मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – दो

एस. प्रताप

इस बार बहस में शामिल लेख में प्रवचन अधिक है और मार्क्सवादी विश्लेषण कम। अहम्मन्यतापूर्ण गुस्से के अतिरेक से लगता है कि साथी सुखदेव की तबीयत ख़राब हो गयी है। मेरी सलाह है कि वे थोड़ी देर तक लम्बी-लम्बी साँस लें और आराम करें। मेरा यह लेख उनके लिए ग्लूकोज़ का काम करेगा। लेकिन साथ ही मैं साथी सुखदेव को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उनके लेख ने मुझे इस विषय पर और अधिक गहराई से सोचने-समझने में मदद दी है।

बहस को आगे बढ़ाते हुए अपनी बात शुरू करने से पहले यहाँ एक बात स्पष्ट होते हुए भी फि़र से स्पष्ट कर देना ज़रूरी लग रहा है। यह बहस अब किसी एक लागत मूल्य घटाने की माँग पर केन्द्रित नहीं रह गयी है। मँझोले किसान कौन हैं और उनके प्रति सर्वहारा दृष्टिकोण क्या हो? बहस अब इस सवाल पर केन्द्रित है। मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के संश्रयकारी के रूप में कैसे और किन माँगों पर गोलबन्द किया जा सकता है? – इसी सन्दर्भ में मैंने धनी किसानों की लाभकारी मूल्य की माँग के समानान्तर छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने की बात की है। इस माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए सम्पादक-मण्डल के दो लेख आये और उसमें इसके समानान्तर छोटे-मँझोले किसानों को संगठित करने के लिए सम्पादक-मण्डल ने माँगों की एक लम्बी सूची भी पेश की। मैं मूरख सम्पादक-मण्डल और उससे पहले आये साथी नीरज के लेख के तर्कों से सहमत नहीं हो सका और लम्बे अन्तराल के बाद एक लेख लिखकर बहस को फि़र से शुरू करने का पाप कर दिया। मैंने अपने लेख में मुख्यतः तीन सवाल उठाये थे:

1. मैंने अपने लेख में यह दिखाया था कि कैसे सम्पादक-मण्डल छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए भी ख़ुद उनके लिए लागत मूल्य घटाने की माँग की वकालत करता है। सम्पादक-मण्डल ने अपने लेख ‘किन माँगों पर लड़ेंगे छोटे-मँझोले किसान’ में माँगों की जो लम्बी सूची पेश की है – उनमें एक को छोड़कर अन्य सभी माँग देश में सभी पेशों-धन्धों से जुड़ी ग़रीब और मध्यवर्गीय आबादी की सामान्य माँगें हैं। एक ही माँग है और वह है छोटे-मँझोले किसानों को रियायती दर पर बिजली-पानी देने की माँग। बिजली-पानी खेती की महत्त्वपूर्ण लागत है। यदि बिजली-पानी को रियायती दर पर देने की माँग उठायी जा सकती है तो यह तर्क खाद-बीज कीटनाशक आदि पर भी लागू किया जा सकता है। यानी, सम्पादक-मण्डल एक तरफ़ तो लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताता है और दूसरी तरफ़ ख़ुद यह माँग उठाने की वकालत भी करता है। साथी सुखदेव अपने लेख में इस पर चुप्पी साध गये हैं।

सम्पादक-मण्डल ने अपनी माँगों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हुए एक और बात भी कही है। उसका कहना है कि पूँजीवादी विकास ने सभी मध्यवर्गीय तबक़ों की माँगों में समानता ला दी है। लेकिन क्या उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों और सेवाओं, व्यापार आदि में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों को एक साथ गोलबन्द करना सम्भव है? और यदि ऐसा हो भी जाये तो भी उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों की मुख्य माँग तो उत्पादन से ही जुड़ी हुई होगी। ऐसी स्थिति में माँगों की सूची में से खेती की लागत घटाने से जुड़ी बिजली-पानी को रियायती दर पर देने की माँग ही छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग होगी। इस हालत में क्या सम्पादक-मण्डल छोटे-मँझोले किसानों के लिए मुख्य माँग के रूप में लागत मूल्य घटाने की माँग की वकालत नहीं कर रहा है?

2. लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए सम्पादक-मण्डल ने जो मार्क्सवादी विश्लेषण प्रस्तुत किया है, मैंने अपने लेख में उसके एकांगीपन और उसके अन्तरविरोधों को उजागर कर दिया था। सम्पादक-मण्डल का कहना था कि लागत मूल्य घटाने यानी खाद-बीज, बिजली-पानी आदि का दाम घटने से इसकी क़ीमत खाद-बीज आदि के उद्योगों के मज़दूरों को ही चुकानी पड़ेगी। पूँजीपति अपना मुनाफ़ा क़ायम रखने के लिए मज़दूरों को और अधिक निचोड़ेंगे, मशीनीकरण आदि के द्वारा मज़दूरों की भारी आबादी को बेकारी के दलदल में धकेल देंगे। मैंने सवाल उठाया था कि महँगाई के ख़िलाफ़ आम जनता के आन्दोलन भी औद्योगिक उत्पादों के दाम घटाने की माँग करते हैं – ऐसे में सम्पादक-मण्डल के तर्कों के अनुसार इससे भी उन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों पर क़हर टूटेगा। तो क्या सम्पादक-मण्डल महँगाई विरोधी आन्दोलनों के ख़िलाफ़ है? मैंने दिखाया था कि सम्पादक-मण्डल इस पूरे मामले में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग की भूमिका को नज़रअन्दाज़ कर देता है। इसलिए उसका मार्क्सवादी विश्लेषण एकांगीपन का शिकार है। और यह कि इस तर्क के सहारे छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य की माँग उठाने को सर्वहारा विरोधी नहीं कहा जा सकता है। साथी सुखदेव इस सवाल पर भी चुप्पी साध गये हैं।

3.लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए सम्पादक-मण्डल और साथी नीरज का मुख्य तर्क था, किसानों की लागत में मज़दूरी भी शामिल होती है और इसलिए इस माँग को उठाने का मतलब होगा – मज़दूरी कम करने की माँग। मैंने अपने लेख में कहा था कि मँझोला किसान मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है और कभी-कभी और आपात स्थितियों में ही मज़दूर लगाता है, इसलिए उसकी माँग में मज़दूरी या किसी भी रूप में श्रम की लागत घटाने की माँग शामिल नहीं हो सकती है। इसलिए इस तर्क के सहारे इसे सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा नहीं दिया जा सकता है।

साथी सुखदेव ने इसी सवाल पर अपने को केन्द्रित किया है और मुक्का ठोंककर घोषित कर दिया है कि मँझोले किसान की खेती अब उजरत पर ही आधारित होती है। हालाँकि “वे इतना अधिक मुनाफ़ा नहीं कमा पाते कि वे इसे खेती में पुनः निवेश करके और ज़मीन ख़रीद कर धनी किसानों की जमात में शामिल हो सकें। ऐसा इनमें से बहुत कम ही कर पाते हैं। इनमें से ज़्यादातर की नियति यही होती है कि इन्हें देर-सबेर उजरती सर्वहाराओं-अर्द्धसर्वहाराओं की क़तारों में ही शामिल होना होता है।”

स्पष्ट है कि अब बहस मुख्यतः इस सवाल पर आकर टिक गयी है कि मँझोला किसान कौन है? हम किसे कहेंगे मँझोला किसान?

सबसे पहले तो मैं यह बात कहना चाहूँगा कि समाजवादी क्रान्ति के दौर में ऐसा कोई भी वर्ग सर्वहारा वर्ग का दोस्त नहीं हो सकता, जिसका अस्तित्व उजरती श्रम के शोषण पर टिका हो। साथी सुखदेव और सम्पादक-मण्डल जिसे मँझोला किसान कह रहे हैं अगर वही मँझोला किसान है तो उसे संगठित करने की बात ही भूल जानी चाहिए। वह अपने पूरे अस्तित्व के साथ सर्वहारा क्रान्ति का विरोधी है। ऐसे में सम्पादक-मण्डल द्वारा उसे संगठित करने के लिए जो लम्बी सूची पेश की गयी है – वह एक प्रतिक्रियावादी क़दम है। और दरअसल ऐसा ही है भी। क्योंकि जिसे वे मँझोला किसान कह रहे हैं, वह सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, छोटा-मोटा कुलक है, धनी किसान है।

दरअसल, खेती में पूँजीवादी विकास और वर्ग विभेदीकरण के साथ ही पाँच तरह के वर्ग अस्तित्व में आते हैं: पूँजीवादी भूस्वामी; जो लगभग उद्योग की तरह ही अपनी खेती करता है, उसकी खेती पूरी तरह उजरत पर आधारित होती है। लेकिन उत्पादन प्रक्रिया में वे ख़ुद अपना कोई श्रम नहीं लगाते हैं।

धनी किसान या कुलक; जिनकी खेती मुख्यतः और मूलतः उजरती श्रम पर आधारित होती है। लेकिन उत्पादन प्रक्रिया में वे ख़ुद भी अपना श्रम लगाते हैं।

मँझोला किसान; जिसकी खेती मुख्यतः और मूलतः उसके ख़ुद के श्रम पर आधारित होती है, लेकिन कभी-कभी वह मज़दूर भी लगाता है। मँझोले किसानों के वर्ग-चरित्र को समझने के लिए इसे तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है – उच्च-मध्यम किसान का वर्ग-चरित्र कुलकों के नज़दीक का होता है और मँझोले किसानों का यही हिस्सा कभी-कभी मज़दूर लगाता है। मध्यम-मध्यम किसानों का हिस्सा अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। निम्न-मध्यम किसानों का हिस्सा निचली पैड़ी पर खड़े ग़रीब किसानों के नज़दीक का होता है और यह कभी-कभी मज़दूरी भी करता है।

इसके बाद आते हैं ग़रीब किसान और मज़दूर। मँझोले किसानों का बुनियादी चरित्र उसके बीच वाले हिस्से से ही निर्धारित होता है, इसका ऊपर वाला हिस्सा और नीचे वाला हिस्सा उसके चरित्र के उन पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, जो एक तरफ़ तो इसकी कुलकों से नज़दीकी और दूसरी तरफ़ सर्वहारा वर्ग से नज़दीकी दिखाते हैं और भविष्य की इसकी गति को चिन्हित करते हैं।

लेनिन जहाँ कहीं भी मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के दोस्त के रूप में साथ लेने की वकालत करते हैं वहाँ वे इसके उस वर्ग-चरित्र पर ज़ोर देते हैं जो मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है और उजरती श्रम का शोषण नहीं करता है। लेकिन जब वे ऐसे लोगों से निपट रहे होते हैं, मसलन मेंशेविकों से, जो मँझोले किसानों को सर्वहारा की तरह ही मेहनतकश बताते हैं, तो वे उनके मंसूबों का पर्दाफ़ाश करते हुए मँझोले किसान के उस वर्ग-चरित्र को पूरे ज़ोर के साथ चिन्हित करते हैं, जो उसे कुलकों का नज़दीकी बनाता है।

इसके अलावा, लेनिन द्वारा अलग-अलग समय पर लिखे लेखों में मँझोले किसान के अलग-अलग पक्षों पर ज़ोर शायद इसलिए भी हो कि पूँजीवादी विकास की अगली मंज़िलों में मँझोले किसानों के ऊपरी स्तर का अनुपात बढ़ा हो। लेकिन इस पर मेरा कोई अध्ययन न होने से मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।

दरअसल पूँजीवादी विकास जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, जैसे-जैसे कृषि पूरी तरह बाज़ार पर निर्भर होती जाती है और जैसे-जैसे उत्पादन प्रक्रिया का मशीनीकरण होता जाता है, मँझोले किसानों के बीच वाले और निचले हिस्से का तेज़ी के साथ सर्वहाराकरण होता जाता है, जबकि ऊपर वाले हिस्से का कुलकीकरण होता जाता है। ख़ासकर खेती के विकसित इलाक़ों और उनमें भी ख़ासकर नक़दी फसलों और औद्योगिक फसलों वाले इलाक़ों में यह प्रक्रिया तेज़ी के साथ घटित हुई और हो रही है। यहाँ मँझोले किसानों के बीच वाले हिस्से का अस्तित्व तेज़ी के साथ मिट रहा है। इस पर कोई ठोस अध्ययन मेरी जानकारी में नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन इलाक़ों में अपने श्रम पर आधारित खेती करने वाला मँझोले किसानों का यह हिस्सा नगण्य होता जा रहा है। इस बीच वाले हिस्से और निचले हिस्से के सर्वहाराकरण से सर्वहाराओं और ग़रीब किसानों की संख्या तेज़ी के साथ बढ़ रही है। इसके साथ ही मँझोले किसानों के ऊपरी हिस्से का कुलकीकरण भी बढ़ा है और अब वह क़र्ज़ लेकर खेती में निवेश करता है तथा मुख्यतः उजरत पर आधारित खेती करता है। दरअसल यह प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हमारे लिए मँझोले किसानों का सवाल ही समाप्त हो जाता है। इसका बैरोमीटर है बीच वाला हिस्सा। अगर अपने श्रम पर आधारित खेती करने वाले मँझोले किसानों का हिस्सा संख्या की दृष्टि से नगण्य हो गया तो फि़र सर्वहारा क्रान्ति के लिए मँझोले किसानों का जटिल पचड़ा ही समाप्त हो गया। क्योंकि इसके साथ इसी प्रक्रिया में उसके ऊपरी हिस्से का कुलकीकरण हो जाता है और निचला हिस्सा ग़रीब किसानों और सर्वहाराओं की जमात में जा खड़ा होता है। छोटी जोत वाले वे किसान जो क़र्ज़ लेकर मुख्यतः उजरत पर आधारित खेती करते हैं, वे मँझोले किसान नहीं छोटे-मोटे कुलक हैं। देहातों में सर्वहारा वर्ग की मज़दूरी की लड़ाई के ख़िलाफ़ वे बड़े कुलकों से कम उग्रता के साथ नहीं खड़े होंगे। बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगल जाती है सो वे भी तबाह हो जायेंगे। लेकिन उनके बारे में हम तभी सोचेंगे जब वे तबाह होकर सर्वहारा की पाँतों में शामिल हो जायेंगे।

हाँ, एक बात यहाँ और ध्यान देने की है। जब तक छोटी जोत वाले इन कुलकों का आधार बना रहेगा और जब तक खेती का पूँजीवादी विकास उस मंज़िल पर नहीं पहुँचता कि अन्य वर्गों को हज़म कर पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग एकमात्र शोषक वर्ग के रूप में खड़ा हो जाये तब तक समाजवादी क्रान्ति के बाद मँझोले किसानों की समस्या फि़र से उठने की सम्भावना बनी रहेगी, क्योंकि छोटी जोत वाले कुलक उस समय उजरत का शोषण नहीं कर सकेंगे और मँझोले किसान बन जायेंगे।

खेती के अपेक्षाकृत कम विकसित और पिछड़े इलाक़ों में भी उपर्युक्त प्रक्रिया जारी है और उदारीकरण के बाद तेज़ हुई है। लेकिन अभी यहाँ उन मँझोले किसानों का आधार इतना नहीं सिकुड़ा है जो अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं। हालाँकि, यहाँ भी मँझोले किसानों के ऊपरी हिस्से का कुलकीकरण और बीच व निचले हिस्से का सर्वहाराकरण तेज़ी से बढ़ा है। जिसके चलते ही ग़रीब किसानों और मज़दूरों की संख्या तेज़ी के साथ बढ़ी है। यहाँ एक ऐसी प्रक्रिया भी दिखायी देती है, जिसमें खेती में पूँजी के विकास के अलावा कई अन्य फ़ैक्टर भी मँझोले किसानों के एक हिस्से के कुलकीकरण को गति दे रहे हैं। ज़मींदारी टूटने के बाद उच्च जातियों के मँझोली जोत के किसानों ने ग़रीबी झेलते हुए भी लम्बे समय तक हल नहीं पकड़ा था, बाद में पूँजीवादी विकास से पैदा हुई अनुकूल परिस्थितियों और पूँजी की मार ने उन्हें सच्चे अर्थों में मँझोला किसान बना दिया था। हालाँकि फि़र भी उच्च जातियों और मध्यम व निम्न जातियों के मँझोले किसानों में इतना अन्तर तो रहा ही कि उच्च जातियों की औरतें सामान्यतः खेत में काम करने नहीं जाती हैं। अब एक बार फि़र परिवार की कृषि से इतर, नौकरी या अन्य व्यवसाय से आय बढ़ते ही इस मँझोले किसान का कुलकीकरण तेज़ी से बढ़ा है। भले ही उस ज़मीन से उसे कुछ ख़ास हासिल न हो, वह उसे बेचता नहीं है। वह उसकी नाक है। यहीं से उभयजीवी वर्गों (गाँव में मँझोले या धनी किसान और शहर में मज़दूर) की समस्या भी पैदा होती है। वह पूरी खेती बटाई पर दे देता है या मज़दूर लगाकर खेती करता है। उसमें से उसे कुछ मुनाफ़ा हासिल हो या नहीं, कोई फ़र्क नहीं पड़ता, हम उसे मँझोला किसान नहीं कह सकते। वह अपने पूरे अस्तित्व के साथ सर्वहारा विरोधी है। अन्य जातियों के मँझोले किसानों में भी यह परिघटना दिखायी देती है। लेकिन उच्च जातियों के मँझोले किसानों में यह अधिक देखने को मिलती है। शायद ऐसा इसलिए भी हो कि उच्च जातियों के मँझोले किसानों की कृषि से इतर आय अन्यान्य कारणों से अधिक बढ़ी हो। लेकिन श्रम विरोधी जातिगत मानसिकता भी इसमें भूमिका निभाती है। अमूमन छोटी-मँझोली जोत के इन कुलकों को मँझोला किसान समझ लिया जाता है। ज़मींदारी टूटने के बाद पैदा हुए छोटी-मँझोली जोत के उच्च जातियों के कुलकों को भी मँझोला किसान समझने की ही सोच मौजूद रही है। देहात के इलाक़ों में मज़दूरों का सशक्त आन्दोलन ही इस जटिलता को समाप्त कर सकता है क्योंकि इससे या तो वे उजड़ जायेंगे, या फि़र सच्चे अर्थों में मँझोले किसान बन जायेंगे।

इस तरह पूँजी की मार से तबाह होने के साथ ही अन्य प्रक्रियाओं के ज़रिये भी उस मँझोले किसान का आधार सिकुड़ रहा है जो अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। लेकिन फि़र भी ये प्रक्रियाएँ इतनी तेज़ नहीं हैं कि यहाँ भी मँझोले किसान के पचड़े से हमें जल्दी मुक्ति मिल सके। हालाँकि इस पर भी कोई अध्ययन उपलब्ध न होने से ठोस-ठोस कुछ भी कह पाना फ़िलहाल सम्भव नहीं है। मेरे ख़याल से उपर्युक्त चर्चा में साथी सुखदेव के तमाम सवालों का जवाब आ चुका है। और अब समझ के इस धरातल पर खड़े होकर ख़ुद मेरे लिए भी यह सवाल खड़ा हो गया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विकसित खेती के इलाक़ों में यदि मँझोले किसान का आधार तेज़ी के साथ सिकुड़ रहा है तो भला वहाँ मँझोले किसानों को संगठित करने के लिए लागत मूल्य की माँग क्यों उठायी जाये? यूँ तो अध्ययन के बाद ही किसी ठोस नतीजे पर पहुँचा जा सकता है, लेकिन ऐसा लगता है कि खेती के विकसित इलाक़ों में मँझोले किसानों का सवाल लगभग समाप्त हो चुका है या फि़र निकट भविष्य में समाप्त हो जायेगा।

साथी सुखदेव की मूर्खतापूर्ण कटूक्तियों और उनके मार्क्सवादी विश्लेषण पर टिप्पणी करने की मूर्खता तो मैं नहीं करना चाहता, लेकिन यहाँ बिन्दुवार कुछ बातें कह देना उचित होगा।

मैंने अपने लेख में कहा था कि:

   – मँझोले किसानों को संगठित करने का सवाल तब तक हाथ में नहीं लिया जा सकता जब तक देहात में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में सशक्त मज़दूर आन्दोलन पैदा न हो गया हो। लागत मूल्य के सवाल पर किसानों को संगठित करने की समस्याओं को इस बात को ध्यान में रखकर ही देखा जाना चाहिए।

   –मँझोला किसान मुनाफ़े के लिए खेती नहीं करता है। खेती पिछड़ी हुई थी, तो वह लगभग सभी फ़सलें ख़ुद ही उगा लेता था। खेती में पूँजीवादी विकास के बाद किसान सिर्फ़ कुछ फ़सलें ही उगाते हैं और उन्हें बेचकर ज़रूरत की अन्य फ़सलें बाज़ार से ख़रीदते हैं। इसलिए फसलों का लाभकारी मूल्य बढ़ने से उनका कोई फ़ायदा नहीं होगा। दूसरी तरफ़, लागत मूल्य बढ़ने से पूँजी न होने के चलते उनके लिए खेती करना सम्भव नहीं रह गया है। लागत घटने से उनको यह फ़ायदा होगा। साथ ही यदि इससे अनाज का दाम गिरता है तो उनका नुक़सान नहीं होगा क्योंकि वे कुछ फ़सलें बेचते हैं और कुछ फ़सलें ख़रीदते हैं। यह सामान्य स्थिति है – छोटे-बड़े मँझोले किसानों के हिसाब से गणित लगाने पर इसमें उतनी जटिलता तो सामने आनी ही है, जितनी जटिलता मध्यम वर्ग के चरित्र के साथ जुड़ी है।

   – उद्धरण को काँटने-छाँटने का आरोप ग़लत है – उससे उसका मतलब और सन्दर्भ नहीं बदला है। बल्कि एक बात को सुखदेव ने उलटा कर दिया है – मैंने उद्धरण के माध्यम से यह कहा है कि लेनिन लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते नहीं दिखायी देते – सुखदेव ने ऐसे लिखा है जैसे उद्धरण देकर यह कह रहा हूँ कि लेनिन लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने की वकालत कर रहे हैं। दोनों बातें अलग-अलग हैं।

   – मेरे लेख में वाजिब मूल्य पर दबाव बनाने की बात इस सन्दर्भ में थी कि चीनी मिल-मालिकों ने एकाएक गन्ने का दाम घटा दिया था। ऐसे में गन्ने की खेती करने वाले मँझोले किसानों के संगठन की यह व्यावहारिक मजबूरी होगी कि वे इसके विरोध में बोलें। लेकिन फि़र भी मेरे लेख में यह एक रणनीति जैसी लगती है, इसलिए वह ग़लत है। लेकिन इसको लाभकारी मूल्य से अलग करके देखा जाना चाहिए। लाभकारी मूल्य की माँग का मतलब होता है, लागत पर कुछ प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर फ़सल का दाम तय करने की माँग।

  बिगुल, जनवरी 2005


 

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