मार्क्सवादी पार्टी बनाने के लिए लेनिन की योजना और मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धान्तिक आधार।
(‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास’ के बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक अंश)
मार्क्सवादी पार्टी बनाने के लिए लेनिन की योजना ‘अर्थवादियों’ का अवसरवाद। लेनिन की योजना के लिए ‘इस्क्रा’ का संघर्ष। लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’–मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धान्तिक आधार।
बावजूद इस बात कि रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी की पहली कांग्रेस 1898 में हो चुकी थी और उसने पार्टी बनने का ऐलान कर दिया था, अभी कोई सचमुच की पार्टी नहीं बनी थी। न कोई पार्टी कार्यक्रम था और न पार्टी के नियम थे। पहली कांग्रेस में जो पार्टी की केन्द्रीय समिति चुनी गयी थी, वह गिरफ्तार कर ली गयी थी और किसी ने उसकी जगह नहीं ली थी, क्योंकि जगह लेने वाला कोई था ही नहीं। इससे भी खराब यह था कि पहली कांग्रेस के बाद पार्टी में विचारधारा की उलझन और संगठन की एकता की कमी और भी बढ़ गयी।
1884-94 के साल, नरोदवाद पर विजय के साल थे और सामाजिक-जनवादी पार्टी बनाने के लिए सैद्धान्तिक तैयारी के साल थे। 1894-98 के सालों में कोशिश की गयी, भले ही यह नाकाम कोशिश थी, कि अलग-थलग मार्क्सवादी संगठनों को सामाजिक-जनवादी पार्टी में मिलाकर एक किया जाये। 1898 के बाद ही जो वक़्त आया, वह ऐसा था जिसमें पार्टी के भीतर विचारधारा और संगठन-सम्बन्धी उलझनें और बढ़ गयीं। नरोदवाद पर मार्क्सवादियों ने जो जीत हासिल की और मज़दूर वर्ग ने जो क्रान्तिकारी काम किये, जिनसे साबित हुआ कि मार्क्सवादी सही थे, इनसे मार्क्सवाद के लिए क्रान्तिकारी नौजवानों में हमदर्दी पैदा हुई। मार्क्सवाद एक फ़ैशन हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि झुण्ड के झुण्ड क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी मार्क्सवादी संगठनों में आ पहुँचे। ये सिद्धान्त में कमज़ोर थे और राजनीतिक संगठन में अनुभवहीन थे। इनके दिमाग़ में मार्क्सवाद की एक अस्पष्ट और ज़्यादातर ग़लत धारणा थी, जिसे उन्होंने ‘क़ानूनी मार्क्सवादियों’ की अवसरवादी रचनाओं से पाया था। अख़बारों में इस तरह की रचनाएँ भरी होती थीं। नतीजा यह कि मार्क्सवादी संगठनों का सैद्धान्तिक और राजनीतिक स्तर और नीचा हुआ। इनके अन्दर ‘क़ानूनी मार्क्सवाद’ की अवसरवादी प्रवृत्तियाँ घर कर गयीं। उनमें सैद्धान्तिक उलझन, राजनीतिक ढुलमुलपन और संगठन की अराजकता बढ़ गयी।
मज़दूर आन्दोलन के उठते हुए ज्वार और क्रान्ति के स्पष्टतः नज़दीक आने की यह माँग थी कि मज़दूर वर्ग की एक संयुक्त और सुकेन्द्रित पार्टी हो, जो क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व कर सके। लेकिन स्थानीय पार्टी संगठन, स्थानीय कमेटियाँ, स्थानीय गुट और मण्डल ऐसी बुरी हालत में थे और उनकी संगठन-सम्बन्धी फूट और सैद्धान्तिक झगड़े ऐसे गम्भीर थे कि इस तरह की पार्टी का निर्माण करना बहुत बड़ी कठिनाई का काम था।
कठिनाई इसी में नहीं थी कि जार सरकार के बर्बर दमन का सामना करते हुए पार्टी बनानी थी। जार सरकार जब-तब संगठनों के सबसे अच्छे कार्यकर्ता छीन लेती थी और उन्हें निर्वासन, जेल और कठिन मेहनत की सजाएँ देती थी। कठिनाई इस बात में भी थी कि स्थानीय कमेटियों और उनके सदस्यों की एक बड़ी तादाद अपनी स्थानीय, छोटी-मोटी अमली कार्रवाई छोड़कर और किसी चीज़ से सरोकार नहीं रखती थी। पार्टी के अन्दर संगठन और विचारधारा की एकता नहीं होने से कितना नुक़सान हो रहा है, इसका अनुभव नहीं करती थी। पार्टी के भीतर जो फूट और सैद्धान्तिक उलझन फैली हुई थी, वह उसकी आदी हो गयी थी। वह समझती थी कि बिना एक संयुक्त केन्द्रित पार्टी के भी मज़े में काम चला सकती है।
अगर केन्द्रित पार्टी बनानी थी तो यह पिछड़ापन, आलस और स्थानीय संगठनों का यह संकीर्ण दृष्टिकोण ख़त्म करना था।
लेकिन, बात इतनी ही नहीं थी। पार्टी के अन्दर ऐसे लोगों का एक काफ़ी बड़ा दल था जिनके अपने अख़बार थे – रूस में रबोचाया मिस्ल (श्रमिक विचार) और विदेश में रबोचेयेदेलो (श्रमिक ध्येय)। ये सैद्धान्तिक आधार पर संगठन की एकता के अभाव और पार्टी के अन्दर सैद्धान्तिक उलझन को सही ठहराने की कोशिश करते थे। वे अकसर इस हालत की तारीफ़ भी करते थे। उनका दावा था कि मज़दूर वर्ग की संयुक्त और केन्द्रित राजनीतिक पार्टी बनाने की योजना ग़ैर-ज़रूरी और नक़ली थी।
ये थे ‘अर्थवादी’ और उनके अनुयायी।
सर्वहारा वर्ग की संयुक्त राजनीतिक पार्टी बने, इसके पहले ‘अर्थवादियों’ को हराना ज़रूरी था।
लेनिन ने यह काम और मज़दूर वर्ग की पार्टी के निर्माण का काम उठाया।
मज़दूर वर्ग की संयुक्त पार्टी बनाने का काम कैसे शुरू किया जाये, यह एक ऐसा सवाल था जिस पर अलग-अलग मत थे। कुछ लोगों का विचार था कि पार्टी की दूसरी कांग्रेस बुलाकर पार्टी-निर्माण का काम शुरू किया जाये। यह कांग्रेस स्थानीय संगठनों को एक करेगी और पार्टी बनायेगी। लेनिन इसका विरोध करते थे। उनका कहना था कि कांग्रेस बुलाने से पहले पार्टी के उद्देश्य और ध्येय साफ़ कर देना ज़रूरी है, यह मालूम करना ज़रूरी है कि किस तरह की पार्टी दरकार है, ‘अर्थवादियों’ से सैद्धान्तिक भेद करना ज़रूरी है, ईमानदारी से और साफ़-साफ़ पार्टी से यह कहना ज़रूरी है कि पार्टी के ध्येय और उद्देश्यों के बारे मे दो अलग मत मौजूद हैं – ‘अर्थवादियों’ का मत और क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादियों का मत, अख़बारों में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद के विचारों के पक्ष में व्यापक आन्दोलन करना ज़रूरी है – जैसेकि ‘अर्थवादी’ अपने अख़बारों में अपने विचारों के पक्ष में आन्दोलन चला रहे थे, और इन दो धाराओं में से एक को जानबूझकर चुनने के लिए स्थानीय संगठनों को मौक़ा देना ज़रूरी है। यह शुरू का लाजिमी काम पूरा होने पर ही पार्टी कांग्रेस बुलाई जा सकती थी।
लेनिन ने साफ़-साफ़ कहा:
“इसके पहले कि हम मिलें और इसलिए कि हम मिलें, हमें मतभेद की स्पष्ट और निश्चित रेखाएँ खींच लेनी चाहिए।” (लेनिन, संक्षिप्त ग्रन्थावली, अंग्रेज़ी संस्करण, मास्को, 1947, खण्ड 1, पृ- 162)।
इसी के अनुसार, लेनिन का कहना था कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी बनाने का काम अखिल रूसी पैमाने पर एक लड़ाकू राजनीतिक अख़बार स्थापित करके शुरू करना चाहिए। यह अख़बार क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद के विचारों के पक्ष में प्रचार और आन्दोलन करे। इस तरह के अख़बार की स्थापना पार्टी के निर्माण में पहला क़दम होगी।
अपने प्रसिद्ध लेख “शुरुआत कहाँ हो?” में, लेनिन ने पार्टी के निर्माण के लिए एक ठोस योजना की रूपरेखा पेश की थी। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्या करें?’ में, लेनिन ने आगे चलकर इसी योजना को विस्तृत रूप दिया।
लेनिन ने इस लेख में कहा था:
“हमारी राय में हमारी कार्रवाई की शुरुआत अखिल रूसी पैमाने पर एक राजनीतिक अख़बार की स्थापना से होनी चाहिए। जिस तरह का संगठन हम चाहते हैं (यानी पार्टी का निर्माण – सं.), उसके लिए यह पहला अमली क़दम होगा। यही मुख्य सूत्र होगा जिसके सहारे हम संगठन को अटल रूप से विकसित कर सकेंगे, उसमें गम्भीरता पैदा कर सकेंगे और उसका प्रसार कर सकेंगे।… इसके बिना हम बाकायदा वह व्यापक प्रचार और आन्दोलन नहीं कर सकते, जो हमेशा सैद्धान्तिक रहे और जो आमतौर से सामाजिक- जनवादियों का मुख्य और हर समय का काम है। आजकल जबकि राजनीति में, समाजवाद के सवालों में जनता के भारी हिस्सों में दिलचस्पी पैदा हो गयी है, इस तरह का प्रचार और आन्दोलन ख़ासतौर से ज़रूरी काम है।” (लेनिन, संक्षिप्त ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 4, पृष्ठ 110)।
लेनिन का विचार था कि इस तरह के अख़बार से सैद्धान्तिक रूप में ही पार्टी एक नहीं होगी बल्कि उसके भीतर स्थानीय संस्थाएँ भी संगठन की दृष्टि से एक होंगी। अख़बार के लिए जो एजेण्टों और संवाददाताओं का जाल बिछ जायेगा, उससे एक ऐसा ढाँचा खड़ा होगा जिसके चारों तरफ़ संगठन की दृष्टि से पार्टी का निर्माण हो सकेगा। ये एजेण्ट और संवाददाता स्थानीय संगठनों के प्रतिनिधि होंगे। लेनिन का कहना था, “अख़बार एक सामूहिक प्रचारक और एक सामूहिक आन्दोलनकर्ता ही नहीं है, बल्कि एक सामूहिक संगठनकर्ता भी है।”
लेनिन ने उसी लेख में लिखा था:
“एजेण्टों का यह जाल उस संगठन का ही ढाँचा बन जायेगा जिसकी हमें ज़रूरत है, यानी ऐसा ढाँचा जो इतना बड़ा हो कि सारे देश में फैला हो, इतना व्यापक और चौमुखी हो कि मेहनत का बँटवारा सख़्ती के साथ और विस्तार के साथ हो सके। यह ढाँचा काफ़ी परखा हुआ और तपाया हुआ हो ताकि सभी हालात में, सभी ‘मोड़ों’ पर और हर तरह की आकस्मिक परिस्थिति में अटल होकर अपना काम चलाता रहे। वह इतना लचीला हो कि बहुत ज़्यादा ताक़तवर दुश्मन से खुली लड़ाई लड़ने से बचे जबकि दुश्मन ने अपनी सारी ताक़त एक जगह बटोर ली हो और फिर भी, इस दुश्मन के भोंड़ेपन का फ़ायदा उठा सके और जहाँ भी और जिस समय भी उसे सबसे कम उम्मीद हो, हमला कर सके।” (उपर्युक्त, पृष्ठ 112)।
इस्क्रा ऐसा ही अख़बार बनने वाला था।
और सचमुच, कुल रूसी पैमाने पर इस्क्रा ऐसा ही राजनीतिक अख़बार बना कि जिसने पार्टी को विचारधारा और संगठन में मजबूत करने के लिए रास्ता तैयार किया।
जहाँ तक पार्टी की बनावट और ढाँचे का सम्बन्ध था, लेनिन का विचार था कि उसके दो हिस्से होने चाहिए – (अ) पार्टी के नियमित प्रमुख कार्यकर्ताओं का एक भीतरी व्यूह हो, जिसमें मुख्यकर पेशेवर क्रान्तिकारी हों, यानी पार्टी के ऐसे कार्यकर्ता जो पार्टी के काम के अलावा और सभी कामों से आज़ाद हों और जिनके पास कम से कम आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान, राजनीतिक अनुभव हो, संगठन का अभ्यास और जार की पुलिस का मुकाबला करने तथा उससे बचने की कला हो; (आ) स्थानीय पार्टी-संगठनों का विशद जाल हो और पार्टी के सदस्यों की एक बड़ी तादाद हो, जिनकी तरफ़ लाखों मेहनतकशों की हमदर्दी हो और वे उनका समर्थन करते हों।
लेनिन का कहना था:
“मेरा दावा है कि 1) कोई भी क्रान्तिकारी आन्दोलन नेताओं के ऐसे टिकाऊ संगठन के बिना, जो लगातार कायम रहे, चल नहीं सकता; 2) संघर्ष में आम जनता जितना ही अपने-आप कूदती है… उतना ही इस संगठन की ज़रूरत बढ़ जाती है और संगठन उतना ही मजबूत होना चिाहए।… 3) इस तरह के संगठन में मुख्यतः ऐसे लोग होने चाहिए जो क्रान्तिकारी काम में पेशेवर तरीक़े से लगे हों। 4) स्वेच्छाचारी राज्य में इस तरह के संगठन की सदस्यता को जितना ही हम ऐसे लोगों के लिए सीमित रखेंगे जो पेशेवर तरीक़े से क्रान्तिकारी काम में लगे हों और जिन्हें पेशे के तौर पर राजनीतिक पुलिस का मुकाबला करने की कला में शिक्षा हो, उतना ही इस तरह के संगठन को मिटाना मुश्किल होगा; और 5) उतना ही मज़दूर वर्ग और समाज के दूसरे वर्गों के लोगों की तादाद, जो आन्दोलन में शामिल हो सकेंगे और उसमें सक्रिय भाग ले सकेंगे, बड़ी होगी।” (उपर्युक्त, पृष्ठ 456)
जहाँ तक बनायी जाने वाली पार्टी के स्वरूप का सम्बन्ध था और मज़दूर वर्ग के सम्बन्ध में उसकी भूमिका और उसके उद्देश्य और ध्येय का सवाल था, लेनिन का कहना था कि पार्टी मज़दूर वर्ग की हिरावल हो, वह मज़दूर आन्दोलन को रास्ता दिखाने वाली ताक़त हो जो सर्वहारा के वर्ग-संघर्षों का संचालन करे और उन्हें आपस में मिलाये। पार्टी का अन्तिम ध्येय पूँजीवाद का ख़ात्मा और समाजवाद कायम करना था। उसका फ़ौरी ध्येय जारशाही का ख़ात्मा और जनवादी व्यवस्था कायम करना था। चूँकि जारशाही को पहले ख़त्म किये बिना पूँजीवाद को ख़त्म करना नामुमकिन था, इसलिए उस वक़्त पार्टी का मुख्य काम मज़दूर वर्ग और तमाम जनता को जारशाही के खि़लाफ़ संघर्ष के लिए उभारना था, उसके खि़लाफ़ जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलन को विकसित करना था और समाजवाद के रास्ते में उसे पहली और भारी अड़चन समझकर ख़त्म करना था।
लेनिन ने लिखा था:
“इतिहास ने अब हमारे सामने एक फ़ौरी काम रखा है। किसी भी देश के सर्वहारा के सामने जो फ़ौरी काम हैं, उनमें यह सबसे क्रान्तिकारी है। इस काम के पूरा होने से, यूरोपीय प्रतिक्रियावाद ही नहीं, बल्कि (अब यह कहा जा सकता है कि) एशियाई प्रतिक्रियावाद के सबसे शक्तिशाली गढ़ के विनाश से रूसी सर्वहारा वर्ग अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का हिरावल बन जायेगा।” (उपर्युक्त, पृ- 382)
और भी आगे:
“हमें यह ध्यान में रखना चिाहए कि आंशिक माँगों के लिए हुकूमत से संघर्ष, आंशिक रियायतों की जीत, दुश्मन से छोटी-मोटी मुठभेड़ ही है। यह बाहर की चौकियों पर छोटी टक्करें हैं, जबकि निपटारे की लड़ाई अभी होने को है। हमारे सामने अपनी भरपूर ताक़त से सुसज्जित दुश्मन का किला खड़ा हुआ है। वह हम पर गोला-बारूद बरसा रहा है और हमारे सबसे अच्छे सिपाहियों को भूने डाल रहा है। इस किले पर हमें क़ब्ज़ा करना है। हम उस पर क़ब्ज़ा कर लेंगे, बशर्ते कि हम जागते हुए सर्वहारा की सभी ताक़तों को रूसी क्रान्तिकारियों की ताक़तों के साथ एक ही पार्टी में मिलायें, ऐसी पार्टी जो रूस में जो कुछ जीवित और ईमानदार है, उसे अपनी तरफ़ खींचे। और तभी रूस के मज़दूर क्रान्तिकारी प्योत्र अलेक्सीयेव की महान भविष्यवाणी पूरी होगी: ‘लाखों मेहनतकशों की सशक्त भुजा उठेगी और तानाशाही का किला, जिसकी हिफ़ाज़त सिपाहियों की संगीनें कर रही हैं, चूर-चूर हो जायेगा।”’ (उपर्युक्त, पृष्ठ 59)।
निरंकुश जारशाही के रूस में मज़दूर वर्ग की पार्टी बनाने के लिए, लेनिन की योजना इस तरह की थी।
लेनिन की योजना के खि़लाफ़ जिहाद बोलने में ‘अर्थवादियों’ ने ज़रा भी देर नहीं लगायी।
उनका दावा था कि जारशाही के खि़लाफ़ आम राजनीतिक संघर्ष चलाने में सभी वर्गों को दिलचस्पी है, लेकिन मुख्यतः पूँजीपतियों को है। और इसलिए, मज़दूर वर्ग को उससे गहरी दिलचस्पी नहीं है क्योंकि मज़दूरों का मुख्य हित ज़्यादा तनख़्वाह, काम करने की बेहतर हालत वग़ैरह के लिए अपने मालिकों के खि़लाफ़ आर्थिक लड़ाई लड़ने में है। इसलिए, सामाजिक-जनवादियों का पहला और मुख्य ध्येय जारशाही के खि़लाफ़ राजनीतिक संघर्ष नहीं होना चाहिए, जारशाही का ख़ात्मा नहीं होना चाहिए बल्कि “मालिकों और सरकार के खि़लाफ़ मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष” का संगठन होना चिाहए। सरकार के खि़लाफ़ आर्थिक संघर्ष से उनका मतलब ज़्यादा अच्छे मिल-सम्बन्धी क़ानून बनवाने से था। ‘अर्थवादियों’ का कहना था कि इस तरह से “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देना” मुमकिन होगा।
‘अर्थवादियों’ की अब यह हिम्मत नहीं थी कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी की आवश्यकता का खुलकर विरोध करें। लेकिन वे समझते थे कि उसे मज़दूर आन्दोलन की निर्देशक शक्ति नहीं होना चाहिए, उसे मज़दूर वर्ग के अपने-आप चलने वाले आन्दोलन का संचालन करना तो दूर, उसमें दख़ल भी नहीं देना चाहिए, बल्कि उसे इस आन्दोलन के पीछे चलना चाहिए, उसका अध्ययन करना चाहिए और उससे सबक़ लेना चाहिए।
इसके अलावा, ‘अर्थवादी’ कहते थे कि मज़दूर आन्दोलन के सचेत लोगों की भूमिका, समाजवादी चेतना और समाजवादी सिद्धान्त की संगठन और संचालन-सम्बन्धी भूमिका नगण्य है, या करीब-करीब नगण्य है। उनका कहना था कि सामाजिक-जनवादियों को मज़दूरों के शऊर को समाजवादी चेतना के स्तर तक नहीं उठाना चाहिए, बल्कि उल्टा औसत दर्जे के मज़दूरों, मज़दूर वर्ग के ज़्यादा पिछड़े हुए हिस्सों के स्तर तक उन्हें ख़ुद झुकना चाहिए; उनसे अपनी पटरी बैठानी चाहिए। सामाजिक-जनवादियों को यह नहीं चाहिए कि मज़दूर वर्ग में समाजवादी चेतना पैदा करें, बल्कि तब तक इन्तज़ार करना चाहिए जब तक कि मज़दूर वर्ग का अपने-आप चलने वाला आन्दोलन समाजवादी चेतना के स्तर तक ख़ुद ही नहीं पहुँच जाये।
जहाँ तक पार्टी के संगठन के लिए लेनिन की योजना का सवाल था, ‘अर्थवादी’ उसे अपने-आप चलने वाले आन्दोलन के खि़लाफ़ करीब-करीब हिंसा का ही काम समझते थे।
इस्क्रा के कॉलमों में और ख़ासतौर से अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्या करें?’ में, लेनिन ने ‘अर्थवादियों’ के इस अवसरवादी दर्शन पर कसकर हमला किया और उसे निर्मूल कर दिया।
1- लेनिन ने दिखलाया कि जारशाही के खि़लाफ़ आम राजनीतिक संघर्ष से मज़दूर वर्ग को हटाना और मालिकों और सरकार के खि़लाफ़ आर्थिक संघर्ष तक उसका काम सीमित रखना, जबकि मालिक और सरकार दोनों बरकरार रहने दिये जायें, इसके मानी यह थे कि मज़दूरों को हमेशा के लिए गुलामी करने के लिए छोड़ दिया जाये। मालिकों और सरकार के खि़लाफ़ मज़दूरों की आर्थिक लड़ाई पूँजीपतियों को अपनी श्रम-शक्ति बेचने में ज़्यादा अच्छी शर्तें पाने के लिए एक ट्रेड यूनियन लड़ाई थी। लेकिन मज़दूर पूँजीपतियों को अपनी श्रम-शक्ति बेचने में ज़्यादा अच्छी शर्तों के लिए ही नहीं लड़ना चाहते थे बल्कि उस पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे के लिए भी लड़ना चाहते थे जो उन्हें पूँजीपतियों को अपनी श्रमशक्ति बेचने पर और शोषित होने पर मजबूर करती थी। लेकिन जब तक मज़दूर आन्दोलन के रास्ते को पूँजीवाद के रखवाले कुत्ते जार शासन ने रोक रखा था, तब तक मज़दूर पूँजीवाद के खि़लाफ़ अपना संघर्ष, समाजवाद के लिए अपना संघर्ष पूरी तरह विकसित नहीं कर सकते थे। इसलिए, पार्टी और मज़दूर वर्ग का यह फ़ौरी काम था कि रास्ते से जारशाही को हटाया जाये और इस तरह समाजवाद के लिए रास्ता साफ़ किया जाये।
2- लेनिन ने दिखलाया कि मज़दूर आन्दोलन के अपने-आप चलने की तारीफ़ करना, इस बात से इनकार करना कि पार्टी को प्रमुख भूमिका अदा करनी है, सिर्फ़ घटनाओं का हिसाब रखने तक उसकी भूमिका घटा देना, पिछलगुआपन (ख्वोस्तीवाद) का प्रचार करना था, पार्टी को अपने-आप चलने वाले घटना-क्रम की दुम बना देने का प्रचार करना था, उसे आन्दोलन में एक निष्क्रिय ताक़त बना देना था जो सिर्फ़ अपने-आप होने वाले घटना-क्रम को देखा भर करे और घटनाओं को अपने तरीक़े से होने दे। यह सब प्रचार करने का मतलब था – पार्टी के नाश के लिए काम करना, यानी मज़दूर वर्ग को बिना पार्टी के कर देना, यानी मज़दूर वर्ग को निहत्था छोड़ देना। लेकिन जारशाही जैसे दुश्मन के सामने, जो सिर से पैर तक हथियारों से लैस थी, और पूँजीपतियों जैसे दुश्मन के सामने, जो आधुनिक तरीक़े से संगठित थे और मजूदर वर्ग के खि़लाफ़ अपना संघर्ष चलाने के लिए खुद अपनी पार्टी बनाये हुए थे, मज़दूर वर्ग को निहत्था छोड़ने का मतलब था – उसके साथ ग़द्दारी करना।
3- लेनिन ने दिखलाया कि अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन की पूजा करना और चेतना के महत्त्व को कम और समाजवादी सिद्धान्त के महत्त्व को तुच्छ बताना, सबसे पहले मज़दूरों का अपमान करना था, जो चेतना की तरफ़ वैसे ही झुकते थे जैसे प्रकाश की तरफ़। इसके अलावा, उसे तुच्छ बताने का मतलब था – पार्टी की नज़र में सिद्धान्त की क़ीमत कम करना, यानी उस अस्त्र को ही तुच्छ बताना जिसकी मदद से पार्टी वर्तमान को समझ सकती थी और भविष्य को देख सकती थी। और तीसरे, चेतना को तुच्छ बताने का मतलब था – अवसरवाद के दलदल में पूरी तरह अटल रूप से फँस जाना।
लेनिन ने लिखा था:
“क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं चल सकता।… लड़ाकू हिरावल का काम ऐसी ही पार्टी कर सकती है जो सबसे आगे बढ़े हुए सिद्धान्त से अपना रास्ता पहचानती हो।” (लेनिन, संक्षिप्त ग्रन्थावली, अंग्रेज़ी संस्करण, मास्को, 1947, खण्ड 1, पृ- 163, 164)।
4- लेनिन ने दिखलाया कि ‘अर्थवादी’ यह कहकर कि अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन से समाजवादी विचारधारा पैदा हो सकती है, मज़दूर वर्ग को धोखा दे रहे थे। कारण यह कि समाजवादी विचारधारा अपने-आप चलने वाले आन्दोलन से नहीं पैदा होती, बल्कि विज्ञान से पैदा होती है। मज़दूर वर्ग में समाजवादी चेतना फैलाने की ज़रूरत से इनकार करके ‘अर्थवादी’ पूँजीवादी विचारधारा के लिए रास्ता साफ़ कर रहे थे। वे मज़दूर वर्ग में पूँजीवादी विचारधारा को पहुँचाने और फैलाने का काम आसान बना रहे थे। और इसलिए, वे मज़दूर आन्दोलन से समाजवाद को मिलाने के विचार को दफ़ना रहे थे और इस तरह पूँजीपतियों की मदद कर रहे थे।
लेनिन ने कहा था:
“मज़दूर आन्दोलन के अपने-आप चलने, स्वतःस्फूर्त होने की पूजा करने, ‘सचेत लोगों’ की भूमिका और सामाजिक-जनवाद की पार्टी की भूमिका को कम करने की सभी कोशिशों का मतलब है – मज़दूरों में पूँजीवादी विचारधारा के असर को मज़बूत करना, और यह सवाल बिल्कुल दरकिनार है कि वह ऐसा करना चाहते हैं या नहीं।” (उपर्युक्त, पृ- 173)।
और आगे:
“हमारे सामने एक ही रास्ता है: या तो पूँजीवादी विचारधारा या समाजवादी विचारधारा। बीच का रास्ता नहीं है।… इसलिए समाजवादी विचारधारा को किसी तरह कम करके बताना, उससे ज़रा भी हटना, पूँजीवादी विचारधारा को मज़बूत करना है।” (उपर्युक्त, पृ- 174, 175)।
‘अर्थवादियों’ की इन तमाम भूलों का सार देते हुए, लेनिन इस नतीजे पर पहुँचे थे कि वे लोग पूँजीवाद से मज़दूरों को मुक्त करने के लिए सामाजिक क्रान्ति की पार्टी नहीं चाहते थे, बल्कि ‘सामाजिक सुधार’ की पार्टी चाहते थे। ‘सामाजिक सुधार’ की पार्टी चाहने का मतलब था पूँजीवादी हुकूमत को बने रहने देना। इसलिए, ‘अर्थवादी’ सुधारवादी थे, जो सर्वहारा वर्ग के बुनियादी हितों के साथ ग़द्दारी कर रहे थे।
5- अन्त में, लेनिन ने दिखलाया कि रूस में ‘अर्थवाद’ आकस्मिक घटना नहीं है; ‘अर्थवादी’ मज़दूर वर्ग पर पूँजीवादी असर डालने का साधन हैं। पश्चिमी यूरोप की सामाजिक-जनवादी पार्टियों में भी उनके साथी थे। अवसरवादी बर्न्सटाइन के अनुयायी, ‘संशोधनवादी’ उनके साथी थे। पश्चिमी यूरोप में सामाजिक-जनवादी पार्टियों के अन्दर अवसरवादी प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ रही थी। मार्क्स की “आलोचना करने की आज़ादी” के नाम पर, ये लोग मार्क्सवादी सिद्धान्तों में संशोधन करने की माँग करते थे। (इसलिए ‘संशोधनवादी’ शब्द बना)। ये लोग माँग करते थे कि क्रान्ति त्याग दी जाये, समाजवाद और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को त्याग दिया जाये। लेनिन ने दिखलाया कि रूसी ‘अर्थवादी’ भी क्रान्तिकारी संघर्ष को छोड़ने की, समाजवाद और सर्वहारा अधिनायकत्व त्यागने की वैसी ही नीति पर चल रहे थे।
‘क्या करें?’ नाम की पुस्तक में, लेनिन ने इस तरह के सैद्धान्तिक उसूलों का विवेचन किया था।
इस किताब के व्यापक रूप से पढ़े जाने से नतीजा यह हुआ कि रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी की दूसरी कांग्रेस तक, यानी प्रकाशित होने के सालभर के भीतर ही (मार्च, 1902 में वह प्रकाशित हुई थी), ‘अर्थवाद’ के उसूलों की एक कड़वी यादभर रह गयी। पार्टी के ज़्यादातर सदस्य ‘अर्थवादी’ कहलाना अपमान की बात समझने लगे।
‘अर्थवाद’ की यह करारी सैद्धान्तिक हार थी; यह अवसरवाद, पिछलग्गुआपन और अपने-आप चलने वाले आन्दोलन की पूजा की करारी हार थी।
लेकिन, लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें?’ का महत्त्व यहीं ख़त्म नहीं हो जाता।
इस प्रसिद्ध पुस्तक का महत्त्व इस बात में है कि इसमें लेनिन ने:
1- मार्क्सवादी विचारों के इतिहास में पहली बार, अवसरवाद की सैद्धान्तिक जड़ों को उघारकर रख दिया और यह दिखलाया कि ये जड़ें सबसे अधिक अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन की पूजा करने और मज़दूर आन्दोलन में समाजवादी चेतना कम करने में हैं;
2- अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन में सिद्धान्त के, चेतना के और पार्टी के भारी महत्त्व को दिखाया कि वे क्रान्तिकारी तब्दीली करने वाली और रास्ता दिखाने वाली ताक़त हैं;
3- इस बुनियादी मार्क्सवादी सूत्र को बहुत सुन्दर ढंग से पुष्ट किया कि मार्क्सवादी पार्टी समाजवाद से मज़दूर आन्दोलन का मेल है;
4- मार्क्सवादी पार्टी की सैद्धान्तिक बुनियाद की बहुत सुन्दर व्याख्या की।
‘क्या करें?’ नाम की पुस्तक में सिद्धान्त के जो विचार रखे गये थे, वे आगे चलकर बोल्शेविक पार्टी की विचारधारा की बुनियाद बने।
मज़दूर बिगुल, जून 2015
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन