मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – एक

एस. प्रताप

खेती में पूँजीवादी विकास के साथ ही ग्रामीण आबादी में वर्गीय ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तीखी हो उठती है और शहरों की तरह ही गाँवों में भी सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग (धनी किसान या पूँजीवादी भूस्वामी) आमने-सामने आ खड़े होते हैं। समाजवादी क्रान्ति के दौर में गाँवों में असली और निर्णायक युद्ध तो इन्हीं के बीच होना है। इस युद्ध में गाँव का अर्द्धसर्वहारा वर्ग (यानी मुख्यतः ग़रीब किसान) भी सर्वहारा की सेना में ही लामबन्द होता है क्योंकि उसका जीवन वस्तुतः सर्वहारा का जीवन बन चुका है, अपने छोटे से खेत के टुकड़े से उसका पेट नहीं भरता और उसे भी मज़दूरी करके अपने परिवार का पेट पालना पड़ता है। लेकिन ग्रामीण आबादी के भीतर एक तीसरा वर्ग भी है – मँझोला किसान। अलग-अलग देशों के इतिहास, पूँजीवादी विकास की मंज़िलों, आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप ग्रामीण आबादी में इसका प्रतिशत कम या अधिक हो सकता है। पूँजीवादी विकास जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, इसकी तबाही और बरबादी भी बढ़ती जाती है। यह किसी भी तरह अपने अस्तित्व को नहीं बचा सकता, यह भावी सर्वहारा है। लेकिन इस प्रक्रिया की गति भी परिस्थितियों पर ही निर्भर करती है। हमारे देश में मँझोले किसानों की अच्छी-ख़ासी आबादी अभी भी मौजूद है और सर्वहाराकरण की तीव्र प्रक्रिया के बावजूद ग्रामीण आबादी में उनका प्रतिशत घटा ज़रूर है, लेकिन अभी भी ऐसी स्थिति नहीं आयी है कि पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ ग्रामीण सर्वहारा के संघर्ष में उनकी भूमिका को नज़रअन्दाज़ कर दिया जाये और सर्वहारा के एक संश्रयकारी वर्ग के रूप में उनकी लामबन्दी के सवाल से आँखें मूँद ली जायें। यहाँ इस बात का उल्लेख कर देना भी समीचीन होगा कि उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर ग्रामीण आबादी में मध्यम किसानों के प्रतिशत के बारे में सिर्फ़ मोटा-मोटा अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है, क्योंकि आँकड़े जोतों पर आधारित हैं और जोतों की उत्पादकता और कृषि उपजें देश के अलग-अलग हिस्सों में इतनी अधिक बदलती रहती हैं कि जोतों के आधार पर एक इलाक़े का मध्यम किसान दूसरे इलाक़े का धनी किसान हो सकता है और तीसरे इलाक़े का ग़रीब किसान। इन आकड़ों से देशव्यापी स्तर पर उस मध्यम किसान आबादी का प्रतिशत पता करना टेढ़ी खीर है, जो अपने ही श्रम से अपनी खेती करता है, मज़दूर नहीं लगाता और उसकी जोत न तो उसके भरण-पोषण से कम है, न अधिक। यह बात करना यहाँ इसलिए आवश्यक हो गया कि आजकल कुछ लोग ज़ोरशोर से यह बात कहना शुरू कर चुके हैं कि गाँवों में सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा की आबादी 60 प्रतिशत के आसपास पहुँच चुकी है, तथा यह कि समाजवादी क्रान्ति में अब मँझोले किसानों की भूमिका अप्रासंगिक हो चुकी है। हालाँकि, वे इसका ज़िक्र नहीं करते कि बकाया चालीस फ़ीसदी में मध्यम किसानों और धनी किसानों का प्रतिशत क्या है। यदि चालीस फ़ीसदी में मध्यम किसानों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा है और वह भावी सर्वहारा है और सर्वहारा का संश्रयकारी है, तो उसे क्यों गोलबन्द नहीं किया जाना चाहिए? राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा करने की लड़ाई के साथ ही उसके बाद समाजवादी निर्माण की समस्याओं के मद्देनज़र भी क्या उसे सर्वहारा के संश्रयकारी के रूप में गोलबन्द करना आवश्यक नहीं है?

कोई भ्रम पैदा न हो इसलिए यहीं पर यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि समाजवादी क्रान्ति में मँझोले किसानों की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर और एक पक्षीय तरीक़े से आँकना भी ग़लत होगा। जिस तरह सामन्तवाद विरोधी क्रान्ति में धनी किसान एक ढुलमुल संश्रयकारी वर्ग था, उसी तरह समाजवादी क्रान्ति में मँझोला किसान भी एक ढुलमुल संश्रयकारी ही है। उसका दोहरा चरित्र है। एक तरफ़ तो वह मेहनतकश है और भावी सर्वहारा है, लेकिन दूसरी तरफ़ बावजूद इसके कि वह भाड़े के श्रम का शोषण नहीं करता वह एक माल उत्पादक निम्न पूँजीपति है और उसका यह चरित्र उसे सर्वहारा के विरोधी के रूप में बदल देता है। इसलिए ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को संगठित किये बिना उसे संगठित करने की बात करना पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग के हाथों में खेलने जैसे ही बात होगी। मँझोले किसानों के साथ सर्वहारा वर्ग का संश्रय एक संयुक्त मोर्चा के रूप में ही अभिव्यक्त हो सकता है और जब सर्वहारा वर्ग संगठित ही न हो तो भला वह संयुक्त मोर्चा क़ायम ही कैसे कर सकता है। इससे पहले मँझोले किसानों को संगठित करने पर ज़ोर देने का मतलब होगा कि वे सर्वहारा वर्ग को अपने हितों के लिए ही इस्तेमाल करेंगे और सर्वहारा वर्ग उन्हें अपने प्रभाव में लाने में और उनके वैचारिक रूपान्तरण में अक्षम साबित होगा। गन्ना किसानों की समस्या पर बात करते हुए ही सही, गन्ना किसानों पर मेरी टिप्पणी में यह भटकाव किसी न किसी रूप में मौजूद रहा है और इस पर चली बहस में, हालाँकि यह सवाल इस रूप में नहीं उठा है फि़र भी इसके बाद, इसे समझने में काफ़ी मदद मिली है। यह बात कितनी महत्त्वपूर्ण है, इसे इसी से समझा जा सकता है कि आज क्रान्तिकारी आन्दोलन में ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को अलग वर्गीय संगठन में गोलबन्द करने पर ज़ोर न के बराबर दिखायी देता है और नरोदवादी भटकावों के शिकार बहुतेरे संगठन धनी किसानों की माँगों पर पूरी ग्रामीण आबादी को एक ही झण्डे तले गोलबन्द करने के प्रतिक्रियावादी काम में जुटे हुए हैं।

लेकिन फि़र भी मँझोले किसानों का सवाल समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम का महत्त्वपूर्ण सवाल है। इसलिए इस पर सही दृष्टिकोण का होना बेहद ज़रूरी है। मँझोले किसानों पर चली बहस पर आने से पहले एक अन्य सवाल को भी यहीं पर उठा देना उचित होगा कि किसानों के वर्ग विश्लेषण में आमतौर पर उत्पादन प्रक्रिया में भागीदारी के आधार पर नहीं, बल्कि ग़रीबी-अमीरी के आधार पर वर्गों को परिभाषित करने की एक प्रवृत्ति दिखायी देती है। इस ग़ैर-मार्क्सवादी पद्धति ने पहले भी आन्दोलन का काफ़ी बेड़ा गर्क किया है और अभी भी कर रही है। उत्पादन प्रक्रिया में हिस्सेदारी के आधार पर मध्यम किसान उसे ही कहा जा सकता है जो मूलतः और मुख्यतः अपना श्रम लगाकर अपनी खेती करता है, अपवादस्वरूप ही और आपात परिस्थितियों में ही वह मज़दूर लगाने को मजबूर होता है। मार्क्सवादी साहित्य में लेनिन आमतौर पर उसके लिए मँझोला किसान शब्द का इस्तेमाल करते हैं और एंगेल्स छोटा किसान। लेनिन के अनुसार, “उनमें से (मँझोले किसानों में से) बहुत ही कम ऐसे किसान हैं जो उजरत पर खेत-बनिहार या दिहाड़ीदार लगाते हों, दूसरों की मेहनत से धनी बनने और दूसरों की पीठ पर सवार होकर दौलतमन्द बनने की कोशिश करते हों। मँझोले किसानों में से अधिकतर के पास इतना पैसा ही नहीं कि वे उजरत पर मज़दूर लगायें – वास्तव में वे ख़ुद ही उजरत पर काम करने को मजबूर होते हैं…।” (गाँव के ग़रीबों से, पेज 36)

एंगेल्स कहते हैं: “छोटे किसान से हमारा तात्पर्य भूमि के ऐसे टुकड़े के मालिक या कारोबार से है, जो आमतौर से उतने से बड़ा नहीं, जितना वह और उसका परिवार जोत सकता है, और उतने से छोटा भी नहीं, जितने से कि उसके परिवार का भरणपोषण हो सकता है। अतः यह छोटा किसान छोटे दस्तकार की तरह ही मेहनतकश होता है…।”

मँझोले किसानों के सवाल पर ‘बिगुल’ में चली बहस में साथी नीरज और सम्पादक-मण्डल के लेख में लेनिन का ज़िक्र तो ख़ूब आता है लेकिन उन्होंने मँझोले किसानों को जिस रूप में परिभाषित किया है वह एक ग़ैर-मार्क्सवादी दृष्टिकोण है। सम्पादक-मण्डल कहता है – “मँझोले किसानों का मामला थोड़ा अलग है। चूँकि यह वर्ग अपने खेत में थोड़े बहुत मज़दूर लगाकर भी काम कराता है और उनके अतिरिक्त श्रम को हड़पकर मुनाफ़ा  कमाता है, इसलिए एक मालिक के रूप में तरक्क़ी करके धनी हो जाने का भ्रम इसके भीतर अधिक होता है।…” लेनिन की परिभाषा और इस परिभाषा में अन्तर काबिलेग़ौर है। मुख्यतः और मूलतः मध्यम किसानों के बारे में अपनी इसी धारणा को आधार बनाकर सम्पादक-मण्डल और साथी नीरज लागत मूल्य कम करने की माँग पर मँझोले किसानों की गोलबन्दी को सर्वहारा विरोधी मानते हैं। उनका सवाल है: “किसानों की लागत का एक हिस्सा तो उजरती श्रम भी होता है। क्या लेखक (एस. प्रताप) उसको भी कम करने के हक़ में हैं?” लेकिन जहाँ तक मँझोले किसानों का सवाल है, वे मज़दूर लगाकर खेती नहीं करते तो वे भला मज़दूरी कम करने की माँग क्यों उठायेंगे?

सम्पादक-मण्डल कहता है : “लाभकारी मूल्य की माँग हो या उत्पादन लागत घटाने की अथवा आम कृषि सब्सिडी की – ये सभी गाँव के ग़रीबों की शोषक और पूरे देश के मेहनतकशों के शोषण के साझीदार धनी किसानों की माँगें हैं।…”

सम्पादक-मण्डल ने यहाँ लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य घटाने और कृषि सब्सिडी की माँग को एक ही झटके में निपटा दिया। कृषि सब्सिडी को तो अलग कर दिया जाये, क्योंकि या तो यह लाभकारी मूल्य से जुड़ी होती है या लागत मूल्य घटाने के सवाल से। जहाँ तक लाभकारी मूल्य का सवाल है, यह सीधे-सीधे जनविरोधी, सर्वहारा विरोधी माँग हैं और बहस में शामिल लोग इस पर एकमत हैं। मेरे लेख में जहाँ वाजिब मूल्य के लिए दबाव बनाने की रणनीति अपनाने की बात कही गयी है; वह एक विशेष सन्दर्भ में है जब चीनी मिलों ने बिना किसी उपयुक्त कारण के पिछले साल के मुक़ाबले गन्ने का दाम एकाएक काफ़ी काम कर दिया था। इसी मुद्दे को लेकर वह आन्दोलन था और वह लेख इसी आन्दोलन पर एक टिप्पणी था। यहाँ जिस मूल्य के लिए दबाव बनाने की बात कही गयी है, उसमें और लाभकारी मूल्य की माँग में अन्तर है। लेख में स्पष्टतः यह कहा भी गया है कि लाभकारी मूल्य धनी किसानों की माँग है और इसके समानान्तर ही मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने की वकालत की गयी है।

अब सवाल उठता है लागत मूल्य घटाने की माँग का। यह सच है कि लागत मूल्य घटाने का भी कुल मिलाकर सबसे अधिक फ़ायदा  धनी किसानों को ही होगा। यहाँ तक कि पूँजीवाद के रहते जब तक भूमि के निजी मालिकाने के ख़िलाफ़ संघर्ष का सवाल केन्द्र में नहीं लाया जाता या यूँ कहा जाये कि निजी मालिकाने के खा़त्मे का सवाल केन्द्र में नहीं लाया जाता, तब तक खेती में सुधार की किसी भी बात का सर्वाधिक फ़ायदा  धनी किसानों को ही होता है। मँझोले और ग़रीब किसानों को इससे मामूली राहत ही मिल सकती है और ऐसी कोई भी बात उनकी तबाही-बरबादी को नहीं रोक सकती है। वे भावी सर्वहारा हैं; यही उनकी नियति है और यही इतिहास की गति है। इस संकट का समाधान सिर्फ़ और सिर्फ़ समाजवादी समाज की स्थापना, ज़मीन पर सामूहिक मालिकाना और सामूहिक खेती है।

लेकिन उन्हें आज ही तो तबाह होकर सर्वहारा नहीं बन जाना है। तबाह होते हुए वे लम्बे समय तक एक वर्ग के रूप में विद्यमान रहेंगे। हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि वे चुपचाप घुटते हुए नहीं, लड़ते हुए तबाह हों और इस प्रक्रिया में पूँजीवाद के शोषणकारी चरित्र को समझें और समाजवादी भविष्य का सपना लेकर सर्वहारा के संश्रयकारी के रूप में पूँजीवाद को उखाड़ फ़ेंकने के लिए लामबन्द हों। इस दृष्टि से खेती किसानी से जुड़ी ऐसी कौन-सी माँग हो सकती है, जो उन्हें सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा कर सकती है? हमारी केन्द्रीय और दूरगामी माँग स्पष्ट है और वह है भूमि पर निजी मालिकाने का ख़ात्मा और समाजवादी समाज में सामूहिक खेती की व्यवस्था की स्थापना। सवाल है तात्कालिक माँगों का। इस दृष्टि से मँझोले किसानों की लागत मूल्य घटाने की माँग एक ऐसी माँग के रूप में दिखायी देती है जो उन्हें सर्वहारा के क़रीब खड़ा कर सकती है; क्योंकि यह महँगाई पर रोक लगाने की व्यापक जनता की माँग से जुड़ती है।

लेनिन के ज़माने में खेती पिछड़ी हुई थी और किसान लागतों के लिए इस क़दर औद्योगिक मालों पर निर्भर नहीं थे। लेकिन फि़र भी लेनिन ने इस सवाल को छुआ है और इसे सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते नहीं दिखायी देते। हाँ, वे बार-बार आगाह करते हैं कि इससे उनकी तबाही-बरबादी रुक जायेगी, ऐसा भ्रम किसानों को नहीं पालना चाहिए। वह उन बुर्जुआ कोशिशों का भण्डाफ़ोड़ करते हैं जो इस तरह की माँग को किसानों के उद्धार के लिए केन्द्रीय माँग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके ख़िलाफ़ वे किसानों से कहते हैं : “सुधरी गृहस्थी बढ़िया चीज़ है, ज़्यादा सस्ते हल ख़रीदने में कोई बुराई नहीं है… लेकिन जब किसी ग़रीब या मँझोले किसान से कहा जाता है कि सुधरी गृहस्थी और ज़्यादा सस्ते हल तुम सबको ग़रीबी से पिण्ड छुड़ाने और अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करेंगे और यह काम धनियों को हाथ लगाये बग़ैर ही हो सकता है, तो यह सरासर धोखा है। ये सारे सुधार कम क़ीमतें और सहकार (माल ख़रीदने-बेचने के संघ) धनियों को ही अधिक लाभ पहुँचायेंगे…(गाँव के ग़रीबों से, पेज 38)।”

स्पष्ट है कि यहाँ प्रहार उन पर किया जा रहा है जो लागत कम करने या ऐसी ही अन्य माँगों को किसानों के उद्धार के लिए केन्द्रीय रणनीति के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि इससे मँझोले और ग़रीब किसानों की तबाही रुक जायेगी। गन्ना किसानों के आन्दोलन पर मेरी टिप्पणी भी इस नज़रिये से एकांगी है और उसमें यह भटकाव मौजूद है। हालाँकि टिप्पणी लिखते समय यह मानकर चला गया है कि हम सभी खेती के संकट का एकमात्र समाधान भूमि पर निजी मालिकाने के खा़त्मे के रूप में ही देखते हैं और यह मानते हैं कि पूँजीवाद के भीतर मँझोले किसानों की तबाही ही उनकी नियति है। लेकिन टिप्पणी में इसका ज़िक्र न होने से उससे यह भ्रम पैदा होता है गोया लागत मूल्य घटाने की लड़ाई लड़कर मध्यम किसान अपनी तबाही रोक सकता है।

अब ज़रा मँझोले किसानों और लागत मूल्य घटाने की माँग को एक अन्य पहलू से भी देखने की कोशिश की जाये। राज्यसत्ता हाथ में आने के बाद सर्वहारा वर्ग का इनके प्रति क्या नज़रिया होगा। रूस की बोल्शेविक पार्टी की 1919 में हुई कांग्रेस में एक प्रस्ताव पास किया गया था जिसमें ग़रीब और मँझोले किसानों को सर्वतोमुखी सहायता देने के लिए ब्योरेवार निर्देश दिये गये थे। उन्हें उन्नत बीज, खाद आदि की आपूर्ति, भाड़े पर औज़ार आदि देने और उनकी सहायता के लिए एक बड़ा राजकीय कोष निर्धारित करने का निर्णय लिया गया था। एंगेल्स ने भी समाजवाद के भीतर छोटे और मँझोले किसानों के प्रति ठीक यही दृष्टिकोण अपनाने की बात कही थी और यहाँ तक कहा था कि जितने अधिक किसानों को तबाह होने से पहले किसान के रूप में हम अपने साथ खड़ा कर सकेंगे उतनी ही जल्दी सामाजिक कायापलट होगा। रूस में लागतों का बोझ कम करके छोटे-मँझोले किसानों की स्थिति सहनीय बना दी गयी। लेकिन इससे उनमें अपनी स्थिति को लेकर कोई भ्रम पैदा होने की गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि उनके सामने ही समाजवादी संस्थाएँ खड़ी हो रही थीं, और कम्युनिस्ट उनकी चेतना उन्नत करने में जुटे हुए थे। इससे उनमें समाजवादी जीवन के प्रति आस्था पैदा हुई थी। और बाद में उन्होंने भूमि पर निजी मालिकाने का परित्याग कर सामूहिक खेती को अपना लिया। समाजवादी समाज और पूँजीवाद की परिस्थितियों में कोई मेल नहीं है। लेकिन एक हद तक ही सही मँझोले किसानों के प्रति हमारा दृष्टिकोण वहीं से तय होता है कि राज्यसत्ता हाथ में आने के बाद उनके प्रति हमारा रवैया क्या होगा। इस तर्क को पुष्ट करने के लिए भी यहाँ इसका ज़िक्र किया गया है कि लागत मूल्य घटाने जैसी माँगों पर लड़ाई मँझोले किसानों की स्थिति कुछ सहनीय बना सकती है, लेकिन यह अपने आप में किसानों के भीतर अपनी स्थिति को लेकर भ्रम नहीं पैदा करती है और न ही यह उनकी तबाही रोक सकती है। भ्रम तब पैदा होगा, जब इस लड़ाई को पूँजीवाद के ख़िलाफ़ समाजवादीकरण की लड़ाई से अलग-थलग करके लड़ा जाये, इस माँग को एक केन्द्रीय माँग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत किया जाये और सबसे बड़ी बात देश में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ कम्युनिस्ट आन्दोलन मज़बूत न हो और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग लामबन्द न हो। और शहरी व ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को लामबन्द किये बग़ैर मँझोले किसानों को गोलबन्द कर उनकी तबाही रोकने के लिए इसे एक केन्द्रीय माँग के रूप में प्रस्तुत किया जाये।

अब सीधे सम्पादक-मण्डल व साथी नीरज के उन तर्कों पर आते हैं, जिनके आधार पर वे लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी माँग करार देते हैं। उनके उस तर्क का तो पहले ही जवाब दिया जा चुका है, जिसमें वे यह सवाल उठाते हैं कि लागत मूल्य घटाने की माँग मज़दूरी घटाने की माँग बन सकती है। यहाँ मँझोले किसानों की बात हो रही है और मँझोला किसान मज़दूर लगाकर खेती नहीं करता है। इसलिए उसकी माँग में मज़दूरी घटाने या किसी भी तरह श्रम लागत कम करने की माँग शामिल नहीं हो सकती है। इसके साथ ही वह सारे तर्क ख़ारिज हो जाते हैं जिसमें कहा गया है कि लागत मूल्य घटाने का मतलब यही होगा कि किसान मज़दूरों को और अधिक निचोड़ेगा। गन्ना किसानों पर मेरे लेख में भी यह स्पष्ट था और सम्पादक-मण्डल का लेख छपने से पहले सम्पादक-मण्डल के एक साथी से इस पर हुई चर्चा में भी यह बात स्पष्ट कर दी गयी थी।

दूसरा तर्क है: “लागत मूल्य कम होने से क्या फसलों के मूल्य में गिरावट नहीं आयेगी?” अगर फसलों के दाम नहीं गिरते तो क्या यह उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी नहीं होगी? सवाल है कि लागत मूल्य घटने से फसलों का दाम आखि़र क्यों न गिरे। फसलों का दाम गिरना ही चाहिए और अवश्य गिरना चाहिए और यदि ऐसा नहीं होता है तो इस धोखाधड़ी के ख़िलाफ़ आम जनता को लामबन्द किया जाना चाहिए। फसलों का दाम गिरना मध्यम किसानों के भी ख़िलाफ़ नहीं है। वह अगर एक ही फ़सल बोता है और उसे बाज़ार में बेचता है तो भी उसे अन्य फ़सलें तो बाज़ार से ख़रीदकर ही खानी पड़ती हैं। उसकी पैदावार बस इतनी ही होती है। वह मुनाफ़े के लिए पैदा नहीं करता है। फ़सल का दाम घटने का तर्क उसकी फ़सल के साथ-साथ उन फसलों पर भी तो लागू होगा जिन्हें वह ख़रीदकर खाता है। इसलिए यह बात उसके ख़िलाफ़ नहीं जाती है। जबकि धनी किसानों को इससे नुक़सान होगा। उनकी माँग लाभकारी मूल्य ही हो सकती है, लागत मूल्य घटाने की माँग नहीं। अनाज का दाम घटना सर्वहारा वर्ग के भी हित में है। इसीलिए लागत मूल्य घटाने की माँग मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा कर सकती है।

एक अन्य तर्क देते हुए सम्पादक-मण्डल कहता है: “थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि किसानों के किसी आन्दोलन की माँग मानकर उद्योगपति ट्रैक्टर, खाद, कीटनाशक, डीज़ल, बिजली आदि की क़ीमत कम कर दें और किसी तरह से धोखाधड़ी करके यह घटोत्तरी कृषि उत्पादों के मूल्य में संक्रमित न होने दी जाये (यानी अनाज का दाम न घटे)। तो ऐसी सूरत में अर्थशास्त्र का सामान्य विद्यार्थी भी यह जानता है कि (औद्योगिक) उत्पादों (यानी खाद, कीटनाशक, बिजली आदि) के सस्ते होने से पूँजीपति का मुनाफ़ा  कम नहीं होता, बल्कि इसकी क़ीमत भी कारख़ाने के मज़दूरों को ही चुकानी पड़ती है…” इसके बाद यह बताया गया है कि औद्योगिक उत्पादों का दाम घटने पर कैसे पूँजीपति मशीनें लगाकर मज़दूरों को और अधिक निचोड़ेगा, मज़दूरी कम कर देगा और मज़दूरों की भारी आबादी को सड़कों पर धकेल देगा आदि-आदि।

यह अजीबोग़रीब मार्क्सवाद है। लेकिन इस मार्क्सवाद के एकांगीपन पर चर्चा की यह जगह नहीं है। यहाँ हम सिर्फ़ कुछ सवाल उठाकर इस तर्क के अन्तरविरोधों को दिखाना चाहेंगे। औद्योगिक उत्पादों, यानी खाद, डीज़ल, ट्रैक्टर, बिजली आदि के दाम घटने की क़ीमत मज़दूरों को ही चुकानी पड़ती है। सच है। तो क्या सम्पादक-मण्डल महँगाई के ख़िलाफ़ व्यापक जनता के आन्दोलन के विरोध में खड़ा होगा? क्योंकि यह माँग भी अन्य औद्योगिक उत्पादों के दाम घटने या उनका दाम बढ़ने से रोकने की वकालत करती है। ऐसे में उन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों को ही इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। ऐसा होने पर सम्पादक-मण्डल के तर्क के अनुसार उन उद्योगों में भी पूँजीपति मज़दूरों को और अधिक निचोड़ेगा और मज़दूरों की भारी आबादी को सड़क पर धकेल देगा! यही नहीं मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाने की माँग का भी क्या आप विरोध करेंगे? क्योंकि मज़दूरी बढ़ने पर भी क्या पूँजीपति के सामने वैसी ही परिस्थितियाँ नहीं पैदा होतीं? सम्पादक-मण्डल कह सकता है कि मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ने और महँगाई की वृद्धि पर रोक लगाने से तो कुल मिलाकर पूँजीपतियों का शोषण बढ़ने के बावजूद मज़दूरों का फ़ायदा  होता है। ऐसी स्थिति में खेती का लागत मूल्य घटने से भी मज़दूरों का फ़ायदा  होगा क्योंकि इससे अनाज का दाम घट सकता है।

दरअसल, सम्पादक-मण्डल अपने पूरे विश्लेषण में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग की भूमिका को नज़रअन्दाज़ कर देता है। वह बार-बार डराता है कि औद्योगिक उत्पादों का दाम घट जाने पर अपना मुनाफ़ा क़ायम रखने के लिए पूँजीपति यह कर देगा और वह कर देगा। लेकिन वह इसे नहीं देखता कि इसके ख़िलाफ़ औद्योगिक सर्वहारा वर्ग क्या करेगा और इससे क्या परिस्थितियाँ निर्मित होंगी। सिर्फ़ उत्पादों का दाम घटने पर ही नहीं और सिर्फ़ मजबूरियों में ही नहीं, पूँजीपति हर समय हरसम्भव तरीक़े से उसकी जितनी कुव्वत है, अधिक से अधिक मुनाफ़ा बटोरने के लिए वह सब करता ही है जो वह कर सकता है। हाँ, उनके उत्पाद का दाम घटने से, तात्कालिक तौर पर अन्य सेक्टरों के पूँजीपतियों के मुक़ाबले की उनकी मुनाफ़े की दर गिरेगी और वे इस सेक्टर से अपनी पूँजी निकालकर किसी अन्य सेक्टर में भागने की या मशीनीकरण करके मज़दूरों को और अधिक निचोड़ने की कोशिश करेंगे। लेकिन औद्योगिक सर्वहारा गाय तो है नहीं कि वह चुपचाप पूँजीपतियों की इस और अधिक निचोड़ने की कोशिश को बरदाश्त कर लेगा। मज़दूर वर्ग इसका डटकर विरोध करेगा और उन्हें अपनी फ़ैक्ट्रियों में आन्दोलनों का विस्फ़ोट झेलना पड़ेगा। पूँजीपतियों की इन कोशिशों से मज़दूर वर्ग का आक्रोश बढ़ेगा और पूँजीपति वर्ग की मौत का दिन नज़दीक आयेगा।

अब अन्त में, उस बात पर आते हैं कि कैसे लागत मूल्य कम करने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए सम्पादक-मण्डल ख़ुद इस माँग की वकालत करता है। ‘किन माँगों पर लड़ेंगे मँझोले किसान’ में सम्पादक-मण्डल ने छोटी से लेकर बड़ी माँगों तक की एक लम्बी फ़ेहरिस्त दी है। इन माँगों में से एक को छोड़कर लगभग अन्य सभी माँगें देश की पूरी मध्यवर्गीय और ग़रीब आबादी की सामान्य माँगें हैं। खेती किसानी से जुड़ी ग़रीब व मध्यम किसानों की प्रत्यक्षतः एक ही माँग इसमें शामिल है और वह लागत मूल्य कम करने की ही माँग है: “ग़रीब और मँझोले किसानों की माँग यह होनी चाहिए कि ज़मीन सहित उत्पादन के साधनों के स्वामित्व की एक सुनिश्चित मात्रा को पैमाना बनाकर, धनी किसानों और अन्य ग्रामीण पूँजीपतियों से बिजली और पानी की क़ीमत वसूली जानी चाहिए, जबकि उन सभी किसानों को जो मुनाफ़े के लिए पैदा नहीं करते सापेक्षतः रियायती दर पर बिजली-पानी आदि मिलनी चाहिए।…”

क्या यह ग़रीब और मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य कम करने की माँग नहीं है? फि़र यह तर्क बिजली-पानी पर ही क्यों लागू किया जाये? खाद, बीज, डीज़ल, कीटनाशक आदि को “रियायती दर” पर देने की माँग क्यों नहीं की जानी चाहिए? क्या इसलिए कि इसे निजी कम्पनियाँ पैदा करती हैं और बिजली-पानी सरकार? लेकिन अब तो बिजली-पानी भी निजी कम्पनियों के हाथ में जा रहा है। फि़र चाहे सरकार हो या निजी कम्पनियाँ विभिन्न लागत मालों के प्रति अलग-अलग और अन्तरविरोधी दृष्टिकोण क्यों?

बिगुल, नवम्बर 2004


 

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