विश्वव्यापी मन्दी और साम्प्रदायिक फासिस्ट आतंक के साये में बीता वर्ष
नये साल में मज़दूर वर्ग को फासीवाद की काली घटाओं को चीरकर आगे बढ़ने का संकल्प लेना ही होगा
2015 के विदा होने के साथ ही इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक पूरे हो चुके हैं। वैसे तो इस डेढ़ दशक का एक-एक साल मेहनतकश अवाम के लिए तबाही और बरबादी ही लेकर आया, लेकिन गुज़रा साल इस मायने में ख़ास रहा कि आर्थिक शोषण-उत्पीड़न के साथ ही भगवा साम्प्रदायिक फ़ासीवादी आतंक अपने नंगे रूप में सामने आया जिसने इस देश के मज़दूर वर्ग और तरक़्क़ीपसन्द लोगों की ज़िन्दगी की घुटन को बर्दाश्त करने की सीमा से बाहर कर दिया। 2007 से जारी विश्वव्यापी महामन्दी पिछले साल भी दुनिया भर में मेहनत-मज़दूरी करके अपना पेट पालने वाले लोगों को छँटनी, बेरोज़गारी और महँगाई की मार से बेहाल करती रही। अपने अन्तकारी संकट से जूझ रहे विश्व पूँजीवाद ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में क्षेत्रीय युद्धों और आतंकी कार्रवाइयों को बढ़ावा देकर बर्बरता की नयी मिसालें क़ायम कीं। मुनाफ़े की अन्धी हवस में पर्यावरण की तबाही बदस्तूर जारी रही। ऐसा नहीं है कि इस पूँजीवादी लूट-खसोट, अत्याचार-अनाचार की विनाशलीला को जनता चुपचाप बर्दाश्त करती रही। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लोग पूँजीवादी हुक़्मरानों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे, हालाँकि किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के उभार के संकेत पिछले साल भी नहीं दिखे जिसकी वजह से कोई सशक्त पूँजीवाद विरोधी आन्दोलन नहीं खड़ा हो पाया। ऐसे में हमारे लिए पिछले साल के घटनाक्रम पर एक नज़र डालना लाज़िमी हो जाता है ताकि हम इस साल की चुनौतियों को रेखांकित कर सकें।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र की एनडीए सरकार ने पिछले साल अपने कारनामों से उन लोगों को भी भारत में फ़ासीवादी उभार की सच्चाई के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया जो अभी तक इसको स्वीकार करने से कतरा रहे थे। इस फ़ासीवादी उभार के निशाने पर इस देश की आम मेहनतकश आबादी, अल्पसंख्यक और दलित-उत्पीड़ित समुदाय हैं। पिछले साल श्रम-सुधार के नाम पर बुर्जुआ जनवाद के अतिसीमित जनवादी दायरे को और ज़्यादा सिकोड़कर मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों को हड़पने की कोशिशें तेज़ हुईं। नवउदारवाद के पिछले ढाई दशकों में तमाम श्रम क़ानूनों को पहले की सरकारें काफ़ी कमज़ाेर तो कर ही चुकी थीं लेकिन मोदी सरकार ने उन्हें बदलकर पूरी तरह पूँजीपतियों के पक्ष में कर देने की शुरुआत कर दी। यही वजह है कि देशभर में मोदी लहर की हवा निकलने के बावजूद पूँजीपति वर्ग को अभी अपने इस नुमाइन्दे पर पूरा भरोसा है। हालाँकि विभिन्न मुद्दों पर संसद स्थगित होने की वजह से पिछले साल श्रम क़ानूनों में संशोधन सम्बन्धी विधेयक को अभी तक संसद की मंज़ूरी नहीं मिल पायी। लेकिन केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय अब तक के सबसे बड़े श्रम ”सुधारों” के तहत छह बुनियादी श्रम क़ानूनों में फेरबदल करने और 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने के लिए कमर कस चुका है ताकि पूँजीपतियों को मज़दूरों के ख़ून का एक-एक कतरा निचोड़ने में बची-खुची बाधाएँ भी समाप्त हो जायें। इसके अतिरिक्त गुज़रे साल में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने भी राजस्थान सरकार की ही तरह श्रम क़ानूनों को पूँजीपतियों के पक्ष में झुकाने की प्रक्रिया शुरू की।
पिछले कई सालों की तरह गुज़रे साल भी इस देश की मेहनतकश जनता महँगाई की मार से त्रस्त रही। मुद्रास्फीति के सरकारी आँकड़ों की बाजीग़री के ज़रिये सरकार महँगाई पर क़ाबू पाने का कितना भी दम भरे लेकिन इस देश के आम लोग अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से यह जानते हैं कि महँगाई ने उनका जीना दूभर कर दिया है। दाल, सब्ज़ी, तेल, अण्डे, दूध, दवाओं आदि की क़ीमतों में बढ़त पूरे साल बनी रही और देश की अधिकांश आबादी की पहुँच से दूर ही रहीं। रेल भाड़े और रसोई गैस की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी की मार भी सबसे ज़्यादा मेहनतकश आबादी को झेलनी पड़ी। मोदी सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं को पूरा करने की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए मन्दी के दौर में भी पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने का काम मुस्तैदी से किया। ‘मेक इन इण्डिया’ का गुब्बारा तो ख़ूब फुलाया गया, लेकिन वास्तव में देश के अधिकांश नौजवानों को रोजी-रोटी की तलाश में दर-दर भटकने से निजात नहीं मिली। बेरोज़गारी का आलम यह रहा कि उत्तर प्रदेश में चपरासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से भी ज़्यादा नौजवानों ने आवेदन किया जिनमें पीएच.डी. और एमबीए के डिग्रीधारक भी शामिल थे। इस नंगी सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए पिछले साल आरक्षण का जुमला ख़ूब उछाला गया। कोई आरक्षण को हटाने की माँग करते नज़र आये तो कोई कुछ अन्य जातियों को आरक्षण के दायरे में लाने की बात करते नज़र आये। इस प्रक्रिया में देश के नौजवानों को जाति के नाम पर बाँटने की साज़िशें अपने परवान पर दिखीं। इसके अलावा मोदी सरकार की ‘स्मार्ट सिटी’ के हवाई क़िलों की कलई चेन्नई में बारिश के बाद आयी बाढ़ के ख़ौफ़नाक मंज़र से खुल गयी।
पिछले साल आम बजट में कारपोरेट करों की दर 30 से घटाकर 25 प्रतिशत कर दी गयी जिससे आम जनता पर 23,383 करोड़ रुपये का बोझ अप्रत्यक्ष करों के रूप में पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर धन्धा करना आसान बनाने के नाम पर पूँजीपतियों को दिल खोलकर रियायतें दी गयीं। स्वदेशी व राष्ट्रवाद की माला जपने वाली भाजपा की सरकार ने बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दी। इसी तरह से उसने औद्योगिक पूँजीपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन हड़पने को आसान बनाने के वास्ते भूमिअधिग्रहण बिल पास कराने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया, हालाँकि जनदबाव के चलते इस दाँव में वह सफल नहीं हो सकी।
गुज़रे साल संघ परिवार के नरभक्षी फ़ासिस्ट गुण्डों ने देशभर में अपनी हैवानियत का नंगा नाच किया। इन संघी गुण्डों ने अपने आपको गाली-गलौच और तोड़-फोड़ की कार्रवाइयों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद ‘सैंया भये कोतवाल तो डर काहेका’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए लोगों की सरेआम हत्याएँ करने से भी कोई गुरेज़ नहीं किया। नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के बाद इन आतंकियों ने पिछले साल महाराष्ट्र के कोल्हापुर में बुज़ुर्ग वामपन्थी नेता गोविन्द पानसरे और कर्नाटक के धारवाड़ में कन्नड़ विद्वान व तर्कशील चिन्तक एम.एम. कलबुर्गी की नृशंस हत्या कर दी। उनके हत्यारे अभी भी बेधड़क घूम रहे हैं और संघ परिवार के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों, पत्रकारों, कलाकारों आदि को धमका रहे हैं एवं घृणित क़िस्म के गाली-गलौज के ज़रिये अपनी हिन्दुत्ववादी संस्कृति की नुमाइश कर रहे हैं।
इसके अलावा देश के अलग-अलग हिस्सों में संघ परिवार से जुड़े क़िस्म-क़िस्म के संगठन शहरों की निम्न मध्यवर्गीय कालोनियों और मज़दूर बस्तियों और यहाँ तक कि कस्बों और गाँवों तक में अभूतपूर्व रूप से अपना जाल फैला रहे हैं और लव-जिहाद, बीफ़ खाने और धर्मान्तरण से जुड़ी अफ़वाहें उड़ाकर लोगों के धार्मिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का लाभ उठाकर अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक नफ़रत को लोगों की नसों में घोल रहे हैं। इस नफ़रत की चरम अभिव्यक्ति दादरी में अखलाक की दर्दनाक हत्या के रूप में सामने आयी। गोमांस सेवन की अफ़वाह उड़ाकर इंसानों की हत्या के कम-से-कम दो और मामले प्रकाश में आये। इसके अलावा संघ परिवार से जुड़े संगठन क़ानून व्यवस्था को धता बताते हुए आये दिन गोमांस के सेवन के विरोध के नाम पर बेधड़क गुण्डागर्दी और तोड़-फोड़ की घटनाओं को अंजाम देते रहे।
भाजपा व संघ परिवार के अानुषंगिक संगठनों से जुड़े तमाम नेता मोदी सरकार की आलोचना करने वाले हर व्यक्ति को देशद्रोही का ख़िताब और पाकिस्तान जाने की हिदायत देते रहे। सत्ता के नशे में चूर भगवा फ़ासिस्टों का मन इतना बढ़ गया कि भाजपा के अध्यक्ष तक ने यह बात सार्वजनिक रूप से कही कि अगर बिहार विधान सभा चुनावों में भाजपा हार गयी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। यह बात दीगर है कि अपनी तमाम मानवद्रोही हरकतों के बावजूद विधानसभा चुनावों में भाजपा को बुरी तरह मुँहकी खानी पड़ी। देशभर में असहिष्णुता का माहौल इतना घुटन भरा हो गया कि 50 से भी अधिक लोगों ने अपने राष्ट्रीय पुरस्कार वापस लौटा दिये जिनमें तमाम साहित्यकार, रंगकर्मी, फ़िल्मकार और वैज्ञानिक शामिल थे। यह नरेन्द्र मोदी सरकार के मुँह पर करारा तमाचा था, लेकिन बेशर्म फ़ासिस्ट इससे कोई सबक़ भला कहाँ लेने वाले थे। उन्होंने इन साहित्यकारों, फ़िल्मकारों और वैज्ञानिकों के ख़िलाफ़ भी दुष्प्रचार की मुहिम छेड़ दी।
शिक्षा संस्थानों समेत समूचे अकादमिक जगत के भगवाकरण की मुहिम पिछले साल अपने चरम पर दिखी। भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद, भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारतीय जनसंचार संस्थान, आईआईएस, आईआईटी, आईआईएम और अनेक विश्वविद्यालयों में प्रमुख पदों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया गया जिनकी सबसे बड़ी योग्यता यह है कि वे संघ से जुड़े हुए हैं। फ़िल्म एवं टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ़ इण्डिया (एफ़टीआईआई) की गवर्निंग काउंसिल के अध्यक्ष पद पर संघ समर्थक और अश्लील फ़िल्मों के हीरो गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति की गयी जिसके विरोध में एफ़टीआईआई के छात्रों ने शानदार संघर्ष छेड़ा जो अब भी जारी है। उच्च शिक्षा संस्थानों के भगवाकरण के साथ ही साथ नवउदारवादी नीतियाँ भी तेज़ी से लागू की गयीं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण यूजीसी द्वारा नॉन-नेट फ़ेलोशिप को ख़त्म करने की घोषणा थी जिसके ख़िलाफ़ छात्रों का ‘ऑक्युपाई यूजीसी’ आन्दोलन उठ खड़ा हुआ जो दमन की तमाम कोशिशों के बावजूद अभी तक जारी है।
भगवा फ़ासिस्टों के शासन में पिछले साल साम्प्रदायिकता का ज़हर तो फैला ही, साथ ही साथ जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। संघ के प्रचारक रह चुके मनोहरलाल खट्टर के शासन वाले हरियाणा में फ़रीदाबाद के सुनपेड़ गाँव में नवधनाढ्य दबंगों द्वारा एक दलित परिवार को ज़िन्दा जला दिया गया। इस भयंकर बर्बर घटना में दो मासूम बच्चे ज़िन्दा जलकर मारे गये और उनके माँ और पिता बुरी तरह से घायल हो गये। इससे पहले मई में राजस्थान के डांगावास में और उत्तर प्रदेश के दनकौर में भी ग़रीब मेहनतकश दलितों पर ऐेसे ही जुल्म ढाये गये हैं। विशेष तौर पर, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में इन दलित-विरोधी अपराधों में बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी। और इन सारे हत्याकाण्डों के अपराधियों को आमतौर पर सज़ा नहीं मिली।
दलित विरोधी अपराधों के साथ ही साथ महिला विरोधी अपराधों में भी कोई कमी देखने में नहीं आयी। लोकसभा चुनावों से पहले ‘बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार’ का जुमला उछालने वाले मोदी की सरकार बनने के बाद भी पिछले साल देश के अलग-अलग हिस्सों में घरों, सड़कों, बाज़ारों से लेकर फ़ैक्टरी-दफ़्तरों में महिलाओं के ख़िलाफ़ बर्बर अपराध अंजाम दिये जाते रहे और क़ानून व्यवस्था मुँह ताकती रही। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी विधानसभा चुनाव से पहले महिलाओं की सुरक्षा को लेकर लम्बी-चौड़ी डींगें हाँकी थीं, लेकिन उसकी सरकार बनने के बाद भी दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा नहीं बढ़ी।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत के बाद तमाम बुद्धिजीवियों ने इस पार्टी से उम्मीद लगा ली कि वह जनपक्षधर निकलेगा। लेकिन ऐसे बुद्धिजीवियों की उम्मीद बहुत ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकी क्योंकि सत्ता सँभालते ही इस पार्टी मंें मची खींचतान में इसीके वरिष्ठ नेताओं ने केजरीवाल के तानाशाहाना आचरण का पर्दाफ़ाश कर दिया। उसके बाद दिल्ली में ठेका प्रथा को ख़त्म करने की माँग को लेकर प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों पर पुलिस से बर्बर लाठीचार्ज कराने की घटना ने केजरीवाल सरकार के मज़दूर विरोधी चरित्र को पूरी तरह से बेनक़ाब कर दिया और यह साबित कर दिया कि केजरीवाल भी पूँजीवाद का ही एक दलाल है। बाद में दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में मेहनतकशों की झुग्गियाँ तोड़ने के मामले में भी इस पार्टी का जनविरोधी चरित्र उजागर हुआ।
अन्तरराष्ट्रीय पटल पर पिछले साल विश्वव्यापी मन्दी के दौर में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा ने तीखा रूप अख्त़ियार कर लिया जिसकी वजह से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में युद्धों एवं आतंकी कार्रवाइयों में निर्दोषों के मारे जाने की रफ़्तार बढ़ी। मध्य-पूर्व के इलाक़े में साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध अपने चरम रूप में उभरे। अमेरिकी साम्राज्यवाद की सरपरस्ती में सऊदी अरब के निरंकुश बर्बर हु्क़्मरानों ने यमन पर हमला करके ज़बर्दस्त तबाही मचायी। सीरिया में जारी गृहयुद्ध ने और अधिक हिंसात्मक रूप अख्त़ियार किया। अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पाले-पोसे गये इस्लामिक स्टेट नामक भस्मासुर ने सीरिया में बड़े पैमाने पर मौत का ताण्डव रचा। सीरिया में रूस का सैन्य हस्तक्षेप अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखे होने का स्पष्ट प्रमाण था। पेरिस आतंकी हमले के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे में दरकनें भी साफ़ नज़र आने लगीं, जब फ़्रांस सहित कई यूरोपीय देश इस्लामिक स्टेट के ख़ात्मे की वकालत करते हुए पाये गये।
सीरिया व इराक़ में जारी युद्धों की वजह से लाखों की संख्या में शरणार्थियों ने क़ानूनी और गै़र-क़ानूनी तरीक़ों से यूरोपीय देशों में पनाह लेने की कोशिशें की जिससे एक ज़बर्दस्त शरणार्थी संकट पैदा हुआ जिसका समाधान निकट भविष्य में नहीं दिखता। शरणार्थियों के मामले को देखने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर के मुताबिक़ दुनियाभर में शरणार्थियों की संख्या आज 6 करोड़ का आँकड़ा पार कर चुकी है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सबसे ज़्यादा है। उधर फ़िलिस्तीन में इज़रायली बर्बरता बदस्तूर जारी रही, लेकिन फ़िलिस्तीनियों ने भी अपना संघर्ष जारी रखा है और साल के अन्त तक आते-आते उन्होंने इज़रायली हमलों और जायेनवादी बर्बरता के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी जिसे तीसरे इन्तिफ़ादा की शुरुआत भी कहा जा रहा है।
तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा की एक अन्य अभिव्यक्ति अमेरिका और चीन के बीच दक्षिण चीन सागर में तीखी नोक-झोंक के रूप में देखने को आयी, जब पिछले साल अक्टूबर के आख़िरी हफ़्ते में एक अमेरिकी समुद्री युद्धपोत यू.एस.एस. लासेन दक्षिण चीन समुद्र में चीनी क्षेत्र के भीतर दाख़िल हुआ। इस पोत के साथ एक जासूसी विमान भी था। इस घटना के बाद अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ा।
विश्व पूँजीवाद के जिन रहनुमाओं ने विश्वव्यापी मन्दी के इस दौर से निकलने के लिए अपनी उम्मीदें चीन पर टिका रखी थीं, उन्हें पिछले साल बहुत निराशा हाथ लगी। चीनी अर्थव्यवस्था का गुब्बारा पिछले साल इतनी तेज़ी से फूटा कि उसके कम्पन से दुनियाभर के शेयर मार्केट औंधे मुँह गिर पड़े। चीन के नक़ली कम्युनिस्टों ने वहाँ जनता को जो गुलाबी सपने दिखाये थे वे अब दु:स्वप्न में तब्दील हो चुके हैं और वहाँ की जनता के मोहभंग का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ मज़दूर आन्दोलनों, हड़ताल, धरनों की संख्या में ज़बर्दस्त बढ़ोतरी हुई है जिनकी ख़बरें चीन की फ़र्ज़ी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली सामाजिक फ़ासीवादी सत्ता द्वारा लगाये गये तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद दुनियाभर में फैलीं।
पिछले साल की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं पर सरसरी नज़र दौड़ाने से हमें इस साल की चुनौतियों का सहज ही अन्दाज़ा हो जाता है। विश्वव्यापी मन्दी से निजात मिलने के कोई आसार इस साल भी नज़र नहीं आ रहे हैं। उल्टे मन्दी के गहराने के संकेत साफ़ दिख रहे हैं। साम्राज्यवाद के हितपोषण में जीजान से जुटी संस्था विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में बहुत अफ़सोस के साथ कहा गया है कि वर्ष 2016 में मन्दी के और गहराने के आसार हैं। पश्चिमी देशों में जारी मन्दी तो क़ायम रहेगी ही, विश्व बैंक की रिपोर्ट में इस साल ब्रिक्स देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ़्रीका) में भी मन्दी के गहराने का अन्देशा जताया गया है। भारत की अर्थव्यवस्था पर भी मन्दी के काले बादल मँडरा रहे हैं। ‘मेक इन इण्डिया’ की मुहिम में करोड़ों रुपये फूँकने के बावजूद पिछले साल में भारत के निर्यात में रिकॉर्ड गिरावट देखने में आयी। औद्योगिक उत्पादन में मन्दी से उबरने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। इस साल अर्थव्यवस्था में ज़बर्दस्त मन्दी के आसार से हुक़्मरान कितने घबराये हुए हैं, इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में प्रधानमन्त्री कार्यालय ने देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों को पत्र लिखकर भारतीय अर्थव्यवस्था में सम्भावित मन्दी से निपटने के तरीक़ों के बारे में राय देने को कहा है ताकि पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बरकरार रखा जा सके।
इतना तय है कि आने वाले दिनों में मोदी सरकार अपने आक़ा पूँजीपतियों की ख़ुशामद में मज़दूर-विरोधी विधेयकों को संसद की मंज़ूरी दिलाने के लिए अपना पूरा ज़ोर लगायेगी। मज़दूर वर्ग को इन तथाकथित श्रम सुधारों के मज़दूर-विरोधी चरित्र को समझना होगा और अभी से उनके विरोध की रणनीति बनानी होगी। मज़दूरों की वर्गीय एकता को तोड़ने के लिए भगवा फ़ासिस्टों की पूरी कोशिश रहेगी कि लोगों का साम्प्रदायिक मुद्दों के आधार पर ध्रुवीकरण किया जाये। साल की शुरुआत में ही जिस तरीक़े से भगवा लंगूरों ने रामजन्मभूमि का मुद्दा फिर से उछाला है उससे हमें इस बात के पूरे संकेत भी मिलने लगे हैं। यह भी तय है कि शिक्षा जगत और अकादमिक जगत को भगवा रंग में रँगने की संघी मुहिम भी पूरे देश में ज़ोर-शोर से आगे बढ़ायी जायेगी। इंसाफ़, बराबरी और सामाजिक समरसता की बात करने वाली हर आवाज़ को बर्बरता से कुचलने की मुहिम भी आगे बढ़ायी जा रही है।
इतिहास गवाह रहा है कि पूँजीवादी संकट के दौर में फलने-फूलने वाले फ़ासीवादी दानवों का मुक़ाबला मज़दूर वर्ग की फौलादी एकजुटता से ही किया जा सकता है। हमें यह समझना ही होगा कि भगवा फ़ासीवादी शक्तियाँ मेहनतकशों को धर्म और जाति के नाम पर बाँटकर मौत का जो ताण्डव रच रही हैं उससे वे अपने मरणासन्न स्वामी यानी पूँजीपति वर्ग की उम्र बढ़ाने का काम कर रही हैं। मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद के इस मरणासन्न रोगी को उसकी क़ब्र तक पहुँचाने के अपने ऐतिहासिक मिशन को याद करते हुए फा़सिस्ट ताक़तों से लोहा लेने के लिए कमर कसनी ही होगी। नये साल में इससे बेहतर संकल्प भला क्या हो सकता है!
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016
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