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बाज़ का गीत
मक्सिम गोर्की
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सीमाहीन सागर तट-रेखा के निकट अलस भाव से छलछलाता और तट से दूर निश्चल, नींद में डूबा, नीली चाँदनी में सराबोर था। क्षितिज के निकट दक्षिणी आकाश की मुलायम और रुपहली नीलिमा में विलीन होता हुआ वह मीठी नींद सो रहा था – रूई जैसे बादलों के पारदर्शी ताने-बाने को प्रतिबिम्बित करता हुआ जो उसकी ही भाँति आकाश में निश्चल लटके थे – तारों के सुनहरे बेल-बूटों पर अपना आवरण डाले, लेकिन उन्हें छिपाये हुए नहीं। ऐसा लगता था, मानो आकाश सागर पर झुका पड़ रहा हो, मानो वह कान लगाकर यह सुनने को उत्सुक हो कि उसकी बेचैन लहरें, जो अलस भाव से तट को पखार रही थीं, फुसफुसाकर क्या कह रही हैं।
आँधी से झुके पेड़ों से आच्छादित पहाड़, अपनी खुरदरी कगारदार चोटियों से ऊपर के नीले शून्य को छू रहे थे, जहाँ दक्खिनी रात का सुहाना और दुलार-भरा अँधेरा अपने स्पर्श से उनके खुरदरे, कठोर कगारों को मुलायम बना रहा था।
पहाड़ गम्भीर चिन्तन में लीन थे। उनके काले साये उमड़ती हुई हरी लहरों पर अवरोधी आवरणों की भाँति पड़ रहे थे, मानो वे ज्वार को रोकना चाहते हों। पानी की निरन्तर छलछलाहट, झागों की सिसकारियों और उन तमाम आवाज़ों को शान्त करना चाहते हों जो अभी तक पहाड़ की चोटियों के पीछे छिपे चाँद की रुपहली-नीली आभा की भाँति समूचे दृश्यपट को प्लावित करने वाली रहस्यमयी निस्स्तब्धता का उल्लंघन कर रही थीं।
“अल्लाह हो अकबर!” नादिर रहीम ओगली ने धीमे से आह भरते हुए कहाँ वह क्रीमिया का रहने वाला एक वृद्ध गड़ेरिया था – लम्बा कद, सफ़ेद बाल, दक्षिणी धूप में तपा, दुबला-पतला, समझदार बुजुर्ग।
हम रेत पर पड़े थे – साये में लिपटी और काई से ढँकी एक भीमाकार, उदास और खिन्न चट्टान की बग़ल में जो अपने मूल पहाड़ से टूटकर अलग हो गयी थी। उसके समुद्र वाले पहलू पर समुद्री सरकण्डों और जल-पौधों की बन्दनवार थी जो उसे सागर तथा पहाड़ों के बीच रेत की सँकरी पट्टी से जकड़े मालूम होती थी। हमारे अलाव की लपटें पहाड़ों वाले पहलू को आलोकित कर रही थीं और उनकी काँपती हुई लौ की परछाइयाँ उसकी प्राचीन सतह पर, जो गहरी दरारों से क्षत-विक्षत हो गयी थीं, नाच रही थीं।
रहीम और मैं मछलियों का शोरबा पका रहे थे जिन्हें हमने अभी पकड़ा था और हम दोनों ऐसे मूड में थे जिसमें हर चीज़ स्पष्ट, अनुप्राणित और बोधगम्य मालूम होती हैं, जब हृदय बेहद हल्का और निर्मल होता है – और चिन्तन में डूबने के सिवा मन में और कोई इच्छा नहीं होती।
सागर तट पर छपछपा रहा था। लहरों की आवाज़ ऐसी प्यारभरी थी मानो वे हमारे अलाव से अपने आपको गरमाने की याचना कर रही हों। लहरों के एकरस गुंजन में रह-रहकर एक अधिक ऊँचा और अधिक आह्लादपूर्ण स्वर सुनायी दे जाता – यह अधिक साहसी लहरों में से किसी एक का स्वर होता जो हमारे पाँवों के अधिक निकट रेंग आती थी।
रहीम सागर की ओर मुँह किये पड़ा था। उसकी कोहनियाँ रेत में धँसी थीं, उसका सिर उसके हाथों पर टिका था और वह विचारों में डूबा दूर धुँधलके को ताक रहा था। उसकी भेड़ की खाल की टोपी खिसककर उसकी गुद्दी पर आ गयी थी और समुद्र की ताज़ा हवा झुर्रियों की महीन रेखाओं से ढके उसके ऊँचे मस्तक पर पंखा झल रही थी। उसके मुँह से दार्शनिकी उद्गार प्रकट हो रहे थे – इस बात की चिन्ता किये बिना कि मैं उन्हें सुन भी रहा हूँ या नहीं। ऐसा लगता था जैसे वह समुद्र से बातें कर रहा हो।
“ जो आदमी ख़ुदा में अपना ईमान बनाये रखता है, उसे बहिश्त नसीब होती है। और वह, जो ख़ुदा या पैगम्बर को याद नहीं करता? शायद वह वहाँ है, इस झाग में…पानी की सतह पर वे रुपहले धब्बे शायद उसी के हों, कौन जाने!”
विस्तारहीन काला सागर अधिक उजला हो चला था और उसकी सतह पर लापरवाही से जहाँ-तहाँ बिखेर दिये गये चाँदनी के धब्बे दिखायी दे रहे थे। चाँद पहाड़ों की कगारदार झबरीली चोटियों के पीछे से बाहर खिसक आया था और तट पर, उस चट्टान पर, जिसकी बग़ल में हम लेटे हुए थे, और सागर पर, जो उससे मिलने के लिए हल्की उसाँसें भर रहा था, उनीन्दा-सा अपनी आभा बिखेर रहा था।
“रहीम, कोई किस्सा सुनाओ,” मैंने वृद्ध से कहाँ
“किस लिए?” अपने सिर को मेरी ओर मोड़े बिना ही उसने पूछा।
“यों ही! तुम्हारे वि़फ़स्से मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।“
“मैं तुम्हें सब सुना चुका। और याद नहीं…” वह चाहता था कि उसकी ख़ुशामद की जाये और मैंने उसकी ख़ुशामद की।
“अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें एक गीत सुना सकता हूँ,” उसने राजी होते हुए कहा।
मैं ख़ुशी से कोई पुराना गीत सुनना चाहता था और उसने मौलिक धुन को कायम रखते हुए एकरस स्वर में गीत सुनाना शुरू कर दिया।
1
“ऊँचे पहाड़ों पर एक साँप रेंग रहा था, एक सीलनभरे दर्रे में जाकर उसने कुण्डली मारी और समुद्र की ओर देखने लगा।
“ऊँचे आसमान में सूरज चमक रहा था, पहाड़ों की गर्म साँस आसमान में उठ रही थी और नीचे लहरें चट्टानों से टकरा रही थीं…
“दर्रे के बीच से, अँधेरे और धुन्ध में लिपटी एक नदी तेज़ी से बह रही थी – समुद्र से मिलने की उतावली में राह के पत्थरों को उलटती-पलटती…
“झागों का ताज पहने, सप़फ़ेद और शक्तिशाली, वह चट्टानों को काटती, गुस्से में उबलती-उफनती, गरज के साथ समुद्र में छलांग मार रही थी।
“अचानक उसी दर्रे में, जहाँ साँप कुण्डली मारे पड़ा था, एक बाज, जिसके पंख ख़ून से लथपथ थे और जिसके सीने में एक घाव था, आकाश से वहाँ आ गिरा…
“धरती से टकराते ही उसके मुँह से एक चीख़ निकली और वह हताशापूर्ण क्रोध में चट्टान पर छाती पटकने लगा…
“सांप डर गया, तेज़ी से रेंगता हुआ भागा, लेकिन शीघ्र ही समझ गया कि पक्षी पल-दो पल का मेहमान है।
“सो रेंगकर वह घायल पक्षी के पास लौटा और उसने उसके मुँह के पास फुँकार छोड़ी –
“मर रहे हो क्या?”
“हां मर रहा हूँ!” गहरी उसाँस लेते हुए बाज ने जवाब दिया। ‘ख़ूब जीवन बिताया है मैंने!…बहुत सुख देखा है मैंने!…जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं!…आकाश की ऊँचाइयाँ नापी हैं मैंने…तुम उसे कभी इतने निकट से नहीं देख सकोगे!…तुम बेचारे!’
आकाश? वह क्या है? निरा शून्य…मैं वहाँ कैसे रेंग सकता हूँ? मैं यहाँ बहुत मज़े में हूँ…गरमाहट भी है और नमी भी!’
“इस प्रकार साँप ने आज़ाद पंछी को जवाब दिया और मन ही मन बाज की बेतुकी बात पर हँसा।
“और उसने अपने मन में सोचा – ‘चाहे रेंगो, चाहे उड़ो, अन्त सबका एक ही है – सबको इसी धरती पर मरना है, धूल बनना है।’
“मगर निर्भीक बाज़ ने एकाएक पंख फडप़फ़ड़ाये और दर्रे पर नज़र डाली।
“भूरी चट्टानों से पानी रिस रहा था और अँधेरे दर्रे में घुटन और सड़ान्ध थी।
“बाज़ ने अपनी समूची शक्ति बटोरी और तड़प तथा वेदना से चीख़ उठा –
“काश, एक बार फिर आकाश में उड़ सकता!…दुश्मन को भींच लेता…अपने सीने के घावों के साथ…मेरे रक्त की धारा से उसका दम घुट जाता!…ओह, कितना सुख है संघर्ष में!’…
“सांप ने अब सोचा – ‘अगर वह इतनी वेदना से चीख़ रहा है, तो आकाश में रहना वास्तव में ही इतना अच्छा होगा!’
“और उसने आज़ादी के प्रेमी बाज से कहा – ‘रेंगकर चोटी के सिरे पर आ जाओ और लुढ़ककर नीचे गिरो। शायद तुम्हारे पंख अब भी काम दे जायें और तुम अपने अभ्यस्त आकाश में कुछ क्षण और जी लो।’
“बाज़ सिहरा, उसके मुँह से गर्व भरी हुँकार निकली और काई जमी चट्टान पर पंजों के बल फिसलते हुए वह कगार की ओर बढ़ा।
“कगार पर पहुँचकर उसने अपने पंख फैला दिये, गहरी साँस ली और आँखों से एक चमक-सी छोड़ता हुआ शून्य में कूद गया।
“और ख़ुद भी पत्थर-सा बना बाज चट्टानों पर लुढ़कता हुआ तेज़ी से नीचे गिरने लगा, उसके पंख टूट रहे थे, रोयें बिखर रहे थे…
“नदी ने उसे लपक लिया, उसका रक्त धोकर झागों में उसे लपेटा और उसे दूर समुद्र में बहा ले गयी।
“और समुद्र की लहरें, शोक से सिर धुनती, चट्टान की सतह से टकरा रही थीं…पक्षी की लाश समुद्र के व्यापक विस्तारों में ओझल हो गयी थी…
2
“कुण्डली मारे साँप, बहुत देर तक दर्रे में पड़ा हुआ सोचता रहा – पक्षी की मौत के बारे में, आकाश के प्रति उसके प्रेम के बारे में।
“उसने उस विस्तार में आँखें जमा दीं जो निरन्तर सुख के सपने से आँखों को सहलाता है।
“‘क्या देखा उसने – उस मृत बाज़ ने – इस शून्य में, इस अन्तहीन आकाश में? क्यों उसके जैसे आकाश में उड़ान भरने के अपने प्रेम से दूसरों की आत्मा को परेशान करते हैं? क्या पाते हैं वे आकाश में? मैं भी तो, बेशक थोड़ा-सा उड़कर ही, यह जान सकता हूँ।’
“उसने ऐसा सोचा और कर डाला। कसकर कुण्डली मारी, हवा में उछला और सूरज की धूप में एक काली धारी-सी कौंध गयी।
“जो धरती पर रेंगने के लिए जन्मे हैं, वे उड़ नहीं सकते!…इसे भूलकर साँप नीचे चट्टानों पर जा गिरा, लेकिन गिरकर मरा नहीं और हँसा –
“‘सो यही है आकाश में उड़ने का आनन्द! नीचे गिरने में!…हास्यास्पद पक्षी! जिस धरती को वे नहीं जानते, उस पर ऊबकर आकाश में चढ़ते हैं और उसके स्पन्दित विस्तारों में ख़ुशी खोजते हैं। लेकिन वहाँ तो केवल शून्य है। प्रकाश तो बहुत है, लेकिन वहाँ न तो खाने को कुछ है और न शरीर को सहारा देने के लिए ही कोई चीज़। तब फिर इतना गर्व किसलिए? धिक्कार-तिरस्कार क्यों? दुनिया की नज़रों से अपनी पागल आकांक्षाओं को छिपाने के लिए, जीवन के व्यापार में अपनी विफलता पर पर्दा डालने के लिए ही न? हास्यास्पद पक्षी!…तुम्हारे शब्द मुझे फिर कभी धोखा नहीं दे सकते! अब मुझे सारा भेद मालूम है! मैंने आकाश को देख लिया है…उसमें उड़ लिया, मैंने उसको नाप लिया और गिरकर भी देख लिया, हालाँकि मैं गिरकर मरा नहीं, उल्टे अपने में मेरा विश्वास अब और भी दृढ़ हो गया है। बेशक वे अपने भ्रमों में डूबे रहें, वे, जो धरती को प्यार नहीं करते। मैंने सत्य का पता लगा लिया है। पक्षियों की ललकार अब कभी मुझ पर असर नहीं करेगी। मैं धरती से जन्मा हूँ और धरती का ही हूँ।’
“ऐसा कहकर, वह एक पत्थर पर गर्व से कुण्डली मारकर जम गया।
“सागर, चौंधिया देने वाले प्रकाश का पुंज बना चमचमा रहा था और लहरें पूरे ज़ोर-शोर से तट से टकरा रही थीं।
“उनकी सिह जैसी गरज में गर्वीले पक्षी का गीत गूँज रहा था। चट्टानें काँप रही थीं समुद्र के आघातों से और आसमान काँप रहा था दिलेरी के गीत से –
‘साहस के उन्मादियों की हम गौरव-गाथा गाते हैं! गाते हैं उनके यश का गीत!’
‘साहस का उन्माद-यही है जीवन का मूलमन्त्र ओह, दिलेर बाज! दुश्मन से लड़कर तूने रक्त बहाया…लेकिन वह समय आयेगा जब तेरा यह रक्त जीवन के अन्धकार में चिनगारी बनकर चमकेगा और अनेक साहसी हृदयों को आज़ादी तथा प्रकाश के उन्माद से अनुप्राणित करेगा!’
‘बेशक तू मर गया!…लेकिन दिल के दिलेरों और बहादुरों के गीतों में तू सदा जीवित रहेगा, आज़ादी और प्रकाश के लिए संघर्ष की गर्वीली ललकार बनकर गूँजता रहेगा!’
“हम साहस के उन्मादियों का गौरव-गान गाते हैं!”
…सागर के पारदर्शी विस्तार निस्स्तब्ध हैं, तट से छलछलाती लहरें धीमे स्वरों में गुनगुना रही हैं और दूर समुद्र के विस्तार को देखता हुआ मैं भी चुप हूँ। पानी की सतह पर चाँदनी के रुपहले धब्बे अब पहले से कहीं अधिक हो गये हैं…हमारी केतली धीमे से भुनभुना रही है।
एक लहर खिलवाड़ करती आगे बढ़ आयी और मानो चुनौती का शोर मचाती हुई रहीम के सिर को छूने का प्रयत्न करने लगी।
“भाग यहाँ से! क्या सिर पर चढ़ेगी?” हाथ हिलाकर उसे दूर करते हुए रहीम चिल्लाया और वह, मानो उसका कहना मानकर तुरन्त लौट गयी।
लहर को सजीव मानकर रहीम के इस तरह उसे झिड़कने में, मुझे हँसने या चौंक उठने वाली कोई बात नहीं मालूम हुई। हमारे चारों ओर की हर चीज़ असाधारण रूप से सजीव, कोमल और सुहावनी थी। समुद्र शान्त था और उसकी शीतल साँसों में, जिन्हें वह दिन की तपन से अभी तक तप्त पहाड़ों की चोटियों की ओर प्रवाहित कर रहा था, संयत शक्ति निहित प्रतीत होती थी। आकाश की गहरी नीली पृष्ठभूमि पर सुनहरे बेल-बूटों के रूप में तारों ने कुछ ऐसा गम्भीर चित्र अंकित कर दिया था जो आत्मा को मन्त्र-मुग्ध करता था और हृदय को किसी नये आत्मबोध की मधुर आशा से विचलित करता प्रतीत होता था।
हर चीज़ उनीन्दी थी, लेकिन जागरूकता की गहरी चेतना अपने हृदय में सहेजे, मानो अगले ही क्षण वे सभी नींद की अपनी चादर उतारकर अवर्णनीय मधुर स्वर में समवेत गान शुरू कर देंगी। उनका यह समवेत गान जीवन के रहस्यों को प्रकट करेगा, उन्हें मस्तिष्क को समझायेगा, फिर उसे छलावे की अग्नि-शिखा की भाँति ठण्डा कर देगा और आत्मा को गहरे नीले विस्तारों में उड़ा ले जायेगा, जहाँ तारों के कोमल बेल-बूटे भी आत्मबोध का दिव्य गीत गाते होंगे…
(1895)
The Song of the Falcon
Maxim Gorky
The sea is vast – breathing lazily by the shore line, – and, in the distance, it is almost dormant and strangely still in the moonlight glow. There, far away on the horizon, the silvery sea softly fuses with the blue southern sky and is sound asleep, covered in lacy reflections of spindrift clouds whose gossamer fabric is motionless and does not obscure the golden glitter of stars. Over the dark waters, the sky hovers very low as if trying to hear the waves’ unsettled whisper as they slowly roll to shore.
On the shore’s forested mountains, ugly trees are misshapen by the nor’easter, their jagged, stiff tops project into the blue vastness above; yet, below, their gloomy outlines are relaxed and lush in the warmth and languor of the southern night.
The mountains are solemn as if suspended in thought. They throw dark shadows on the spongy, greenish crests of the waves below, enveloping them as if to arrest their singular motion, to muffle their incessant splashing and the sighs of their foam – all the sounds that disturb the mysterious fusion of the air’s calm and the silver-blue shine of the moon still hidden by the mountain tops.
– Al-la-a-Akhba-a-ar!.. – quietly exhales Nadyr-Raghim-Ogly, a gray-haired, old and wise Crimean herder, tall and withered, his skin deeply burnt by the southern sun.
He and I are lying on the sand by a huge stone that broke off from the nearest mountain, still under its shadow and overgrown with moss; – the stone looks glum and severe. The waves knurl over the sea side of it, depositing slime and algae; and the rock so adorned seems tethered by the narrow strip of sand that separates sea from mountains. The other side of the rock, the side that faces the mountain, is lit by our campfire, and each time the flames shiver, murky shadows dazzle the old stone’s surface deeply indented with cracks and scratches.
Raghim and I are cooking fish soup from our fresh catch, and we both are in such a surreal mood when everything seems animate, inspires and opens your soul to deep feelings; the heart is pure, and the lightness of being expels all desires except the desire to think.
And the sea caresses the shore, and the waves splash at it with such tenderness as if begging us to let them warm up by the campfire. At times, in the unified harmony of the waves’ sounds, one can distinguish a higher note, like a playful pitch, – that’s when one of the waves, the boldest of them, creeps up and almost touches us.
Raghim lies with his chest in the sand and his face turned seaward, absorbed in thought and watching the sea; his elbows are planted in the sand and he holds his head in his palms, looking into the hazy distance as if transfixed. A shaggy goat-fur hat nearly slid off his head, and the sea breeze cools his high and deeply wrinkled brow. He seems to be conversing with the sea, and starts philosophizing without caring if I am even listening to him:
– The one who is faithful to God, he goes to paradise. And the one who serves not God nor the Prophet?.. Maybe, he is – in that sea foam. And those silver spots on the water, who knows?… maybe it’s him, too.
The dark expanse of the mighty sea brightens, and sporadically, like scattered glitter, there appear some patches of reflected moonlight. The moon has finally risen up from the disheveled mountain tops, and it now pours its pensive light over the waters which calmly breathe toward it, over the shore, and over the rock by which we lie.
– Raghim!… Tell me a story. – I ask of the old man.
– What for? – answers Raghim without turning to look at me.
– …’cause…! I love your tales.
– I’ve already told you all of them. Don’t know any more. – He is just saying this because he wants me to beg him. So, I beg.
– Want me to tell you a song? – says Raghim, agreeably.
I do want to hear the old song; and, in sonorous cantillation, trying to preserve the peculiar melody, he begins.
***
I
High up the mountain crawled a snake and lay there in a slimy crevice, all curled up tightly and looking seaward.
High in the sky the sun shone brightly, rocks breathing heat, and ocean waves were breaking stones beneath the mountain…
Cutting a canyon into the mountain, grinding the stones, a stream was rushing, all dark and foamy, toward the ocean…
All of a sudden into the crevice where Snake was resting there fell a falcon, blood on her feathers, and deeply wounded…
Her cry was piercing; she fell and tumbled, crushing her breast in helpless anger upon the stones…
First, Snake was frightened, crawled shrewdly backwards, but soon he figured that poor Falcon perhaps had only a few brief minutes of life remaining…
He slithered close to the wounded Falcon, and hissed directly into her ear:
– Hey, are you dying?
– Yes, I am dying! – responded Falcon with a heavy sigh. – I had a good life!.. I knew fulfillment of dreams and hopes!.. I saw the sky… I touched it, soared!.. You’ll never know it so high and close!.. You poor creature!
– What is the sky to me? Nothing and empty… One cannot crawl there. I like it here … so warm and humid!
Snake answered thus the bird of freedom, and deep inside he even chuckled at her delusions. And thought like this: “We fly or crawl, but in the end we know what happens: we all turn to dust, all end up buried in sand or soil…”
But wounded Falcon just shook herself, lifted her head up, and looked around the seeping crevice. Indeed, the stone around there was wet and slimy, the air was stifling and smelled of scavenge.
And Falcon gathered all her strength remaining, and let out a cry of pain and yearning:
– Oh, if I only could rise up flying – one last time only, while I’m still living – in the deep air of lucid heaven!…
Snake heard, and whispered: “Why would she, dying, be so driven to grieve for flying?… This lucid air that bears flyers, indeed, may turn out to be delightful for living creatures. “
He said to Falcon, the dying dreamer: “Come on, move close to the cliff’s edge there, and throw down your wounded body. For … who would know?! … your wings and air might lift you upward, and once again let you enjoy the thrill of flying amidst your element.”
And Falcon shuddered; with a loud cry, she labored to gain the canyon’s bluff, slipping and falling and yet still rising. But then she made it to the utmost edge and spread out her wings; inhaling deeply, she looked around with a flaming glare – and downward fell.
And like a stone she rolled and tumbled, and slipped and scattered, breaking her wings and losing feathers…
The stream below caught her, all beaten, washed off her bleeding, covered with foam and gently carried her into the ocean.
The ocean waves were crushing stones with mournful roaring… The corpse of Falcon was never found in the vast expanses of rocks and water…
II
Laying in his crevice, Snake contemplated the death of Falcon, her love of flying. He lay a long time in the narrow crevice, staring into this puzzling air that teases the eyes of the misguided with silly dreams.
– What did she see there, in total emptiness, without bottom or edge or cover? The likes of her, in death as living, why do they dare confuse one’s soul with their passion for skyward flying? What do they see there? What do they hear? And might not I grasp all its meanings if I could fly there for just one moment?
Snake said – and did it! His body tightened, he fast uncoiled, cutting through the air, like a flash of lightning.
Those born to crawl – will never fly!.. Forgetting that, Snake hit the stones; not hurt, however, he thought, elated:
– So, that’s the beauty of skyward flying! It is – in falling!.. Birds are so foolish! Not knowing earth, depressed when grounded, they feel the calling to rise to heaven and seek life’s pleasures in empty vastness. It is but empty. It is filled with light but void of food and of protection for us the living. Why, then, was Falcon so bold and proud? Just to conceal the sheer madness of her desires and lack of fitness among the living. Birds are so foolish!.. But I am wiser! I shan’t be bullied by their tattles. I know now! I saw their heaven, the sky of flying. I launched into it, its depths I measured; endured falling, but did not shudder, and gained much confidence from this endeavor. Let those wretches who cannot love this solid ground live in delusion. I know the truth. I won’t be fooled. Of earth created – by earth I’m living.
And feeling proud, he coiled tightly, and was quite happy.
***
In sunlit glory the ocean glittered, and waves crushed stones with thunderous roaring. And in that roaring one could just hear the song, or ballad, of the proud Falcon; the rocks were trembling from waves’ hard beating, and heaven echoed words of the ballad:
“We praise the daring of valiant dreamers!
“Creation’s wisdom is in their boldness. Oh, blessed Falcon! You were defeated, and died pursuing your dream of freedom, of flying skyward. And yet … Oh, Falcon! Yours is the future – the blood you spilled, like sparks of fire, will light the darkness of grim existence, igniting hearts of countless many with thirst for living! And in this ballad, the song composed for the strong of spirit, you will be always the shining symbol, the proud caller to light and freedom!
“Praised be the daring of all bold dreamers!”
***
… Quiet is the opalescent remoteness of the sea, the waves roll over sand with rustling melodies, and I am silent, watching the distant horizon. The silver patches of moonlight on the sea surface are abundant now… Our cauldron is boiling slowly.
One of the waves rolls playfully out on the shore, and, with a defiant rattle, crawls straight toward Raghim’s head.
– What the …?? Get off!!! – Raghim brandishes his hand at it, and it obediently rolls back into the sea.
Raghim’s treatment of waves as animate is neither funny nor troubling to me. In fact, everything around us looks mysteriously alive, soft, and tender. The sea is profoundly quiet, so quiet it is, that one feels its immense power – even in the refreshing breeze from the sea to the mountains still feverish from the day’s swelter – one feels the hidden, contained but all-mighty force. The sky, dark-blue and adorned by the golden lace of stars, evokes exultation that is all but enchanting, bewitching the soul, confusing the mind, as a sweet precursor of some awesome revelation.
All around, the world is in a slumber, but a slumber so tense and fragile, and so delicate that it seems any moment to shake it off and break into a melody of sublime and powerful harmony. This tune can tell of the secrets of the universe, bring reason to the mind and then extinguish it just as quickly as one puts out a candle; and entice your soul away, high up into the dark-blue abyss of the skies where the tremulous veil of the stars will welcome it with the exquisite, heavenly music of revelation…
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