दमनकारी पंजाब सरकार ने जनता पर थोपा काला कानून
हक, सच्चाई और इंसाफ़ के लिए जूझ रहे लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती
लखविन्दर
22 जुलाई 2014 को पंजाब विधान सभा में पारित किया गया फासीवादी काला कानून ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी सम्पत्ति नुक़सान रोकथाम) कानून-2104’ आखिर केन्द्र सरकार द्वारा पारित कर दिया गया है। कुछ दिन पहले राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए है। बढ़ते आर्थिक व राजनीतिक संकट व जनाक्रोश के इस वक्त में पंजाब के हुक्मरानों को हकों के लिए जूझ रहे लोगों पर दमन का कहर ढाने के लिए एक और जबरदस्त हथियार मिल गया है।
इसके खिलाफ़ मज़दूरों, किसानों, नौजवानों, छात्रों, सरकारी मुलाजिमों, बुद्धिजीवियों, स्त्रियों आदि तबकों के जनसंगठनों के ‘काला कानून विरोधी संयुक्त मोर्चा, पंजाब’ के संयुक्त बैनर तले जोरदार संघर्ष लड़ा गया था। इइस काले कानून के खिलाफ़ अन्य मंचों से भी संघर्ष किया गया था। उस समय पंजाब के राज्यपाल ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। कुछ लोगों को लग रहा था अब यह कानून ठण्डे बस्ते में पड़ा रहेगा। लेकिन इस हथियार को पंजाब के हुक्मरानों ने अचानक बाहर निकालकर पंजाब की जनता के सिर पर मढ़ दिया है। हमने उस समय भी कहा था कि सरकार ने जनता के विरोध के दबाव में ‘पंजाब सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान (रोकथाम) कानून-2010’ तो वापिस ले लिया था लेकिस इस बार ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी सम्पत्ति नुक़सान रोकथाम) कानून-2104’ को हर परिस्थिति में लागू करवाने के मूड में नज़र आ रही है। इस कानून की जरूरत सिर्फ पंजाब की अकाली भाजपा सरकार को ही नहीं है बल्कि भारत के पूँजीवादी हुक्मरान वर्ग को है। जो हालात देश भर में बन गए हैं उनके मद्देनज़र यह यकीनन कहा जा सकता है कि केन्द्र व राज्य स्तरों पर पहले से मौजूद काले कानूनों का इस्तेमाल तेज़ होगा और पंजाब के नए काले कानून की तर्ज पर केन्द्र व अन्य राज्यों में काले कानून बनाकर राज्यसत्ता की दमनकारी मशीनरी को और खूँखार बनाया जाएगा। इसलिए सिर्फ पंजाब के लोगों को ही नहीं बल्कि देश भर के जनवाद पसंद लोगों को इस काले कानून के खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए। पंजाब की जनवादी शक्तियों को तो फिर से विशाल संयुक्त संघर्षों के जरिए जालिम हाकिमों के फासीवादी हमले का मुँह तोड़ जवाब देने के लिए आगे आना ही होगा।
यह क़ानून भारत के बेहद ख़तरनाक क़ानूनों में से एक है। इस क़ानून में कहा गया है कि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह, संगठन, या कोई पार्टी द्वारा की गयी कार्रवाई जैसे “ऐजीटेशन, स्ट्राइक, हड़ताल, धरना, बन्द, प्रदर्शन, मार्च, जुलूस”, रेल या सड़क परिवहन रोकने आदि से अगर सरकारी या निजी जायदाद को कोई नुकसान, घाटा, या तबाही हुई हो तो उस कार्रवाई को नुकसान करने वाली कार्रवाई माना जायेगा। किसी संगठन, यूनियन या पार्टी के एक या अधिक पदाधिकारी जो इस नुकसान करने वाली कार्रवाई को उकसाने, साजिश करने, सलाह देने, या मार्गदर्शन, में शामिल होंगे उन्हें इस नुकसान करने वाली कार्रवाई का प्रबन्धक माना जायेगा। सरकार द्वारा तय किया गया अधिकारी अपने तय किए गये तरीक़े से देखेगा कि कितना नुकसान हुआ है। नुकसान की भरपाई दोषी माने गये व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा अगर नहीं की जाती तो उनकी ज़मीन जब्त की जायेगी। सरकार उपरोक्त जनकार्रवाइयों की वीडियोग्राफ़ी करवायेगी। पहले भी जनकार्रवाइयों की वीडियोग्राफ़ी करवायी जाती रही है लेकिन ऐसा करना ग़ैरक़ानूनी था। अब यह काम क़ानूनी तौर पर जायेगा। इस क़ानून के अन्तर्गत वीडियो को नुकसान होने के सबूत पर पूर्ण मान्यता दी गयी है। यानि अगर कोई और सबूत न भी हो सिर्फ़ वीडियो के आधार पर ही लोगों को दोषी माना जा सकेगा। अन्य क़ानूनों में वीडियो या तस्वीरों को पूर्ण तो दूर की बात, प्राथमिक सबूत की मान्यता भी हासिल नहीं है। वीडियो के साथ आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती है इसलिए वीडियो को इस तरह सबूत का दर्जा दिया जाना बेहद ख़तरनाक बात है।
इस क़ानून के तहत हेडकांस्टेबल स्तर के पुलिस मुलाजिम को गिरफ्तारी करने के अधिकार दे दिये गये हैं और जुर्म ग़ैरज़मानती होगा। तीन साल तक की सज़ा और एक लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। आगज़नी या विस्फोट से नुकसान होने पर एक वर्ष से लेकर पाँच साल तक की फ़ैद और तीन लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। इस मामले में अदालत किसी विशेष कारण से कैद की सजा एक वर्ष से कम भी कर सकती है।
‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून-2014’ के इस ब्यौरे के बाद पाठक इस क़ानून के घोर जनविरोधी फासीवादी चरित्र का एक अन्दाज़ा लगा सकते हैं। आगज़नी, तोड़फोड़, विस्फोट आदि जैसी कार्रवाईयों के बारे में यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसी कार्रवाइयाँ सरकार, प्रशासन, पुलिस, राजनीतिक नेता, पूँजीपति आदि जिनके ख़िलाफ़ संघर्ष लड़ा जा रहा होता है ख़ुद ही करवाते हैं और इन कार्रवाइयों का दोष लोगों पर लगा दिया जाता है। अब इस क़ानून के लागू हो जाने से इस नुकसान की भरपाई संघर्ष कर रहे लोगों से ही की जायेगी और साथ ही जेल और जुर्माने की सजा भी की जायेगी।
सरकार का यह कहना एकदम झूठ है कि यह क़ानून अगजनी, तोड़फोड़, रेल व सड़क यातायात आदि रोकने से होने वाले नुक़सान को रोकने के लिए है। इसका प्रत्यक्ष सबूत यह भी है कि जहाँ इस क़ानून में ‘स्ट्राइक, हड़ताल’ को नुकसान करने वाले कार्रवाई में शामिल किया गया है वहीं नुकसान को परिभाषित करते हुए ‘घाटे’ को भी नुकसान में गिना गया है। यानि अब अगर मज़दूर श्रम क़ानून लागू करवाने के लिए, वेतन वृद्धि या अन्य सुविधाओं के लिए, मालिक, पुलिस-प्रशासन, सरकार की गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़, महँगाई के विरुद्ध या अन्य किसी मुद्दे पर हड़ताल करते हैं तो हड़ताली मज़दूरों और उनके नेता, हड़ताल में साथ देने वाले अन्य लोग, आदि इस क़ानून के मुताबिक़ यकीनन तौर पर दोषी माने जायेंगे। हड़ताल होगी तो ‘घाटा’ तो पड़ेगा ही। इस तरह पंजाब सरकार हड़ताल करने को अप्रत्यक्ष ढंग से क़ैद और जुर्माने योग्य अपराध ऐलान कर चुकी है। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का हड़ताल का रूप मज़दूरों के लिए एक अति महत्त्वपूर्ण हथियार है। देश की उच्च अदालतें पहले ही हड़ताल के अधिकार पर हमला बोल चुकी हैं। 6 अगस्त, 2003 के एक फ़ैसले में भारत की सर्वोच्च अदालत ने सरकारी मुलाजिमों द्वारा हड़ताल को ग़ैरक़ानूनी करार दिया था। पंजाब सरकार इससे भी आगे बढ़कर सरकारी व निजी क्षेत्र में हड़ताल करने वालों, इसके लिए प्रेरित करने वालों, मार्गदर्शन करने वालों आदि के लिए सख्त सज़ाएँ लेकर आयी है। इस काले क़ानून का यह पहलू भी इसकी स्पष्ट गवाही है कि सरकार का मकसद मज़दूरों व अन्य मेहनतकश लोगों के संघर्षों को कुचलना है।
यह क़ानून कितना ख़तरनाक है इसका अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ‘नुकसानदेह कार्रवाई’ के आयोजन में मदद करने के बहाने से टेण्ट वालों, लाऊड स्पीकर वालों, पानी के टैंकर देने वालों, प्रचार सामग्री छापकर देने वालों आदि को भी आसानी से दोषी करार दिया जा सकेगा। अगर एक-दो बार इनमें से किसी को इस क़ानून में घसीटा गया तो संघर्षों के लिए इन चीजों की व्यवस्था करनी बहुत मुश्किल हो जायेगी। इससे रैली, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि जनकार्रवाइयाँ आयोजित करने में बड़ी मुश्किल खड़ी हो जायेगी।
पूँजीवादी सरकारें काले क़ानून शान्ति व्यवस्था क़ायम रखने, सुप्रशासन, आम लोगों के जान-माल की सुरक्षा जैसे बहानों से बनाया करती हैं लेकिन इनका वास्तविक मकसद पूँजीपति वर्ग के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हितों की सुरक्षा व मेहनतकश जनता के हितों को कुचलना होता है। पंजाब सरकार द्वारा पारित इस दमनकारी क़ानून से इस बात का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि देश के हुक़्मरान आने वाले दिनों से कितने भयभीत हैं। जनता के हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। हुक़्मरान सबसे अधिक डरते हैं इस गुस्से को संगठित रूप मिलने से। इसे क्रान्तिकारी दिशा मिलने से। कोई और समझे न समझे लेकिन पूँजीपति हुक़्मरान यह अच्छी तरह जानते हैं कि आज जो हालात बने हैं वे जनवादी और क्रान्तिकारी प्रचार, संगठन, जनान्दोलनों व क्रान्तिकारी बदलाव के लिए कितने उपजाऊ हैं।
आज़ाद भारत की राज्यसत्ता – जो अपने जन्म से ही बेहद सीमित जनवादी चरित्र वाली, ज़ालिम व दमनकारी थी – का चरित्र निरन्तर अधिक से अधिक जनविरोधी होता आया है। देशद्रोह, आपातकाल लगाने जैसे क़ानूनों से लैस भारतीय संविधान अपने जन्म से ही एक दमनकारी संविधान है। इसे निरन्तर काले क़ानूनों से “समृद्ध” किया जाता रहा है। टाडा, पोटा, यू.ए.पी.ए., ए.एफ.एस.पी.ए, छत्तीसगढ़ विशेष सुरक्षा क़ानून तो ऐसे क़ानूनों की सिर्फ़ कुछ मिसालें हैं। विचार व्यक्त करने, विरोध और संघर्ष करने की आज़ादी जैसे जनवादी अधिकारों का दायरा जो पहले ही बहुत संकीर्ण था, और भी संकीर्ण किया जाता रहा है। लोगों को विचार व्यक्त करने पर आतंकवादी कह कर जेलों में ठूँसा जाता रहा है और यह जारी है। भारत में रॉ, आई.बी., एन.आई.ए., सी.बी.आई., डी.आई.ए., जे.सी.आई., एन.टी.आर.ओ. समेत एक दर्जन से अधिक केन्द्रीय खुफिया एजेंसियाँ हैं। हर राज्य में खुफिया विभाग और विशेष पुलिस, आतंकवाद विरोधी दस्ते (ए.टी.एस.) आदि आधुनिक दमनकारी औज़ारों से लैस विशाल ढाँचा है। लेकिन भारत की पूँजीवादी हुक्मरान इसे नाकाफ़ी मान रहे हैं। जनाधिकारों की आवाज़ कुचलने के लिए इस दमनकारी ढाँचे को आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अधिक दमनकारी बनाया जा रहा है। पंजाब सरकार सन् 2010 में जो ‘पंजाब विशेष सुरक्षा क़ानून-2010’ लेकर आयी थी वह ए.एफ.एस.पी.ए. से भी ख़तरनाक था। यह क़ानून उस समय तो व्यापक जनसंघर्ष के दबाव में रद्द कर दिया गया था लेकिन यह भी यकीनन कहा जा सकता है कि यह क़ानून भी नजदीक भविष्य में उसी या किसी अन्य रूप में लाया जायेगा। दमनकारी ढाँचे को और दमनकारी बनाना हुक़्मरानों के लुटेरे हितों की न टालने योग्य ज़रूरत है।
लेकिन हाकिमों को किसी भी सूरत में जनान्दोलनों से पीछा छुड़ाने में दमनकारी काले क़ानूनों से कोई मदद नहीं मिल सकेगी। दमनकारी काले क़ानून, जेल, दमन क्या दुनिया की किसी भी ताक़त से जनता के हक, सच, इंसाफ़ के लिए संघर्ष हमेशा के लिए कुचला नहीं जा सकता। पंजाब की जुझारू जनता दमनकारी हाकिमों के ख़िलाफ़ डटकर लड़ाई लड़ेगी और हाकिमों को थूक कर चाटने के लिए मजबूर करेंगी।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2015
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