चीन के बाद अब भारत के मज़दूरों के लहू को निचोड़ने की तैयारी में फ़ॉक्सकॉन
चीन में मज़दूर आत्महत्याओं के लिए कुख़्यात कम्पनी को भारत में अपने प्रयोग दोहराने की मोदी ने दी खुली छूट
अखिल कुमार
एप्पल, एचपी, डेल्ल और सोनी जैसी जानी-मानी कम्पनियों के लिए आईफ़ोन, आईपैड तथा अन्य महँगे इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान बनाने वाली ताइवानी कम्पनी फ़ॉक्सॉन ने चीन के बाद अब भारत को अपना इलेक्ट्रॉनिक औद्योगिक केन्द्र बनाने का ऐलान किया है। महाराष्ट्र में लगभग 12 फ़ैक्टरियाँ खोलने का करार फ़ॉक्सकॉन पहले ही कर चुकी है। इसी साल अगस्त के महीने में वह और महाराष्ट्र सरकार इस संबंध में समझौता पत्र पर हस्ताक्षर भी कर चुके हैं और महाराष्ट्र सरकार ने प्लांट लगाने के लिए पुणे के पास तालेगाँव में 1500 एकड़ जमीन की पेशकश भी की है। इसके अलावा मोदी के “गुजरात विकास मॉडल” की बदौलत भारत के बड़े पूँजीपतियों की लिस्ट में शामिल हुए अदानी के साथ मिलकर भी फ़ॉक्सकॉन की गुजरात में एक प्लांट शुरू करने की योजना है। साथ ही फ़ॉक्सकॉन की, स्नैपडील और माइक्रोमेक्स जैसी भारतीय कम्पनियों की पार्टनरशिप में भी निवेश करने की योजना है।
ग़ौरतलब है कि फ़ॉक्सकॉन मशहूर कम्पनी एप्पल की सबसे बड़ी सप्लायर है और विश्वभर में होने वाले इलेक्ट्रॉनिक्स सामान के उत्पादन का 40 फ़ीसदी अकेली यही कम्पनी करती है। इसके ज़्यादातर प्लांट चीन में हैं। चीन के 9 शहरों में इसकी 12 फ़ैक्टरियाँ हैं जिन में लगभग 14 लाख मज़दूर काम करते हैं। एप्पल के लिए यह आईपैड और आईफ़ोन जैसे महँगे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट बनाती है जो तमाम देशों के खाये-पिये-अघाये वर्ग के लोगों की जेबों का सिंगार बनते हैं। लेकिन इन खाये-पिये-अघाये वर्ग के लोगों को इस बात का एहसास तक नहीं है कि जिन आईपैडों और आईफ़ोनों को हाथ में ले वे इठलाकर चलते हैं उनको बनाते समय मज़दूरों को कितनी नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। फ़ॉक्सकॉन के प्लांटों में मज़दूरों को दिनभर एक ही जगह बैठकर मोबाइल और लैपटॉप के महीन पुर्जों को असेम्बली लाइन पर 12-12 घण्टे तक बनाने का नीरस काम करना पड़ता है। जब एप्पल या कोई अन्य कम्पनी कोई नया उत्पाद बाज़ार में उतारती है तो इसकी माँग को तेजी से पूरा करने के लिए मज़दूरों से हफ़्तेभर में 120 घण्टे से ऊपर काम कराया जाता है। यही काम 24 घण्टे और सातों दिन चलता है। असेम्बली लाइन की गति बढ़ाने के लिए मज़दूरों पर कैमरों के ज़रिये निगरानी रखी जाती है। और थोड़ा सा धीमा होने पर मज़दूरों को सरेआम ज़लील किया जाता है और उनसे गाली-गलौज तक की जाती है। फ़ैक्टरी में मैनेजर, इंस्ट्रक्टर और गार्ड गुण्डों की तरह व्यवहार करते हैं। 12-14 साल के बच्चों तक से भी नये आईफ़ोन की स्क्रीन को चमकाने जैसे काम करवाये जाते हैं। मज़दूरों को कम्पनी अपने कैम्पस में ही रहने की जगह देती है। इस जेलनुमा जगह पर 12 बाय 12 के कमरों में कई मज़दूरों को ठुँसकर रहना पड़ता है। अपनी इन भयावह स्थितियों के लिए यह कम्पनी पहली बार तब चर्चा में आयी जब वर्ष 2010 में ही इसके 18 मज़दूरों ने आत्महत्या करने की कोशिश की, जिनमें से 14 मज़दूरों की मौत हो गयी। इसके बाद दुनिया भर में फ़ॉक्सकॉन और एप्पल की आलोचना हुई। उस समय अपनी तस्वीर सुधारने के लिए फ़ॉक्सकॉन तथा एप्पल ने मज़दूरों के काम के हालात सुधारने का वायदा किया। लेकिन काम के हालातों में सुधार करने की बजाय, कम्पनी ने ऐसी व्यवस्था करनी शुरू कर दी कि मज़दूर आत्महत्या ही न करें। मज़दूरों के होस्टलों के इर्द-गिर्द स्टील का जाल और खिड़कियों पर स्टील के रोड लगा दिये गये। होस्टलों में धर्मगुरुओं, कौंसलरों और डॉक्टरों की फेरियाँ शुरू कर दी गयीं जिनका काम था कि मज़दूरों को जीवन जीने का पाठ पढ़ायें। मज़दूरों को काम पर रखा जाता है तो पहले उनसे एक क़ाग़ज़ पर हस्ताक्षर करवाया जाता है कि वे आत्महत्या नहीं करेंगे और करेंगे भी तो कम्पनी की इसमें कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी। लेकिन मज़दूरों के काम के हालात वहाँ जस के तस रहे। और मज़दूरों की आत्महत्याएँ भी आज तक जारी हैं। और साथ ही जारी हैं फ़ॉक्सकॉन और एप्पल द्वारा जाँच एजेंसियों से नकली जाँच करवाकर दुनिया के सामने अपनी तस्वीर सुधारने की कोशिशें। आये दिन वहाँ कम्पनी के विभिन्न प्लांटों पर मज़दूरों के संघर्षों की खबरें आती रहती हैं। कई बार तो मज़दूर अपने भयानक हालातों के विरोध में सामूहिक आत्महत्या की धमकी भी दे चुके हैं। फ़ॉक्सकॉन के मज़दूरों के हालातों की भयंकरता को 2014 में आत्महत्या करने वाले प्रतिभाशाली मज़दूर जू लिझी की कविताओं से समझा जा सकता है जिनके हिन्दी अनुवाद को मज़दूर बिगुल के अंक दिसम्बर 2014 में प्रकाशित किया गया था। मज़दूरों के यह हालात जहाँ एक तरफ़ विश्व की प्रतिष्ठित कम्पनियों की मज़दूर-विरोधी कार्य प्रणाली की पोल खोलते हैं वहीं कम्युनिज़्म का लबादा पहने पूँजीवादी चीन का असली चेहरा भी बेपर्द करते हैं।
वैसे भारत के लिए भी फ़ॉक्सकॉन कोई नयी नहीं है। यहाँ पर भी इसका इतिहास मज़दूर हड़तालों से भरा पड़ा है। वर्ष 2006 में पहली बार फ़ॉक्सकॉन ने भारत में उत्पादन शुरू किया था। इसके प्लांट चेन्नई के नज़दीक स्थित थे। यहाँ यह मुख्यतः नोकिया के लिए उत्पादन करती थी। नोकिया द्वारा पहले ऑर्डरों को लगातार कम किये जाने और फिर पूरी तरह खत्म कर दिये जाने के चलते दिसम्बर 2014 में इसने अपने आख़िरी प्लांट पर भी काम बंद कर दिया। भारत में फ़ॉक्सकॉन के मज़दूर वेतन बढ़ोतरी, उनकी अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने, मज़दूरों की स्थितियों को सुधारने जैसे मुद्दों को लेकर लगातार हड़ताल करते रहे थे। मज़दूरों के अनुसार 4-5 साल कम्पनी में काम करने के बाद भी उनका वेतन महज़ 4500-5000 रुपये प्रति माह होता था और कई मज़दूरों से तो 2500-3000 रुपये प्रति माह पर काम करवाया जाता था। मज़दूरों की अपनी यूनियन को भी मान्यता नहीं दी जा रही थी बल्कि उनके ऊपर मैनेजमेंट का पक्ष लेने वाली यूनियन थोपी जा रही थी। इसके अलावा प्लांट में भी स्थितियाँ भयंकर थीं। घुटन-भरे कमरों में टारगेट पूरे करने के दवाब में लगातार काम करना पड़ता था जिसके चलते आये दिन मज़दूर बिमार होते रहते थे। चिकित्सा और कैन्टीन की कोई सुविधा नहीं थी। ऐसी स्थितियों से आक्रोशित हो जब मज़दूर हड़ताल करते थे तो मैनेजमेंट-पुलिस के गठजोड़ द्वारा उनके संघर्ष को बर्बरता से कुचल दिया जाता था।
अब यही नर-पिशाच कम्पनी फिर से भारत आ रही है। लेकिन क्यों? दरअसल, जहाँ पर भी इन कम्पनियों को इनकी मज़दूर-विरोधी कार्य प्रणाली के लिए मज़दूर संघर्षों का सामना करना पड़ता है अपने मुनाफ़ों को बरकरार रखने की एवज में वहाँ से ये कम्पनियाँ ऐसी जगह की ओर प्रस्थान आरंभ कर देती हैं जहाँ मज़दूरों की श्रमशक्ति को बिना उनके विरोध के लूटा जा सके। और भारत को इसके लिए बिल्कुल मुफ़ीद जगह बना दिया गया है।
“मेक इन इण्डिया” के अलम्बरदार फ़ॉक्सकॉन का ढोल-नगाड़ों से स्वागत कर रहे हैं। “मेक इन इण्डिया” के तहत इतना बड़ा निवेश लाने के लिए कॉर्पोरेट मीडिया मोदी का गुणगान कर रहा है। पूँजीपति वर्ग के सच्चे सेवक मोदी ने सच में बहुत मेहनत की है! उन्होंने आर्थिक मंदी की दलदल में धंसे जा रहे विदेशी पूँजीपतियों को यह बताने में बहुत मेहनत की है कि “हे मेरे पूँजीपति मालिको! तुम्हें घबराने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे इस प्रधान सेवक ने भारत की जनता और जमीन दोनों को तुम्हारे स्वागत के लिए बिल्कुल तैयार कर दिया है। अब और अधिक मत तड़पाओ! आओ और जी भरकर लूटो।” पहले से ही क़ागज़ों की ख़ाक छान रहे श्रम क़ानूनों को लगभग ख़त्म कर देना, जल-जंगल-जमीन को कोड़ियों के दाम बेचने की तैयारी, पूँजीपतियों के लिए टैक्स की छूट आदि ये सब मोदी सरकार की “हाडतोड़” मेहनत ही तो है! दरअसल, विदेशी पूँजी को मोदी की यह पुकार सामूहिक तौर पर भारत के पूँजीपति वर्ग की ही पुकार है। फ़ॉक्सकॉन का ही उदाहरण ले लें तो टाटा और अदानी की फ़ॉक्सकॉन के साथ मिलकर आईफ़ोन और आईपैड बनाने की योजना है।
लेकिन इस पूरी योजना से अगर कोई ग़ायब है तो वह मज़दूर वर्ग ही है। मोदी के “श्रमेव जयते” की आड़ में मज़दूरों की हड्डियों तक को सिक्कों में ढालने की तैयारी चल रही है। और इस मज़दूर-विरोधी योजना का जवाब मज़दूर-एकजुटता से ही दिया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2015
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