फॉक्सकॉन का महाराष्ट्र में पूँजी निवेश: स्वदेशी का राग जपने वाले पाखण्डी राष्ट्रवादियों का असली चेहरा
अमित शिन्दे
मई, 2014 सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ का नारा देकर अपने पूँजीपति आकाओं को खुश करने की दिशा में पहला कदम उठाया। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम पर अंतरराष्ट्रीय पूँजी को और खुले तौर पर देश में निवेश को आकर्षित करने के लिए पूँजीपतियों के इस प्रधान सेवक ने पिछले एक साल में लगातार कई देशों की यात्राएँ की हैं। जिस तरीके के नरेंद्र मोदी लगातार विदेशों की यात्राएँ कर रहे हैं उसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह सरकार विदेशी पूँजी को देश में लाने के लिए पिछली सभी सरकारों ने जो ‘लचीलापन’ दिखाया उसे भी पीछे छोड़ देगी। यह गौर करने वाली बात है कि विपक्ष में रहते समय भाजपा ने रक्षा, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश के विरोध में जमकर नौटंकी की थी। पर ‘अच्छे दिन’ का जुमला उछालकर सत्ता में पहुँची भाजपा ने अपने इस विरोध की नौटंकी को भूलकर रक्षा और बीमा क्षेत्र में विदेशी पूँजी के लिए दरवाजे खोल दिये हैं। और तो और, अब तक निजी पूँजी से अछूती रही भारतीय रेल सेवा भी निजी हाथों में सौंपने के लिए ज़रूरी शुरुआती कदम उठाये जा रहे हैं। संसदीय व्यवस्था के चरित्र और वित्तीय पूँजी के भूमंडलीकरण के आज के दौर को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि सरकार किसी की भी बने, पर कोई भी पूँजीपरस्त सरकार विदेशी पूँजी निवेश को रोक नहीं सकती।
देश के संसाधनो को पूँजीपतियों के हवाले करने और सस्ते दामों पर श्रम का शोषण करने लिए जो जुमला इस बार उछाला गया है उसी का नाम है – मेक इन इंडिया। 25 सितम्बर को ‘मेक इन इंडिया’ की औपचारिक शुरुआत करते हुए मोदी ने कहा था कि वे बड़े आहत होते हैं जब देखते हैं कि पूँजीपतियों को बहुत सारी ‘दिक्कतों’ के चलते देश छोड़ना पड़ता है और पूँजीपति जिन दिक्कतों का सामना करते है उन दिक्कतों को वो कम करना चाहते हैं। गौर करनेवाली बात यह है कि इस कार्यक्रम के शुरू होने से ठीक पहले केंद्र सरकार की वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारामन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर कहा था कि ‘मेक इन इंडिया’ के शुरुआती कदम के तौर पर उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी पूँजी निवेश की मर्यादा को हटाया है, लाइसेंस की प्रक्रिया को सुलभ करते हुए उसे ऑनलाइन बनाया है। इन लाइसेंसों की वैधता का काल बढ़ाकर तीन साल कर दिया गया है और बहुत सारे नियम और प्रक्रियाएँ या तो रद्द कर दी हैं या फिर उन्हें ‘सरल’ बनाया गया है। ये समझने के लिए बहुत बुद्धिमान होने की ज़रूरत नहीं है कि लाइसेंस प्रक्रिया के नियम और प्रक्रियाएँ रद्द करने या फिर उन्हें अधिक ‘सरल’ बनाने का मतलब क्या होता है। इसका मतलब होता है पर्यावरण विषयक क्लियरेंस, जमीनों का बेरोकटोक अधिग्रहण और श्रम कानूनों में पूँजीपरस्त बदलाव!
नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ के आह्वान की प्रतिक्रिया स्वरूप स्पाइस ग्रुप, सैमसंग, हिताची, हुआवेई, पोस्को जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश करने के लिए आगे आयी हैं। इस कड़ी में और बड़ा नाम तब जुड़ गया जब ताइवान स्थित की दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उत्पादक कंपनी ‘फॉक्सकॉन’ के चेयरमैन टेरी गोऊ ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की उपस्थिति में यह ऐलान कर दिया कि फॉक्सकॉन महाराष्ट्र में 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने जा रहा है। साथ में उन्होंने ये भी कहा कि फॉक्सकॉन के महाराष्ट्र में आने से 50,000 नये रोज़गार पैदा होंगे। महाराष्ट्र सरकार ने भी तुरंत ऐलान कर दिया कि वह फॉक्सकॉन के लिए पुणे-मुंबई के बीच में 1500 एकड़ की ज़मीन मुहैया करवायेगी। यह ‘मेक इन इंडिया’ की घोषणा के बाद का सबसे बड़ा विदेशी पूँजी निवेश है। फॉक्सकॉन एप्पल, ब्लैकबेरी, शाओमी जैसे बड़ी मोबाइल कंपनियों के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तैयार करती है। फॉक्सकॉन के दुनियाभर के कारख़ानों में करीब 12 लाख मज़दूर काम करते हैं। इसके चीन के शेनझेन स्थित कारख़ाने में ही 1,20,000 मज़दूर काम करते है। पर हमें निवेश और रोजगार के इन भरमाने वाले आँकड़ों को देखते वक्त ये भूलना नहीं चाहिए कि फॉक्सकॉन की चीन स्थित फैक्टरी में मज़दूरों से किन तरीकों से नारकीय परिस्थितियों में 12-14 घंटे काम निकलवाया जाता है। पहले हम देखेंगे की फॉक्सकॉन के चीन स्थित कारखाने में किस तरह मजदूरों को निचोड़ा जाता है।
काम की नारकीय परिस्थितियाँ
चीन के एक शहर शेनझेन स्थित फॉक्सकॉन के कारख़ाने में करीबन 1,20,000 लोग काम करते हैं। कम्पनी अपने मज़दूरों को अपने ही बनाये गए होस्टलों में रहने के लिए कहती है। होस्टलों के कमरों का आलम यह है कि एक ही कमरे में 6 से लेकर 24 लोगों को ठूँसा जाता है। कँपनी भले ही इस होस्टल सुविधा को मजदूरों के लिए सहूलियत कहे पर असल में यह जेल से कम नहीं है। इन होस्टलों और कारख़ानों में मज़दूरों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए जगह-जगह कैमरे लगाये गये हैं। पिछले कुछ सालों से फॉक्सकॉन द्वारा चीन के शेनझेन स्थित कारख़ाने में मजदूरों से जिन नारकीय परिस्थियों में काम निकलवाया जा रहा है उसकी ख़बरें बार-बार आती रही हैं। और हाल ही के कुछ सालों में यहाँ मजदूरों के खुदकुशी करने की घटनाएँ भी बार-बार होती रही हैं। खुदकुशी करने वालों में ज्यादातर मजदूर 20 से 25 साल के नौजवान है जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फॉक्सकॉन की भारी आलोचना होती रही है। इस आलोचना को सकारात्मक तरीके से न लेकर उल्टा फॉक्सकॉन ने अपने मजदूरों को किसी भी बाहरी तत्व से कारखाने या कम्पनी सम्बंधित किसी भी समस्या को साझा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिये हैं और इसके लिए मजदूरों को धमकाया भी जाता है। जब फेयर लेबर एसोसियेशन नामक संस्था ने फॉक्सकॉन के चीन स्थित 3 कारख़ानों की छानबीन की तब सामने आया कि इन कारख़ानों में मजदूरों की सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर बहुत सारी समस्याएँ हैं और मज़दूरों से किसी भी अतिरिक्त मुआवजे़ के बिना अधिक घंटों तक काम करवाया जाता है। कई मानवाधिकार संगठन जब गुप्त तरीके से फॉक्सकॉन की डोरमेटरीज़ (मजदूरों के रहने की जगह) तक पहुँचे तब उन्होंने पाया कि किस तरीके से फैक्ट्री प्रबंधन मजदूरों की दिनचर्या को नियंत्रित करता है। मजदूरों के काम के घंटे प्रबंधन की और से निश्चित किये जाते हैं, मजदूरों को विशिष्ट चीजों को छोड़ किसी भी चीज को इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं होती। जब भी कोई मजदूर इन नियमों का उल्लंघन करते पाया जाता है तब उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है। जब भी कोई नया उत्पाद बाजार में उतारा जाता है तब मजदूरों से 12-13 घंटे लगातार काम निकाला जाता है। उस समय कई मजदूर फैक्ट्री में ही सोने के लिए मजबूर होते हैं। क्योंकि बहुतेरे मजदूर सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि से आनेवाले नौजवान होते है, कम्पनी इनकी मजबूरी का फायदा उठाती है। यहाँ काम कर रहे ज़्यादातर मज़दूर बाहरी इलाकों से आने वाले नौजवान होते हैं पर इन्हें अपने घर जाने के लिए साल में एक ही बार छुट्टी मिलती है।
फॉक्सकॉन का इतिहास इतना कुख्यात होने के बावजूद महाराष्ट्र सरकार ने उसके लिए लाल कालीन बिछाया है। ये महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि एक तरफ महाराष्ट्र सरकार फॉक्सकॉन को 1500 एकड़ ज़मीन मुहैया करा रही है और दूसरी और फॉक्सकॉन मोदी के चहेते अडानी ग्रुप के साथ मिलकर ज्वाइंट वेंचर शुरू करने की बात कर रही थी। एक और चीज गौर करने लायक है वो है फॉक्सकॉन का एक व्यापारिक अनुबंध जो उन्होंने सुभाष घई की एक कंपनी ‘व्हिसलिंग वुड्स इंटरनेशनल’ से किया है। इस अनुबंध के अनुसार ‘व्हिसलिंग वुड्स इंटरनेशनल’ फॉक्सकॉन को डिजिटल कंटेंट निर्माण में मदद करेगा। ज़ाहिर है कि यह डिजिटल कंटेंट निर्माण के नाम पर विज्ञापनों के ज़रिये फॉक्सकॉन के पक्ष में जनता की आम राय तैयार करने का काम ज़्यादा करेगा। जिस तत्परता से महाराष्ट्र सरकार ने फॉक्सकॉन के लिए ज़मीन मुहैया करवाई है और श्रम ‘सुधार’ लागू करने के लिए प्रतिबद्धता दिखायी है उससे साबित हो गया है कि एक समय स्वदेशी का राग जपने वाले तथाकथित राष्ट्रवादियों की यह सरकार विदेशी पूँजी के लिए किस कदर घुटने टेक चुकी है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2015