हबीब जालिब के जन्मदिवस (24 मार्च) पर उनकी दो नज़्में
हबीब जालिब पाकिस्तान के इन्क़लाबी शायर थे जिन्होंने मेहनतकश अवाम की मुक्ति के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। अपनी धारदार शायरी के ज़रिये उन्होंने पाकिस्तान के तीन फ़ौजी तानाशाहों – जनरल अयूब, याहया और िज़या – की हुकूमतों की जमकर मुख़ालफ़त की और इसके लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। इन्क़लाबी शायर के साथ ही साथ वे एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे। वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और आजीवन मज़दूर वर्ग की मुक्ति की विचारधारा मार्क्सवाद की पैरोकारी करते रहे। हबीब जालिब की नज़्में पाकिस्तान ही नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया में मशहूर हैं।
कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं
बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं
वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं
कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल[1] निकलते हैं
हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त[2] होते हैं हवा के साथ चलते हैं
हम अहले दर्द ने ये राज़ आख़िर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं
[1] क़त्लगाह की तरफ़
[2] मौक़ापरस्त
बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू
हुए न एक तो मंज़िल न बन सकेगा लहू
हो किस घमण्ड में ऐ लख़्त लख़्त दीदा-वरो
तुम्हें भी क़ातिल-ए-मेहनत-कशाँ कहेगा लहू
इसी तरह से अगर तुम अना-परस्त रहे
ख़ुद अपना राह-नुमा आप ही बनेगा लहू
सुनो तुम्हारे गरेबान भी नहीं महफ़ूज़
डरो तुम्हारा भी इक दिन हिसाब लेगा लहू
अगर न अहद किया हम ने एक होने का
ग़नीम सब का यूँही बेचता रहेगा लहू
कभी कभी मिरे बच्चे भी मुझ से पूछते हैं
कहाँ तक और तू ख़ुश्क अपना ही करेगा लहू
सदा कहा यही मैंने क़रीब-तर है वो दूर
कि जिस में कोई हमारा न पी सकेगा लहू
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