चिली के बर्बर तानाशाह जनरल पिनोशे की मौत
लेकिन पूँजीवादी नरपिशाचों की यह बिरादरी अभी ज़िन्‍दा है!

विशेष संवाददाता

दिल्ली। पिछले 11 दिसम्बर को दक्षिण अमेरिकी देश चिली का बर्बर तानाशाह जनरल ऑगस्टो पिनोशे मर गया। उसकी मौत से दुनिया के साम्राज्यवादी–पूँजीवादी हुक्मरानों ने राहत की साँस ली। कारण कि उसके ज़िन्‍दा रहते अक्सर ही उसके ख़ूनी कारनामों की चर्चाएँ उठ पड़ती थीं जो पूँजी की विश्‍वव्यापी मानवद्रोही सत्ता को आइना दिखाने जैसा होता था। उसकी मौत ने साम्राज्यवादी–पूँजीवादी न्याय के उस पाखण्ड से भी छुटकारा पाने का रास्ता साफ़ कर दिया है जो पिछले छह वर्षों से चिली में उसके मानवता विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के नाम पर हो रहा था। अब समूची पूँजीवादी बिरादरी पिनोशे को जल्द से जल्द इस अन्दाज़ में भुला देना चाहेगी गोया वह किसी अनचाहे गर्भ से पैदा होने वाली कोई शैतानी औलाद रही हो लेकिन दुनिया के मेहनतकश अवाम को पल भर के लिए भी न भूलना होगा कि पूँजीवादी–साम्राज्यवादी कोख ऐसी औलादों को हमेशा ही पैदा करती रहती है।

Pinochetनयी पीढ़ी के मेहनतकशों और उनके हरावलों को पिनोशे नामक इस नरपिशाच के ख़ूनी कारनामों को इसलिए याद रखना चाहिए जिससे कि पूँजीवादी–साम्राज्यवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ उनके दिलों में नफ़रत की प्रचण्ड ज्वाला धधकती रहे और मानवता की सम्पूर्ण मुक्ति की राह पल भर के लिए भी आँखों से ओझल न होने पाये। पिनोशे वह शख़्स था जिसने 11 सितम्बर 1973 को चिली में एक ख़ूनी फ़ौजी तख़्तापलट करके गद्दी सम्भालने के बाद जनता पर जो ज़ुल्म ढाये उनकी याद भी सिहरन पैदा करती है। उसने चार हज़ार से भी अधिक लोगों का क़त्लेआम करवाया, हज़ारों लोग या तो लापता हो गये या उन्हें देश छोड़ने को मजबूर कर दिया गया। महिलाओं के सामूहिक वस्त्रहरण से लेकर सामूहिक बलात्कार करने और सामूहिक यातनाएँ देने के ऐसे–ऐसे वीभत्स तरीके ईजाद किये जिनकी तुलना केवल नाज़ी यातना शिविरों से ही की जा सकती है। लगभग पच्चीस वर्षों तक पिनोशे के शासन के अधीन चिली की पहचान आम जनता के लिए क़त्लगाह, जेलखानों और गोलियों की बौछारों वाले देश के रूप में ही बनी रही।

हमें बुर्जुआ इतिहासकारों की तर्ज़ पर पिनोशे के ख़ूनी कारनामों को उसके विकृत दिमाग की उपज नहीं मानना चाहिए। पिनोशे चिली की समस्त प्राकृतिक एवं सामाजिक सम्पदा पर कब्ज़ा जमाने की वहशी चाहत रखने वाले समाज के मुट्ठी भर ऊपरी वर्गों और अमेरिकी साम्राज्यवादी डाकुओं का दुलारा नुमाइन्दा था। धनपशुओं की इस जमात को चिली में लोकप्रिय जननेता सल्वादोर अलेन्दे द्वारा 1971 में चुनकर सरकार में आना फूटी आँखों नहीं सुहाया था। अलेन्दे को सत्ता में आने से रोकने के लिए इस जमात ने अपनी एड़ी–चोटी का ज़ोर लगा दिया लेकिन अलेन्दे को हासिल प्रचण्ड जनसमर्थन के सामने उनके मंसूबे धरे के धरे रह गये। सत्ता सम्हालने के बाद जब अलेन्दे ने अमेरिकी बहुराष्‍ट्रीय खदानों, बैंको और अन्य महत्वपूर्ण उद्योगों के राष्‍ट्रीकरण, बड़ी पूँजीवादी जागीरों को सामुदायिक खेती में बदलने और कीमतों पर नियन्त्रण क़ायम कराने की नीतियों की घोषणा की तो चिली के वे धनपशु और उनके अमेरिकी सरपरस्त बदहवास हो उठे। उन्होंने अलेन्दे की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये आर्थिक तोड़–फोड़, सामाजिक अफ़रातफ़री पैदा करने के साथ ही अलेन्दे की हत्या करने की साज़िशों को रचना शुरू कर दिया। अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए. ने अपनी कुख्यात सरगर्मियाँ तेज़ कर दीं। अमेरिकी साम्राज्यवादियों को पिनोशे के रूप में एक वफ़ादार कुत्ता भी मिल गया जो उस समय चिली का सेनाध्यक्ष था। आख़िरकार यह जमात 11 सितम्बर 1973 को अपने मंसूबों में कामयाब हो गयी जब पिनोशे की अगुवाई में सीधे राष्‍ट्रपति भवन ‘ला मोनेदा’ पर फ़ौजी धावा बोल दिया गया जिसमें अलेन्दे अपने सैकड़ों सहयोगियों के साथ लड़ते–लड़ते मारे गये।

इस ख़ूनी तख़्तापलट के बाद सत्ता सम्हालते ही जहाँ एक ओर पिनोशे ने भीषण दमनचक्र की शुरुआत की वहीं उसने चिली के पूँजीपतियों, पूँजीवादी भूस्वामियों और अमेरिकी बहुराष्‍ट्रीय निगमों को मालामाल करने वाली आर्थिक नीतियाँ लागू करनी शुरू कीं। नतीजतन आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी नर्क बन गयी। उसने सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था को तहस–नहस कर दिया और कीमतों पर से नियन्त्रण हटाकर बाज़ार की शक्तियों के खुले खेल के लिये मैदान साफ़ कर दिया। इन नीतियों के विरोध में आवाज़ उठाने वालों के लिए लाठी–गोली–जेल के सिवा और कुछ नहीं था।

1973 से 1989 तक चिली में पिनोशे की खुली ख़ूनी तानाशाही लागू रही। 1989 में एक जनमत संग्रह के बाद एक तथाकथित नागरिक सरकार अस्तित्व में आयी जिसकी बागडोर भी अन्तत: अमेरिकी साम्राज्यवादियों के ही हाथों में थी। सत्ता छोड़ने से पहले पिनोशे ने क़ानून बनाकर अपने ऊपर किसी अपराध के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने से संरक्षित कर लिया। इस क़ानून के तहत 1998 तक वह संरक्षित रहा और बाद के दिनों में वह बीमारी का इलाज कराने के नाम पर ब्रिटेन में वक़्त गुज़ारता रहा। विदेशी बैंकों में जमा की गयी लूट की सम्पत्ति के चलते उसके ऐशोआराम में वहाँ भी किसी क़िस्म की कोई कमी हो नहीं सकती थी। देश के भीतर राजनीतिक फिज़ा में आये बदलाव के बाद, जब चिली के नये पूँजीवादी शासकों के ऊपर जनभावनाओं का दबाव बढ़ा तो वर्ष 2000 में पिनोशे ब्रिटेन से वापस चिली आया और फिर उस पर मुक़दमे का पाखण्ड शुरू हुआ। अगर पिनोशे बीमारी और बुढ़ापे के नाते अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरता तो हो सकता था कि विशेष अदालत उसे कोई सज़ा सुना देती लेकिन इससे उस व्यवस्था की सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता जो पिनोशे जैसे जल्लाद को फाँसी का फ़न्दा और तख़्ता मुहैय्या कराती है।

मानवता को शर्मसार करने वाले पिनोशे के ख़ूनी कारनामों को याद करते हुए हमें चिली के इस दौर के घटनाक्रमों के रक्तरंजित सबकों को भी कभी न भूलना होगा। सल्वादोर अलेन्दे की जनपक्षधरता और शोषित–उत्पीड़ित जनों के प्रति उनके हृदय के असीम प्यार को भरपूर सम्मान देते हुए हमें यह न भूलना होगा कि राज्य और क्रान्ति के सम्बन्ध में मज़दूर वर्ग के महान शिक्षकों की मूल्यवान शिक्षाओं को वह आत्मसात नहीं कर सके थे और पूँजीवादी जनवाद के बारे में वह निम्न बुर्जुआ विभ्रम के शिकार थे। यह उनका विभ्रम ही था कि पूँजीवादी संविधान और चुनाव की प्रक्रिया के ज़रिए सत्ता में पहुँचने के बाद उन्होंने यह सोचा था कि ‘राज्य की बनी–बनायी मशीनरी पर सिर्फ़ कब्ज़ा करके ही’ उसे मेहनतकश अवाम के उद्देश्यों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। सौ साल पहले, 1871 के पेरिस कम्यून के दौरान ही अन्तरराष्‍ट्रीय मज़दूर वर्ग को यह ख़ून सना सबक मिल चुका था कि पूँजीवादी राज्य मशीनरी को ध्वस्त कर एक नयी राज्य मशीनरी (नौकरशाही और सशस्त्र बलों का राज्य संगठन) का निर्माण करके ही मज़दूर वर्ग उत्पादन के साधनों, उत्पादन के वितरण और पूरे समाज के ढाँचे पर अपना नियन्त्रण क़ायम कर सकता है और समाजवाद के लम्बे संक्रमणकाल से गुज़रकर कम्युनिज़्म की मंजिल तक पहुँच सकता है। इस पूरे काल के दौरान न केवल राजनीतिक कार्रवाइयों के लिये क्रान्तिकारी पार्टी को मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता की सक्रिय पहलक़दमी को निरन्तर सचेत प्रयासों के ज़रिए जगाना होगा बल्कि उसे फ़ौजी मामलों में भी शिक्षित–प्रशिक्षित करना होगा जिससे वह क्रान्तिविरोधी शक्तियों के हमलों का मुकाबला करते हुए अपने राज्य की हिफ़ाज़त कर सके। अलेन्दे की सत्ता का आधार शुरू से ही कमज़ोर था क्योंकि वह क्रान्तिकारी संघर्षों की लम्बी प्रक्रिया के दौरान पूँजीवादी सत्ता को क्रान्ति के ज़रिए उखाड़ फेंकने के बाद सत्तासीन नहीं हुए थे बल्कि पूँजीवादी चुनावी प्रक्रिया के तहत ही वहाँ तक पहुँचे थे। इस कारण आम जनता की सक्रिय पहलक़दमी उस हद तक जागृत और संगठित हो ही नहीं सकती थी कि वह देशी–विदेशी प्रतिक्रियावादियों के क्रान्तिविरोधी षड्यन्त्रों के ख़िलाफ़ सक्रिय प्रतिरोध करती। इसी कमज़ोरी के कारण सी.आई.ए. और पिनोशे के षड्यन्त्र इतनी आसानी से कामयाब हो गये।

अलेन्दे का विभ्रम कितना व्यापक और गहरा था इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सी.आई.ए. के षड्यन्त्रों के तहत जब 1972 के आख़िरी महीनों में एक प्रतिक्रियावादी आम हड़ताल हुई थी तो उसे नियन्त्रित करने के लिए स्वयं अलेन्दे ने ही पिनोशे को ज़िम्‍मेदारी दी थी, जो उस समय केवल गैरिसन कमाण्डर था। इस घटना के दौरान ही पिनोशे को पहली बार चिली की आम जनता ने जाना था। उसने अलेन्दे द्वारा सौंपी गयी ज़िम्‍मेदारी को न केवल पूरी तरह निभाया बल्कि यह मक्कारी भरी घोषणा करके अलेन्दे और जनता के मन में विश्‍वसनीयता भी अर्जित करने की कोशिश की कि “मैं उपद्रव फैलाने वालों को बर्दाश्‍त नहीं करूँगा चाहे वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा वाले हों।”

पिनोशे की इस लोमड़ी चाल को अलेन्दे नहीं भाँप सके और उसके ऊपरी तटस्थ रुख़ पर भरोसा करते हुए अगस्त 1973 में सेनाध्यक्ष बना दिया। अलेन्दे सी.आई.ए. द्वारा बिछायी गयी बिसात में उलझ चुके थे और महीना बीतते–बीतते 11 सितम्बर 1973 वह दिन आया जिसके बाद चिली के आधुनिक इतिहास का सबसे ख़ूनी दौर शुरू हुआ। कहने की ज़रूरत नहीं कि मार्क्सवादी विज्ञान को गहराई से आत्मसात न कर पाने की कमी अलेन्दे के लिए व्यक्तियों की वर्गीय–सामाजिक भूमिका की सही पहचान कर पाने में भी बाधक बन गयी। नई सदी में जब मेहनतकशों की नयी पीढ़ी के हरावल विश्‍व सर्वहारा क्रान्तियों के नये चक्र के तूफ़ानों के बीच होंगे तो उन्हें पेरिस कम्यून से लेकर चिली तक के तमाम सबकों को कभी न भूलना होगा।

जनरल पिनोशे हिटलर–मुसोलिनी–जनरल तोजो और बतिस्ता–दुवालियर जैसे पूँजीवादी नरपिशाचों की ही बिरादरी का एक सदस्य था। बुश और ब्लेयरों के रूप में यह बिरादरी अभी धरती पर ज़िन्‍दा है। इन्हें विश्‍व इतिहास के अजायबघरों में पहुँचा देने के लिए अभी दुनिया की मेहनतकश जनता को ख़ून और आग के दरिया से गुज़रकर जाना है। विश्‍व इतिहास ने इस बिरादरी के लिए वह जगह पहले से ही सुरक्षित कर रखी है जब आने वाली पीढ़ियाँ इनके थोबड़ों पर न केवल आश्‍चर्य से निगाह डालेंगी वरन उस पर पूरी नफ़रत के साथ थूकने से भी खु़द को नहीं रोक पायेंगी।

 

बिगुल, दिसम्‍बर 2006-जनवरी 2007

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments