‘दिल्ली मास्टर प्लान 2021’ की भेंट चढ़ी ग़रीबों-मेहनतकशों की एक और बस्ती – शकूर बस्ती
बेबी कुमारी
दिल्ली में दो तरह के शहर हैं। एक तरफ हैं लकदक मोटरकारें, साफ-सुथरी चमचमाती हुई सड़कें, आलीशान मकान और कोठियाँ, रोशनी में नहाये हुए चमचमाते शॉपिंग मॉल, तेज़ रफ़्तार मेट्रो। और दूसरी तरफ हैं शकूरबस्ती, वजीरपुर, आज़ादपुर, झिलमिल, खजूरी आदि जैसी गन्दी बस्तियाँ जिनमें इस दिल्ली को साफ-सुथरा और चमकदार बनानेवाली लाखों ग़रीब और मेहनतकश आबादी रहती है। जिन्हें देखकर सूट-बूट वाले साहब और अमीरजादे नाक पर रूमाल रख लेते हैं, जहाँ अमीरों के घर का सारा कूड़ा फेंका जाता है, जहाँ बिजली नहीं, पानी नहीं, नालियों की निकासी का कोई इंतजाम नहीं, शौचालय नहीं, अस्पताल की बात तो दूर कोई सरकारी डिस्पेंसरी तक नहीं, शिक्षा का प्रबन्ध नहीं। उसपर भी उजाड़े जाने का खतरा चौबीसों घण्टे सिर पर मँडराता रहता है।
गाँवों से उजड़कर शहरों में बेहतर जीवन की आस में आयी ग़रीब मेहनतकश आबादी के लिए ‘महिमामयी दिल्ली’ किसी सुरसा से कम नहीं है। कदम-कदम पर बेतहाशा भीड़, असुरक्षा और अनिश्चितता झेलने को मजबूर होना पड़ता है। पक्के मकानों का महँगा किराया न दे पाने की सूरत में झुग्गियों में रहना पड़ता है। झुग्गियों का जीवन ऐसा है जैसे कोई नट या कलाबाज चौबीसों घण्टे हाथों में डण्डा थामे रस्सी पर खड़ा हो।
12-14 घण्टे हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद आराम करने के लिए दमघोंटू और अँधेरी झुग्गियों को आसरा बनाने वाले ग़रीबों और मेहनतकशों की ऐसी ही एक बस्ती है–शकूरबस्ती। पश्चिमी दिल्ली इलाके की इस बस्ती में 1,000 झुग्गियाँ हैं जिनमें लगभग 5,000 ग़रीब मेहनतकश आबादी रहती है। बताते चलें कि शकूरबस्ती दिल्ली में रेलवे की सबसे बड़ी सीमेण्ट साइडिंग है जहाँ अम्बुजा, जेपी, बिनानी जैसी कम्पनियों के सीमेंट की अनलोडिंग होती है और ट्रकों द्वारा दिल्ली-एनसीआर के गोदामों में सीमेंट पहुँचाया जाता है। जाहिर है यहाँ सीमेंट मज़दूरों की एक अच्छी तादाद झुग्गियों में रहने के लिए मजबूर है। इनके अलावा रिक्शा, रेहड़ी-पटरी-खोमचा वाले, ठेले वाले, स्वतंत्र दिहाड़ी मज़दूर, निर्माण मज़दूर, कारीगर आदि विभिन्न पेशों की ग़रीब मेहनतकश आबादी भी किसी तरह अपना गुजर-बसर करती है। ज़्यादातर आबादी बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश की है।
12 दिसम्बर 2015 को बिना किसी पूर्वसूचना के भारतीय रेलवे ने बुलडोज़र चलाकर इन झुग्गियों को उजाड़ दिया। उजाड़े जाने के दौरान एक छह महीने की बच्ची की मृत्यु हो गयी, कई बच्चे बुरी तरह घायल हुए। वयस्कों में भी ज़्यादातर को गम्भीर चोटें भी आयीं। दिल्ली की कड़कड़ाती ठण्ड में लोगों को खुले आसमान के नीचे कई रातें बितानी पड़ीं। झुग्गियाँ तोड़े जाने के दस दिनों तक बड़े-बड़े समाचार चैनलों और मीडिया का ताँता लगा रहा। मीडिया की कमाई होती रही और काँग्रेस, भाजपा, आप आदि सभी चुनावबाज पार्टियों के नेता भी पहुँचते रहे। कुछ ही दिन पहले, जुलाई-अगस्त की बारिश के मौसम में वजीरपुर की झुग्गियाँ उजाड़ी गयीं थीं और अब शकूरबस्ती को उजाड़ा जाना दिल्ली की सरकार पर सवालिया निशान खड़े करता है। खुद को जनता का सी.एम. बतानेवाले ‘मिस्टर क्लीन’ अरविन्द केजरीवाल के तमाम वायदे बस चुनावी जुमले ही साबित हुए हैं। चुनाव के समय झुग्गीवासियों से किये गये पक्के मकानों के वायदे हवामिठाई की तरह ग़ायब होते नज़र आ रहे हैं। और सत्ता में आने के बाद कोई भी झुग्गी न उजाड़े जाने का वायदा भी टाँय-टाँय फिस्स होकर रह गया है। जनता के सामने जब पोल-पट्टी खुलने लगती है तो केजरीवाल सारा जिम्मा मोदी सरकार पर डालते हुए हाथ झाड़ने लगते हैं। असलियत यह है कि अपने आका पूँजीपतियों की सेवा का जो काम मोदी डंके की चोट पर करता है वही काम केजरीवाल छुप-छुपाकर करता है। इस मसले पर भी ज़िम्मेदारी लेने की बजाय गोलमाल करने और लोगों के बीच में भ्रम फैलाने का काम भी दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा बखूबी किया गया। चाहे वह भाजपा हो, आप हो या काँग्रेस हो; इनमें से किसी भी नेता के लिए झुग्गियाँ उजाड़े जाने के बाद लोगों का बेरोज़गार हो जाना मसला नहीं था। किसी भी नेता के लिए यह सरोकार का विषय नहीं था कि बच्चों की परीक्षाएँ छूटीं और उनकी पढ़ाई बाधित हुई। राहत सामग्री के नाम पर जो खाना पहुँचाया गया वह न तो खाने योग्य था और न ही पर्याप्त मात्रा में दिया जा रहा था। छह-सात लोगों के परिवार को एक छोटी प्लेट में खिचड़ी दी जा रही थी। जो कम्बल आदि बाँटे गये वह भी सुनियोजित वितरण के अभाव में अपराधी और लम्पट तत्वों की भेंट चढ़ गये। मेडिकल सेवा की व्यवस्था भी रामभरोसे ही थी। बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं द्वारा झुग्गी उजाड़े जाने के बाद से लगातार वहाँ मेडिकल कैम्प का आयोजन किया जा रहा है और बच्चों को पढ़ाने का काम भी शुरू किया गया है।
ज्ञात हो कि दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी क्लस्टर के पुनर्स्थापन और पुनर्वास की जिम्मेदारी दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डी.यू.एस.आई.बी.) की है जो दिल्ली सरकार के अन्तर्गत आता है। दिल्ली में 63 प्रतिशत ज़मीन जिस पर झुग्गियाँ खड़ी हैं, डीडीए और रेलवे की है जो कि केन्द्र सरकार के अन्तर्गत आती है। और बाकी बची ज़मीन पीडब्ल्यूडी, एमसीडी, डीयूएसआईबी के अन्तर्गत आती है। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकार क़ानून के लचरपन का फायदा उठाते हुए झुग्गीवासियों को बेघर करने के बाद उनके प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेती है। चाहे केन्द्र सरकार उस ज़मीन की मालिक हो जिस पर झुग्गियाँ खड़ी हों या राज्य सरकार, झुग्गियों को तोड़ने से पहले उस इलाके का सर्वेक्षण करके यह सुनिश्चित करना ज़रूरी होता है कि कितने लोगों को पुनर्वासित करने का इन्तज़ाम करना है। इसके लिए केन्द्र सरकार के महकमों जैसे डीडीए और रेलवे को डीयूएसआईबी को इसकी जानकारी मुहैया करना ज़रूरी है कि वे फलाँ इलाके में झुग्गियाँ तोड़ने वाले हैं। और राज्य सरकार के अन्तर्गत आने वाले महकमे जैसे एमसीडी या पीडब्ल्यूडी चाहें तो यह काम ख़ुद कर सकते हैं या फिर डीयूएसआईबी को सौंप सकते हैं। कोई सख़्त क़ानून न होने के कारण अकसर ऐसा देखा गया है कि कभी रेलवे या डीडीए झुग्गियों को तोड़ देता है और केन्द्र सरकार के इन विभागों से सूचना न मिलने की सूरत में राज्य सरकार का डीयूएसआईबी विभाग झुग्गीवासियों की पुनर्स्थापना में ख़ुद को अक्षम बताकर बच निकलता है।
इस मसले पर भी रेलवे द्वारा यह दलील दी गयी कि जो झुग्गियाँ बसी हुई थीं वे सुरक्षा क्षेत्र (सेफ्टी ज़ोन) के अन्तर्गत आती थीं। ‘सेफ्टी जोन’ यानी सुरक्षा क्षेत्र का मतलब है रेल की पटरियों के आस-पास पन्द्रह मीटर ज़मीन का दायरा। यह है सरकार के लिए ‘’सुरक्षा’’ का मतलब जिसमें 5000 आबादी को कड़कड़ाती ठण्ड में बेघर कर दिया गया और उन्हें रामभरोसे छोड़ दिया गया! जबकि रहने का आश्रय लेना किसी भी नागरिक का संविधान सम्मत बुनियादी अधिकार है और उसके घर को तोड़ा नहीं जा सकता। नियमतः सरकार की कोई भी एजेंसी तबतक लोगों को किसी जगह से नहीं हटा सकती जबतक कि उनके रहने की वैकल्पिक व्यवस्था न हो जाये। लेकिन जब बात ग़रीबों की हो तो ये सारे नियम क़ानून ताक़ पर धरे रह जाते हैं। तब सरकारों के पास ग़रीब मेहनतकश आबादी को बसाने के लिए ज़मीन नहीं होती है। और जब अमीरजादों की ऐयाशियों के लिए शॉपिंग मॉल और होटल बनाने हों तो हज़ारों मज़दूरों को औनी-पौनी दिहाड़ी देकर खटवाया जाता है और रातों-रात इमारतें खड़ी की जाती हैं। 2010 में कॉमनवेल्थ खेलों के समय 50,000 झुग्गियों को तोड़ा गया और उनके पुनर्वास का काम अभी तक नहीं किया गया है। साफ तौर पर एक ऐसी मुनाफ़ाखोर व्यवस्था जिसमें इंसान और उसकी मेहनत सिर्फ एक माल हो, जहाँ आदमी को बाज़ार में बिकना पड़ता हो, जहाँ हर चीज़ के केन्द्र में पैसा हो वहाँ और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? और तो और हर पाँच साल में आनेवाली सरकारों में फर्क बस इतना है कि नारे, चेहरे और झण्डे बदलते हैं। बाकी, नीतियाँ सबकी वही होती हैं-अमीरों धन्नासेठों को पूजो, आबाद करो और जनता को लूटो और बर्बाद करो! दरअसल संसद बहसबाजी का अड्डा है, सुअरबाड़ा है और ये तमाम सरकारें टाटा, बिड़ला, अम्बानी और अदानी जैसे पूँजीपतियों की चाकर हैं।
दरअसल दिल्ली में लगातार झुग्गियों को इसलिए भी तोड़ा जा रहा है ताकि दिल्ली को एक ‘’विश्वस्तरीय’’ शहर बनाया जा सके। अमीरों के लिए झुग्गियाँ शहर की खूबसूरती पर बदनुमा दाग की तरह होती हैं। उन्हें लगता है कि झुग्गियों ने शहर को गन्दा कर रखा है इसलिए उजाड़कर शहर के बाहर बसा देना चाहिए। इसके लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही काम कर रही है। केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकार को करोड़ों रुपये दिये गये हैं ताकि शहर के बीच में बसी झुग्गियों को खाली कराया जा सके। 2011 में डीयूएसआईबी ने दिल्ली को 2015 तक झुग्गी मुक्त शहर बनाने की योजना की घोषणा की थी जिसके तहत झुग्गी-झोपड़ी क्लस्टरों की पुनर्स्थापना की जानी थी। यह घोषणा राजीव आवास योजना के तहत वित्तीय सहायता देने के लिए की गयी थी, मगर सिर्फ़ घोषणाएँ कर देने से समस्याओं का समाधान नहीं हो जाता। पहले से निर्धरित 685 अनियमित झुग्गी कॉलोनियों को नियमित करने का काम अभी तक ठीक से शुरू भी नहीं किया गया है, ऐसे में दिल्ली को झुग्गी मुक्त शहर बनाने का मतलब है केवल झुग्गियों को तोड़ना और लोगों को बेघर करना। इस व्यवस्था में झुग्गी में रहने वाले लोगों को एक नागरिक के तौर पर नहीं, बल्कि सरकारी सम्पति पर अतिक्रमण करने वाले अपराधियों की नज़र से देखा जाता है।
आम जनता में भी यही अवधरणा प्रचलित है कि झुग्गीवालों की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है जबकि सच इसके बिलकुल उलट है। झुग्गियों में रहने वाले लोगों को छत मुहैया कराने की जिम्मेदारी राज्य की होती है। हम माचिस की डिबिया से लेकर अपने ज़रूरत की जितनी भी चीज़ें खरीदते हैं, उनके मूल्य के साथ-साथ अप्रत्यक्ष कर भी देते हैं। इस अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार हर साल खरबों रुपया आम मेहनतकश जनता से वसूलती है। हर साल देश के सरकारी खजाने का तीन-चौथाई से अधिक जनता की जेब से ही आता है। इस पैसे से रोज़गार के नये अवसर और झुग्गीवालों को मकान देने के बजाय सरकार अदानी-अम्बानी को सब्सिडी देने में खर्च कर देती है। केवल एक खास समय के लिए झुग्गीवासियों को नागरिकों की तरह देखा जाता है और वह समय होता है ठीक चुनाव से पहले। चुनाव से पहले सभी चुनावबाज पार्टियाँ बरसाती मेंढ़कों की तरह टर्राना शुरू कर देती हैं। चुनाव के समय तमाम नेता झुग्गियों की जगह मकान देने का वादा करके झुग्गीवासियों को लुभाने का भरसक प्रयास करते हैं। और जीत जाने के बाद अपने वायदों को भूलकर आलीशान मकानों में चैन की नींद सोते हैं।
बात साफ है कि इस या उस चुनावी पार्टी की बाट जोहने की बजाय अपनी लड़ाई खुद के दम पर खड़ी करनी पड़ेगी। कोई नेता-मंत्री, मसीहा या अवतार हमारी लड़ाई को लड़ने के लिए नहीं आयेगा।
चुनावबाज पार्टियों के दल्लों, छुटभैये नेताओं और स्थानीय गुण्डों को सबक सिखाया शकूरबस्ती के लोगों ने
झुग्गियों के उजड़ने के बाद जैसे चुनावबाज पार्टियों के नेता अपने वोट बैंक को बचाने के लिए मीडिया के सामने सफाई देना शुरू कर देते हैं उसी तरह दल्लों, छुटभैये नेताओं और गुण्डों की बहार आ जाती है। राहत सामग्रियों को बाजार में बेचने का धन्धा चलता है। अफवाहों का बाज़ार गर्म किया जाता है और लोगों को डराकर पैसे ऐंठे जाते हैं। इन तमाम दल्लों का धन्धा ग़रीबों, मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई को लूटकर ही चलता है। अपनी झूठी बातों और सरकारी दफ्तरों के जंजाल का भय लोगों में बिठाकर आधार कार्ड, पहचान पत्र बनवाने से लेकर स्कूल में बच्चे का दाखिला करवाने तक में ये दल्ले पाँच सौ से हजार रुपये तक वसूलते हैं। लेकिन, इतने पर भी सही काम की कोई गारण्टी नहीं होती। चुनावों के समय तमाम पार्टियों से पैसे लेकर वोट खरीदने का काम भी खूब करते हैं और खुद को बस्ती का प्रधान भी घोषित कर लेते हैं और अपने फेंके टुकड़ों पर पलने वाले गुर्गे भी तैयार कर लेते हैं। इन तमाम दल्लों और गुण्डों को पुलिस से लेकर क्षेत्रीय विधयक तक की शह रहती है। ऊपर से तुर्रा यह कि खुद को मज़दूरों का हितैषी बतानेवाली और रेलवे में बड़ी यूनियनें चलानेवाली एक सेण्ट्रल ट्रेड यूनियन भी सीमेण्ट मज़दूरों के बीच में सक्रिय है। और इनकी नाक के नीचे तमाम स्थानीय गुण्डे और दलाल अपनी मनमर्जी चला रहे थे। दरअसल मज़दूरों की अपनी क्रान्तिकारी यूनियन ही जुझारू तरीके से मज़दूरों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की दिक्कतों समस्याओं के ख़िला़फ़ लड़ सकती है। सेण्ट्रल ट्रेड यूनियनें बस वेतन भत्ते की लड़ाई तक ही सीमित रहती हैं।
दरअसल ये दल्ले और गुण्डे लोगों के भय और अज्ञानता के दम पर ही पनपते हैं और उसी से जीवित रहते हैं। जब उन्हें लगता है कि बस्तीवासी एकजुट हो रहे हैं और अपने अधिकारों को जानने लगे हैं तो उन्हें बाँटने का काम करने लगते हैं। बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं ने लोगों से कहा कि पुनर्वास की जिम्मेदारी दिल्ली सरकार की है तो झुग्गीवासियों को केजरीवाल सरकार के पास जाकर अपनी माँगें रखनी चाहिए। वैसे भी केजरीवाल ने चुनाव के समय पक्के मकान देने का वायदा भी किया था। बिगुल के कार्यकर्ताओं की पहल पर ‘शकूरबस्ती झुग्गी पुनर्वास समिति’ का भी गठन किया गया। यह तय हुआ कि समिति के नेतृत्व में 3 जनवरी 2016 को केजरीवाल के आवास पर प्रदर्शन किया जाएगा। बस इतना तय होने भर की देर थी कि आम आदमी पार्टी के तमाम दल्लों ने लोगों के बीच झूठा प्रचार करने और बिगुल कार्यकर्ताओं से टकराना शुरू कर दिया। इन सारी चीज़ों के बावजूद प्रचार अभियान चला और लोग प्रदर्शन के लिए गये। हालाँकि लोगों को भरमाने और बहकाने में दल्ले सफल रहे और बहुत कम संख्या में लोग प्रदर्शन में जा पाये। केजरीवाल नहीं मिल सके क्योंकि अपने व्यापारी मित्र के साथ नये साल की पार्टी में व्यस्त थे। लोगों ने अपना ज्ञापन केजरीवाल के अधिकृत पदाधिकारी को सौंपा। प्रदर्शन स्थल पर तमाम मीडिया चैनलों ने कार्यक्रम का लाइव प्रसारण भी किया।
दल्लों और गुण्डों ने बिगुल की महिला कार्यकताओं को भी धमकाने-डराने का भरसक प्रयास किया और लोगों को धर्म और जाति के नाम पर बाँटने की कोशिश की। सीमेंट वाले और ग़ैर सीमेण्ट वाले का मुद्दा उछाला गया। लेकिन, इस ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का लगातार भण्डाफोड़ किया गया। अन्ततः जनता की एकजुटता की ताकत के आगे दल्लों और गुण्डों की हार हुई। गुण्डों पर मुकदमे दर्ज हुए और उनके आतंक पर लोगों ने लगाम लगायी।
26 जनवरी को मज़दूर सांस्कृतिक संध्या का आयोजनः ‘किसका है ये संविधान और किसकी सेवा करता है’
गत 26 जनवरी 2016 को ‘शकूरबस्ती झुग्गी पुनर्वास समिति’ और ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ द्वारा एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। ठिठुराती हुई सर्दी के बावजूद मज़दूर पूरे उत्साह से डटे रहे। कार्यक्रम में क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति के साथ-साथ भारतीय संविधान की असलियत और श्रम क़ानूनों पर भी बात की गयी। ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार की ओर से सनी ने कहा कि भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया ग़ैर जनतांत्रिक रही है। देश की तत्कालीन आबादी की मात्र 11 प्रतिशत ने वह संविधान सभा चुनी जिसने संविधान तैयार किया और वह भी अंग्रेजों के ही क़ानून की नकल है। आज़ादी के 68 साल बीत जाने के बाद और भारतीय गणतंत्र के 66 वर्ष बाद भी मज़दूर आबादी किस बात का जश्न मनाये? आज अमीर और भी ज़्यादा अमीर होते गये हैं तो ग़रीब और भी ग़रीब। सारे नेता और मंत्री पूँजीपतियों के चाकर हैं। मज़दूरों को अपनी ज़िन्दगी के हालात बदलने के लिए इन चुनावबाज पार्टियों के भरोसे रहना छोड़ना होगा। देश स्तर पर अपनी इन्क़लाबी पार्टी बनानी होगी जिसका काम इन्क़लाब के ज़रिये इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था को उखाड़ फेंकना हो, जिसका काम मज़दूर राज कायम करना हो। इसके लिए हमें एकजुट होकर सही और ग़लत की पहचान करनी होगी, अपने दोस्तों और दुश्मनों को छाँटना होगा। इसके लिए हमें अपना इतिहास भी जानना होगा कि हमारे पुरखों ने इसी धरती पर अपना राज कैसे कायम किया? उनसे सबक लेकर हमें अपने नये रास्ते खुद तलाशने होंगे। गड्ढों से बचकर निकलना होगा। हम अपनी छोटी-छोटी और जनवादी अधिकारों की लड़ाइयों को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई की ओर ले जा सकते हैं। उन्होंने मज़दूरों को नियमित तौर पर अख़बार पढ़ने की सलाह देते हुए कहा कि मालिक इसलिए भी ताकतवर है क्योंकि उसके पास दुनिया जहान की ख़बरें होती हैं। लेकिन, हम अख़बार नहीं पढ़ते हैं। इस तरह देश-दुनिया में जो कुछ भी हो रहा होता है उससे कटते चले जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि अख़बार पढ़ा जाय। अपना अख़बार हमारे हक़-अधिकारों के बारे में भी हमें बताता है।
शकूरबस्ती के लोगों के सामने चुनावी पार्टियों और उनके दल्लों की पोल काफ़ी हद तक खुल चुकी है। लोग सरकार की आर्थिक नीतियों और ‘आम आदमी’ के ‘अच्छे दिनों’ की असलियत को भी समझने लगे हैं।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2016
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन