किसान आन्दोलन में भागीदारी को लेकर ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों का ग़ैर-जनवादी रवैया
अपनी आर्थिक माँगों के लिए विरोध करना हरेक नागरिक, संगठन और यूनियन का जनवादी हक़ है। बेशक लोगों के जनवादी हक़ों को कुचलने के सत्ता के हर प्रयास का विरोध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी मुद्दे पर असहमति रखना और विरोध न करना भी हरेक नागरिक और समूह का जनवादी हक़ है। इस हक़ को कुचलने के भी हरेक प्रयास को अस्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए दबाव बनाने के हर प्रयत्न का विरोध किया जाना चाहिए।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गाँवों में ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों के द्वारा कई जगहों पर ग़ैर जनवादी फ़ैसले लिये जा रहे हैं। उदाहरण के लिए पंजाब के ज़िले भठिण्डा के कलावला गाँव की पंचायत ने यह निर्णय लिया है कि गाँव के हरेक परिवार को नम्बरवार घर का एक-एक सदस्य सप्ताह भर के लिए दिल्ली-हरियाणा सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन स्थलों पर भेजना होगा। जो परिवार घर का सदस्य नहीं भेजना चाहते या नहीं भेज सकते उन्हें इसकी एवज़ में जुर्माने के तौर पर 2100 रुपये भरने होंगे। जातीय पंचायतें और तथाकथित खाप पंचायतें तो हुक्का पानी बन्द करने के रूप में असहमतियों और कमजोर तबकों के हितों को गाहे-बगाहे दबाती ही रहती हैं और लोग इनका अपने तरीके से विरोध भी करते रहे हैं। लेकिन लोकतांत्रिक निकायों का ही ऐसा रवैया होगा तो फिर उनमें और खाप पंचायतों में फ़र्क ही क्या रह जायेगा? अपनी मर्ज़ी से कोई चाहे अपने घर के हरेक सदस्य को धरनों पर भेज दे या लाखों रुपये की आर्थिक मदद दे दे इससे किसी को क्या ही एतराज़ हो सकता है, लेकिन गाँव में कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो आन्दोलन की माँगों से ही सहमत ना हों या फ़िर उनके अनुसार आन्दोलन की माँगों का उनके हितों से कोई सरोकार ही न हो।
इस पूरे मामले में यदि पंचायतें अपने फ़ैसलों को लागू कराने हेतु दबाव बनाती हैं तो उसका सबसे बड़ा ख़ामियाजा गाँव की श्रमिक आबादी, जिनमें ज़्यादातर दलित हैं, को भुगतना पड़ेगा। गाँव में दलित श्रमिक आबादी के बीच बहुत से परिवार इतने ग़रीब होते हैं कि बिना मज़दूरी करे शाम को चूल्हा जलने के भी लाले पड़ जाते हैं और उनकी आर्थिक हालत 2100 क्या 21 रुपये देने तक की भी नहीं। लेकिन इससे भी बुनियादी बात है कि अगर कोई पारिवारिक सदस्यों को भेजने अथवा जुर्माना भरने की स्थिति में हो भी इस तरह के फैसले ग़ैर-लोकतांत्रिक ही कहे जायेंगे।
ये घटनाएँ लॉकडाउन के दौरान हुई घटित घटनाओं की याद ताज़ा कर देती है जब कई गाँवों में पंचायतों ने ऐसे फ़ैसले दिये थे कि ग्रामीण खेतिहर मज़दूरों को पंचायत की तय मज़दूरी से ज़्यादा कोई नहीं देगा और मज़दूर अगर बेहतर मज़दूरी के लिए कहीं बाहर जाकर काम करेंगे तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है क्योंकि ज़्यादातर पंचायतें गाँव की धनी किसान आबादी के आर्थिक हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं और पूँजीवादी सत्ता के सबसे निचले खम्भों का काम करती हैं।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021
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