बिना जमानत के जेल
भोंडसी जेल का एक दौरा जहाँ मारूति के 147 मज़दूर बिना अपराध सिद्धि के दो साल से कै़द हैं।
उच्च न्यायालय द्वारा मज़दूरों को जमानत देने से इंकार करना भी यह इंगित करता है कि उनकी किस्मत राज्य में विदेशी औद्योगिक निवेश को आकर्षित करने की लालसा से नत्थी हो गई है।
पत्रकार नेहा दीक्षित की रिपोर्ट
अनुवाद – आनन्द सिंह
गुड़गाँव का भोंडसी कारागार गृह आगन्तुकों के लिए मंगलवार और बृहस्पतिवार को सुबह 8 बजे से लेकर दोपहर तक उन बन्दियों से मिलने के लिए खुला रहता है जिनके नाम ‘S’ और ‘R’ से शुरू होते हैं। सुषमा का पति सोहन और 146 अन्य मारूति सुजुकी के मज़दूर बिना किसी अपराध सिद्धि के पिछले दो सालों से भोंडसी जेल में कै़द हैं।
जब हम जेल की आरे जा रहे थे तो कार में सुषमा मेरे बगल में बैठी थी। उसकी आँखें सूजी हुई थीं और उसकी नींद नहीं पूरी हुई थी। पिछली रात वह सो नहीं पायी थी क्योंकि उसके पड़ोसी ने खु़दकुशी कर ली थी। पड़ोसी जो एक केबल फैक्टरी में काम करता था, उसका उसके कार्यस्थल पर झगड़ा हो गया था। वह घर लौटा, उसने गांव में अपनी पत्नी को फोन करके कहा कि वह उसकी मौत के बाद वह दूसरी शादी कर ले। जब तक उसकी पत्नी उसके पड़ोसियों को फोन करती तक तक वह फाँसी लगाकर अपनी जान दे चुका था।
सुषमा बोली, ”एक औरत के लिए अकेले रहना कितना मुश्किल है”। उसने ऑफिस जाने के हिसाब से कपड़े पहने थे: साफ़-सुथरी सलवार-कमीज़, कसकर बँधे हुए बाल, हाथों में काले रंग का बड़ा सा बैग और एक छोटा सा टिफिन बॉक्स। वह तार और केबल बनाने वाली एक कम्पनी में काम करती है जो उसे हफ्ते में दो बार देर से आने की इजाज़त देती है।
”मेरे ठीक बगल रहने वाली पड़ोसन ने आज मुझसे पूछा, ‘ मैं सोचती हूँ… तुम शादीशुदा लगती हो लेकिन तुम्हारा पति कभी नहीं आता और इतने सालों में तुम्हें कोई बच्चा भी नहीं हुआ। मामला क्या है?’ मैंने उससे कहा, ‘क्यों? क्या तुम मेरे बच्चे पालना चाहती हो?’
उसकी उम्र 28-29 के आस-पास होगी। 2008 में अपना ग्रेजुएशन पूरा करके वह शिमला विश्वविद्यालय में एक मान्यताप्राप्त अध्यापक बनी। उसी साल वे दोनों एक साझा दोस्त की शादी में मिले, उनमें प्रेम हुआ और उन्होंने शादी कर ली। हरियाणा के करनाल में रहने वाले सोहन के पिता ने इस शादी को मंजूरी नहीं दी और उन्होंने यह साफ़ कह दिया कि उनका अब उनसे कोई लेना-देना नहीं रहेगा।
सोहन पहले से ही मारूति सुजुकी के मानेसर प्लांट में बतौर स्थायी कर्मचारी काम करता था और उसकी तनख़्वाह 15000 रूपये महीना थी। उसे भी बगल के ही एक स्कूल में 5000 रूपये प्रतिमाह पर नौकरी मिल गयी।
”एक मज़दूर तो ऐसा है जिसकी घटना से एक महीने पहले ही शादी हुई थी। उसकी पत्नी ने मुझे बताया कि घर में सभी उसको परिवार के लिए मनहूस बताकर कोसते हैं। मैंने उसको कहा कि उसे इस तरह की बकवास पर ध्यान नहीं देना चाहिए। मेरी शादी हुए तो चार साल हो गये, फिर भी मेरा पति गिरफ़्तार हो गया।” सुषमा ने कहा।
जियालाल की पहचान
वहां अनारकली सूट पहने हुई और कत्थई रंग के बालों वाली छोटे कद की एक महिला फोन पर किसी से बात कर रही थी, ”सर, आप थानेदार जी क्यों नहीं पूछते कि उन्होंने मेरे पति के चरित्र रिपोर्ट में ऐसा क्यों लिखा कि अगर उसे रिहा कर दिया गया तो उसकी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जायेगी। मैंने तो उन्हें पैसा भी दिया था”। एक मिनट तक सिर हिलाने के बाद उसने फोन रख दिया। उसका नाम ममता है। उसके पति को पन्द्रह साल पहले उम्र कैद की सजा हुई थी और वह अभी भी जेल में है। सुषमा और ममता की जान-पहचान दो साल पहले हुई क्योंकि उनके पतियों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे और यह जान-पहचान तदनुभूति से भरी घनिष्ठ दोस्ती में तब्दील हो गयी जब हरेक दिन उनका सामना न्याय और पार्थक्य से होने लगा जिस प्रकार उन सभी महिलाओं का होता है जिनके पति जेल में होते हैं।
मुलाकात के लिए पंजीकरण कराने हेतु कतार में खड़ी खड़ी वो अपने निजी जीवन के अनुभव साझा कर रही थी। उनकी गतिविधियां जैसे कि दस्तावेज़ पेश करना, वेबकैम के सामने फोटो खिंचवाना, अगले काउंटर पर जाना आदि उनकी गहन बातचीत में खलल डाल रही थीं। ”तुम उनकी सुनती ही क्यों हो?” ममता सुषमा से कहती है, ” वे मुझे बेचारी कहते हैं। जब मैंने उनकी हमदर्दी लेने से मना कर दिया तो वे कहने लगे कि मैं चरित्रहीन हूँ क्योंकि मैं अपनी ज़िन्दगी जीती हूँ, अच्छे कपड़े पहनती हूँ और हमेशा इस बात का दुखड़ा नहीं रोती कि मेरा पति जेल में है। अगर मेरी शादी नहीं हुई होती तो क्या होता? तब भी तो मैं ज़िन्दगी जीती ही न? मैं यह सोचकर आगे बढ़ जाती हूँ।”
” दीदी आपका मामला अलग है। मेरे पति ने किसी की हत्या नहीं की, वह तो बस अपना हक़ मांग रहा था,” सुषमा ने उसे रोकते हुए कहा। ”और आपके मामले से अलग मेरे मामले में तो उसका अपराध भी नहीं साबित हुआ है।”
ममता के पति को 1999 में एक क़त्ल के मामले में दोषी पाया गया था। सुषमा का पति व 146 अन्य मज़दूर 18 जुलाई 2012 को हुई मारूति सुजुकी के मानव संसाधन प्रबंधक अवनीश कुमार देव की हत्या के आरोपी हैं। हरियाणा राज्य के सरकारी वकील के टी एस तुलसी, जो प्रति सुनवाई के 11 लाख रूपये लेते हैं, ने दावा किया है आरोप साबित करने के लिए उनके पास 23 गवाह हैं। मज़दूरों के वकील राजेन्द्र पाठक का कहना है, ”सिर्फ़ एक वरिष्ठ प्लांट प्रबंधक प्रसाद ने यह दावा किया है कि उन्होंने जिया लाल नामक एक मज़दूर को मारूती प्लांट में आग लगाते हुए देखा। जब उनको मज़दूरों में से जियालाल की पहचान करने के लिए कहा गया तो वे ऐसा न कर सके।”
मई 2013 में जब मज़दूरों की पहली जमानती अर्जी ख़ारिज हुई थी तब हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि ”श्रमिक अशान्ति के भय से विदेशी निवेशक भारत में पूँजी निवेश करने से मना कर सकते हैं”। यह मामला एक मिसाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि आरोप साबित होते हैं तो सभी 147 मज़दूरों को सख़्त से सख़्त सजा होगी, यानी कि उनको दो दशकों से भी अधिक समय के लिए कै़द हो सकती है।
सुषमा के हाथ में एक बैग था जिनमें तीन किताबें थीं: अंग्रेज़ी से हिन्दी की ऑक्स्फोर्ड डिक्शनरी, आध्यात्म पर एक किताब और भारतीय श्रम कानून का एक संक्षिप्त संस्करण। महिला पुलिसकर्मी ने सभी पेजों को एक-एक करके पलटकर देखा और सुषमा की ओर मुख़ातिब होकर बोली, ”जेल के भीतर लॉ बुक और डिक्शनरी ले जाने की क्या ज़रूरत है। तुम इन्हें नहीं ले जा सकती।”
दरवाज़ा दस फीट चौड़े एक कमरे में खुलता है जो लोहे की जालीदार सलाखों के दो समानान्तर सेटों द्वारा बड़ी सफ़ाई से दो हिस्सों में बँटा था जो एक दूसरे से तकरीबन एक फीट की दूरी पर थे। दोनों में पहले राउण्ड के मिलने वालों की कतार लग गई जिसमें 15 लोग थे।
वे सलाखों के इस ओर इन्तज़ार कर रहे थे।
”आज बहुत कम लोग हैं,” सुषमा ने ग़ौर किया।
”आज सुबह बादल थे, इसलिए,” ममता ने अनुभव के आधार पर कहा।
”जानने से भी कोई फायदा नहीं होता”
वे इंतज़ार कर रही थीं, उसी बीच जाली के उस ओर से पहला आदमी दिखा। उसे देखते ही अंशु, एक अन्य मारूति मज़दूर सुमित का दो साल का बेटा, खुशी से चिल्ला उठा। अपने जन्म से ही उसने हमेशा अपने पिता को सलाखों के पीछे ही देखा था। उसकी मां ने उसे गोद में उठा लिया ताकि वह अपने पिता को साफ़-साफ़ देख सके।
”मेरे वो आज मुझे इंतज़ार करवायेंगे। वो मुझसे नाराज़ हैं क्योंकि मैं उनकी रिहाई के लिए ज़रूरी काग़ज़ी काम तेजी से नहीं करा पायी,” ममता बोली।
सोहन आता है, वह ताज़ातरीन नहाया हुआ था, उसने अच्छे से दाढ़ी बनायी थी, बालों में कंघी की थी और बायीं ओर मांग काढ़ी थी। दूसरी ओर सुषमा को देखते ही उसका चेहरा खिल उठा।
वे सलाखों के दोनों ओर एक दूसरे के शीशे के अक़्स के समान खडे़ हैं, वे लोहे की जालियों को कसकर पकड़े खड़े हुए हैं ताकि वे एक दूसरे के ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब आ जायें। सुषमा ने मेरी ओर इशारा किया और फिर सोहन ने हाथ हिलाकर अभिवादन किया।
जल्द ही और बन्दी आते हैं और धीरे-धीरे शोरगुल बढ़ने लगता है। ममता का पति, एक अधेड़ उम्र का भारी-भरकम आदमी जो सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने थे और गमछा ओढ़े था, आता है और फ़र्श पर पलत्थी मारकर बैठ जाता है। ममता उसे देखती है और वह भी दूसरी ओर उसी तरीके से बैठ जाती है।
”आने के लिए धन्यवाद, मैडम। हमें तो सभी भूल गये हैं। मीडिया ने भी हमारी मदद करना बन्द कर दिया है। क्या इसी को कॉरपोरेट मीडिया कहते हैं?” सोहन बोला।
” तीन-चार ऐसे लड़के हैं जिनके बच्चे मर गये, लेकिन वे उनके अन्तिम संस्कार में भी नहीं जा सके… एक अन्य लड़के के पिता पिछले साल चल बसे और वह समय से अन्येष्टि में नहीं पहुँच पाया। वे दूर-दराज़ से आये हुए थे, कोई उत्तर प्रदेश से, कोई हिमांचल प्रदेश से, तो कोई राजस्थान, उड़ीसा या अन्य जगहों से था और वे अपने परिवार में अकेले कमाने वाले थे। उनके परिवारवालों ने आना बन्द कर दिया है क्योंकि वे अब आने का खर्चा नहीं वहन कर सकते। कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिजनों को छह महीने से ज़्यादा समय से नहीं देखा है। तीन-चार लड़के तो अपना मानसिक सन्तुलन खो रहे हैं,” उसने कहा।
मैं थोड़ा पीछे हट गयी ताकि वह सुषमा के साथ रह सके। अब वे चिल्लाकर बात करने लगे थे ताकि वे एक दूसरे की आवाज़ सुन सकें। इसी तरह बाकी सभी चिल्लाकर बात कर रहे थे। सभी मुस्कुरा रहे थे, इन बेशकीमती लम्हों में वे खुश थे क्योंकि वे एक दूसरे को देख पा रहे थे।
दो मिनट बाद सोहन ने मुझे बुलाया। ”दूर मत खड़ी होइये। आजकल बहुत कम ऐसा होता है जब मैं नये लोगों से मिल पाता हूँ,” वह हँसा।
”अन्दर हालात कैसे हैं?” मैंने पूछा।
”ठीक हैं। हमें साधारण खाना मिलता है,” वह हँसा, ”कच्ची रोटी और पतली दाल। एक पुस्तकालय है और एक डाक्टर रेगुलर चेकअप के लिए आते हैं। एक कैंटीन भी है। हम चाहें तो खाने की चीज़ें ख़रीद सकते हैं लेकिन उसके लिए पैसे लगते हैं। मेरी पत्नी कमाती है इसलिए मैं तो उन्हें ख़रीद सकता हूँ, लेकिन जिनसे मिलने कोई नहीं आता या जो अपने परिवार में अकेले कमाने वाले थे उन्हें जो थोड़ा-बहुत खाना मिलता है उसी से काम चलाना पड़ता है। हमें जो मिलता है उसे हम साझा करते हैं… उनमें से कुछ कैजुअल मज़दूर हैं, एक तो ऐसा है जिसने घटना के कुछ ही दिनों पहले काम शुरू किया था। कम से कम उन्हें तो छोड़ देना चाहिए।” वह फर्राटे से बोलता गया।
वह थोड़ी देर रूका और हमारे पास में ही अपने परिजनों से मिल रहे चार अन्य मारूति मज़दूरों की ओर इशारा करते हुए बोला, ”हम सब की अवनीश कुमार से अच्छी बनती थी। हम उनसे अकसर सलाह-मशविरा किया करते थे। हम भला उनकी जान क्यों लेंगे? क्या पेशाब करने के लिए पर्याप्त समय और मेडिकल छुट्टी की मांग करना हत्या है? ऐसा तो जेल में भी नहीं है। जब मैं उस दिन काम पर गया था तो मुझे क्या पता था कि मैं अगले दो सालों तक जेल में रहूँगा। और अब भी मुझे यह नहीं पता कि यहां मुझे और कितने साल बिताने हैं।”
पुलिस कांस्टेबल आया और उसने घोषणा की कि आगंतुकों के लिए बस एक और मिनट का समय बचा है। ऐसा सुनते ही आगंतुक और बन्दी जालीनुमा सलाखों के क़रीब आ गये। अन्तिम आधे मिनट में सभी मारूति के मज़दूरों ने एक साथ होकर मेरा अभिवादन किया। सोहन चिल्लाते हुए बोला, ”मैडम, कृपया कुछ करने की कोशिश कीजिये!”
लोगों को बाहर कर दिया गया। ममता सबसे अन्त में बाहर निकली। उसका पति इस जेल के सबसे पहले कैदियों में से एक था।
वे बाहर आयीं और उन्होंने अपने-अपने बैग वापस लिये। सुषमा की आँखों में आँसू थे। ”मैं उसे ऐसा दिखाती नहीं हूँ कि मैं दुखी हूँ,” वह बोली। ”वह मुझसे पूछता है कि क्या उसके पिता उसके बारे में पूछते हैं। मैं झूठे ही कह देती हूँ कि हां उन्होंने पूछा था। बाहर जो कुछ हो रहा है उसकी वजह से मैं उसे परेशान नहीं होने देना चाहती हूँ,” थोड़ा रूककर उसने कहा, ”मैं अपने लिए कुछ भी नहीं खरीदती लेकिन उसकी ज़रूरत की कोई भी चीज़ के लिए एक दिन का भी इंतज़ार नहीं करवाती। इन दो सालों में मैंने अपने लिए कपड़े नहीं खरीदे क्योंकि मैं उसके लिए और उन बन्दियों के लिए कपड़े खरीदने में पैसे लगाती हूँ जिनके परिवार वाले उनका खर्च नहीं उठा सकते।”
हम कार में बैठे। ”लोग क्यों आतंकवादी बनते हैं? वे आतंकवादी इसलिए बनते हैं क्योंकि उनकी पूरी उत्पादक युवावस्था तो जो जायज़ है उसे मांगने मे ज़ाया हो जाती है।” सुषमा ने सख़्त आवाज़ में कहा।
ममता ने कहा, ”मुझे नहीं पता कि जब मेरा पति बाहर आयेगा तो क्या करेगा, उसे तो यह भी नहीं पता कि इतने सालों में चीज़ें कितनी बदल गयी हैं। मोदी ने तो कहा था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। मेरे तो नहीं आये।”
सुषमा ने कहा, ”इस महीने राशन में मैंने सिर्फ़ एक बोतल तेल खरीदा है। कीमतें एक बार फिर से बढ़ गयी हैं। ऊपर से किराया और सोहन व अन्य बन्दियों का ख़र्चा। अगर उन्हें सजा हो गयी होती तो कम से कम मुझे यह पता होता कि आखिर कब तक इस तरह की जिन्दगी बितानी पड़ेगी।”
ममता बोली, ”जानने से भी को कोई फायदा नहीं होता। मुझे तो पता था कि 14 साल बिताने हैं, लेकिन अब तो 15 साल हो गये हैं।”
सुषमा बोली, ”शायद तुम सही कह रही हो। तुम किस तारकेश्वर मन्दिर की बात कर रही थी? उसने पूछा।
”वह पास में ही है। अगली बार चलेंगे, ” ममता ने जवाब दिया।
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