हथियारों और युद्ध सामग्री के उद्योग पर टिकी अमेरिकी अर्थव्यवस्था
कुलदीप
पिछले कुछ दशकों से अमेरिका की स्थिति विश्व की सबसे बड़ी सैन्य ताक़त और युद्ध सामग्री के उद्योगपति के रूप में अभी भी बरकरार है, हालाँकि 2007 की महामन्दी के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह तबाह हुई है और लगातार पतन की ओर जा रही है। लेकिन अमेरिकी युद्ध सामग्री और हथियारों के उद्योग में अभी भी भारी पैमाने पर उत्पादन जारी है जो कि विश्व के सबसे बड़े हथियार उद्योग के तौर पर स्थापित है और दिनों-दिन पतन की ओर जा रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था की आजकल यही मुख्य टेक बना हुआ है। यह बात पूँजीवाद के घोर मानवता विरोधी पक्ष को उभारती है।
अमेरिका के हथियार और युद्ध सामग्री बनाने के उद्योग का विकास और विश्व की बड़ी सैन्य ताक़त बनने के कारणों की यदि हम पड़ताल करते हैं तो इसके तार दूसरे विश्वयुद्ध से जा जुड़ते हैं, क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध से पहले अमेरिका कोई बड़ी आर्थिक और सैन्य ताक़त नहीं था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ही अमेरिका विश्व की बड़ी आर्थिक और सैन्य ताक़त के रूप में उभरा। दूसरे विश्वयुद्ध में जब इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान आदि विश्व की महा-शक्तियाँ तबाह हो गयीं तो उसके बाद अमेरिका का सूरज चमका। इस विश्वयुद्ध में हथियारों और अन्य युद्ध सामग्री का बड़े स्तर पर प्रयोग हुआ जिसके कारण अमेरिकी हथियार उद्योग के अथाह मुनाफ़ा कमाने का दौर शुरू हुआ क्योंकि युद्ध ने मण्डी में युद्ध सामग्री की भारी माँग पैदा कर दी थी। इतना ही नहीं बल्कि तबाह हुए यूरोप में पुनर्निर्माण के लिए अमेरिकी पूँजीपतियों ने बड़े निवेश किये जिसके द्वारा अमेरिका ने तबाह हुए देशों में से भारी मुनाफ़े कमाये। इस युद्ध ने अस्थिर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गति दी। दूसरा विश्वयुद्ध ही अमेरिकी हथियार उद्योग को ऊपर उठाने वाला पहला स्रोत है। इसके बाद ही 50-60 के दशकों के दौरान कल्याणकारी राज का दौर शुरू होता है जिसको याद करके आज के कुछ “प्रगतिशील” लोग भी पीछे देख-देखकर और दुखी होते रहते हैं। यह कल्याणकारी राज भी सैन्य उद्योग कॉम्प्लैक्स के आधार पर ही खड़ा किया गया था। इसी कारण 1940-49 के दौरान जहाँ अमेरिका की कुल औद्योगिक पैदावार 90 प्रतिशत बढ़ी तो हथियार उद्योग में भी 60 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ। विश्व औद्योगिक पैदावार में से अकेले अमेरिका ने 40वें दशक के दौरान 60 प्रतिशत कमाई की। जब दूसरा विश्वयुद्ध करोड़ों लोगों को निगल रहा था तो अमेरिकी पूँजीपति मानवता के इस महा-विनाश के मंजर पर अपने महल बनाने के सपनों में संलग्न थे। यह बात किसी संवेदनशील मनुष्य को झंझोड़ सकती है लेकिन पूँजीपति देखने में ही मानव जैसा होता है और वास्तव में वह मनुष्य मांस खाने वाला भेड़िया होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी वर्गीय स्थिति उसको इस तरह का बना देती है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डेविड आइजनहावर जब से सेना का जनरल था तब से ही हथियार उद्योग की तरक्की पर ज़ोर देता आ रहा था। 27 अप्रैल, 1946 को उसने (तब वह सेना का जनरल था) युद्ध विभाग के डायरेक्टरों, चीफ़ों, जनरलों आदि को मेमोरण्डम जारी किया था जिसमें फ्सभी वैज्ञानिक और तकनीकी साधनों को सेना की सम्पत्ति बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया था। 1953 ई. में अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही उसने हथियार उद्योग के विकास के लिए यत्न आरम्भ किये, हालाँकि ये यत्न आइजनहावर की निजी इच्छा का नतीजा नहीं कहे जा सकते। कह सकते हैं कि उस समय के अमेरिकी पूँजीवाद के उस ग्रुप के – जिनकी बड़ी पूँजी हथियार उद्योग में लगी हुई थी – राजनैतिक हितों का आइजनहावर प्रतिनिधि बनकर आया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ही अमेरिका ने हथियार, युद्ध और रक्षा उद्योग में बड़े निवेश करने शुरू किये क्योंकि विश्व मण्डी का अहाता अमेरिकी पूँजीपतियों के लिए ख़ाली था, इस कारण अमेरिकी उद्योग ने बहुत तीव्रता से विकास किया। दूसरा तब समाजवाद का डर विश्व साम्राज्यवादियों को डरा रहा था जो दूसरे विश्वयुद्ध से विजेता होकर निकला था और लगातार विकास कर रहा था। सोवियत यूनियन को टक्कर देने के लिए और विश्व स्तर पर उठ रहे समाजवादी खेमे को कुचलने के लिए साम्राज्यवादियों को अत्याधुनिक हथियारों की सख़्त ज़रूरत थी। इसके अलावा दूसरे विश्वयुद्ध में हथियारों की बड़ी खेपें खपी थीं। इन वजहों ने मण्डी में युद्ध सामग्री की अथाह माँग पैदा की लेकिन साथ ही बड़ी वैश्विक शक्तियों के तबाह होने ने अमेरिका को मौक़ा मुहैया करवाया।
1961 ई. में आइजनहावर ने अपने विदाई भाषण में भी “मिलिटरी इण्डस्ट्रियल कम्पलैक्स” बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए सेना और उद्योग की स्थायी एकता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया, अपने राष्ट्रपति काल के दौरान भी उसने अमेरिकी हथियार उद्योग की हरसम्भव मदद की। उसने कहा कि विज्ञानियों को सैन्य समस्याओं के हल खोजने के लिए ज़्यादा आज़ादी होनी चाहिए। उसकी योजना का यह पक्ष था कि सेना देश के उद्योग और तकनीक के बड़े हिस्से को जज़्ब कर सकती है, भाव यह कि इस सैन्य क्षेत्र में वह अमेरिकी पूँजीपतियों को निवेश के लिए न्योता देता है। अमेरिका के एआरपीए (एडवांस रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी), एनएएसए (नेशनल ऐरोनेटिक्स एण्ड स्पेस एजेंसी) आदि संस्थाओं की स्थापना भी उसके कार्यकाल के दौरान ही हुई। तब ही एण्टी बैलिस्टिक मिसाइल और जीपीएस आदि के आधुनिक आविष्कारों पर काम होने लगा। 1952 ई. में अमेरिका के कुल बिजली उद्योग का 56.2 प्रतिशत सैन्य उद्योग में उपभोग हुआ। उसके बाद अमेरिका का सैन्य उद्योग अमेरिकी राजनीति को भी प्रभावित करने लगा और उसके बाद बनने वाले सभी राष्ट्रपतियों ने उनके हितों की चौकीदारी की, जैसे रीगन ने 1980 में अमेरिकी हथियार उद्योग को टैक्सों में भारी छूटें दीं और यह होना स्वाभाविक ही था क्योंकि राजनीति अर्थव्यवस्था की ही घनीभूत अभिव्यक्ति होती है।
आज तकनीक का विकास बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच चुका है। एक दिन में उद्योग में टनों के हिसाब से हथियारों और अन्य युद्ध सामग्री की पैदावार होती है। जिसके कारण अमेरिकी उद्योग ने विश्व में हथियारों के अम्बार लगा दिये हैं। अमेरिका के हथियारों की पैदावार 1950 के दशक से विस्तारित होनी शुरू होकर आज इतनी विस्तृत हो चुकी है कि इसको आज पूरा विश्व भी छोटा लगने लगा है। 2009 में अमेरिका ने हथियारों की कमाई से कुल घरेलू पैदावार का 3 प्रतिशत कमाया था जोकि 2011 में बढ़कर 67 अरब डॉलर हो गया और कुल घरेलू पैदावार में इसका हिस्सा 6 प्रतिशत तक पहुँच गया। लेकिन यह केवल युद्ध सामग्री के निर्यात का संख्या है। लेकिन यदि एनएएसए (नेशनल ऐरोनेटिक्स एण्ड स्पेस एजेंसी), एफएए (फ़ेडरल एविएशन एडमिस्ट्रेशन), डीएआरपीए (डिफ़ेंस एडवांस रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी), डीओडी (डिफ़ेंस डिपार्टमेण्ट), डीटेशन, नेविगेशन, गायडैंस, ऐरोनेटीकल एण्ड न्यूटीकल व्यवस्था, इम्प्रूवमेण्ट ओपरेशन शिपयार्ड, स्माल आर्म्ड, मिलटरी व्हीकल मैनुफ़ेक्चरिंग, वायरलेस आर्डीनेंस मैनुफ़ेक्चरिंग और सभी सैन्य उद्योग की कुल पैदावार और इन उद्योगों से जुड़े अन्य उद्योग जो इनको कच्चा माल मुहैया करवाते हैं, इनसे जुड़ा रियल इस्टेट का कारोबार, यातायात का कारोबार, रसायन विज्ञान आदि को मिला लिया जाये और इन अदारों में काम करते कामगारों की कमाई को जोड़ें तो यह हिस्सा अमेरिका की कुल घरेलू पैदावार का लगभग 50 प्रतिशत से भी अधिक बनता है। इन संस्थाओं में अमेरिका के लगभग 21 लाख कामगार काम करते हैं। 2010 में अमेरिकी ऐरोस्पेस एण्ड डिफ़ेंस कम्पनियों को 370 अरब डॉलर की आमदनी हुई थी। इसके बिना 2011 में विश्व के हथियारों की कुल बिक्री का 44 प्रतिशत अकेले अमेरिका ने कमाया था। इससे हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि पूँजीवाद की मरणासन्नता यहाँ तक पहुँच चुकी है जो मानवीय श्रम को हथियारों जैसे उद्योग में नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है और उत्पादक मानवीय श्रम को बेकार गँवा रहा है जब कि दूसरी ओर ग़रीबी, भुखमरी, कंगाली से करोड़ो लोग बेहाल हैं, उनकी तरफ़ किसी का ध्यान तक नहीं जाता क्योंकि ग़रीबों से पूँजीपतियों को मुनाफ़े की कोई आशा नहीं।
आज विश्व की बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों में बहुसंख्या अमेरिकी कम्पनियों की हैं। विश्व की दस बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों में 7 अमेरिकी हैं जिनमें बोइंग (2013 में जिसकी कुल जायदाद 92 अरब अमेरिकी डॉलर थी), युनाइटेड टेकनोलोजीज (2013 में कुल जायदाद 61.46 अरब अमेरिकी डॉलर), लोकहीड मार्टिन (2013 में कुल जायदाद 36.19 अरब अमेरिकी डॉलर), जनरल डायनामिक्स (2013 में कुल जायदाद 35.45 अरब अमेरिकी डॉलर), नॉरथ्रॉप ग्रूमन (2013 में कुल जायदाद 26.39 अरब अमेरिकी डॉलर), रेथीऔन (2013 में कुल जायदाद 25.86 अरब अमेरिकी डॉलर) और एल. कम्यूनिकेशंस (2013 दौरान कुल जायदाद 15 अरब अमेरिकी डॉलर) आदि प्रमुख कम्पनियाँ हैं। अमेरिकी राजनीति में आज इन औद्योगिक घरानों की तूती बोलती है और विश्व स्तर पर वातावरण, अमन और लोकतन्त्र आदि जुमलों की चीख़-पुकार मचाने वाली अनेकों ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को करोड़ों डॉलर फ़ण्ड भी मुहैया करवाते हैं जिससे साम्राज्ञी जब अपने हथियारों को खपायें तो ऐसी संस्थाएँ लोग के गुस्से को ठण्डा रखें।
हथियारों पर टिके अमेरिकी अर्थव्यवस्था से हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि अमेरिका में पूँजीवाद का परजीवीपन इस हद तक पहुँच गया है जो आखि़री साँस इसी उद्योग के सहारे ले रहा है जो पैदावार करते समय तो आम कामगार लोगों का ख़ून चूसती ही है बल्कि जिसकी पैदावार जब खपती है तो आम कामगार लोगों का ख़ून बहाती भी है। विश्व में युद्ध सामग्री के उद्योग का प्रफुल्लित होना मानवता के लिए आने वाले अँधेरे दिनों का संकेत दे रहा है। क्योंकि पूँजीवादी पैदावार में पैदावार के साथ उसका ख़र्च का होना भी उतना ही लाज़िमी है नहीं तो उद्योग लम्बे समय चल ही नहीं सकता। तो हथियारों के उद्योग के चलते रहने के लिए हथियारों को इस्तेमाल करना भी उतना ज़रूरी है। इसी कारण ही अमेरिका विश्व अमन और लोकतन्त्र का “हरकारा” बना हुआ है, कभी पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान में “अमन” फैलाने के लिए दौड़ता है कभी ईरान, इराक़, लीबिया, मिस्र आदि मध्य-पूर्वी देशों में। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ही जब अमेरिकी हथियार उद्योग में पैदावार बढ़ी तो इसने कोरिया, वियतनाम, इण्डोनेशिया से लेकर ईरान, इराक़, सोमाल्या, यमन, सर्बिया, लीबिया, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान आदि अनेकों देशों पर जबरन लड़ाइयाँ थोप दीं और इन देशों में भारी जानी-माली नुक़सान किया और कर रहा है। लेकिन अब जिस स्तर पर तकनीक पहुँच चुकी है इन छोटी-मोटी जंगों से भी हथियार उद्योग की पैदावार नष्ट नहीं हो सकती। जिस करके यह उद्योग भी धीरे-धीरे संकट के शिकार होने की ओर बढ़ रहा है। दूसरे, किसी समय रूस और चीन अमेरिका के हथियारों और युद्ध सामग्री के बड़े ख़रीदार थे लेकिन अब इन देशों में हथियार उद्योग विकसित हो चुका है और चीन तो हथियारों की पैदावार में बहुत थोड़े समय में ही मज़बूत स्थिति में पहुँच गया है। इस कारण अमेरिका के ग्राहक चुक रहे हैं।
ये बातें मानवता के लिए अँधेरे दिनों की आहट हैं जिसका हल विश्व के कामगार, संवेदनशील लोगों और नौजवानों की एकता के साथ ही सम्भव है, नहीं तो ये ख़ून पीने वाली जोंकें अपने मुनाफ़ों के लिए मानवता पर तीसरा विश्वयुद्ध थोपने से भी गुरेज़ नहीं करेंगी।
मज़दूर बिगुल, जून 2015
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