सच्चर कमेटी की रिपोर्ट : मुस्लिम समुदाय की हालत की सच्चाइयाँ और सुधार के नुस्खों का भ्रम
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट मुस्लिम आबादी की जिस दोयम दर्जे की स्थिति को सामने लाती है उसका अनुमान चन्द आँकड़ों से लगाया जा सकता है।
देश में मुसलमानों की आबादी 13.4 प्रतिशत है लेकिन सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 4.9 प्रतिशत है, इसमें भी ज़्यादातर निचले पदों पर हैं। उच्च प्रशासनिक सेवाओं यानी आईएएस, आईएफएस और आईपीएस में मुसलमानों की भागीदारी सिर्फ़ 3.2 प्रतिशत है।
रेलवे में केवल 4.5 प्रतिशत मुसलमान कर्मचारी हैं जिनमें 98.7 प्रतिशत निचले पदों पर हैं। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम जहाँ मुस्लिम आबादी क्रमश: 25.2 प्रतिशत, 18.5 प्रतिशत और 30.9 प्रतिशत है, वहाँ सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी क्रमश: सिर्फ़ 4.7 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत और 10.9 प्रतिशत है।
उनमें साक्षरता की दर भी राष्ट्रीय औसत से कम है। शहरी इलाकों में स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों का प्रतिशत दलित और अनुसूचित जनजाति के बच्चों से भी कम है। हिन्दू फासिस्टों के प्रचार के विपरीत सच्चाई यह है कि केवल 3 से 4 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही मदरसों में पढ़ने जाते हैं।
ये आँकड़े सच्चाई की झलक मात्र देते हैं। आम मुसलमान इस देश में किस अपमान और डर के साये में जीता है इसे समझने के लिए जाकर किसी मुसलमान से पूछिए कि उसके लिए शहर में एक कोठरी या मकान किराए पर लेना कितना कठिन है। या हर बमकाण्ड के बाद हर मुसलमान को आतंकवादी मान लेने वाली नज़रों और ग़रीब मुसलमानों की बस्तियों में आधी रात को पड़ने वाले पुलिसिया छापों को याद कीजिए।
सच्चर कमेटी ने इस हालत में सुधार के लिए वही पुराना आरक्षण का नुस्खा सुझाया है। पिछले 60 साल में आरक्षण के इस झुनझुने से दलितों-आदिवासियों की हालत कितनी सुधर गयी यह सबके सामने है। मुस्लिम समुदाय को समझना होगा कि दोयम दर्जे की इस हालत से उनकी मुक्ति ऐसी किसी पैबन्दसाज़ी से नहीं बल्कि एक नये समाज के लिए व्यापक जनता के क्रान्तिकारी संघर्ष से जुड़कर ही हो सकती है।
बिगुल, दिसम्बर 2006-जनवरी 2007
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