मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश
किसानों के जनवादी अधिकारों पर तीखा हमला
लखविन्दर
विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट के जनता के दमन द्वारा देसी-विदेशी पूँजीपतियों को ज़मीनें दोनों हाथों से लुटाने के लिए मोदी सरकार अति-उत्साहित है। इसके लिए यह कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली केन्द्र सरकार द्वारा बनाए कानून ‘वाजिब मुआवजे का अधिकार और भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास में पारदर्शिता के बारे में कानून-2013’ में संशोधन करके जनता, खासकर किसानों की भूमि को और भी बड़े स्तर पर और ज्यादा दमनकारी व गैरजनवादी तौर-तरीकों के द्वारा छीनने का बन्दोबस्त कर रही है। इससे सम्बन्धित अध्यादेश ‘वाजिब मुआवजे का अधिकार और भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास में पारदर्शिता के बारे (संशोधन) अध्यादेश-2014’ तो 31दिसम्बर 2014 को ही जारी कर दिया गया था लेकिन इसको संसद में पास करवाना जरूरी था। हम जानते हैं कि सभी संसदीय पार्टियाँ भूमि देसी-विदेशी पूँजीपतियों को देने के लिए कानूनी-गैरकानूनी दमनकारी ढंग-तरीके अपनाने पर आपसी सहमति रखती हैं। लेकिन वोट राजनीति के आपसी अन्तरविरोधों के चलते कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, माकपा-भाकपा और ‘‘वाम’’ मोर्चे की अन्य सांसदीय पार्टियाँ, संसद में और ‘‘सड़क पर’’ मोदी सरकार द्वारा लाए गए नये कानून का ‘‘विरोध’’ कर रही हैं। विभिन्न संसदीय पार्टियाँ और क्रान्तिकारी गुटों/पार्टियों से सम्बन्धित किसान संगठन बड़े-बड़े रोष-प्रदर्शन कर रहे हैं। इस कानून के खि़लाफ़ किसानों में गुस्सा इतना अधिक है कि मोदी सरकार को इससे सम्बन्धित काफी सफ़ाई देनी पड़ रही है और लोक सभा में पेश अध्यादेश में कुछ संशोधन करने पड़े हैं। नौ संशोधनों के साथ लोकसभा में अध्यादेश पास हो चुका था लेकिन राज्य सभा में मोदी सरकार के पास बहुमत नहीं है इसलिए वहाँ यह कानून पारित हो पाना सम्भव नहीं था। 5 अप्रेल को इस अध्यादेश की छः महीने की अवधि खत्म होने से पहले ही सरकार ने राज्य सभा का सत्र उठा दिया। सरकार अब नया अध्यादेश ला सकती है जिसमें नौ संशोधन शामिल हो सकते हैं।
अंग्रेज़ हकूमत ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में बनाया था। तब भी भूमि छीनने के लिए बहाना सार्वजनिक हितों को ही बनाया गया था। इस कानून के मुताबिक भूमि ग्रामीण विकास, ग्रामीण कल्याण, स्कूल, अस्पताल या अन्य सरकारी कार्यों के लिए अधिग्रहित की जा सकती थी। इस कानून के अन्तर्गत किसी निजी कम्पनी के लिए सिर्फ उसमें काम करते मज़दूरों की रिहायश के लिए भूमि अधिग्रहित की जा सकती थी। 1947 के बाद भारतीय हुक्मरानों ने इसमें कई बार संशोधन किए हैं। भारत में ज़ारी पूँजीवादी विकास की ज़रूरतों के मद्देनज़र 1894 का कानून उपयुक्त नहीं रह गया था। भारत के पूँजीपति वर्ग को बड़े स्तर पर भूमि की ज़रूरत थी और इस ज़रूरत की पूर्ति दमन के औज़ारों को तीखा किये बगैर नहीं हो सकती थी। अंग्रेज़ हकूमत और भारतीय हुक्मरानों ने चाहे अनेकों चोर-रास्तों के द्वारा पूँजीपतियों के लिए भूमि अधिग्रहण को बड़े-स्तर पर अंजाम दिया है लेकिन इस कानून में शामिल सार्वजनिक हितों की परिभाषा काफी रुकावट पैदा करती थी। आगे चलकर 1984 में भारतीय हुक्मरानों ने इसमें एक और धारा जोड़ दी कि आपातकालीन परिस्थिति में 15 दिनों की सूचना द्वारा सरकार या निजी कम्पनी के लिए भूमि अधिग्रहण किया जा सकेगा।
लेकिन भारतीय हुक्मरान भूमि अधिग्रहण को और सरल एवं व्यापक बनाना चाहते थे। इसलिए इससे पहले की कांग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के समय ‘वाजिब मुआवजे का अधिकार और भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास में पारदर्शिता के बारे में कानून-2013’ लाया गया। इससे पहले अंगज़ी गुलामी के समय से लागू भूमि अधिग्रहण कानून-1894 खिलाफ़ जनता में काफ़ी गुस्सा था। सन् 2013 के कानून द्वारा भारतीय हुक्मरान एक तो यह दिखाना चाहते थे कि अब अंग्रेजों वाला कानून लागू नहीं होगा। नये कानून पर जनपक्षीय-किसान पक्षीय मुखौटा डाल कर जनता के गुस्से को कम करने की कोशिश की गई। 2013 के कानून में भी ज़मीन छीनने के लिए सार्वजनिक हित को ही बहाना बनाया गया। लेकिन यदि सार्वजनिक हित की परिभाषा को देखा जाये तो सन् 2013 का कानून पहले के कानून से भी दमनकारी था। इस कानून के मुताबिक सरकार सहायक ढाँचे, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के प्रोजेक्टों के लिए सरकार या निजी कम्पनी के लिए भूमि अधिग्रहण कर सकती थी। यानी कि अब किसी निजी कम्पनी को भूमि पर कब्जा करवाने के लिए किसी आपातकालीन परिस्थिति से सम्बन्धित धारा की ज़रूरत अब नहीं रह गई थी।
सन् 2013 के कानून के कुछ पक्षों को जनपक्षधर कहकर प्रचार किया गया। इस कानून के मुताबिक निजी कम्पनी के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए कम से कम 80 प्रतिशत और सार्वजनिक-निजी भागीदारी कम्पनी के लिए 70 प्रतिशत प्रभावित ज़मीन मालिकों की सहमति ज़रूरी थी। सम्बन्धित इलाकों की ग्राम पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम के साथ विचार-विमर्श द्वारा, प्रोजेक्ट के ‘सामाजिक प्रभावों के बारे में जायजा रिपोर्ट’ और इन प्रभावों के प्रबन्धन के बारे रिपोर्ट तैयार करने, इस आधार पर सार्वजनिक सुनवाई करना और माहिरों के एक ग्रुप से राय लेना, सिंचाई के नीचे की और बहुफसली भूमि अधिग्रहिकत करने से पहले भोजन सुरक्षा यकीनी बनाने के लिए उचित कदम उठाने, फिर पुनर्वास सम्बन्धी रिपोर्ट तैयार करना आदि चीजों को इस कानून के मानवीय पक्षों के तौर पर पेश किया गया।
वास्तव में इन ‘‘मानवीय पक्षों’’ का कोई फायदा जनता को नहीं होना था। सन 2013 के कानून की धारा 40 के अन्तर्गत किसी भी प्रोजैक्ट को ‘‘अति-जरूरी’’ कहकर कानून के उपरोक्त ‘‘मानवीय पक्षों’’ को रद्द करने का पुख्ता इंतजाम किया गया था। दूसरा सामाजिक प्रभावों के बारे जायज़ा और प्रबन्धन रिपोर्टों और सार्वजनिक सुनवाई, माहिरों की राय मानना या न मानना अफसरशाही पर निर्भर है। अफसरशाही पूँजीपतियों और उनके राजनीतिक नेताओं की मानती है या जनता की यह हम सभी जानते हैं। बहुसंख्यक ज़मीन मालिकों की सहमति वाला पक्ष भी जनवादी नहीं बल्कि गैर-जनवादी है। यदि कोई एक जमीन मालिक भी अपनी ज़मीन नहीं देना चाहता तो उससे भूमि जबरन नहीं छीनी जानी चाहिए। भूमि बेचना या न बेचना, किस कीमत पर बेचना, यह खरीदने-बेचने वाले की सहमति पर निर्भर होना चाहिए। खरीददार चाहे सरकार हो और चाहे निजी पूँजीपति। सन् 2013 के कानून में यह दर्ज था (जो अब भी बदला नहीं गया) कि ग्रामीण क्षेत्र में अधिग्रहित की जाने वाली ज़मीन के लिए इलाके में उस समय रजिस्ट्री वाली कीमतों की औसत से चार गुणा कीमत दी जायेगी और शहरी क्षेत्र में दो गुणा। इस पक्ष को भी बहुत जनपक्षधर बनाकर पेश किया गया। हम जानते हैं कि रजिस्ट्ररियाँ बाज़ारी की कीमत से काफी कम कीमतों पर होती हैं। इसलिए कानून का यह पक्ष भी जनवादी नहीं कहा जा सकता। मोदी सरकार की तरफ से भी इस चीज को जन हितैषी-किसान हितैषी कहकर प्रचारित किया जा रहा है।
अब मोदी सरकार सन् 2013 के कानून को बदल कर और भी दमनकारी कानून लागू करना चाहती है। मोदी सरकार के लोक सभा में पारित अध्यादेश में पाँच प्रोजेक्टों के लिए ज़मीन मालिकों की पहले सहमति लेने, सामाजिक प्रभावों और उनके प्रबन्धन के बारे में रिपोर्ट तैयार करने, सार्वजनिक सुनवाई और माहिर ग्रुपों से जांच-पड़ताल करवाने, भोजन सुरक्षा यकीनी बनाने की शर्तों को हटा दिया गया है। यह पाँच प्रोजेक्ट हैं – (1) जो प्रोजेक्ट राष्ट्रीय सुरक्षा, भारत या इसके किसी क्षेत्र की रक्षा, रक्षा की तैयारी और रक्षा सम्बन्धी उत्पादन के लिए ज़रूरी हैं। (2) ग्रामीण बुनियादी ढाँचा समेत बिजलीकरण के, (3) मकान (सहनीय कीमतों पर व गरीब जनता के लिए) निर्माण। (4) औद्योगिक गलियारे। इनके लिए रेलवे लाईनों और राज्य मार्गों की दोनों ओर एक-एक किलोमीटर तक भूमि अधिग्रहण की जा सकेगी। (5) बुनियादी ढाँचे से सम्बन्धि प्रोजेक्ट जिसमें सार्वजनिक-निजी भागीदारी के ऐसे प्रोजेक्ट भी शामिल होंगे, जिनकी मालिक केन्द्र सरकार होगी। सार्वजनिक-निजी भागीदारी के अन्तर्गत आने वाले स्कूल, अस्पताल, सड़कें, नहरें आदि सामाजिक विकास के प्रोजेक्ट इसमें शामिल नहीं होंगे। बाकी सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाले प्रोजेक्टों के लिए उपरोक्त छूटें लागू होंगी।
मोदी सरकार की तरफ से उपरोक्त संशोधनों द्वारा सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण को और अधिक दमनकारी और तेज़ तो बनाया ही जा रहा है, साथ ही ‘‘अति-ज़रूरी’’ आपातकालीन परिस्थिति वाली धारा 40 को कायम भी रखा जा रहा है। 2013 के कानून के मुताबिक यदि अधिग्रहित की गई भूमि मिलने पर पाँच सालों के भीतर तय किये गये काम के लिए भूमि प्रयोग में नहीं लाई जाती तो यह पहले मालिकों को दे दी जायेगी या सरकार के ‘‘भूमि बैंक’’ के पास चली जायेगी। यह पाँच साल के समय वाली शर्त अब हटा दी गई है। सरकार की मर्ज़ी होगी कि वह इस बारे कितना समय तय करे। पहले के कानून में यह दर्ज था कि भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी यदि किसी सरकारी विभाग द्वारा गलत जानकारी, झूठे दस्तावेज, दुर्भावना की कोई कार्यवाही सिद्ध होती है तो उस विभाग के मुख्य अधिकारी को दोषी माना जायेगा और उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जायेगा। दोष सिद्ध होने पर छह महीनो की कैद या एक लाख रुपए का जुर्माना या दोनों हो सकते थे। ऐसी चीजें कितनी लागू होती हैं हम सभी जानते हैं लेकिन मोदी सरकार अफसरशाही का और बचाव करना चाहती है। यह संशोधन किया गया है कि विभाग के जिस अफसर या मुलाजिम के पास से गलत जानकारी या दस्तावेज पेश हुआ है उसी पर कार्यवाही की जायेगी। इस तरह बड़े अफसरों को बचाने का पुख्ता इंतजाम कर दिया गया है।
मूल अध्यादेश में संशोधन करके लोक सभा में पारित अध्यादेश में यह जोड़ा गया कि आदिवासियों की भूमि अधिग्रहित करने के लिए पंचायतों की सहमति ज़रूरी होगी। पहली बात तो यह कि सहमति भूमि मालिक की ज़रूरी होनी चाहिए न कि पंचायत की। दूसरी बात यह कि सरपंचों-पंचों को खरीद कर उनकी सहमति लेना कौन सी मुश्किल बात है?
कानून में भूमि मकान मालिकों को मुआवजे, पुनर्वास, सामाजिक प्रभावों के मुताबिक कार्यवाही, सार्वजनिक सुनवाई आदि की चाहे जितनी मर्ज़ी बातें हों लेकिन वास्तव में जनता को भयंकर तबाही का सामना करना पड़ता है। मुआवजे, रिहायश-रोजगार आदि के लिए उनको दर-दर की ठोकरें झेलनी पड़ती हैं। पूँजीवादी सरकारें सिर्फ कहने में ही इसकी गारण्टी दे सकती हैं। हकीकत में सरकारों को जनता की कोई परवाह नहीं होती। ऐसी गारण्टी समाजवाद के दौरान ही हो सकती है जहाँ आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के केन्द्र में मुनाफा नहीं बल्कि मानव होता है। पूँजीवादी सरकारें चाहे भूमि अधिग्रहण ‘‘सार्वजनिक हित’’ का बहाना बनाकर करती हैं लेकिन वास्तव में इसका निशाना किसी न किसी रूप में पूँजीपति वर्ग को फायदा पहुँचाना ही होता है। ऐसे भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं कि ‘‘सार्वजनिक हित’’ के लिए सरकारों ने जो भूमि अधिग्रहण की उसके लिए इस्तेमाल ही नहीं की गई। ऐसे काफी मामले हैं जिनमें सरकारों के द्वारा कौड़ियों के भाव भूमि हासिल करके पूँजीपतियों ने आगे महँगे भाव में बेच डाली। उजाड़े का शिकार हुई जनता को रोज़गार देने के जो वायदे किये गए वह झूठे निकले। वातावरण को नुकसान न पहुँचाने की जो बातें कही गईं वे हवाई निकलीं। सरकारी तंत्र और पूँजीपतियों की साँठगाँठ से जनता के साथ धोखाधड़ी, लूट-मार के ब्यौरे लम्बे लेख की माँग करते हैं। यहाँ हम बस इतना कहना चाहेंगे कि जनता के हित के जिन दावों-वायदों के नाम पर जनता की ज़मीनें छीनीं जाती हैं, जनता की रिहायश और रोज़गार की बर्बादी की जाती है, वे झूठ से सिवा और कुछ नहीं होते। पूँजीवादी व्यवस्था में ज़मीन अधिग्रहण कानूनों का मक़सद पूँजीपतियों के लिए बड़े स्तर पर, कम समय में और सस्ती कीमत पर जनता से ज़मीन छीन कर देना होता है। यही कुछ मोदी सरकार भी कर रही है, लेकिन पहली सरकारों से कहीं बड़े स्तर पर और उससे कहीं ज्यादा दमनकारी रूप में।
मोदी को पूँजीपति वर्ग ने पूरा जोर लगा कर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक इसीलिए पहुँचाया है कि इसको मोदी से उम्मीद थी कि आर्थिक मन्दी के इस दौर में वह उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को इससे पहले की सरकारों से कहीं अधिक तेज़ी और सख्ती के साथ आगे बढ़ायेगा। मोदी ने यह काम पहले गुजरात में कर दिखाया और अब प्रधानमंत्री बनकर पूरे देश में कर रहा है। मोदी का सब से बड़ा निशाना मज़दूर वर्ग के श्रम की लूट को बढ़ाने का प्रबन्ध करना है। इसके लिए वह श्रम कानूनों और कम्पनी कानूनों में भारी बदलाव कर रहा है। सरकारी संस्थानों का बड़े स्तर पर निजीकरण कर रहा है। दूसरा उसका निशाना इस देश के किसान हैं जिन में बड़ी संख्या गरीब और मँझोले किसानों की है। मोदी से देसी-विदेशी पूँजीपतियों को बड़ी आशा है कि वह उनके लिए सस्ते से सस्ते, कम से कम समय में बड़े स्तर पर भूमि जनता से छीन कर उनको दिलाएगा। मोदी उनकी उम्मीदों पर पूरा उतरने की ही कोशिशों में लगा है। ‘वाजिब मुआवजे का अधिकार और भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास में पारदर्शिता के बारे में (संशोधन) अध्यादेश-2014’ मोदी की ऐसी ही एक कोशिश है।
जहाँ शोषण व दमन है वहाँ प्रतिरोध भी होता है। बड़े से बड़ा दमनकारी भी इस हकीकत को नहीं बदल सकता। काले कानून, जेलें, बम, गोलियों की बौछार भी जनप्रतिरोध को खत्म नहीं कर सकती। मोदी सरकार द्वारा जनता-किसानों की जमीनें छीनने की नीति भी बेरोकटोक आगे नहीं बढ़ेगी और न ही बढ़नी चाहिए। जनता को मोदी सरकार के इस गैरजनवादी-फासीवादी हमले के खिलाफ डटकर लड़ाई लड़नी होगी।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2015
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