समाजवादी क्रान्ति का भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम और वर्ग-संश्रय : लेनिन की और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की अवस्थिति

प्रस्तुति: सत्यम

‘बिगुल’ में समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में मँझोले किसानों के प्रति सर्वहारा वर्ग की पार्टी की नीति को लेकर चली बहस समाप्त हो चुकी है। अपनी अवस्थिति से दायें-बायें हटते हुए तथा अधूरे एवं सन्दर्भ से कटे उद्धरण प्रस्तुत करते हुए एस. प्रताप ने विचारों का जो चलायमान युद्ध(मोबाइल वारफ़ेयर) चलाया, उसकी असलियत समापन-बिन्दु तक पहुँचते- पहुँचते एकदम साफ़ हो चुकी थी। लेकिन ऐसे अहम्मन्य मार्क्सवादीपण्डितों की कमी नहीं है जो समाजवादी क्रान्ति के वर्ग-संश्रय के प्रश्न पर भयंकर पेटी-बुर्जुआ नज़रिये के शिकार हैं और एस. प्रताप की ही तरह मुद्दे को मानो नाक का सवाल बनाकर कठदलीली करते रहते हैं। ऐसे लोगों के वर्ग-दृष्टिदोष के इलाज के लिए मैं कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के लिए ख़ुद लेनिन द्वारा तैयार की गयी ‘भूमि-प्रश्न पर प्रारम्भिक मसविदा थीसिस(जुलाई, 1920, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 31, पृ.152-164) के दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें बिन्दुओं को हूबहू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। यूँ तो भूमि-प्रश्न की सांगोपांग समझ के लिए यह पूरा दस्तावेज़ ही बहुत उपयोगी है, लेकिन यहाँ हम सिर्फ़ उस हिस्से को दे रहे हैं जो ग्रामीण सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा (अति छोटे किसान), छोटे किसान (जिन्हें हम निम्न-मध्यम भी मान सकते हैं), और मँझोले किसान और बड़े किसान से सम्बन्धित है। यह अंश बिगुल’ के आम पाठकों के लिए भी बहुत उपयोगी है और शायद यह उन कठमुल्लावादियों को भी सोचने के लिए कुछ मसाला दे जो भारत में विभिन्न रूपों में नरोदवाद के सड़े माल को नया मार्क्सवादी लेबल लगाकर बेचने में लगे हुए हैं और मध्यम किसानों की तो क्या कहें, धनी किसानों के घरों में पोतड़े धो रहे हैं।

इसलिए, लेनिन की इस ऐतिहासिक थीसिस के इन हिस्सों को देखें:

… …

2) शहरी सर्वहारा को संघर्ष में देहात के जिन मेहनतकश और शोषित लोगों का नेतृत्व करना होगा, या हर हाल में, अपनी ओर लाना होगा, सभी पूँजीवादी देशों में उनका प्रतिनिधित्व इन वर्गों द्वारा किया जाता है:

पहला, खेतिहर सर्वहारा, उजरती मज़दूर (सालाना, मौसमी या दिहाड़ी) जो पूँजीवादी कृषि उद्यमों में भाड़े पर काम करके आजीविका कमाते हैं। ग्रामीण आबादी के अन्य समूहों से स्वतन्त्र और पृथक रूप से इस वर्ग का संगठन (राजनीतिक, सैनिक, ट्रेडयूनियन, कोआपरेटिव, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि), इस वर्ग के बीच सघन प्रचार और आन्दोलन चलाना, और सोवियतों तथा सर्वहारा अधिनायकत्व के लिए इसका समर्थन हासिल करना सभी देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का मूलभूत कार्यभार है;

दूसरा, अर्द्धसर्वहारा या वे किसान जो ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं, यानी, वे जो आंशिक रूप से अपनी आजीविका कृषि या औद्योगिक पूँजीवादी उद्यमों में उजरती मज़दूरों के रूप में कमाते हैं और आंशिक रूप से ख़ुद अपने या भाड़े पर लिये ज़मीन के टुकड़ों पर काम करके, जिससे उनके परिवार को गुज़ारे के साधनों का एक हिस्सा ही प्राप्त होता है। ग्रामीण मेहनतकश आबादी का यह समूह सभी पूँजीवादी देशों में बहुत बड़ी संख्या में है; इसके अस्तित्व और विशेष दर्जे को बुर्जुआ तथा दूसरे इण्टरनेशनल के पीले “सोशलिस्ट” कम करके बताते हैं। ऐसा वे एक हद तक मज़दूरों को जानबूझकर धोखा देने के ज़रिये करते हैं और एक हद तक पेटी बुर्जुआ विचारों के ढर्रे पर आँख मूँदकर चलते हुए इस समूह को “किसान समुदाय” के साथ जोड़कर करते हैं। मज़दूरों की आँखों में धूल झोंकने का यह बुर्जुआ तरीक़ा सबसे अधिक जर्मनी और फ़्रांस में देखा जाता है, लेकिन अमेरिका और दूसरे देशों में भी यह दिखायी देता है। यदि कम्युनिस्ट पार्टी का काम सही तरीक़े से संगठित है, तो यह समूह इसका पक्का समर्थक बन जायेगा, क्योंकि इन अर्द्धसर्वहाराओं की ज़िन्दगी बेहद कठिन है और सोवियत सरकार तथा सर्वहारा अधिनायकत्व से उन्हें तत्काल और बहुत अधिक लाभ होगा;

तीसरा, छोटे किसान यानी, छोटे पैमाने पर खेती करने वाले, जिनके पास मालिक के रूप में या आसामी के रूप में, ज़मीन के छोटे टुकड़े होते हैं जिनसे वह अपने परिवारों और खेती-बाड़ी की ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं, और बाहर से श्रम भाड़े पर नहीं लेते। यह तबक़ा, निस्सन्देह, सर्वहारा की जीत से लाभ पाने की स्थिति में होता है जो इसे पूरी तरह और तत्काल: (क) बड़े भूस्वामियों को लगान या फ़सल का एक हिस्सा देने की बाध्यता से मुक्त करेगा (उदाहरण के लिए फ़्रांस में मेताएर, इटली और अन्य देशों में भी); (ख) बन्धक ऋणों से मुक्त करेगा; (ग) बड़े भूस्वामियों द्वारा उत्पीड़न के अनेक रूपों और उन पर निर्भरता (वन्य भूमि और उनका उपयोग आदि) से मुक्त करेगा; (घ) सर्वहारा राज्य द्वारा उनके खेतों को तत्काल सहायता पहुँचायेगा (सर्वहारा द्वारा ज़ब्त किये गये बड़े पूँजीवादी फ़ार्मों के कृषि उपकरणों और इमारतों के एक हिस्से का उपयोग, और सर्वहारा द्वारा ग्रामीण सहकारी समितियों और कृषि संघों का पूँजीवाद के अन्तर्गत सबसे बढ़कर धनी मँझोले किसानों की सेवा करने वाले संगठनों से ऐसे संगठनों में रूपान्तरण जो मुख्य रूप से ग़रीबों, यानी सर्वहाराओं, अर्द्धसर्वहाराओं, छोटे किसानों आदि की मदद करेंगे), और बहुत-सी अन्य चीज़ें।

साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी को साफ़तौर पर यह समझना चाहिए कि पूँजीवाद से साम्यवाद में संक्रमण की अवधि के दौरान, यानी सर्वहारा के अधिनायकत्व के दौरान, यह तबक़ा, या किसी भी समय इसका कोई हिस्सा, अपरिहार्यतः व्यापार की निर्बन्ध स्वतन्त्रता और निजी सम्पत्ति के अधिकारों का मुक्त रूप से लाभ उठाने की दिशा में ढुलमुलपन दिखायेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह तबक़ा, छोटे रूप में ही सही, उपभोग की वस्तुओं का विक्रेता है, मुनाफ़ाख़ोरी द्वारा और स्वामित्व की आदतों द्वारा भ्रष्ट हो चुका है। लेकिन, अगर दृढ़ सर्वहारा नीति लागू की जाये, और अगर विजयी सर्वहारा वर्ग बड़े भूस्वामियों तथा धनी किसानों के साथ बड़ी दृढ़ता से निपटता है, तो इस तबक़े का ढुलमुलपन चिन्तनीय नहीं होगा और इस तथ्य को नहीं बदल सकता कि, कुल मिलाकर, यह सर्वहारा क्रान्ति के पक्ष में रहेगा।

3) एक साथ लेने पर, ऊपर गिनाये गये तीनों समूह सभी देशों में ग्रामीण आबादी की बहुसंख्या का निर्माण करते हैं। इसीलिए सर्वहारा क्रान्ति की विजय सुनिश्चित है, केवल शहरों में ही नहीं बल्कि देहात में भी। इसकी उलटी सोच भी काफ़ी प्रचलित है; हालाँकि, इसके मौजूद रहने के कारण केवल ये हैं: पहला, बुर्जुआ अर्थशास्त्र और आँकड़ों द्वारा व्यवस्थित ढंग से फ़ैलाया गया धोखा, जो देहात में उपरोक्त वर्गों और शोषकों यानी बड़े भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों के बीच मौजूद खाई और अर्द्धसर्वहाराओं तथा छोटे किसानों को बड़े किसानों से अलग करने वाली खाई, दोनों पर पर्दा डालने के लिए सबकुछ करते हैं। दूसरा, इसकी मौजूदगी का कारण यह है कि पीले इण्टरनेशनल के नायक और साम्राज्यवादी विशेषाधिकारों द्वारा भ्रष्ट हो चुके उन्नत देशों के “कुलीन मज़दूर” देहात के ग़रीबों के बीच प्रचार, आन्दोलन और संगठन का वास्तविक सर्वहारा क्रान्तिकारी कार्य करने में अक्षम हैं और अनिच्छुक भी; अवसरवादियों का पूरा ध्यान हमेशा से इस बात पर केन्द्रित रहा है और अब भी है कि बुर्जुआ वर्ग जिसमें बड़े और मँझोले किसान (जिनकी चर्चा नीचे की गयी है) शामिल हैं, के साथ सैद्धांतिक और व्यावहारिक समझौतों के रास्ते कैसे निकाले जायें, न कि बुर्जुआ सरकार और बुर्जुआ वर्ग को सर्वहारा द्वारा क्रान्तिकारी ढंग से उखाड़ फ़ेंकने पर; इसकी मौजूदगी का तीसरा कारण यह समझने से अड़ियलपन भरा इन्कार है – इतना अड़ियल कि इसे पूर्वाग्रह कहा जा सकता है (जो तमाम दूसरे बुर्जुआ-जनवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों से जुड़ा हुआ है) – ऐसे सच को समझने से इन्कार है जो मार्क्सवादी सिद्धान्त द्वारा पूरी तरह सत्यापित और रूस में सर्वहारा क्रान्ति के अनुभव से पूरी तरह पुष्ट किया जा चुका है, यानी, ग्रामीण आबादी की तीनों गिनायी गयी श्रेणियाँ – जो सभी देशों में बेहद दबी-कुचली, असंगठित, और अर्द्धर्बर्बर जीवन स्थितियों में जीने के लिए अभिशप्त हैं – आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से समाजवाद की विजय में रुचि रखती हैं, लेकिन वे क्रान्तिकारी सर्वहारा को दृढ़ समर्थन उसके राजनीतिक सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाने के बाद ही दे सकती हैं, केवल तभी जब वह बड़े भूस्वामियों और पूँजीपतियों से दृढ़तापूर्वक निपट चुका हो, और केवल तभी जब ये दबे-कुचले लोग व्यवहार में यह देख लेते हैं कि उनके सामने एक संगठित नेता और हिमायती है, जो इतना मज़बूत और दृढ़ है कि उन्हें सहायता और नेतृत्व दे सकता है और सही रास्ता दिखा सकता है।

4) आर्थिक दृष्टि से, “मँझोले किसानों” का मतलब वे किसान होने चाहिए जो, (1) मालिक या आसामी के रूप में ज़मीन के ऐसे टुकड़े जोतते हैं जो छोटे तो हैं लेकिन, पूँजीवाद के तहत, न केवल गृहस्थी और खेती-बाड़ी की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं, बल्कि कुछ बेशी पैदावार भी करते हैं जिसे, कम से कम अच्छे वर्षों में, पूँजी में बदला जा सकता है; (2) जो अक्सर (उदाहरण के लिए, दो या तीन में से एक किसान) बाहरी श्रम-शक्ति को उजरत पर रखते हैं। किसी उन्नत पूँजीवादी देश में मँझोले किसानों की एक ठोस मिसाल जर्मनी में पाँच से दस हेक्टेयर तक के फ़ार्मों वाला एक समूह है, जिसमें 1907 की जनगणना के अनुसार, उजरती मज़दूरों से काम कराने वाले किसानों की संख्या इस समूह के कुल किसानों की संख्या की क़रीब एक तिहाई है।[1] फ़्रांस में, जहाँ विशेष फसलों – उदाहरण के लिए, अंगूर की खेती जिसमें बहुत बड़ी मात्र में श्रम की ज़रूरत होती है – की खेती बहुत विकसित है, यह समूह सम्भवतः कुछ अधिक पैमाने पर बाहर से श्रम भाड़े पर लेता है।

क्रान्तिकारी सर्वहारा इस तबक़े को अपनी ओर करने का कार्यभार अपने लिए नहीं तय कर सकता – कम से कम आसन्न भविष्य में या सर्वहारा अधिनायकत्व के शुरुआती दौर में – बल्कि इसे तटस्थ करने, यानी सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के बीच के संघर्ष में इसे तटस्थ बनाने के कार्यभार तक स्वयं को सीमित रखना चाहिए। यह तबक़ा अपरिहार्यतः इन दो शक्तियों के बीच इधर-उधर डोलता रहता है; नये युग की शुरुआत में और विकसित पूँजीवादी देशों में, मुख्यतः इसका झुकाव बुर्जुआ वर्ग की ओर होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि इस तबक़े में सम्पत्ति के मालिकों का विश्व दृष्टिकोण और भावनाएँ हावी हैं। इस तबक़े का प्रत्यक्ष हित मुनाफ़ाख़ोरी में, व्यापार की “स्वतन्त्रता” में और सम्पत्ति में है, और उजरती मज़दूरों के साथ इसका प्रत्यक्ष अन्तरविरोध है। लगान और बन्धक ऋणों को समाप्त करके, विजयी सर्वहारा इस तबक़े की स्थिति में तत्काल सुधार लायेगा। लेकिन, ज़्यादातर पूँजीवादी देशों में, सर्वहारा राज्य को एक झटके में निजी सम्पत्ति का उन्मूलन नहीं करना चाहिए; किसी भी हाल में, यह छोटे और मँझोले दोनों किसानों के लिए, न केवल उनके ज़मीन के टुकड़ों के बने रहने की गारण्टी करता है बल्कि इस बात की भी गारण्टी करता है कि इनके दायरे में वह समस्त क्षेत्र आ जायेगा जिसे आमतौर पर वे लगान पर लेते थे (लगान का खा़त्मा)।

बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध निर्मम संघर्ष के साथ मिलकर ऐसे उपाय तटस्थीकरण की नीति की सफ़लता को पूरी तरह सुनिश्चित करते हैं। सर्वहारा राज्य को सामूहिक खेती में संक्रमण को अत्यधिक सावधानी से तथा केवल क्रमिक रूप से संचालित करना चाहिए, उदाहरण की शक्ति से, जिसमें मँझोले किसानों पर ज़रा भी बल प्रयोग न हो।

5) बड़े किसान (ग्रॉसबावर्न) कृषि में पूँजीवादी उद्यमी हैं, जो नियम के तौर पर बहुत से भाड़े के मज़दूरों को काम पर लगाते हैं और “किसान समुदाय” से उनका जुड़ाव केवल उनके निम्न सांस्कृतिक स्तर, जीवन की आदतों और अपने खेतों पर ख़ुद किये गये शारीरिक श्रम के रूप में ही होता है। यह सबसे बड़ा बुर्जुआ तबक़ा है जोकि क्रान्तिकारी सर्वहारा का खुला और दृढ़निश्चयी शत्रु होता है। देहात में अपने तमाम कार्य में, कम्युनिस्ट पार्टियों को अपना ध्यान मुख्यतः इस तबक़े के विरुद्ध संघर्ष पर, इन शोषकों के विचारधारात्मक और राजनीतिक प्रभाव से ग्रामीण आबादी की मेहनतकश और शोषित बहुसंख्या को मुक्त करने पर, केन्द्रित करना चाहिए।

शहरों में सर्वहारा की जीत के बाद, इस तबक़े की ओर से हर प्रकार के प्रतिरोध और तोड़फ़ोड़ की अभिव्यक्तियाँ, तथा प्रतिक्रान्तिकारी चरित्र की सीधी सशस्त्र कार्रवाइयाँ एकदम अपरिहार्य हैं। इसलिए क्रान्तिकारी सर्वहारा को इस तबक़े को पूरी तरह निहत्था करने के लिए ज़रूरी विचारधारात्मक और संगठनात्मक तैयारी तत्काल शुरू करनी चाहिए, और उद्योग में पूँजीपतियों को उखाड़ फ़ेंकने के साथ ही साथ प्रतिरोध के पहले संकेत मिलते ही इस तबक़े पर अत्यधिक दृढ़, निर्मम और ध्वस्त कर देने वाली चोट करने की तैयारी करनी चाहिए। इस उद्देश्य से, ग्रामीण सर्वहारा को सशस्त्र किया जाना चाहिए और ग्राम सोवियतें संगठित की जानी चाहिए, जिनमें शोषकों का कोई स्थान न हो, और जिनमें सर्वहाराओं और अर्द्धसर्वहाराओं का वर्चस्व सुनिश्चित हो।

बहरहाल, बड़े किसानों के स्वत्वहरण को भी विजयी सर्वहारा का तात्कालिक कार्यभार नहीं बनाया जा सकता क्योंकि ऐसे फ़ार्मों के समाजवादीकरण की सामाजिक परिस्थितियों के साथ ही साथ भौतिक और ख़ासकर तकनीकी परिस्थितियाँ अभी मौजूद नहीं हैं। कुछ अलग-अलग और शायद अपवादस्वरूप मामलों में, उनकी ज़मीन के वे हिस्से जिन्हें वे छोटे-छोटे टुकड़ों में भाड़े पर देते हैं या जिनकी आसपास के छोटे किसानों की आबादी को ख़ासतौर पर ज़रूरत हो, को ज़ब्त किया जायेगा। बड़े किसानों के कृषि यन्त्रों आदि के एक हिस्से के, कुछ शर्तों पर, छोटे किसानों द्वारा मुक्त रूप से इस्तेमाल की भी गारण्टी की जायेगी। हालाँकि आम नियम के तौर पर सर्वहारा राज्यों को बड़े किसानों को अपनी ज़मीन अपने पास रखने की छूट देनी चाहिए, और इसे तभी ज़ब्त करना चाहिए जब वे मेहनतकश और शोषित लोगों की सत्ता का प्रतिरोध करें। रूसी सर्वहारा क्रान्ति के अनुभव, जिसमें बड़े किसानों के विरुद्ध संघर्ष अनेक विशेष परिस्थितियों के कारण जटिल और लम्बा चला, ने यह दिखाया कि अगर प्रतिरोध की थोड़ी-सी कोशिश करने पर भी कड़ाई से सबक़ सिखाया जाये, तो यह तबक़ा सर्वहारा राज्य द्वारा तय किये गये कार्यभारों को वफ़ादारी से पूरा करने में सक्षम है, और यहाँ तक कि, बहुत धीरे-धीरे ही सही, उस सरकार के लिए सम्मान भी इसमें पैदा होने लगता है जोकि सभी काम करने वालों की रक्षा करती है और निकम्मे अमीरों के प्रति निर्मम होती है।

रूस में बुर्जुआ वर्ग की पराजय के बाद बड़े किसानों के विरुद्ध सर्वहारा के संघर्ष को जटिल बनाने और धीमा करने वाली विशेष परिस्थितियाँ, मुख्य रूप से, निम्नलिखित थीं: 25 अक्टूबर (7 नवम्बर) 1917 के बाद रूसी क्रान्ति ने “आम जनवादी” मंज़िल को पार कर लिया – यानी मूलतः समग्र किसान समुदाय द्वारा भूस्वामियों के विरुद्ध बुर्जुआ जनवादी संघर्ष, शहरी सर्वहारा की सांस्कृतिक और संख्यात्मक कमज़ोरी; और अन्त में, बहुत अधिक दूरियाँ और संचार के बहुत ख़राब साधन। चूँकि उन्नत देशों में संघर्ष को धीमा करने वाली ये स्थितियाँ मौजूद नहीं हैं, इसलिए यूरोप और अमेरिका के क्रान्तिकारी सर्वहारा को अधिक ऊर्जस्वी ढंग से तैयारी करनी चाहिए, और बड़े किसानों के प्रतिरोध पर पूर्ण विजय ज़्यादा तेज़ी, दृढ़ता और सफ़लता के साथ हासिल करनी चाहिए। यह अनिवार्य है क्योंकि, जब तक ऐसी पूर्ण विजय हासिल नहीं होती, तब तक ग्रामीण सर्वहाराओं, अर्द्धसर्वहाराओं और छोटे किसानों का जनसमुदाय सर्वहारा राज्य को पूरी तरह स्थिर राज्य के रूप में स्वीकार्य नहीं करेगा।

[1] ‘बिगुल’ में प्रकाशित इस अनुवाद में यहाँ पर छपाई की ग़लतियों के कारण अस्पष्टता थी जिसकी और एस. प्रताप ने अपने पहले अप्रकाशित लेख में इशारा किया है; यहाँ इन दो वाक्यों को शुद्ध करके छापा जा रहा है ।

बिगुल, मार्च, 2005


 

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