर लेनिन के चिन्तन की कड़ी को आगे बढ़ाते हुए और रूस में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अनुभवों का समाहार करते हुए माओ त्से-तुङ ने महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का दर्शन प्रस्तुत किया और उसे व्यवहार में उतारा। उन्होंने समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक प्रकृति पर ज़ोर देते हुए अधिरचना में क्रान्ति और सतत क्रान्ति जारी रखने की ज़रूरत बतायी, सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष और चौकसी पर ज़ोर दिया। पूरी दुनिया में संशोधनवाद के साथ संघर्षों को इससे दिशा मिली। हर जगह संशोधनवादी पार्टियों से अलग मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियाँ संगठित होने लगीं। लेकिन 1976 में माओ के निधन के बाद चीन में भी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी। यह कोई विडम्बना या समझ में न आने वाली बात नहीं थी। चीन एक पिछड़ा देश था और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की समझ बनने तक वहाँ पूँजीवादी तत्त्व अपनेआप को काफ़ी मज़बूत कर चुके थे।

पिछली शताब्दी के छठे दशक से लेकर 1976 में माओ के निधन तक क्रान्ति की धारा और प्रतिक्रान्ति की धारा एक-दूसरे से लगातार जूझती-टकराती रहीं। दुनिया के पैमाने पर ये एक-दूसरे से गुँथी-बुनी-सी चलती रहीं, कभी क्रान्ति की धारा हावी होती थी तो कभी प्रतिक्रान्ति की। लेकिन 1976 के बाद प्रतिक्रान्ति की धारा हावी होने लगी। चीन के बाद अल्बानिया में भी समाजवादी सत्ता का पतन हो गया। जो लोग अब भी सोवियत संघ के समाजवादी होने का भ्रम पाले हुए थे, उन्हें ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका तक समझ में आने लगा था कि यह समाजवाद नहीं है। लेकिन सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों की भूतपूर्व समाजवादी व्यवस्थाओं के पतन के बाद दुनिया की मेहनतकश जनता के बहुत बड़े हिस्से में गहरी निराशा छा गयी।

विश्व स्तर पर श्रम और पूँजी के विश्व ऐतिहासिक महासमर का पहला चक्र माओ के निधन के बाद चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के साथ समाप्त हो गया। इस प्रथम चक्र के अन्त में विश्व की जनता एक बार फिर वहाँ खड़ी थी, जहाँ विश्व सर्वहारा के पास अपने मुक्त क्षेत्र के आधार इलाक़़े के रूप में कोई भी समाजवादी राज्य नहीं रह गया। उसके पास मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ जैसा कोई मान्य अन्तरराष्ट्रीय नेता या मार्क्स-लेनिन- माओ की पार्टियों जैसी संघर्षों की आग में तपी-मँजी कोई अनुभवी पार्टी भी नहीं रही। सामयिक तौर पर यह पराजय और विपयर्य का दौर है, जब प्रतिक्रिया का अन्धकार-सा छाया हुआ है। साम्राज्यवाद आक्रामक है और पूँजी की ताक़तें पूरी दुनिया में तमाम सीमाओं को रौंदते हुए फैल रही हैं। इस दौर की तरह-तरह से व्याख्याएँ की जा रही हैं। कोई एकध्रुवीय विश्व के रूप में इसकी व्याख्या कर रहा है तो कोई अधिसाम्राज्य की बातें कर रहा है। जैसेकि साम्राज्यवाद के वर्चस्व को कोई प्रभावी चुनौती ही नहीं मिल रही है। साम्राज्यवाद की दिखायी पड़ने वाली शक्तिमत्ता के पीछे की सच्चाई तो यह है कि पूँजीवाद के बुनियादी अन्तरविरोध और भी तीखे होते जा रहे हैं। साम्राज्यवादियों के आपसी अन्तरविरोध और उनकी गलाकाटू होड़ लगातार जारी है और अब और भी तीखी होती जा रही है। नयी धुरियाँ और नये समीकरण बन रहे हैं। दूसरी ओर जनता के संघर्ष भी यहाँ-वहाँ जारी हैं। बेशक यह क्रान्ति की शक्तियों के बिखराव का दौर है। क्रान्ति की लहर पर आज प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है। लेकिन जैसाकि हम पहले कह चुके हैं, परिवर्तन का सिलसिला लगातार जारी रहता है। गतिरोध के दौर में भी प्रगति पूरी तरह कभी रुकती नहीं। जब इतिहास के चक्र को कुछ समय के लिए उल्टा घुमा दिया जाता है, तब भी इतिहास निर्मात्रा शक्तियाँ इतिहास के गर्भ में पलती रहती हैं। वर्ग-संघर्ष कभी रुकता नहीं है। आज भी नहीं रुका है। दुनिया के कोने-कोने में जनता लड़ रही है। क्रान्ति की शक्तियाँ बिखरी ज़रूर हैं पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ है। ब्राज़ील के भूमिहीन मज़दूरों का आन्दोलन, मेक्सिको में जपाटिस्टा का आन्दोलन हो या विकसित देशों के मज़दूरों के बार-बार फूट पड़ने वाले उग्र प्रदर्शन हों, सर्वहारा लगातार पूँजी के हमलों का प्रतिरोध कर रहा है। नेपाल में अनेक समस्याओं के बावजूद जनता का क्रान्तिकारी संघर्ष जारी है। भारत ही नहीं दुनिया के हर देश में शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो, जब मेहनतकश जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष में न उतरती हो। समाजवाद की पराजय का लगातार ढिंढोरा पीटने के बावजूद पूँजीपति वर्ग लगातार क्रान्तियों के भय से आक्रान्त है और बुर्जुआ मीडिया निरन्तर समाजवाद और उसके नेताओं के खि़लाफ़ झूठे दुष्प्रचार में लगा रहता है। यह तो निर्विवाद है कि समाजवादी क्रान्ति का परचम आज भी धूल में लिथड़ा नहीं है।

मज़दूर वर्ग को आज यह समझाने की ज़रूरत है कि कुछ क्रान्तियों की पराजय और कुछ सामाजिक प्रयोगों की विफलता विचारधारा की निर्णायक विफलता नहीं है। आज की पूँजीवादी दुनिया में जिस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन वित्तीय पूँजी के सागर में बुलबुले के समान रह गया है, लूट के बँटवारे के लिए लुटेरे आपस में लड़ रहे हैं, यह सब मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को सच्चा साबित कर रहा है। तो फिर, क्रान्ति के बारे में भी मार्क्सवाद ने जो कहा है वह भी सही है। इतिहास में सामाजिक क्रान्तियों के प्रारम्भिक संस्करण प्रायः विफल होते रहे हैं। पूँजीवाद ने तीन सौ वर्ष लम्बे संघर्ष और कई-कई पराजय के बाद सामन्तवाद को निर्णायक रूप से परास्त किया था। सर्वहारा क्रान्ति तो केवल तीन सौ वर्ष पुराने पूँजीवाद के विरुद्ध नहीं पाँच हज़ार वर्ष पुराने पूरे वर्ग-समाज के विरुद्ध क्रान्ति है, निजी सम्पत्ति की समूची व्यवस्था, मूल्यों-मान्यताओं-संस्कारों के विरुद्ध इतिहास की सबसे आमूल परिवर्तनवादी क्रान्ति है। यह इतिहास की पहली सचेतन क्रान्ति है। हर प्रकार की वर्गीय सत्ता और वर्गीय संस्थाओं का समूल उच्छेदन करने वाली क्रान्ति है जिसके लिए समस्त समष्टिगत शक्ति के व्यापकतम-सूक्ष्मतम और जटिलतम प्रयोग की आवश्यकता होती है। यह ऐतिहासिक मिशन केवल वही वर्ग पूरा कर सकता है जिसके पास खोने के लिए सिर्फ़ अपनी बेड़ियाँ हैं और पाने के लिए सारा विश्व है। केवल सर्वहारा वर्ग ही इस क्रान्ति को अंजाम दे सकता है।

1917 को तो अभी सिर्फ़ 100 साल बीते हैं। 1976 को सिर्फ़ तीस साल ही तो हुए हैं। फिर, मायूसी कैसी? ये समस्याएँ हमारे लिए सोचने का सबब हैं, चिन्तन और चिन्ता का सबब हैं, पर निराशा के सागर में डूबने-उतराने का सबब ये क़तई नहीं हो सकतीं।

आज हमारे सामने प्रश्न अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों के निर्माण का है। इतिहास कभी भी अपनेआप को हूबहू नहीं दोहराता है, या यूँ कहें कि क्रान्तियों की कार्बन कॉपी नहीं की जा सकती। वर्तमान अतीत से सीखकर भविष्य का निर्माण करता है, अतीत के साँचे में भविष्य को नहीं ढाला जा सकता है। इतिहास में प्रायः ऐसा होता रहा है कि महान क्रान्तियों का आलोचनात्मक विवेक के साथ अध्ययन करने के बजाय प्रायः उनके नारों, मार्ग और मॉडल का अनुकरण करने की कोशिश की जाती है। पर ऐसा करके अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण की सर्जना क़तई नहीं की जा सकती। हमारा पहला काम है कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति के लम्बे इतिहास के चार मील के पत्थरों – पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति, चीनी क्रान्ति और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति – का गहन अध्ययन करें। ख़ासकर आखि़री मुक़ाम, 1966-76 तक चीन में माओ के नेतृत्व में पूँजीवादी पुनर्स्थापना रोकने के लिए किये गये शानदार प्रयोगों और मार्क्सवादी विज्ञान में किये गये इज़ाफ़े का अध्ययन करें। इस मुक़ाम ने सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान को जो सर्वतोमुखी समृद्धि प्रदान की, उसे आत्मसात करें और इस विचारधारात्मक सम्पदा के आधार पर आज की दुनिया को जानने-समझने की कोशिश करें। हमें अतीत की क्रान्तियों से मार्गदर्शक सिद्धान्तों के रूप में विचारधारात्मक सारतत्त्व को लेना है। उन क्रान्तियों की रणनीति, आम रणकौशल, क्रान्ति के मार्ग, प्रचार और उद्वेलन के नारों आदि-आदि से हम टुकड़ों में कुछ सीख सकते हैं, कुछ आइडिया ले सकते हैं, लेकिन उन्हें हूबहू उधार नहीं ले सकते। परिस्थितियों को सिद्धान्त के खाँचे में फिट नहीं किया जा सकता, बल्कि परिस्थितियों का अध्ययन करके सिद्धान्त का निर्माण किया जाता है।

लेनिन के समय से ही नहीं, माओ के जीवनकाल से भी आज की दुनिया काफ़ी कुछ बदल चुकी है। यह सही है कि हम आज भी साम्राज्यवाद के युग में जी रहे हैं, लेकिन दुनिया की परिस्थितियों में काफ़ी बदलाव आये हैं। राष्ट्रीय प्रश्न आज लगभग समाप्त हो चुका है। तीसरी दुनिया के भी अधिकांश देशों में पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा आज जनमुक्ति-संघर्ष का भागीदार नहीं हो सकता। तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में शासक पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझीदार है। वह साम्राज्यवाद से लड़ता-झगड़ता भी है तो जनता की लूट में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए। तीसरी दुनिया के लगभग सभी देशों में पूँजी और श्रम के बीच का अन्तरविरोध आज का प्रधान अन्तरविरोध बन चुका है। लेनिन के समय में वित्तीय पूँजी के निर्यात के तौर-तरीक़ों से काफ़ी हद तक भिन्न और नये रूपों में भी आज पूँजी का निर्यात हो रहा है। राष्ट्रपारीय निगमों का ज़बरदस्त विस्तार हुआ है और उनकी प्रकृति और कार्य-प्रणाली में भी काफ़ी बदलाव आया है। वित्तीय पूँजी के निर्यात के नये-नये तौर-तरीक़े विकसित हुए हैं, जिसने राष्ट्र-राज्यों की भूमिका में महत्त्वपूर्ण बदलाव किये हैं। यह तो तय है कि राष्ट्र-राज्यों की भूमिका पूँजीवाद के रहते बनी रहेगी, लेकिन इसमें आज काफ़ी बदलाव आये हैं।

विश्व पूँजीवादी तन्त्र के सारतत्त्व और स्वरूप, दोनों में काफ़ी परिवर्तन आये हैं। उत्पादक और अनुत्पादक पूँजी का अनुपात आज एक के मुक़ाबले तीन से भी अधिक हो चुका है। सर्वहारा वर्ग की संगठनबद्धता की चेतना को उन्नत तकनोलॉजी और सोची-समझी राजनीतिक रणनीति के तहत शासक वर्ग पूरी दुनिया में खण्ड-खण्ड बाँटने की कोशिश में लगा हुआ है। एक हद तक उसे इसमें सफलता भी मिली है। बड़े कारख़ानों में होने वाले कामों को छोटे-छोटे कारख़ानों में बिखरा देने, उत्पादन को छोटी-छोटी घरेलू इकाइयों तक में बाँट देने से लेकर एक ही माल के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग देशों तक में बनाने जैसे तरीक़े अपनाकर सर्वहारा वर्ग को बड़े पैमाने पर एकजुट होने से रोकने की नयी-नयी तरक़ीबें निकाली जा रही हैं। इन सबने सर्वहारा वर्ग में कमज़ोर और बिखरे होने का अहसास एक हद तक पैदा किया है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। उत्पादन को दुनियाभर में इस प्रकार बाँट देने से एक नयी परिघटना सामने आयी है, बुद्धिजीवी लोग जिसे ‘ग्लोबल असेम्बली लाइन’ का नाम देते हैं, जिसने सर्वहारा की वैश्विक एकजुटता का एक नया आधार मुहैया कराया है।

इन तमाम परिस्थितियों को समझकर ही अक्टूबर क्रान्ति के उस नये संस्करण की सर्जना की जा सकती है जो विश्व पूँजीवाद और सर्वहारा वर्ग के बीच विश्व ऐतिहासिक महासमर के दूसरे चक्र का पहला मील का पत्थर बनेगा।

दुनिया की परिस्थितियों में आये इन सारे बदलावों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आज नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल एकाध अपवादों को छोड़कर दुनिया में कहीं नहीं रह गयी है। लेकिन आज भी कुछ लोग माओ के अवदानों को सही ढंग से अपनाने की जगह उनसे नवजनवादी क्रान्ति का मॉडल उधार लेकर लागू करने की कोशिश में लगे हुए हैं। ये विचारधारा और कार्यक्रम का अन्तर ही नहीं समझते। नयी परिस्थितियों का अध्ययन कर अपनी रणनीति बदलने के बजाय ये लोग पुराने जूते में फिट करने के लिए पैर को ही काटने में जुटे हुए हैं।

तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल तो आज नहीं रह गयी है, लेकिन यहाँ आज समाजवादी क्रान्ति भी वही नहीं होगी जिसकी बात मार्क्स ने की थी या जो रूस में सम्पन्न हुई थी। रूस की अक्टूबर क्रान्ति विशेष परिस्थितियों में सफल हुई थी। रूस पूरब और पश्चिम के पुल पर था, रूस जैसे देश ज़्यादा नहीं थे। वहाँ जो क्रान्ति हुई वह उस समय केवल रूस में ही सम्भव थी। वह समाजवादी क्रान्ति थी, लेकिन उसे आसन्न बुर्जुआ क्रान्ति के कार्यभारों को भी पूरा करना था। इसके अलावा, रूसी बुर्जुआ वर्ग इस क्रान्ति के प्रति सावधान नहीं था। 1905-07 की क्रान्ति के बुरी तरह कुचल दिये जाने के बाद वह ज़ारशाही के पतन की बात तो सोचता था और फ़रवरी 1917 में मुख्यतः मेहनतकशों की ताक़त के बल पर उसने राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा भी जमा लिया था, लेकिन उसे क़तई यह अनुमान नहीं था कि कुछ ही महीनों के बाद बोल्शेविक वहाँ सत्ता पर क़ब्ज़ा भी कर सकते हैं। प्रमुख साम्राज्यवादी देशों के आपसी युद्ध में उलझे होने का लाभ भी सोवियत क्रान्ति को मिला। इस रूप में अक्टूबर क्रान्ति विशिष्ट परिस्थितियों में हुई एक विशिष्ट क्रान्ति थी।

आज ख़ासकर तीसरी दुनिया के उन देशों में एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति की परिस्थितियाँ पैदा हुई हैं, जिनकी उत्पादक शक्तियाँ अपेक्षाकृत अधिक उन्नत हैं। बुनियादी उद्योग काफ़ी विकसित हो चुके हैं और कृषि अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ है। इन देशों में भारत भी है। ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, मेक्सिको, चीले, मिस्र, इण्डोनेशिया, मलेशिया, दक्षिण अफ़्रीका जैसे देश इनमें अग्रिम पंक्ति में हैं। इन देशों में होने वाली साम्राज्यवाद विरोधी-पूँजीवाद विरोधी क्रान्तियाँ उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में यूरोप के देशों में सम्भावित क्रान्तियों से भी भिन्न होंगी।

भारत जैसे देश का उदाहरण लें, जहाँ आज सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी अस्सी करोड़ से भी अधिक हो चुकी है। आज भी हमारे देश में आबादी का लगभग साठ प्रतिशत गाँवों में बसता है, लेकिन गाँवों में भी पूँजीवादी उपक्रमों का तेज़ी से फैलाव हो रहा है और खेती मुख्यतः पूँजीवादी खेती बन चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे-छोटे उद्योगों के अलावा एग्री-बिज़नेस का तेज़ी से प्रसार हो रहा है, जिनमें ग्रामीण सर्वहारा की बड़ी आबादी लगी है। भारत के देहात में पूँजी का फैलाव रूस में क्रान्ति के समय से कई गुना अधिक हो चुका है। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर प्रवर्जन और किसानों के विभेदीकरण की रफ़्तार बेहद तेज़ है। शहरीकरण अभूतपूर्व गति से बढ़ रहा है। बड़े शहरों के इर्द-गिर्द औद्योगिक बस्तियों के फैलाव के अलावा छोटे शहरों के बड़े शहर बनने और क़स्बों तथा ग्रामीण बाज़ारों के शहर बनने की प्रक्रिया लगातार जारी है। देश के तटवर्ती इलाक़ों और कच्चे माल से समृद्ध इलाक़ों में नये औद्योगिक नगर उग आये हैं। आज से दो दशक आगे के भारत की कल्पना करें तो तस्वीर एकदम अलग दिखायी देती है। ब्राज़ील सहित लातिन अमेरिका के कई देशों में तो आधी से अधिक आबादी शहरी हो चुकी है। औद्योगिक अर्थव्यवस्था से ग्रामीण अर्थव्यवस्था बहुत पीछे छूट चुकी है। अक्टूबर क्रान्ति में हिस्सा लेने वाले सर्वहारा वर्ग की संख्या से कई गुना अधिक सर्वहारा आज इन देशों में क्रान्ति की क़तारों में शामिल होने के लिए मौजूद हैं। शहरी और ग्रामीण सर्वहारा, छोटे-मोटे रोज़गार करने वाले अर्द्धसर्वहाराओं की भारी आबादी और ग़रीब किसान आबादी आज इन देशों की बहुसंख्यक आबादी बन चुकी है।

किसान प्रश्न आज भी उपस्थित है। क्रान्ति की कोतल सेना (रिज़र्व आर्मी) आज भी किसान ही होंगे, लेकिन आज केवल निम्न-मध्यम किसान तक ही क्रान्ति के साथ खड़े हो सकते हैं। ख़ुशहाल मध्यम किसान तक आज समाजवाद के नारे के पक्ष में नहीं खड़े होने वाले। यह कहा जा सकता है कि कृषि प्रश्न के समाधान का फ़्रेमवर्क अब अल्पकालिक अवधि के लिए भी बुर्जुआ जनवादी नहीं हो सकता। उसका समाधान केवल समाजवादी क्रान्ति के फ़्रेमवर्क में ही हो सकता है। तीसरी दुनिया के शासक वर्ग साम्राज्यवाद के साथ लूट के माल में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दबाव डालने के लिए सौदेबाज़ी में पलड़ा अपनी ओर झुकाने के लिए जनता के आन्दोलनों को बटखरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति का नारा देने वाले लोग आज ऐसे ही बटखरे के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, क्योंकि पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा साम्राज्यवाद-विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष का आज भागीदार नहीं हो सकता। देशी पूँजी की सत्ता के विरुद्ध लड़ते हुए ही आज साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ा जा सकता है। आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के अनेक धड़े, जो लाभकारी मूल्यों के लिए और लागत मूल्यों में कमी के लिए धनी किसानों और ख़ुशहाल मध्यम किसानों के आन्दोलनों में अपनी ताक़त लगा रहे हैं, वे भी ऐसे ही बटखरों का काम कर रहे हैं।

यह नयी समाजवादी क्रान्तियों का दौर है

आज की नयी क्रान्तियों का मार्ग भी पहले की क्रान्तियों से भिन्न होगा। यह दीर्घकालिक लोकयुद्ध जैसा तो नहीं ही हो सकता, लेकिन यह अक्टूबर क्रान्ति जैसा भी नहीं हो सकता है। बुर्जुआ सत्ता ने न केवल देश के सुदूर इलाक़ों तक अपने सामाजिक आधारों का विस्तार किया है बल्कि उसकी सामरिक शक्ति, तकनीक और रणकौशल भी बहुत अधिक विकसित हो चुके हैं। पूरे देश को प्रशासनिक तन्त्रा और यातायात- संचार के साधनों से बाँध दिया गया है। नाना प्रकार की वित्तीय-व्यापारिक संस्थाओं के ज़रिये पूँजी की जकड़बन्दी से देश का शायद ही कोई हिस्सा अछूता रह गया है। लेनिनकालीन देशों के मुक़ाबले आज की पूँजीवादी सत्ता ने गाँवों में अपने सामाजिक अवलम्बों का अत्यन्त योजनाबद्ध ढंग से विस्तार किया है। मज़दूरों के बीच से एक कुलीन संस्तर तीसरी दुनिया के अपेक्षाकृत उन्नत देशों में भी विकसित हुआ है। हालाँकि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने इसके एक हिस्से पर चोट की है, लेकिन एक बड़ा हिस्सा अभी भी मज़दूर वर्ग के ग़द्दारों के सामाजिक आधार का काम कर रहा है। मध्यवर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से को ग़रीब जनता से लूटे गये मुनाफ़े के टुकड़े बाँटकर व्यवस्था का पैरोकार बना लिया गया है। शहरी मध्यवर्गीय आबादी का भी एक बड़ा हिस्सा आज पूरी तरह इस व्यवस्था के पक्ष में खड़ा है।

आज भी किसी बुर्जुआ सत्ता को आम बग़ावत के ज़रिये ही चकनाचूर किया जा सकता है, लेकिन उस निर्णायक मुक़ाम तक पहुँचने की प्रक्रिया दीर्घकालिक होगी। पूँजी और श्रम के बीच मोर्चा बाँधकर लड़ाई (पोजीशनल वार) का लम्बा सिलसिला चलेगा जिसमें कई बार सर्वहारा की ताक़तों को आगे बढ़कर पीछे हटना पड़ सकता है। उन्हें विभिन्न रचनात्मक तरीक़ों से समाज में अपनी जड़ें गहरे जमानी होंगी। नेपाल जैसी क्रान्ति आज एक अपवाद है। यह वस्तुतः बीसवीं सदी की क्रान्ति है, विश्व सर्वहारा क्रान्ति का बैकलॉग है। यह इक्कीसवीं सदी की पथप्रदर्शक क्रान्ति नहीं हो सकती। इन्हीं भिन्नताओं के आधार पर आज हम कहते हैं कि यह एक नया दौर है। नयी समाजवादी क्रान्तियों का दौर है। ये क्रान्तियाँ विचारधारा, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाजवादी संक्रमण की प्रकृति विषयक चिन्तन, पार्टी सिद्धान्त जैसे सभी पक्षों को समृद्ध करते हुए आगे विकसित होंगी। ये क्रान्ति के विज्ञान को और समृद्ध बनायेंगी, क्रान्ति के शस्त्रागार में नये इज़ाफ़े करेंगी। मार्क्सवाद कोई जड़सूत्र नहीं बल्कि कर्मों का मार्गदर्शक विज्ञान है। उन्नत धरातल का व्यवहार सिद्धान्त को भी उन्नति की अगली ऊँचाइयों पर ले जायेगा।

एक नये सर्वहारा नवजागरण और नये सर्वहारा प्रबोधन  के कार्यभारों को पूरा करना होगा

आज पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता के सामने विचारधारा और इतिहासबोध का प्रश्न एक अहम प्रश्न है। बुर्जुआ मीडिया का प्रचारतन्त्र दिनोरात समाजवाद के बारे में झूठ का अम्बार खड़ा करने में जुटा हुआ है। हमारे महानायकों के बारे में घिनौना कुत्सा-प्रचार लगातार जारी रहता है। 1976 के बाद के दिनों में सयानी हुई नयी पीढ़ियों को सर्वहारा क्रान्तियों के गौरवशाली अतीत, क्रान्तिकारियों के विराट व्यक्तित्व और कुर्बानियों और समाजवाद की महान उपलब्धियों के बारे में बहुत कम जानकारी है। ऐसे में आज के क्रान्तिकारियों के सामने यह एक अहम कार्यभार है कि मेहनतकश जनता को और ख़ासकर युवा आबादी को महान क्रान्तिकारी इतिहास और उपलब्धियों से परिचित कराया जाये। मेहनतकश जनता के युवा सपूतों को पहले तो यही बताना होगा कि मार्क्सवाद के सिद्धान्त कहते क्या हैं। उन्हें यह बताना होगा कि उनके पूर्वजों ने किस तरह इन सिद्धान्तों के मार्गदर्शन में महान सामाजिक प्रयोगों को अमल में उतारा और विज्ञान को नयी समृद्धि दी। उन्हें समाजवाद के दौर में हुई अभूतपूर्व प्रगति के बारे में बताने की ज़रूरत है जिसे देखकर पूँजीवादी दुनिया को दाँतों तले उँगली दबानी पड़ गयी थी। कुछ ही वर्षों में समाजवाद ने आम जनता को अभावों और अपमान की बेड़ियों से आज़ाद कर जीवन की तमाम बुनियादी ज़रूरतें उपलब्ध करा दी थीं। समाजवाद ने जनता को केवल भौतिक ही नहीं, बल्कि वह सांस्कृतिक और आत्मिक सम्पदा भी प्रदान की जिससे शोषक वर्गों ने उसे वंचित कर रखा था। उन्हें बताना होगा कि जब जनता की सर्जनात्मकता निर्बन्ध हुई तो उसने कैसे चमत्कार कर दिखाये। मानवता के इतिहास में पहली बार स्त्रियाँ चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी से आज़ाद हुईं और एक नये समाज के निर्माण के लिए पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलीं। समाजवाद की शानदार और महान उपलब्धियों के ठोस आँकड़े मौजूद हैं, जिन्हें ख़ुद बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों, इतिहासकारों और राजनेताओं ने स्वीकारा है। लेकिन आज इन सबको झूठ के पर्दे के पीछे धकेल दिया गया है। उन ऐतिहासिक घटनाओं, बलिदानों और उपलब्धियों को भुलाया जा चुका है। इनके प्रभाव में अनेक वामपन्थी बुद्धिजीवी तक बीसवीं सदी को विफलता की सदी कहते हुए मिल जायेंगे। हमें अपने इस गौरवशाली अतीत की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों उपलब्धियों को लोगों के सामने लाना होगा।

इसीलिए आज हम नये सर्वहारा नवजागरण की बात करते हैं। इसका अर्थ अतीत को दोहराना नहीं है, लेकिन अतीत को जाने बिना आगे बढ़ना भी मुश्किल है। आज सर्वहारा वर्ग की हरावल शक्तियों के सामने यह एक अहम कार्यभार है। आज दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो सर्वहारा क्रान्ति का आधारक्षेत्र हो, जिसकी ओर दुनिया की जनता दिशा और प्रेरणा के लिए देख सकती हो। आज मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ जैसा कोई सर्वमान्य अन्तरराष्ट्रीय नेता नहीं है। क्रान्ति की शक्तियाँ बेहद बिखरी हुई और कमज़ोर हैं। ऐसे में यह काम बेहद कठिन है। लेकिन इसकी क़तई अनदेखी नहीं की जा सकती। इसीलिए हम पुरज़ोर ऊँची आवाज़ में नये सर्वहारा नवजागरण का नारा बुलन्द करते हैं। लेकिन जैसाकि हम पहले भी कह चुके हैं, भावी क्रान्तियाँ हूबहू अतीत की क्रान्तियों के नक़्शे-क़दम पर नहीं चलतीं। केवल विगत सर्वहारा क्रान्तियों की उपलब्धियों से परिचित होनेमात्र से ही हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। हमें अतीत की क्रान्तियों से काफ़ी कुछ लेना होगा। साथ ही, आज की परिस्थितियों का अध्ययन करके नये नतीजे निकालने होंगे और नयी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करने होंगे। यह प्रक्रिया गहन सामाजिक प्रयोग, उनके सैद्धान्तिक समाहार, वाद-विवाद, विचार-विमर्श और फिर नयी क्रान्तियों की प्रकृति, स्वरूप एवं रास्ते से मुक्तिकामी जनता को परिचित कराने की सुदीर्घ प्रक्रिया होगी। इस पहलू के मद्देनज़र हम नये सर्वहारा प्रबोधन की बात करते हैं। आज पूरी दुनिया के मूलाधार और अधिरचना में आये व्यापक परिवर्तनों का हमें अध्ययन करना होगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि अध्ययन की यह प्रक्रिया सामाजिक प्रयोगों और सघन वाद-विवाद के ज़रिये तथा प्रयोगों से निगमित निष्कर्षों के आधार पर आम जनता के बीच व्यापक राजनीतिक प्रचार और फिर नये सामाजिक प्रयोगों की प्रक्रिया के साथ ही चल सकती है। इस पहलू को हम एक नये सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभार के रूप में रेखांकित करते हैं। थोड़े में इन दोनों को मिलाकर कहें तो, क्रान्तियों के इतिहास से आवश्यक सबक़ लेना तथा आज की दुनिया की नयी परिस्थितियों के आधार पर अपने सिद्धान्तों एवं व्यवहार को आगे विस्तार देना। यही नये सर्वहारा नवजागरण और प्रबोधन का ऐतिहासिक सारतत्त्व है। ज़ाहिरा तौर पर, इसका एक पहलू विचारधारा से जुड़ेगा, एक पहलू राजनीतिक अर्थशास्त्र से जुड़ा होगा, एक पहलू कला-साहित्य-संस्कृति की सैद्धान्तिकी से सम्बन्ध रखेगा, एक पहलू समाजवादी संक्रमण की प्रकृति की समझ से जुड़ा होगा और एक पहलू आज की नयी लेनिनवादी पार्टी की अवधारणा को समृद्धि प्रदान करेगा।

तीसरी दुनिया के जिन देशों में आज नयी समाजवादी क्रान्ति की ज़मीन पक रही है, उनमें भारत प्रातिनिधिक स्थिति में है। लेकिन आज यहाँ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर लगभग विघटित हो चुका है। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के भीतर बोल्शेविज़्म के उसूल मुख्यतः क्षरित हो चुके हैं। पुराने संशोधनवादी भाकपा, माकपा, भाकपा (माले-लिबरेशन) तो पहले से ही नंगे हो चुके हैं, पर सबसे घातक संशोधनवादी तो वे हैं जो माओ विचारधारा या माओवाद और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की बातें करते हुए अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद कर रहे हैं, बोल्शेविज़्म के नाम पर मेंशेविक पार्टी-ढाँचा चला रहे हैं। एक ओर पुरानी नवजनवादी क्रान्ति की सलीब को ढोते हुए नामधारी मार्क्सवादी रह गये संगठन हैं जो धनी किसानों और कुलकों की माँगों पर आन्दोलन करते हुए वस्तुतः नरोदवादी बन चुके हैं। दूसरी ओर “वामपन्थी” जुनून में काम करने वाले संगठन हैं जो कार्यक्रम के धरातल पर नरोदवादी आचरण करते हुए विचारधारा के स्तर पर घनघोर “वामपन्थी” दुस्साहसवाद के शिकार हैं। ये मार्क्सवादी विज्ञान से कोसों दूर हैं और अपनी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद अपनी जुनूनी हरकतों से मज़दूर वर्ग के लक्ष्य को नुक़सान ही पहुँचा रहे हैं। यही है आज विघटित हो चुके कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर की तस्वीर। शिविर का जो विघटन छत्तीस वर्ष पहले शुरू हुआ था, एकता की तमाम गुहारों और कोशिशों के बावजूद आज लगभग पूरा हो चुका है। मूल बात यह है कि अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों की संरचना ही बोल्शेविक नहीं रह गयी है तो फिर इन्हें मिलाने से कोई अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी भला कैसे बन सकती है।

इसीलिए आज नयी बोल्शेविक भर्ती और ट्रेनिंग का काम बेहद अहम बन गया है। पार्टी निर्माण और पार्टी गठन के दो द्वन्द्वात्मक पहलुओं में आज निर्माण का पहलू प्रधान है। नये बोल्शेविक तत्त्वों की भर्ती और तैयारी किये बिना अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी नहीं खड़ी की जा सकती। इस पहलू को एक नये सर्वहारा नवजागरण और नये सर्वहारा प्रबोधन के पहलू से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जब हम नये बोल्शेविक तत्त्वों की भर्ती की बात करते हैं तो पुरानी क़तारों की अनदेखी की बात नहीं होती है। जब  आम राजनीतिक प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई पर बल देने की बात होती है तो उसका यह मतलब नहीं कि रोज़मर्रा के राजनीतिक संघर्षों और मेहनतकश अवाम के बीच की जाने वाली जनकार्रवाइयों को तिलांजलि दे दी जाये।

आज अक्टूबर क्रान्ति की शिक्षाएँ हमें याद दिलाती हैं कि लेनिन के समय की तरह से आज भी हमें वाम और दक्षिण अवसरवाद के प्रेतों से जूझते हुए, अडिग होकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ना होगा।

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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