स्त्रियों के उत्पीड़न और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के पीछे कारण क्या?

बण्टी, कलायत, हरियाणा

हम समाज में आये दिन स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाएँ अखबारों और टी.वी चैनलों पर देखते और पढ़ते हैं। कभी कोई महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है, कभी दहेज के लिए किसी मासूम की बलि चढ़ा दी जाती है। तो कभी लड़कियों के साथ गैंग रेप जैसी वीभत्स घटना घटती है। कभी लड़कियों के पहनावे को लेकर सवाल उठते हैं तो कभी इन घटनाओं को लेकर भारतीय ‘संस्कृति और परम्परा’ का हवाला दिया जाता है जिसके अनुसार स्त्रियों को सिर्फ गृहिणी होना चाहिए।

कुछ अव्वल दर्जे के मूर्ख इन घटनाओं के पीछे पश्चिमी मूल्यों के प्रभाव की बात करते नहीं थकते। लेकिन असल बात यह है कि आज स्त्रियों पर बढ़ रहे अत्याचारों का सबसे बड़ा कारण यह है कि आज हम जिस समाज में जी रहे हैं वह एक पितृसत्तात्मक समाज है, यानी कि पुरुष प्रधान समाज है। यह समाज स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु और बच्चा पैदा करने (यानी कि ‘यशस्वी पुत्र’) का यन्त्र समझता है। हमारे समाज में प्रभावी पुरुषवादी मानसिकता स्त्रियों को चाभी का खिलौना समझती है जिसे जैसे मर्जी इस्तेमाल किया जा सकता है। तभी स्त्रियों के साथ होने वाली घटनाओं के पीछे 50 से 60 फीसदी उनके अपने नज़दीकी रिश्तेदार या पड़ोसी होते है और ऐसी घटनाओं में माँ-बाप को पता होने के बावजूद वे चुप ही रहते हैं क्योंकि ऐसी घटनाओं में बिना सोचे समझे स्त्रियों को ही दोषी ठहरा दिया जाता है। इन घटनाओं के पीछे दूसरा सबसे बड़ा कारण ये पूँजीवादी व्यवस्था है जिसने स्त्रियों को उपभोग की वस्तु बना दिया है पिछले दो दशकों में स्त्री-विरोधी अपराधों में बढ़ोत्तरी के कारण को देखें तो तो साफ हो जायेगा कि 1990 में सरकार की उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों की वजह से पूरे देश में एक नव-धनाढ्य अभिजात वर्ग पैदा हुआ है जो खाओ-पियो-ऐश करो की संस्कृति में ही जीता है। जिसकी मानसिकता है कि वह पैसे के दम पर कुछ भी खरीद सकता है, और दूसरी तरफ उपभोक्तावादी संस्कृति में हर चीज़ की तरह स्‍त्री को भी एक बिकाऊ माल बना दिया है। यहाँ औरतों को सिर्फ एक माल के रूप में पेश किया जाता है। टीवी, अखबारों और इन्टरनेट में जो सड़ाँध भरी संस्कृति और अश्लीलता परोसी जाती है वह भी समाज में स्त्री-विरोधी अपराधों की ज़मीन तैयार करती है।

हालांकि सरकार स्त्री-विरोधी अपराधों को रोकने के लिए सख्त कानून व कुछ दोषियों को सज़ा देने का तामझाम भी करती है लेकिन क्या सिर्फ सख्त कानून बनाने या कुछ दोषियों को सजा देने से ऐसी घटनाओं पर रोक लगायी जा सकती है – नहीं। असल में इसके लिए हमें पोर-पोर में बसी स्त्री-विरोधी मानसिकता पर चोट करनी होगी, इस पितृसत्ता और पूँजीवादी मानवद्रोही बर्बर व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। हमें रोज़मर्रा के जीवन में अपने हक़ों के लिए लड़ना होगा, सड़कों पर उतरकर अपनी अस्मिता और अधिकारों की हिफ़ाज़त करनी होगी। लेकिन बहनो और साथियो, इसके लिए भी हमें अपने संगठन बनाने होंगे। क्योंकि एकजुटता की ताकत ही सबसे बड़ी ताकत होती है। जब तक हम एकजुट न होंगे तब तक हम इस मानवद्रोही व्यवस्था का कुछ नहीं कर सकेंगे। आइये, अपनी एकजुटता और संगठन से इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था का दम निकाल दें। और एक नये समाज का निर्माण करें।

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2015


 

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