अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना सीरिया
मानव
पिछले कुछ हफ़्तों से रूस की ओर से सीरिया में आई.एस.आई.एस के ठिकानों पर किये जा रहे हमलों के बाद से सीरिया साम्राज्यवादी देशों के बीच होड़ का केन्द्र-बिंदु बना हुआ है। साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतिस्पर्धा दुनियाभर में क्षेत्रीय युद्धों को लगातार जन्म दे रही है। आपसी प्रतिस्पर्धा के इस रूप में सामने आने से एक बार फिर युद्धों के बारे में मार्क्सवादी समझ सही साबित हुई है, कि जब तक निजी सम्पत्ति पर आधारित सामाजिक-आर्थिक ढाँचा क़ायम रहेगा, तब तक युद्धों का भौतिक आधार बना रहेगा और पूँजीवादी व्यवस्था में किसी न किसी रूप में युद्ध होते रहेंगे।
यहाँ हम सीरिया में जारी लड़ाई के अतीत में नहीं जा रहे हैं, इसके बारे में मज़दूर बिगुल के पुराने अंकों में लिखा जा चुका है ( फरवरी 2013 )। यहाँ हम केवल इस बात पर चर्चा करेंगे कि किस तरह दुनिया की दो बड़ी साम्राज्यवादी ताकतें सीरिया में बुरी तरह उलझी हुई हैं।
अमेरिका और रूस, दोनों ही सीरिया में हस्तक्षेप करने का कारण आई.एस.आई.एस को निशाना बनाना बता रहे हैं। यहाँ दोनों ही झूठ बोल रहे हैं। असल में दोनों ही अपने साम्राज्यवादी हितों को छुपाने के लिए इस बहाने का सहारा ले रहे हैं। अमेरिका इस पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण करने के इरादे से सीरिया पर अपनी पसंदीदा सरकार बिठाना चाहता है, क्योंकि सीरिया के आस-पास के देश – तुर्की, इज़राइल, सउदी अरब, इराक – अमेरिका के ही साथ हैं। इस तरह अगर वह सीरिया में भी अपनी पसंद की सरकार बिठा लेता है तो इस पूरे क्षेत्र में बचे अपने एकमात्र विरोधी ईरान को भी घेर सकेगा और अपने हित में नीतियाँ लागू करवा सकेगा।
दूसरी ओर रूस के लिए सीरिया, पूरे मध्य-पूर्व में एकमात्र सहयोगी है। इसके ज़रिये वह इस पूरे क्षेत्र में अपनी टाँग अड़ाये रख सकता है। सोवियत संघ में शामिल रहे पूर्वी यूरोप के देशों के बाहर सिर्फ दो ही देशों में रूस के सैनिक अड्डे हैं – एक वियतनाम में है और दूसरा सीरिया में।
दूसरा, अगर सीरिया अमेरिका के नियंत्रण में आ जाता है तो अमेरिका के लिए क़तर से लेकर सीधे पश्चिमी यूरोप तक गैस पाइपलाइन बिछाना आसान हो जायेगा क्योंकि बाकी देश तो उसी के सहयोगी हैं। इससे रूस के आर्थिक हितों को बड़ा नुकसान होगा क्योंकि इस समय पूर्वी यूरोप को गैस का सबसे बड़ा सप्लायर रूस ही है।
तीसरा, आई.एस.आई.एस में शामिल कट्टरपंथियों में काफी संख्या रूस के चेचेन्या इलाके से गये कट्टरपंथियों की भी है। रूस इस बात को लेकर चिंतित है कि आई.एस.आई.एस. की जीत की स्थिति में इनमें से बहुत से लड़ाके हथियारों सहित रूस में लौट सकते हैं या फिर अमेरिका द्वारा रूस में गड़बड़ फैलाने के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हैं।
चौथा, आर्थिक संकट के कारण प्रभावित हो रही रूसी अर्थव्यवस्था के चलते अपनी लोकप्रियता में आ रही गिरावट से लोगों का ध्यान हटाने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन हर कोशिश कर रहा है। सोवियत संघ और विशेष तौर पर स्तालिन के दौर की उपलब्धियों को प्रचारित किया जा रहा है (जिसका फौरी तौर पर बेशक उसको फायदा पहुँच रहा है, लेकिन लम्बे समय में यह रूस के लोगों में सोवियत संघ के इतिहास को दुबारा जानने की दिलचस्पी पैदा करेगा और शासक वर्ग के हितों के खिलाफ ही जायेगा)। इसके साथ ही ‘आतंकवाद के खिलाफ जंग’ का पुराना पत्ता खेलकर लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की जा रही है। इसका फौरी तौर पर पुतिन को फायदा मिलता भी दिख रहा है क्योंकि कई सर्वेक्षणों में सामने आ रहा है कि रूस के तकरीबन 70% लोग रूस के सीरिया में हस्तक्षेप को उचित ठहराते हैं।
इस तरह हम देख सकते हैं कि सीरिया में हस्तक्षेप के अमरीका और रूस दोनों के अपने-अपने कारण हैं। दोनों अपने ही हितों को ध्यान में रखकर चल रहे हैं। इसीलिए सीरिया मसले के इस राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना बेहद ज़रूरी है क्योंकि कई समझदार लोग भी अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध करते-करते अनजाने में ही रूसी साम्राज्यवाद के पक्ष में जा खड़े होते हैं।
अब अमेरिका द्वारा का रूसी हस्तक्षेप का विरोध करना, उसके दोगलेपण को नंगा कर रहा है। अमेरिका के रक्षा सचिव ऐश्टन कार्टर का यह कहना कि रूस, “आग में तेल डाल रहा है” दोगलेपन की इंतिहा है। क्योंकि यह आग तो अमेरिका ने ही लगायी थी, जब उसने 4 साल पहले आज के आई.एस.आई.एस दहशतगर्दों को हरसंभव सहायता देकर खड़ा किया था ताकि सीरिया की असद सरकार के खिलाफ उनका इस्तेमाल कर सके। विकिलीक्स के ताज़ा खुलासों में तो यह भी ज़ाहिर हो चुका है कि अमेरिका ने अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों के लिए असद सरकार को पलटने की योजना की शुरुआत 2006 से ही कर दी थी – 2011 से चल रहे मौजूदा संकट से भी 5 साल पहले! आई.एस को सहायता देने के लिए अमेरिका ने सउदी अरब और तुर्की का भी सहारा लिया था और आज भी ले रहा है। तुर्की ने भी अपने हितों को ध्यान में रखते हुए, अपने विरोधी कुर्दिश विद्रोहियों को कुचलने के लिए, इस मसले का इस्तेमाल किया। फिर जब इन्हीं कट्टरपंथियों ने अमेरिका की ओर से दिये हथियार इराक और सीरिया में अपने हितों के लिए इस्तेमाल करने शुरू कर दिये और इनकी दहशतगर्दी के खौफनाक दृश्य पूरी दुनिया के लोगों तक पहुँचे, तब जाकर पश्चिमी साम्राज्यवादियों को कार्रवाई करनी पड़ी। यह “कार्रवाई” थी – अमेरिका के केंद्रीय ख़ुफ़िया विभाग सी.आई.ए की मदद से एक “सेकुलर” फ़ौज को खड़ा करना, जिसके लिए उसने 500 अरब डॉलर की भारी रकम भी खर्च की। लेकिन इस “सेकुलर” फ़ौज को दी गयी ट्रेनिंग का नतीजा यह हुआ है कि इसमें शामिल सैनिक या तो आई.एस.आई.एस के साथ ही जुड़ गए हैं या फिर अल-नुसरा फ्रंट (जो सीरिया में अल-कायदा का ही फ्रंट है) से मिल गये। अमेरिकी कमांडर जनरल लॉयड आस्टिन ने माना कि 500 अरब डॉलर की यह योजना महज़ “4 या 5 लड़ाकों को ही तैयार कर पायी है” और अब किसी “नयी योजना” की ज़रूरत है।
यह नयी योजना क्या हो, इसको लेकर अमेरिकी शासक वर्ग के अलग-अलग धड़ों में तीखा मतभेद है। 2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की प्रमुख उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के ज़्यादातर नेता सीरिया के ऊपर “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने की तजवीज कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार के ज़्यादा सूझबूझ वाले राजनीतिज्ञ समझते हैं कि ऐसा करना ख़ुद अमेरिका के लिए घातक होगा क्योंकि “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने का मतलब होगा उन रूसी जहाज़ों को भी निशाना बनाना जो इस समय सीरिया में तैनात हैं, यानी रूस के साथ सीधे युद्ध में उलझना। लेकिन इस समय अमेरिका यह नहीं चाहता। फ़िलहाल वह सीरिया के तथाकथित ‘सेकुलर’ बागियों को मदद पहुँचाने तक ही सीमित रहना चाहता है। आर्थिक संकट की वजह से अमेरिका की राजनीतिक ताकत पर भी असर पड़ा है। इसलिए भी वह रूस के साथ सीधी टक्कर फ़िलहाल नहीं चाहता। अमेरिका की गिरती राजनीतिक ताकत का प्रत्यक्ष संकेत सयुंक्त राष्ट्र संघ की महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भाषण था। ओबामा ने अपने पहले भाषण में रूस की ओर से आई.एस.आई.एस के अलावा तथाकथित “सेकुलर” बागियों को भी मारने के लिए उसकी ज़ोरदार निंदा की। पुतिन ने भी जब अपनी बारी में सीरिया मामले पर अमेरिका की नीति की आलोचना की तो ओबामा ने अपने दूसरे भाषण में रुख बदलते हुए रूस के साथ बातचीत के लिए तैयार होने की बात कही। ओबामा ने कहा कि सीरिया के साथ किसी भी समझौते की शर्त राष्ट्रपति बशर अल-असद का अपने पद से हटना है लेकिन वह तब तक राष्ट्रपति बना रह सकता है जब तक कि इस मसले का कोई समाधान नहीं निकल आता। साथ ही ओबामा ने यह भी कहा कि नयी बनने वाली सरकार में मौजूदा बाथ पार्टी के नुमाइंदे भी शामिल हो सकते हैं। सीरिया से किसी भी तरह का समझौता नहीं करने की पोजीशन से लेकर अब उसके नुमाइंदों को नयी सरकार में मौका देने की बात करना साफ़ तौर पर अमेरिका की गिरती साख को दर्शा रहा है। दूसरे, अमेरिका का सहयोगी जर्मनी भी शरणार्थी-संकट से परेशान हो सीरिया में अमेरिकी नीति का विरोध कर रहा है और सीरियाई हुकूमत से बातचीत की नीति की वकालत कर रहा है। दूसरी ओर चीन भी सीरिया मसले में दखल देने के संकेत दे रहा है। इसी वजह से सीरिया में युद्ध जारी रखने के लिए अब पश्चिमी साम्राज्यवादियों में उतना “उत्साह” नहीं है जितना कि 4 साल पहले था। आई.एस.आई.एस के खिलाफ रूसी कार्रवाई से अमेरिका फ़िलहाल सकपका गया है। वह अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की वजह से रूसी दखल का समर्थन भी नहीं कर सकता और दुनिया भर की आम जनता के दबाव तले उसका खुलकर विरोध भी नहीं कर सकता। इसीलिए अब वह केवल इस बात के लिए रूस का विरोध कर रहा है कि रूस आई.एस.आई.एस के अलावा असद सरकार के खिलाफ लड़ रहे ‘’सेकुलर” बागियों को भी मार रहा है। लेकिन यह तथाकथित “धर्म-निरपेक्ष” बागी कौन हैं, इसके बारे में अमेरिका पूरी तरह चुप है। इसीलिए फ़िलहाल अमेरिका सीरिया में सीधे रूस के खिलाफ लड़ने के बजाए इन्हीं विरोधियों को हथियार और पैसे से मदद दे रहा है।
1991 में सोवियत-साम्राज्यवादी संघ के बिखरने के बाद अमेरिका दुनिया की एकमात्र साम्राज्यवादी महाशक्ति के तौर पर उभरा। सोवियत संघ के बिखराव के बाद कमज़ोर हुए रूस का फायदा लेकर इसने पूर्वी यूरोप में अपने प्रभाव का विस्तार किया और साथ ही मध्य-पूर्व में अपने हितों को आगे बढ़ाते हुए इराक के खिलाफ पहला खाड़ी युद्ध शुरू किया। इन घटनाओं को देखकर कई अनुभववादी बुद्धिजीवियों ने दुनिया की एक-ध्रुवीयता के सिद्धांत गढ़ने शुरू कर दिये थे कि अब पूरी दुनिया में अमेरिका का एकछत्र राज हो गया है और अमेरिका की अगुवाई में कायम नाटो धुरी की ताकत को चुनौती देने वाला अब कोई नहीं बचा है।
लेकिन ऐसे सभी सिद्धांतों का जवाब समय ने ही दे दिया। अभी सोवियत संघ के बिखराव को एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था कि रूस अपने प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित अर्थव्यवस्था के आधार पर नये सिरे से उभरा और इक्कीसवीं शताब्दी के आते-आते चीन भी एक नयी आर्थिक और राजनीतिक ताकत के रूप में उभर चुका था। आज हम रूस-चीन की अगुवाई में चल रहे ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन को अमेरिकी अगुवाई वाले नाटो, जी-7 आदि के खिलाफ खड़ा हुआ देख सकते हैं। आर्थिक संकट के चलते सारे भू-राजनीतिक मतभेद भी और तीखे हो जाते हैं। इसीलिए आज हम नये सिरे से अनेक साम्राज्यवादी ताकतों को अपने पर तोलते हुए देख सकते हैं। जैसे जर्मनी नये सिरे से यूरोपीय संघ में अपनी प्रभावी भूमिका के चलते, पूरी दुनिया में अपने हितों के प्रसार के लिए प्रयत्न कर रहा है। उसी तरह जापान भी दूसरे विश्व-युद्ध के बाद से अपनी सैन्य गतिविधियों पर लगायी रोकों को हटा रहा है। फ़िलहाल वह चीन के साथ अपने अंतरविरोधों के चलते अमेरिका के पाले में खड़ा है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि किस तरह आर्थिक संकट के इस दौर में दुनिया के तमाम बड़े साम्राज्यवादी देश इस संकट का समाधान युद्धों के रूप में देख रहे हैं।
फ़िलहाल जो घटनाक्रम बनता जा रहा है और अमेरिका की ओर से भी रूस के साथ बातचीत के संकेत दिये जा रहे हैं, उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि सीरिया मसले पर रूस और अमेरिका किसी समझौते पर पहुँच सकते हैं। लेकिन मौजूदा पूँजीवादी संकट के बाद से तेज़ हुए ये अंतर-साम्राज्यवादी झगड़े और क्षेत्रीय युद्ध दुनिया के एक नये दौर में दाखिले के सूचक हैं जब पूँजीवाद के बुनियादी अंतरविरोध अपने पूरे क्रूर रूप में सामने आ रहे हैं और मानवता को युद्धों में झोंक रहे हैं। इसीलिए अगर इन साम्राज्यवादी ताकतों के दरमियान कोई सहमति बनती भी है तो वह अस्थायी ही होगी और ऐसी हर सहमति भविष्य की असहमति को ही जन्म देगी। इसीलिए जब तक निजी संपत्ति पर आधारित पूँजीवादी ढांचा ही नहीं उखाड़ फेंका जाता, तब तक पूँजीवाद में युद्धों का भौतिक आधार बना रहेगा। चाहे यह युद्ध विश्वव्यापी हों या फिर इलाकाई पैमाने के।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर-नवम्बर 2015
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