बिल गेट्स की चैरिटी – आम लोगों का स्वास्थ्य ख़राब करके कमाई करने का एक और तरीक़ा
रविन्दर
ख़ुद को मानवता की भलाई का “मसीहा” कहलाने वाले मिस्टर गेट्स ने काफ़ी लम्बे समय से एक फ़ाउण्डेशन बनाई हुई है जिसका मक़सद है “दुनिया के ग़रीब लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएँ लेकर जाना, ग़रीब बच्चों का टीकाकरण करना”। बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फ़ाउण्डेशन, जो कि बिल गेट्स की 28 बिलीयन डाॅलर की चैरिटी के साथ चलती है, या यूँ कह लें कि लोगों की मेहनत की लूटी गयी कमाई से, मुनाफ़ा कमाने के लिए, बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फ़ाउण्डेशन में फिर निवेश की गयी आमदन के साथ चलती है। इस फ़ाउण्डेशन द्वारा दुनिया के अलग-अलग देशों जैसे भारत, अफ़्रीका, कोलम्बिया आदि में मानवता की भलाई का शोर पूरे जोश से मचाया जा रहा है।
पर सवाल यह है कि असल में दुनिया के सबसे अमीर आदमी को सचमुच आम लोगों, भूख से, बिना इलाज के मर रहे लोगों के साथ कोई सरोकार है क्या?
इस सवाल का सही उत्तर है, नहीं। यह फ़ाउण्डेशन बहुत बड़े स्तर पर लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करके पैसे कमाने का तरीक़ा है।
इस फ़ाउण्डेशन द्वारा समय-समय पर नये-नये टीके (vaccine) अलग-अलग बीमारियों के लिए, प्राइवेट कम्पनियों से बनवाये जाते हैं जैसे कि पोलियो के लिए (oral vaccine) काली खाँसी के लिए, निमोनिया के लिए, बच्चेदानी के कैंसर के लिए आदि और फिर इसका इस्तेमाल करने के लिए प्रचार चलाया जाता है। इसके लिए देश के नामी चेहरों को पैसे देकर ख़रीदा जाता है और तथाकथित मानवता की भलाई का डंका हर टीवी चैनल पर पीटा जाता है। पोलियो बूँदों के प्रचार के दौरान अमिताभ बच्चन ने अपनी अदाकारी के जोहर दिखाते हुए इस मुहिम काे सहयोग किया। बिल गेट्स की इस मानवता की भलाई वाली भावना का दूसरा हिस्सा भी है, जो छुपा लिया जाता है। यह दूसरा हिस्सा सिद्ध करता है कि यह भलाई आम लोगों के लिए असल में कैसे दुख और मौत लेकर आती है।
वर्ष 2011 में भारत में पोलियो मुहिम चलायी गयी। इस दौरान 47 हज़ार 500 बच्चे पोलियो के टीकाकरण के बाद, मौत जैसी ज़िन्दगी जीने के लिए मज़बूर हो गये। इस घटना के बाद भी टीके बनाने के तरीक़ों की ओर ध्यान देने की बजाय इसे मामूली घटना कहकर यह मुहिम उसी तरह चलती रही।
एक और रिपोर्ट के अनुसार यह बात सामने आयी है कि सरवाइकल कैंसर वैकसिन के टेस्ट के लिए 30,000 भारतीय लड़कियों का इस्तेमाल किया गया। हिउमन पैपीलोमा वाइरस (HPV) वैकसिन जो कि सरवाइकल कैंसर के लिए (औरतों की बच्चेदानी का कैंसर) है। इस वैकसिन को तीन हिस्सों में दिया जाता है।
वैकसिन के टेस्ट के लिए या किसी भी तरह की दवाई के टेस्ट के लिए प्रयोगशाला में अलग-अलग तरह के जानवर इस्तेमाल किये जाते हैं, जैसे चूहा, खरगोश, गिनी पिग्ज़ आदि, वहीं भारत में एचपीवी वैकसिन सीधे-सीधे लड़कियों पर इस्तेमाल की गयी।
वर्ष 2009 में आन्ध्र प्रदेश के खंसम ज़िले की 16,000 लड़कियाँ (आयु 9 से 15 वर्ष) और वडोदरा और गुज़रात में 14,000 लड़कियों पर इस वैकसिन का प्रयोग किया गया। यह वैकसिन एक प्राइवेट कम्पनी (Glaxo Smith Kline) द्वारा बनायी गयी थी।
इस प्रयोग के बाद यह बात सामने आयी कि वैकसिन लगने के बाद 7 लड़कियों की मौत हो गयी। उसी समय के दौरान ही उत्तरी कोलम्बिया में कुछ लड़कियों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, उन लड़कियों को भी एचपीवी वैकसिन दी गयी थी।
मार्च 2010 में एक ग़ैर-सरकारी संस्था द्वारा आन्ध्र प्रदेश में तथ्य इकट्ठे किये गये तो यह बात सामने आयी कि 100 लड़कियाँ उस वैकसिन के बुरे प्रभाव के साथ जूझ रही हैं, जैसे कि पेट दर्द, सिर दर्द, माहवारी के दौरान ज़्यादा रक्तस्राव, दिमाग़ के काम करने की क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ना आदि।
यह सब कुछ यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाता, यह तो मानवीय ज़िन्दगी को जानवरों से भी बदत्तर समझना है।
बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फ़ाउण्डेशन ने एक अमेिरकन एनजीओ ‘प्रोग्राम फ़ॉर ऐप्रोप्रीऐट टेक्नॉलोजी इन हैल्थ’ (PATH) को एक प्रयोग करने में आर्थिक सहायता दी। इस प्रयोग का मकसद यह देखना है कि एचपीवी वैकसिन कैसे-कैसे औरतों के शरीर पर असर डालती है।
वर्ष 2009 में विश्व स्वास्थ्य संस्था की ओर से ऐलान किया गया था कि हिउमन पैपीलोमा वाइरस के कारण 70% सम्भावना है कि बच्चेदानी का कैंसर हो सकता है। इसके बावजूद एचपीवी वैकसिन का इस्तेमाल किया जाता है।
यह आज के लूट पर आधारित समाज का सच है कि मुनाफ़ा कमाने के लिए आम लोगों के स्वास्थ्य को, ज़िन्दगियों को कीड़े-मकौड़ों की तरह मसल दिया जाता है। आज जहाँ एक तरफ़ मनुष्य का इस्तेमाल करके विज्ञान ने इतनी उन्नति की, वहीं, विज्ञान कुछ अमीर लोगों की झोलियाँ भरने के लिए एक साधन बनकर रह गया है। जब तक लुटेरी व्यवस्था मौजूद रहेगी, लूट करने वाले अमीर घराने, मानवीय स्त्रोतों पर क़ब्ज़ा करके बैठे रहेंगे तब तक मानवीयता का पतन इसी तरह होता रहेगा। आज ज़रूरत है कि इस लुटेरी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ा जाये और बेहतर समाज बनाने के लिए संगठित हुआ जाये।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन