भारत में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली गर्भवती माँएँ कुपोषित
अपने बच्चों और माँओं के साथ ऐसे बेरहम समाज को जल्द से जल्द बदल डालो!
गीतिका
विकास के लम्बे-चौड़े दावों और ‘बेटी बचाओ’ जैसे सरकारी नुमायशी अभियानों के बावजूद एक नंगी सच्चाई यह है कि भारत में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली गर्भवती माँएँ कुपोषित होती हैं। यहाँ तक कि उनकी स्थिति कांगो, सोमालिया और जिम्बाब्वे जैसे ग़रीब अफ्रीकी देशों के बच्चों और गर्भवती स्त्रियों से भी बदतर है। आमिर खान जैसे अभिनेताओं के मुँह से कुपोषण दूर करने का उपदेश सुनाने पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर सकती है लेकिन कुपोषण और भुखमरी के बुनियादी कारणों को दूर करने के लिए वह कुछ नहीं कर सकती।
हाल ही में प्रिंस्टन युनिवर्सिटी की ओर से दुनियाभर में किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक अफ्रीकी देशों में औसतन 16.5 प्रतिशत माँएँ कुपोषित हैं जबकि भारत में 42 प्रतिशत माँएँ कुपोषण का शिकार हैं। 90 प्रतिशत किशोरियाँ खून की कमी या एनीमिया से पीड़ित होती हैं।
इससे पहले आये भारत सरकार के आँकड़ों के अनुसार, देश की 75 फ़ीसदी माँओं को पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन नहीं मिलता। विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ, यू.एन.एफ़.पी.ए. और विश्व बैंक द्वारा तैयार की गयी ‘मैटर्नल मॉर्टेलिटी रिपोर्ट’ (2007) के अनुसार, पूरी दुनिया में गर्भावस्था या प्रसव के दौरान हर साल 5.36 लाख स्त्रियाँ मर जाती हैं। इनमें से 1.17 लाख मौतें सिर्फ़ भारत में होती हैं। भारत में प्रसव के दौरान 1 लाख में से 450 स्त्रियों की मौत हो जाती है। गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मृत्यु के 47 फ़ीसदी मामलों में कारण ख़ून की कमी और अत्यधिक रक्तास्राव होता है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत सहित सभी विकासशील देशों में गर्भवती और जच्चगी के तुरन्त बाद होने वाली स्त्रियों की मौतों के मामले में 99 फ़ीसदी मौतें ग़रीबी, भूख और बीमारी के चलते होती हैं। भारत के स्वास्थ्य मन्त्रालय द्वारा 2007 में जारी रिपोर्ट ‘एन.एफ़.एच.एस.-।।।’ के अनुसार, ग़रीबी के कारण समुचित डॉक्टरी देखभाल का अभाव भारत में माँओं की ऊँची मृत्युदर का मुख्य कारण है। 2007 से पहले के आठ वर्षों के दौरान बच्चों को जन्म देने वाली 25 प्रतिशत स्त्रियों को प्रसव के पूर्व या उसके बाद डॉक्टरी देखभाल की कोई सुविधा नसीब नहीं हुई। उक्त रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभी भी 60 प्रतिशत प्रसव घर में ही कराये जाते हैं, 37 प्रतिशत मामलों में परम्परागत दाइयाँ और 16 प्रतिशत मामलों में रिश्तेदार या अप्रशिक्षित लोग प्रसव के समय माँ की सहायता व देखभाल करते हैं।
भारतीय समाज में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता के कारण स्त्रियों के साथ और भी अधिक भेदभाव होता है। गर्भवती स्त्रियों को भी आराम करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता। गर्भ के समय भी काम करना पड़ता है जबकि पर्याप्त भोजन भी उन्हें नहीं मिलता। सरकारी नौकरियों और बड़ी कम्पनियों में अच्छे पदों पर काम करने वाली महिलाओं को तो जच्चगी के पहले और बाद में लम्बी छुट्टी मिल जाती है, लेकिन आम मेहनतकश स्त्रियों को तो प्रसव के ठीक पहले तक कारख़ानों, खेतों और घरों में काम करते रहना पड़ता है। कारख़ानों में गर्भवती स्त्रियों को बीच में आराम करने तक की छुट्टी नहीं मिलती। ग़रीबों के रिहायशी इलाकों और काम की जगहों में फैली गन्दगी और नाजानकारी के कारण गर्भवती स्त्रियाँ कई तरह के संक्रमण की चपेट में आ जाती हैं। इसकी वजह से अजन्मे बच्चे भी गर्भ से ही कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।
यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर चीन के मुक़ाबले तीन गुना, श्रीलंका के मुक़ाबले लगभग 6 गुना और यहाँ तक कि बांग्लादेश और नेपाल से भी ज़्यादा है। भारतीय बच्चों में से तक़रीबन आधों का वज़न ज़रूरत से कम है और वे कुपोषण से ग्रस्त हैं। तक़रीब 60 फ़ीसदी बच्चे ख़ून की कमी से ग्रस्त हैं और 74 फ़ीसदी नवजातों में ख़ून की कमी होती है। प्रतिदिन लगभग 9 हज़ार भारतीय बच्चे भूख, कुपोषण और कुपोषणजनित बीमारियों से मरते हैं। 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के 50 फ़ीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। 5 वर्ष से कम आयु के 5 करोड़ भारतीय बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 63 फ़ीसदी भारतीय बच्चे प्रायः भूखे सोते हैं और 60 फ़ीसदी कुपोषणग्रस्त होते हैं। 23 फ़ीसदी बच्चे जन्म से कमज़ोर और बीमार होते हैं। एक हज़ार नवजात शिशुओं में से 60 एक वर्ष के भीतर मर जाते हैं।
जो समाज अपने बच्चों और माँओं के प्रति इतना बेरहम हो सकता है वह कैसा समाज होगा, क्या इसके बारे में भी कुछ कहने की ज़रूरत है? क्या ऐसे समाज को जल्द से जल्द बदल नहीं देना चाहिए?
मज़दूर बिगुल, मार्च 2015
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