मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा

वर्ग-सचेत मज़दूरों के बहादुर बेटे जब एक बार अपनी मुक्ति के दर्शन को पकड़ लेते हैं, जब एक बार वे सर्वहारा क्रान्ति के मार्गदर्शक सिद्धान्‍त को पकड़ लेते हैं तो फिर उनकी अडिग निष्‍ठा, शौर्य, व्‍यावहारिक जीवन की जमीनी समझ और सर्जनात्‍मकता उन्‍हें हमारे युग के नये नायकों के रूप में ढाल देती है। ऐसे लोग उस करोड़ों-करोड़ आम मेहनतकश जनसमुदाय के उन सभी वीरोचित उदात्‍त गुणों को अपने व्‍यक्तित्‍व के जरिए प्रकट करते हैं, जो इतिहास के वास्‍तविक निर्माता और नायक होते हैं। इसलिए ऐसे लोग क्रान्तिकारी जनता के सजीव प्रतिनिधि चरित्र और इतिहास के नायक बन जाते हैं और उनकी जीवन-गाथा एक महाकाव्‍यात्‍मक आख्‍यान बन जाती है।
‘बिगुल’ के इस अनियमित स्‍तम्‍भ में हम दुनिया की सर्वहारा क्रान्तियों की ऐसी ही कुछ हस्तियों के बारे में उन्‍हीं के समकालीन किसी महान क्रान्तिकारी नेता या लेखक की संस्‍मरणात्‍मक टिप्‍पणी या रेखाचित्र समय-समय पर अपनी टिप्‍पणी के साथ प्रकाशित करते रहेंगे। ये ऐसे लोगों की गाथाएं होंगी जिन्‍होंने शोषण-उत्‍पीड़न की निर्मम-अंधी दुनिया के अंधेरे से ऊपर उठकर जिन्‍दगी भर उस अंधेरे से लोहा लिया औश्र क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि चरित्र बन गये। वे क्रान्तिकथाओं के ऐसे नायक थे, जो इतिहास-प्रसिद्धा तो नहीं थे पर जिनकी जिन्‍दगी से यह शिक्षा मिलती है कि श्रम करने वाले लोग जब ज्ञान तक पहुंचते हैं और अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ लेते हैं तो फिर किस तरह अडिग-अविचल रहकर वे क्रान्ति में हिस्‍सा लेते हैं। उनके भीतर ढुलमुलपन, कायरता, कैरियरवाद, उदारतावाद और अल्‍पज्ञान पर इतराने जैसे दुर्गुण नहीं होते जो मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों से आने वाले कम्‍युनिस्‍टों में क्रान्तिकारी जीवन के लम्‍बे समय तक बने रहते हैं और पार्टी में तमाम भटकावों को बल देने में अहम भूमिका निभाते हैं।
हमारा दृढ़ विश्‍वास है कि भारतीय मज़दूरों के बीच से भी ऐसे ही वर्ग-सचेत बहादुर सपूत आगे आयेंगे। सर्वहारा वर्ग की पार्टी के क्रान्तिकारी चरित्र के बने रहने की एक बुनियादी शर्त है कि मेहनतकशों के बीच के ऐसे सम्‍भावनायुक्‍त तत्‍वों की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा करके उन्‍हें निखारा-मांजा जायेगा और क्रान्तिकारी कतारों में भरती किया जाये।

सम्‍पादक

बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता – इवान वसील्येविच बाबुश्किन

आलोक रंजन

Ivan_Vasilyevich_Babushkinरूस में जिन थोड़े से उन्नत चेतना वाले मज़दूरों ने कम्युनिज़्म के विचारों को सबसे पहले स्वीकार किया और फिर आगे बढ़कर पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ता की भूमिका अपनायी तथा पूरा जीवन पार्टी खड़ी करने और क्रान्ति को आगे बढ़ाने के काम में लगाया उनमें पहला नाम इवान वसील्येविच बाबुश्किन (1873-1906) का आता है। 1894 में बाबुश्किन जब कम्युनिस्ट बना तो उसकी उम्र महज़ 21 वर्ष थी।

लेनिन 1893 में पीटर्सबर्ग आये। इसके पूर्व 1887 में कज़ान विश्वविद्यालय में पढ़ते समय लेनिन ने क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलनों में हिस्सा लेते हुए 17 वर्ष की आयु में फेदोसेयेव नामक व्यक्ति द्वारा चलाये जाने वाले मार्क्सवादी मण्डल में हिस्सा लेना शुरू किया। क्रान्तिकारी छात्र आदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ़्तारी और निष्कासन के बाद लेनिन ने अद्भुत गति और एकाग्रता से मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया। कज़ान से समारा पहुँचने के बाद लेनिन ने उस शहर में पहला मार्क्सवादी मण्डल क़ायम किया। 1893 के अन्त में वे पीटर्सबर्ग पहुँचे। वहाँ के मार्क्सवादी मण्डलों के सदस्य उनके सैद्धान्तिक-व्यावहारिक ज्ञान और सांगठनिक क्षमता से बहुत प्रभावित हुए और लेनिन उनके नेता बन गये। यहीं 1894 में उनकी मुलाक़ात क्रान्तिकारी क्रूप्स्काया से हुई जो बाद में उनकी जीवन-संगिनी भी बनीं।

इवान बाबुश्किन पीटर्सबर्ग के सेम्यान्निकोव कारख़ाने में काम करने वाला युवा मज़दूर था, जो आम मज़दूरों से अलग, अपनी ज़िन्दगी के हालात और पूँजीपतियों के शोषण-उत्पीड़न के बारे में हमेशा सोचता रहता था। उसे मुक्ति के रास्ते की बेचैनी से तलाश थी। उन दिनों मज़दूरों और छात्रें में ज़ारशाही विरोधी जो नयी सरगर्मियाँ थीं, उनका उत्सुकतापूर्वक अध्ययन करते हुए वह मार्क्सवादियों के सम्पर्क में आया। बाबुश्किन का लेनिन से सम्पर्क हुआ और उनसे मार्क्सवाद की शिक्षा लेते हुए वह उन्हें बेहद प्यार करने लगा। लेनिन ने एक योग्य संगठनकर्ता के रूप में बाबुश्किन की सम्भावनाओं को पहचाना और उन्हें विकसित किया।

बाबुश्किन की धीरज भरी, अनथक कोशिशों से ही सेम्यान्निकोव कारख़ाने में मज़दूरों का मार्क्सवादी मण्डल संगठित हुआ।

मण्डल के अध्ययन चक्रों में मार्क्सवाद पर लेनिन के व्याख्यानों और मज़दूरों से उनके सवाल-जवाबों को याद करते हुए बाबुश्किन ने लिखा है: “व्याख्याता बिना कोई पुस्तक या नोट्स सामने रखे, हम लोगों के सामने इस (मार्क्सवादी) विज्ञान की व्याख्या करता था और अक्सर हमें वह अपने कहे पर आपत्तियाँ उठाने के लिए, या फिर बहस शुरू करने के लिए उकसाता था। फिर वह बहस करने वालों को आपस में वाद-विवाद करने देता था। इससे पढ़ाई जीवन्त और दिलचस्प हो जाती थी… हम सभी इससे बहुत ख़ुश होते थे और अपने शिक्षक की क्षमता की तारीफ़ करते थे।”

पीटर्सबर्ग के सभी उन्नत चेतना वाले मज़दूर लेनिन को प्यार करने लगे और उन्हें अपना नेता मानने लगे। बाबुश्किन के तेज़ी से हो रहे विकास और सांगठनिक-राजनीतिक नेतृत्वकारी गुणों से लेनिन बहुत प्रभावित हुए।

1894 के अन्त में बाबुश्किन के ही सहयोग से लेनिन ने पहला आन्दोलनकारी परचा लिखा और सेम्यान्निकोव कारख़ाने के हड़ताली मज़दूरों के नाम एक अपील निकाली।

1895 में लेनिन ने पीटर्सबर्ग के सभी मार्क्सवादी मज़दूर मण्डलों को (जिनकी संख्या उस समय 20 के आसपास थी) जोड़कर मज़दूर मुक्ति संघर्ष की पीटर्सबर्ग लीग नामक संगठन बनाया, जो तत्कालीन मज़दूर आन्दोलन के साथ समाजवाद की विचारधारा और राजनीति को जोड़ने वाला पहला संगठन था। मुक्ति संघर्ष लीग (संक्षिप्त नाम) के गठन में भी बाबुश्किन की प्रमुख सहयोगी भूमिका थी। 1895-96 में पीटर्सबर्ग मज़दूर हड़तालों का केन्द्र बन गया था। इन हड़तालों के समर्थन में मुक्ति संघर्ष लीग परचे निकालकर मज़दूरों को संघर्ष का रास्ता बताता था, उन्हें अपनी माँगें पेश करने और लड़ने का तरीक़ा बताता था, कारख़ाना-मालिकों की लूट और अमानवीय उत्पीड़न का तथा उनकी पीठ पर खड़ी ज़ारशाही का भण्डाफोड़ करता था। इन सभी परचों की तैयारी में बाबुश्किन लेनिन का अनन्य सहयोगी था। इन्हें मज़दूरों तक पहुँचाने और आन्दोलनों में भागीदारी में भी उसकी भूमिका अग्रणी थी। 1895 के शरद में लेनिन ने थार्नटन मिल के स्त्री-पुरुष हड़ताली मज़दूरों के लिए जो परचा लिखा, वह उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने में विशेष मददगार सिद्ध हुआ। मज़दूर अपनी लड़ाई जीत गये। इसके बाद थोड़े से समय में ही मुक्ति संघर्ष लीग ने विभिन्न कारख़ानों के मज़दूरों के लिए दज़र्नों परचे और अपीलें निकालीं। मज़दूरों में संगठन का व्यापक आधार तैयार हुआ। बड़े पैमाने पर मज़दूर मार्क्सवाद को स्वीकार कर पार्टी में भरती होने लगे।

दिसम्बर, 1895 में ज़ारशाही ने लेनिन को गिरफ़्तार कर लिया, पर जेल से वे गुप्त सम्पर्क बनाकर मुक्ति संघर्ष लीग की मदद करते रहे तथा लगातार पुस्तिकाएँ और परचे लिखते रहे। उधर बाहर बाबुश्किन के साथ अब मजदूर संगठनकर्ताओं की एक पूरी टीम खड़ी हो गयी थी जो खुली और गुप्त कार्यवाहियों में दिन-रात लगी हुई थी। ऐसा ही एक मज़दूर संगठनकर्ता वासिली आन्द्रियेविच शेल्गुनोव भी था, जो बाद में अन्धा हो गया था।

1896 की गर्मी में मुक्ति संघर्ष लीग के नेतृत्व में पीटर्सबर्ग के तीस हज़ार सूती मज़दूरों की हड़ताल काम के घण्टों को कम करने के प्रश्न पर हुई। इसी हड़ताल के दबाव में ज़ारशाही को जून, 1897 में क़ानून बनाकर काम के घण्टों पर साढ़े ग्यारह घण्टे की सीमा लगानी पड़ी।

पीटर्सबर्ग की मुक्ति-संघर्ष लीग की स्थापना से 1898 में रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की स्थापना तक की यात्र में सबसे अधिक योगदान करने वालों में बाबुश्किन एक था।

1900 में पहले अखिल रूसी ग़ैरकानूनी अख़बार ‘ईस्क्रा’ का प्रकाशन शुरू हुआ। इसके पीछे लेनिन की एक ऐसे अख़बार की सोच काम कर रही थी जो मज़दूर वर्ग के शिक्षक, प्रचारक, आन्दोलनकर्ता और संगठनकर्ता की भूमिका निभाते हुए पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन के काम में कुंजीभूत भूमिका निभाये।

म्यूनिख़, लन्दन और जेनेवा से प्रकाशित होकर ‘ईस्क्रा’ गुप्त रूप से रूस पहुँचता रहा। पीटर्सबर्ग, मास्को आदि शहरों में मज़दूरों तक अख़बार पहुँचाने और पार्टी की लेनिनवादी ‘ईस्क्रा’ नीति का समर्थन करने वाली कमेटियों-ग्रुपों का जाल बिछा देने में बाबुश्किन, गुसेव, कालीनिन, बौमान आदि पेशेवर क्रान्तिकारियों की अग्रणी भूमिका थी।

लेनिन के शब्दों में बाबुश्किन “ईस्क्रा के सबसे कर्मठ संवाददाता और जोशीले समर्थक थे।” विशाल रूस के विभिन्न शहरों से रिपोर्ट इकट्ठा करके सम्पादकों को भिजवाना, अख़बार का वितरण सुनिश्चित करना और इसके वितरकों-एजेण्टों के तन्त्र के ज़रिये पार्टी का ताना-बाना खड़ा करना – इन सभी कामों में बाबुश्किन की अग्रणी भूमिका थी। एक बार दक्षिणी रूस के येकातेरीनोस्लाव शहर में इन्हीं कामों के दौरान उसे गिरफ़्तार भी कर लिया गया, पर खिड़की की छड़ें काटकर वह जेल से भाग निकला और कोई भी विदेशी भाषा न जानने के बावजूद सीधे लन्दन, ‘ईस्क्रा’ के आफिस पहुँच गया।

1903 में पार्टी की दूसरी कांग्रेस के समय बाबुश्किन सुदूर उत्तर में निर्वासित जीवन बिता रहा था। पर इस दौरान भी वह लगातार अध्ययन कर रहा था और अन्य निर्वासित मज़दूरों में बोल्शेविज़्म का प्रचार कर रहा थ्ज्ञा।

1905 में आम माफी से निर्वासन-दण्ड की समाप्ति हुई, पर इस समय तक साइबेरिया में भी क्रान्ति की आग फैलने लगी थी। बाबुश्किन पार्टी की इर्कुत्स्क कमेटी के सदस्य के रूप में वहाँ काम करने लगा।

1905-07 की क्रान्ति में उसने जमकर भागीदारी की। चिता नगर के हथियारबन्द विद्रोह का वह भी एक नेता था। उसी दौरान एक रेल डिब्बे में भरकर पाँच साथियों के साथ चिता से हथियारों की एक बड़ी खेप ले जाते समय ज़ारशाही के ताजीरी दस्ते ने उसे पकड़ लिया और गोली मार दी।

बाबुश्किन का जीवन इस बात का प्रमाण था कि उन्नत चेतना के मज़दूर राजनीति और विचारधारा से लैस होकर नेतृत्वकारी क्षमताओं वाले संगठनकर्ता बन सकते हैं। ऐसे सर्वहारा चरित्र तैयार करके कोई भी पार्टी अपनी सफलता की एक बुनियादी गारण्टी हासिल करती है।

बाबुश्किन का जीवन भारत के क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं और वर्ग-सचेत मज़दूरों के लिए भी अक्षय प्रेरणा का स्रोत है।

बाबुश्किन की मृत्यु की सूचना पार्टी के साथियों को बरसों बाद मिली। यह सूचना मिलने के बाद उनकी स्मृति में पार्टी-पत्र राबोचाया गजेता में लेनिन ने जो प्रसिद्ध लेख (निधन सूचना) लिखा था, उसे हम यहाँ अलग से प्रकाशित कर रहे हैं।

(निधन सूचना)

लेनिन

हम अभिशप्त काल में रह रहे हैं, जब ऐसी बातें सम्भव हैं : पार्टी का विलक्षण कार्यकर्ता, जिस पर सारी पार्टी को गर्व है, वह साथी, जिसने अपना सारा जीवन मज़दूरों के ध्येय को अर्पित किया, लापता हो जाता है। और उसके निकटतम सम्बन्धी, जैसे कि पत्नी और माँ, घनिष्ठतम साथी बरसों तक यह नहीं जानते कि उसका क्या हुआ : कहीं कठोर श्रम-कारावास में वह हड्डियाँ गला रहा है या किसी जेल में उसने दम तोड़ दिया है या शत्रु के साथ टक्कर में वीरगति को प्राप्त हुआ है। यही इवान वसील्येविच बाबुश्किन के साथ हुआ, जिन्हें रेन्नेनकाम्प्फ ने गोली मार डाली। अभी हाल ही में हमें उनकी मृत्यु का पता चला है।

इवान बाबुश्किन का नाम हमारे मन के निकट है, हमारे मन को प्रिय है, केवल हम सामाजिक-जनवादियों के मन को ही नहीं। जितने भी लोगों ने उन्हें जाना, सभी के मन में उनका तेज, उनकी गहन और प्रबल क्रान्तिकारी भावना, अपने ध्येय में उनकी निष्ठा और शब्दाडम्बर से दूरी देखकर उनके प्रति प्रेम और आदर जागा। पीटर्सबर्ग के इस मज़दूर ने 1895 में दूसरे वर्ग-चेतन साथियों के साथ मिलकर नेवस्कया जस्तावा के इलाके में सेम्यान्निकोव और अलेक्सान्द्रोव कारखानों के व काँच फैक्टरी के मज़दूरों के बीच जोरदार काम किया, मण्डल गठित किये, पुस्तकालय खोले और सारा समय स्वयं भी पूरी लगन से शिक्षा पाता रहा।

उनके सारे विचार एक ही बात पर केन्द्रित थे कि काम कैसे अधिक फैलाया जाये। 1894 के पतझड़ में सेंट पीटर्सबर्ग में निकाले गये पहले प्रचार परचे को, जो सेम्यान्निकोव कारखाने के मज़दूरों को सम्बोधित था, तैयार करने में इवान वसील्येविच ने सक्रिय भाग लिया और ख़ुद अपने हाथों से उसे बाँटने का काम किया। जब सेंट-पीटर्सबर्ग में ‘मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली लीग’ गठित हुई, तो इवान वसील्येविच उसके एक सबसे सक्रिय सदस्य बने और अपनी गिरफ़्तारी तक उसमें काम करते रहे। पीटर्सबर्ग में उनके साथ करते रहे पुराने साथियों – ‘इस्क्रा’ के संस्थापकों – ने उनके साथ इस विचार पर सलाह-मशविरा किया था कि विदेश में ऐसा राजनीतिक समाचारपत्र स्थापित किया जाये, जो सामाजिक-जनवादी पार्टी की एकता और सुदृढ़ता बढ़ाने में सहायक हो, और इस विचार पर उनका ज़ोरदार समर्थन पाया था। जब तक इवान वसील्येविच आज़ाद रहे, ‘ईस्क्रा’ के पहले बीस अंक देखिये, शूया, इवानोवो-वोज्जेसेन्स्क, ओरेखोवो-जूयेवो तथा केन्द्रीय रूस के दूसरे स्थानों से ये सारी रिपोर्टें – इनमें प्रायः सभी इवान वसील्येविच के हाथों से गुजरीं। ‘ईस्क्रा’ और मज़दूरों के बीच घनिष्ठतम सम्बन्ध बनाने के लिए वे प्रयत्नशील रहे। वे ‘ईस्क्रा’ के सबसे कर्मठ संवाददाता और जोशीले समर्थक थे। केन्द्रीय रूस से बाबुश्किन दक्षिण में, येकातेरीनोस्लाव नगर को चले गये (वहाँ उन्हें गिरफ़्तार करके अलेक्सान्द्रोव्स्क जेल में रखा गया। वहाँ से अपने एक साथी के साथ खिड़की के सींखचे काटकर वे भाग निकले। एक भी विदेशी भाषा उन्हें नहीं आती थीं, तो भी लन्दन पहुँच गये, जहाँ तब ‘ईस्क्रा’ का सम्पादकीय कार्यालय था। बहुत सी बातें हुई थीं तब, बहुत से सवालों पर मिलकर सोच-विचार किया था। लेकिन इवान वसील्येविच पार्टी की दूसरी कांग्रेस में भाग नहीं ले पाये… जेलों और निर्वासन ने उन्हें देर तक कुछ करने योग्य न छोड़ा। क्रान्ति की उठती लहर नये कार्यकर्ताओं को, पार्टी के नये नेताओं को सामने ला रही थी, और बाबुश्किन इस बीच पार्टी के जीवन से कटे सुदूर उत्तर में, वेर्खोयांस्क में, रह रहे थे। पर उन्होंने समय व्यर्थ नहीं गँवाया, अध्ययन करते रहे, संघर्ष के लिए, अपने को तैयार करते रहे, निर्वासन में अपने साथ मज़दूरों के बीच सक्रिय रहे, उन्हें सचेतन सामाजिक-जनवादी और बोल्शेविक बनाने के प्रयासों में जुटे रहे। 1905 में राज-क्षमा का आदेश आया और बाबुश्किन रूस को लौट चले। लेकिन उन दिनों साइबेरिया में भी ज़ोरों से संघर्ष चल रहा था और वहाँ भी बाबुश्किन जैसे लोगों की ज़रूरत थी। वे इर्कुत्स्क समिति के सदस्य बन गये और तन-मन से काम में जुट गये। उन्हें सभाओं में भाषण देने पड़ते थे, सामाजिक-जनवादी आन्दोलन चलाना और विद्रोह का संगठन करना पड़ता था। जब बाबुश्किन अपने पाँच अन्य साथियों के साथ – खेदवश हम उनके नाम नहीं जानते – एक अलग रेल डिब्बे में हथियारों की बड़ी खेप चिता[*] नगर को ले जा रहे थे, तो साइबेरिया में विद्रोह को कुचलने के लिए भेजे गये रेन्नेनकाम्प्फ** के अभियान दल ने रेलगाड़ी रोक ली और छहों के छहों को बिना किसी सुनवाई के वहीं पर जल्दबाजी में खोदी गयी एक साझी कब्र के किनारे खड़ा करके गोलियों से मार डाला। वे वीरों की मौत मरे। प्रत्यक्षदर्शी सैनिकों ने और इस रेलगाड़ी पर जो रेल कर्मचारी थे, उन्होंने उनकी मृत्यु के बारे में बताया। बाबुश्किन जारशाही के लठैत की पाशविक बर्बरता के शिकार हुए। लेकिन मरते समय वह यह जानते थे कि जिस ध्येय को उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया है, वह नहीं मरेगा, कि लाखों-करोड़ों लोग यह कार्य करेंगे, कि इस ध्येय के लिए दूसरे साथी मज़दूर प्राण देंगे, कि वे तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक कि विजय नहीं पा लेते।…

***

कुछ लोग ये किस्से गढ़ और फैला रहे हैं कि रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी “बुद्धिजीवियों की” पार्टी है, कि मज़दूर उससे कटे हुए हैं, कि रूस में मज़दूर सामाजिक-जनवादी हैं, कि ऐसा खास तौर पर क्रान्ति से पहले और बहुत हद तक क्रान्ति के दौरान था। उदारतावादी उस क्रान्तिकारी जन संघर्ष से, जिसका नेतृत्व 1905 में रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी ने किया, अपनी घृणा के कारण यह झूठ फैला रहे हैं और समाजवादियों में से कुछ अपनी नासमझी या लापरवाही के कारण इसे दोहरा रहे हैं। इवान वसील्येविच बाबुश्किन का जीवन, इस ईस्क्रा-समर्थक मज़दूर का दस वर्ष का सामाजिक-जनवादी कार्य उदारपंथियों के इस झूठ का साफ खण्डन करता है। बाबुश्किन उन अग्रणी मज़दूरों में से एक थे, जिन्होंने क्रान्ति से दस साल पहले मज़दूरों की सामाजिक-जनवादी पार्टी बनानी शुरू की थी। सर्वहारा-समूहों में ऐसे अग्रणी लोगों के अथक, वीरतापूर्ण और सतत कार्य के बिना रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी दस साल तो क्या, दस महीनों तक भी न बनी रह पाती। ऐसे अग्रणी लोगों की गतिविधियों की बदौलत ही, उनके समर्थन की बदौलत ही 1905 तक सी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी ऐसी पार्टी बन गयी थी जो अक्टूबर और दिसम्बर के महान दिनों में सर्वहारा के साथ अभिन्न रूप से एकाकार हो गयी, जिसने न केवल दूसरी दूमा में, बल्कि तीसरी यमदूत सभाई दूमा में भी अपने मजदूर प्रतिनिधियों के रूप में यह सम्बन्ध बनाये रखा।

उदारतावादी (कैडेट) पहली दूमा के अध्यक्ष स.अ. मूरोम्त्सेव को, जिनका अभी कुछ समय पहले निधन हुआ है, जन-नायक बनाना चाहते हैं। हमें, सामाजिक-जनवादियों को, जारशाह सरकार के प्रति अपनी घृणा प्रकट करने का मौका नहीं चूकना चाहिए, उस सरकार के प्रति, जो मूरोम्त्सेव जैसे नरमपंथी और नपुंसक अधिकारियों पर भी अत्याचार करती थी। मूरोम्त्सेव सिर्फ़ नरमपंथी अधिकारी थे। जनवादी तो उन्हें किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता। वह जन साधारण के क्रान्तिकारी संघर्ष से डरते थें वह ऐसे संघर्ष से रूस के लिए मुक्ति पाने की आशा नहीं करते थे, बल्कि स्वेच्छाचारी जारशाही की सद्भावना से, रूसी जनता के इस निकटतम और निर्मम शत्रु के साथ समझौते से। ऐसे लोगों को रूसी क्रान्ति का जन-नायक कहना हास्यास्पद ही है।

लेकिन ऐसे जन-नायक हैं। ये बाबुश्किन जैसे लोग हैं। वे लोग, जिन्होंने क्रान्ति से पहले साल-दो साल नहीं, बल्कि पूरे दस साल मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष को अर्पित किये। ये वे लोग हैं, जिन्होंने इक्के-दुक्कों की आतंकवादी कार्रवाइयों में अपनी शक्ति व्यर्थ नहीं गँवायी, बल्कि दृढ़तापूर्वक, अडिगता से सर्वहारा जन-समूहों में काम करते रहे, उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ विकसित करने में मदद करते रहे। ये वह लोग हैं, जिन्होंने संकट की घड़ी आने पर, क्रान्ति के शुरू होने पर, कोटि-कोटि लोगों के गतिशील होने पर स्वेच्छाचारी जारशाही के विरुद्ध सशस्त्र जन-संघर्ष की अगुवाई की। स्वेच्छाचारी जारशाही से जो कुछ जीता गया वह केवल जनसमूहों के संघर्ष से ही जीता गया, उस संघर्ष से, जिसका नेतृत्व बाबुश्किन जैसे लोगों ने किया।

ऐसे लोगों के बिना रूसी जनता सदा दासों और तलवा चाटने वालों की जनता रहती। ऐसे लोगों के साथ रूसी जनता हर तरह के शोषण से पूर्ण मुक्ति पा लेगी।

1905 के दिसम्बर विद्रोह के पाँच वर्ष पूरे हो गये हैं। आइये, हम शत्रु के साथ संघर्ष में वीरगति को प्राप्त हुए अग्रणी मज़दूरों की स्मृति में शीश नवाकर यह वर्षगाँठ मनायें। मज़दूर साथियों से हमारा अनुरोध है कि वे उन दिनों के संघर्ष के बारे में संस्मरण जमा करके हमें भेजें, बाबुश्किन के बारे में अतिरिक्त जानकारी भी भेजें और 1905 के विद्रोह में शहीद हुए दूसरे सामाजिक-जनवादी मज़दूरों के बारे में भी। हम ऐसे मज़दूरों की जीवनियों की पुस्तिका छापने का इरादा रखते हैं। ऐसी पुस्तिका उन सब लोगों को करारा जवाब होगी, जो रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी में पूरा विश्वास नहीं रखते और जो उसकी भूमिका को घटाकर दिखाना चाहते हैं। ऐसी पुस्तिका युवा मज़दूरों के लिए श्रेष्ठ पठन-सामग्री होगी। वे इससे यह सीखेंगे कि हर वर्ग-चेतन मज़दूर को कैसे जीना और काम करना चाहिए।

(राबोचाया गजेता अंक, 18, (31) दिसम्बर 1910 खण्ड 20, पृ. 79-83)

* बाद में पता चला कि वे हथियार चिता नगर से ले जा रहे थे। -सं.

** बाद में पता चला कि विद्रोह को कुचलने के लिए भेजा गया दल अ. न. मेल्लेर-जाकोमेलल्स्की का था। -सं.

बिगुल, नवम्‍बर-दिसम्‍बर 1999


 

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